Category Archives: भ्रष्‍टाचार

राष्ट्रमण्डल खेल – ”उभरती शक्ति“ के प्रदर्शन का सच

पूँजी की लूट और गति, जिसने उत्पादन के विभिन्न क्षेत्रों एवं स्थान की तलाश में पूरे विश्व में निर्बाध रूप से तूफान मचा रखा है, से खेल भी अछूता नहीं है। खेल आयोजन एवं समूचा खेल तन्त्र आज एक विशाल पूँजीवादी उद्योग बन गया है जहाँ सब कुछ मुनाफे को केन्द्र में रखकर विभिन्न राष्ट्रपारीय निगमों, कम्पनियों एवं इनके सर्वोच्च निकाय पूँजीवादी राज्यव्यवस्था द्वारा संचालित किया जाता है।

पूँजीपतियों के लिए सुशासन जनता के लिए भ्रष्ट प्रशासन

तमाम चुनावी मदारी जनता को बरगलाने के लिए नये-नये नुस्ख़े ईजाद करते रहते हैं। बिहार में भाजपा व जद (यू) के गठबन्धन वाली सरकार के मुख्यमन्त्री नितीश कुमार इस खेल के काफी मँझे हुए खिलाड़ी हैं। अपने इस कार्यकाल की शुरुआत में उन्होंने ‘‘जनता को रिपोर्ट कार्ड’‘ देने की परम्परा शुरू की थी, जिसे अब केन्द्र सरकार भी निभा रही है। रिपोर्ट कार्ड नामक मायावी जाल इसलिए बुना जाता है, ताकि इसके लच्छेदार शब्दों व भ्रामक आँकड़ों को सुनने के बाद जनता अपनी वास्तविक समस्याओं को भूलकर विकास के झूठे नारे पर अन्धी होकर नाचती रहे।

निजी पूँजी का ताण्डव नृत्य जारी, लुटती जनता और प्राकृतिक संसाधन!

पिछले दो दशकों के दौरान भारतीय पूँजीवाद का सबसे मानवद्रोही चेहरा उभरकर हमारे सामने आया है। उत्पादन के हर क्षेत्र में लागू की जा रही उदारीकरण-निजीकरण की नीतियाँ, एक तरफ मुनाफे और लूट की मार्जिन में अप्रत्याशित वृद्धि दरें हासिल करा रही हैं, वहीं दूसरी ओर आम जनजीवन से लेकर पर्यावरण के ऊपर सबसे भयंकर कहर बरपा करने का काम भी कर रही हैं। भारतीय खनन उद्योग इन नीतियों की सबसे सघन प्रयोग-भूमि बनकर उभरा है। यही कारण है कि कभी रेड्डी बन्धुओं के कारण, तो कभी सरकार द्वारा चलाये जा रहे ‘ऑपरेशन ग्रीन हण्ट’ के कारण खनन उद्योग लगातार चर्चा में रहा है।

किस बात का जश्न?

वास्तव में पिछले एक साल में देश की ग़रीब मेहनतकश जनता को क्या मिला है, यह सभी जानते हैं। खाद्य सामग्री की मुद्रास्फीति दर 17 प्रतिशत के करीब जा रही है, जिसका अर्थ है आम आदमी की थाली से एक-एक करके दाल, सब्ज़ी आदि का ग़ायब होता जाना। रोज़गार सृजन की दर नकारात्मक में चल रही है। कुल मुद्रास्फीति की दर भी जून के तीसरे सप्ताह में 10 प्रतिशत को पार कर गयी। यानी कि रोज़मर्रा की ज़रूरत का हर सामान महँगा हो जाएगा। इसकी सबसे भयंकर मार देश के मज़दूर वर्ग, ग़रीब किसानों, और आम मध्यवर्ग पर पड़ेगा।

‘राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना’ भी चढ़ी भ्रष्टाचार की भेंट

