कॉमनवेल्थ में ‘‘कॉमन’’ क्या और ‘‘वेल्थ’’ किसका ?
सम्पादकीय
वैसे तो दिल्ली शहर पिछले दस वर्षों से (मेट्रो के निर्माण और प्रचालन के शुरू होने के बाद से) ही एक भारी रूपान्तरण से गुज़र रही है, लेकिन पिछले 2 वर्षों से इस प्रक्रिया ने एक तक़लीफ़देह रूप धारण कर लिया है। दिल्ली 2010 के कॉमनवेल्थ खेलों का मेज़बान शहर है और पिछले कुछ वर्षों से इस खेल को निगाह में रखते हुए दिल्ली में फ्लाईओवर, अण्डरपास, भूमिगत कार पार्किंग, एक्सप्रेस–वे आदि से लेकर आलीशान होटलों और दैत्याकार स्टेडियमों का निर्माण जारी है। दिल्ली शहर के रूपान्तरण के लिए अगर हम पिछले 30 वर्षों के दौरान की सरकारी योजना पर निगाह डालें तो साफ़ हो जाता है कि दिल्ली को रियो डि जेनेरो या शंघाई की तर्ज़ पर विकसित करने की योजना पर काम किया जा रहा है। एक ओर तो दिल्ली में शॉपिंग मॉलों, मल्टीप्लेक्सों, स्पोर्ट्स क्लब और अमीरज़ादों के लिए ऐसी ही बेशुमार सुविधाओं के इंतज़ामात किये जा रहे हैं, तो वहीं दूसरी ओर दिल्ली में कई दशकों से बसे मज़दूरों, वेण्डरों और आम मेहनतकश आबादी को दिल्ली के उन तमाम इलाकों से खदेड़ कर परिधि के क्षेत्रों में विस्थापित किया जा रहा है, जो दिल्ली के उन क्षेत्रों में रहती थी जो अब शहर के बीचों–बीच आ गये हैं। पिछले कुछ वर्षों में ही दिल्ली एक ऐसे शहर में तब्दील हो चुका है जिसके बीचों–बीच के इलाके में देश में भूमण्डलीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद करोड़ों आम मेहनतकशों की बरबादी की कीमत पर खड़े हुए नवधनाढ्य वर्गों और कुलीनों के लिए हर विश्वस्तरीय सुविधा है; लेकिन यह पूरा केन्द्रीय कुलीन क्षेत्र एक विशालकाय परिधि से घिरा हुआ है जिसमें लाखों–लाख मज़दूर आबादी गुलामों जैसी हालत में जी रही है। वह रोज़ साईकिल से या बस से कई किलोमीटर का सफ़र तय करके काम पर जाती है और फिर शाम को अपने आप को निचुड़वाकर वापस आती है। कॉमनवेल्थ खेलों में दुनिया के सामने भारत के पूँजीपति वर्ग की ताक़त और ऐश्वर्य का मुज़ाहिरा करने के इरादे से अब दिल्ली की मुख्यमन्त्री शीला दीक्षित ने इसी भौतिक वर्गीय ध्रुवीकरण की प्रक्रिया को और मज़बूत किया है।
अभी हाल ही में शीला दीक्षित ने कहा है कि उनकी सरकार दिल्ली के करीब 90 हज़ार ऑटोरिक्शा सड़क से हटाने जा रही है क्योंकि ये ऑटोरिक्शा चालक पर्यटकों और सैलानियों के साथ बदसलूकी करते हैं और उन्हें ठगते हैं। इसके पहले उन्होंने ऐलान किया था कि दिल्ली को उनकी सरकार 60,000 भिखारियों से मुक्त कर देगी क्योंकि ये शहर के चेहरे पर एक बदनुमा दाग़ हैं। कुछ महीनों पहले उन्होंने एक बयान दिया जिसके लिए उन्हें बार–बार और जगह–जगह सफ़ाई देनी पड़ी और उनकी पार्टी कमान ने भी उन्हें हड़काया। किसी सुरूर में वे कह बैठीं कि उत्तर प्रदेश और बिहार अपने ग़रीबों को वापस बुला लें, दिल्ली उनका बोझ वहन नहीं कर सकती। अब यह दीगर बात है कि अगर उत्तर प्रदेश और बिहार के लिए यह करना सम्भव होता और वे वाक़ई ऐसा कर देते तो दिल्ली के 90 प्रतिशत वाहन चालक, घरेलू नौकर, रसोइये, रिक्शेवाले, ठेलेवाले, सब्ज़ीवाले, इलेक्ट्रीशियन, कारखाना–मज़दूर, प्लम्बर, सफ़ाईकर्मी, होटल व रेस्तराँ में काम करने वाले अकुशल मज़दूर, कूरियर सेवा वाले लड़के व तमाम निम्न सेवा प्रदाता अचानक ग़ायब हो जाते। दिल्ली