इस योजना में भ्रष्टाचार होने का आधार तो पहले से ही तैयार था। बी.पी.एल. कार्डधारकों के सर्वेक्षण में पाया गया है कि केवल 30 प्रतिशत ही वास्तविक लाभार्थी हैं। और जब बी.पी.एल. कार्डधारकों के सत्यापन की बात आती है तो सरकारी तंत्र को नींद आने लगती है। हम यहाँ पर ग़रीबी रेखा के पैमाने की बात ही नहीं कर रहे हैं जो कि हास्यास्पद है। ग़रीबों का मज़ाक बनाया गया है।

‘‘उभरती अर्थव्यवस्था’’ की उजड़ती जनता

हमारे देश का कारपोरेट मीडिया और सरकार के अन्य भोंपू समय-समय पर हमें याद दिलाते रहते हैं कि हमारा मुल्क ‘‘उभरती अर्थव्यवस्था’’ है; यह 2020 तक महाशक्ति बन जाएगा; हमारे मुल्क के अमीरों की अमीरी पर पश्चिमी देशों के अमीर भी रश्क करते हैं; हमारी (?) कम्पनियाँ विदेशों में अधिग्रहण कर ही हैं; हमारी (?) सेना के पास कितने उन्नत हथियार हैं; हमारे देश के शहर कितने वैश्विक हो गये हैं; ‘इण्डिया इंक.’ कितनी तरक्की कर रहा है, वगैरह-वगैरह, ताकि हम अपनी आँखों से सड़कों पर रोज़ जिस भारत को देखते हैं वह दृष्टिओझल हो जाए। यह ‘‘उभरती अर्थव्यवस्था’’ की उजड़ती जनता की तस्वीर है। भूख से दम तोड़ते बच्चे, चन्द रुपयों के लिए बिकती औरतें, कुपोषण की मार खाए कमज़ोर, पीले पड़ चुके बच्चे! पूँजीपतियों के हितों के अनुरूप आम राय बनाने के लिए काम करने वाला पूँजीवादी मीडिया भारत की चाहे कितनी भी चमकती तस्वीर हमारे सामने पेश कर ले, वस्तुगत सच्चाई कभी पीछा नहीं छोड़ती। और हमारे देश की तमाम कुरूप सच्चाइयों में से शायद कुरूपतम सच्चाई हाल ही में एक रिपोर्ट के जरिये हमारे सामने आयी।

सूचना का अधिकार : एक कागजी हथियार

वैसे भी सूचना अधिकार कानून बनाने की मंशा सरकार की इसलिए नहीं थी कि व्यवस्था को भ्रष्टाचार–मुक्त और पारदर्शी बनाया जाए। बल्कि पूँजीवादी व्यवस्था के पैरोकार समय–समय पर ऐसे कुछ कदम उठाते रहते है जो भ्रष्टाचार पर रोक लगाने और राजनीतिक–प्रशासनिक ‘‘सुधार’’ का काम करते हैं, ताकि जनता का विश्वास इस व्यवस्था में बना रहे। वास्तव में सूचना के अधिकार का कानून एक ऐसा अधिकार है जो देश की जनता को दशकों पहले मिल जाना चाहिए था। भारत में मौजूद पूँजीवादी व्यवस्था लोगों को सीमित जनवादी अधिकार देती है। अभी भी अगर हम पश्चिमी पूँजीवादी देशों की व्यवस्थाओं से तुलना करें तो कई ऐसे जनवादी अधिकार हैं जो जनता को बहुत पहले ही मिल जाने चाहिए थे। इसलिए सूचना के अधिकार को देकर पूँजीवादी व्यवस्था ने कोई उपकार नहीं किया है। उल्टे इस बात के लिए इसकी आलोचना होनी चाहिए कि यह आज़ादी के लगभग छह दशक बाद क्यों मिला ?

सार्वजनिक वितरण प्रणाली : आम जनता का छिनता बुनियादी हक

शुरुआत में सरकार ने बाज़ार से गेहूँ खरीदकर राशन डीलरों के माध्यम से कम दर पर राशन लोगों तक पहुँचाने का जिम्मा उठाया था उसे वह सोची–समझी रणनीति के तहत धीरे–धीरे पूँजीपतियों की सेवा में प्रस्तुत कर रही है। वह पिल्सबरी, आशीर्वाद, शक्तिभोग जैसी बड़ी कम्पनियों को राहत देकर (बिजली, पानी, जमीन मुहैया कराने से लेकर करों में राहत आदि सहित) मुनाफा निचोड़ने की छूट दे रही है। दूसरी तरफ सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पी.डी.एस.) को भ्रष्टाचार, भाई–भतीजावाद, अफसरशाही, कालाबाज़ारी से मुक्त करने की बजाए पी.डी.एस. को धीरे–धीरे खत्म करती जा रही है।

कॉमनवेल्थ में ‘‘कॉमन’‘ क्या और ‘‘वेल्थ’‘ किसका ?

कॉमनवेल्थ खेलों के लिए जो हज़ारों करोड़ रुपये की राशि आवण्टित है वह बड़ी–बड़ी ठेका कम्पनियों और ठेकेदारों की जेब में जा रही है। ठेकों के लिए दिल्ली सरकार के अफ़सरों–नौकरशाहों से लेकर मन्त्रियों और सचिवों तक को मोटी–मोटी रिश्वतें दी जा रही हैं। इन रिश्वतों के बदले बिककर नेताओं–नौकरशाहों का यह पूरा वर्ग काले धन की ज़बर्दस्त कमाई कर रहा है। इन निर्माण कार्यों के लिए आवण्टित फण्डों से ठेका कम्पनियाँ और ठेकेदार, निर्माण सामग्री बनाने वाली कम्पनियाँ, एकाउंटेंसी फर्में, और उनसे जुड़ी कम्पनियों के एक विशाल दायरे को अतिलाभ मिल रहा है। और ग़ौर करने की बात यह है कि यह हज़ारों करोड़ रुपये आम जनता की जेब से वसूले गये हैं। पूँजीपतियों को लाभ पहुँचाने के लिए कुछ ऐसी संरचनाओं का निर्माण किया जा रहा है जिनका कोई उपयोग नहीं होने वाला और इनके निर्माण पर हज़ारों करोड़ रुपये ख़र्च किये जा रहे हैं। मिसाल के तौर पर, कॉमनवेल्थ खेलों के उदघाटन समारोह के लिए एक स्तम्भ का निर्माण किया जा रहा है जिसे उदघाटन समारोह के निर्माण के बाद 24 घण्टों के भीतर तोड़कर साफ़ कर दिया जाएगा!

पैसा दो, खबर लो : चौथे खम्भे की ब्रेकिंग न्यूज

इस बार का महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव काफी चर्चा में रहा है। यहाँ पैसा दो–खबर लो का बोलाबाला रहा। प्रिण्ट एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया ने ‘चुनावी रिपोर्टिंग’ के रूप में ग्राहक उम्मीदवारों के सामने बाकायदा ‘ऑफर’ प्रस्तुत किया। वहीं उम्मीदवारों ने भी अपनी छवि को सुधारने हेतु क्षमतानुसार धनवर्षा करने में कतई कोताही नहीं की। धनवर्षा पहले भी होती रही है। मीडिया भी जनराय बनाने में सहयोगी भूमिका निभाती रही है। लेकिन ये सारा कारोबार इतना खुल्लमखुल्ला नहीं होता था। पहले दबे–दबे रूप में यह बात सामने आती थी कि अखबार वाले पैसे लेकर खबर छापते हैं। न मिलने पर छुपाते हैं। हूबहू ऐसा ही नहीं होता लेकिन प्रधान बात तो यही है कि जिसका पैसा उसका प्रचार। लेकिन इस बार तो ‘खबर’ लगाने की बोलियाँ लगीं। बिल्कुल मण्डी में खड़े होकर ‘खबर’ नामक माल बेचते मानो कह रहे हों पैसा दो–खबर लो, कई लाख दो–कई पेज लो, करोड़ दो–अखबार लो आदि आदि।