के धनपशु जहाँ पड़े थे, वहीं पड़े रह जाते। न कोई उन्हें खाना देने वाला होता, न कपड़ा साफ़ करने वाला, न उन्हें एक जगह से दूसरी जगह ले जाने वालाय न ही दिल्ली के कारखानों में मज़दूर होते और न ही कोई उत्पादन होता, सेवा क्षेत्र की सारी कम्पनियाँ ठप्प पड़ जातीं, डीटीसी बसों में सफ़र करने वाले यात्रियों की संख्या इतनी कम हो जाती कि डीटीसी भयंकर घाटे में चली जाती; नेताओं, मन्त्रियों और नौकरशाहों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए कोई नहीं बचता। लेकिन सरकार का इरादा इस आम मेहनतकश ग़रीब आबादी को वापस बिहार या उत्तर प्रदेश भेजने का कतई नहीं है। जो काम सन 2000 से चल रहा है, वह हर योजना में और तेज़ गति से चलाया जाता है। यह काम है ग़रीब मेहनतकश आबादी को दिल्ली के अमीरज़ादों के इलाकों से खदेड़कर परिधि के क्षेत्रों में बसाना। यही काम कॉमनवेल्थ खेलों के दौरान भी चल रहा है। इसका मक़सद है ग़रीबी को छिपाना। विदेशी पर्यटकों और सैलानियों को भारत के ग़रीब नहीं दिखने चाहिए। पूँजीवादी विश्व में भारत का रुतबा तभी तो बनेगा! विदेशी कम्पनियाँ एक वाइब्रेंट कंज्यूमर क्लास देखेंगी तभी तो निवेश करेंगी! शहर में झुग्गियाँ और भिखारी दिखेंगे तो कौन निवेश करेगा ? लेकिन यह वैसा ही जैसे कि कोई बदसूरत औरत पार्टियों में घूमने के लिए अपनी कॉस्मेटिक सर्जरी करा ले। वह कुछ भी करा ले यह बात तुरन्त ही फैल जाएगी कि उसने अपने चेहरे के साथ कुछ किया है।
साथ ही यह भी देखा जा सकता है कि इस कॉस्मेटिक खूबसूरती को बनाने की प्रक्रिया में लाभप्राप्तकर्ता कौन है और पीड़ित कौन।
पूरी दिल्ली में जगह–जगह सड़कें खोदी जा चुकी हैं; कहीं उन्हें चौड़ा किया जा रहा है तो कहीं अण्डरपास या अण्डरग्राउण्ड पार्किंग बन रही है। जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम नामक एक दैत्याकार स्टेडियम लगभग बन चुका है और तालकटोरा गार्डन में इनडोर स्टेडियम व शूटिंग रेंज तैयार हो चुकी हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेजों के खेल मैदानों को भी कॉमनवेल्थ खेलों के लिए हथियाया जा चुका है और यहाँ तक कि छात्रावासों में नये सत्र में दाखिले तक नहीं दिये जाएँगे क्योंकि इन छात्रावासों में कॉमनवेल्थ खेलों में आने वाले अतिथियों को ठहराया जाएगा। यानी कि ग़रीब छात्रों को छात्रावास की सुविधा से जो थोड़ी–बहुत राहत मिल पाती थी, उसे भी अब छीन लिया जाएगा। भारी पैमाने पर चल रहे निर्माण कार्यों के कारण दिल्ली इस समय महाद्वीप का सबसे प्रदूषित और धूल भरा शहर बन चुका है। सैंकड़ों ठेकेदार और ठेका कम्पनियाँ लाखों मज़दूरों से काम करवा रही हैं। दिल्ली भर में बड़ी–बड़ी निर्माण मशीनें, अर्थमूवर, क्रेनों और बुलडोज़रों को काम पर लगे देखा जा सकता है; साथ ही उन हज़ारों कुपोषित मज़दूरों को दिनों–रात कार्यस्थलों पर खटते देखा जा सकता है जिनके बच्चे वहीं कहीं धूल में सो रहे होते हैं और जिनकी पसलियों को आसानी से गिना जा सकता है। ये मज़दूर आस–पास बने अस्थायी झुग्गियों में रहते हैं और 14 से 16 घण्टे तक काम करते हैं। इनके लिए श्रम कानूनों, न्यूनतम मज़दूरी आदि का कोई मतलब नहीं है। दिल्ली सरकार ने समय पर कॉमनवेल्थ खेलों के लिए निर्माण कार्य को पूरा करवाने के लिए लगभग घोषित तरीके से ठेकेदारों को सभी कानूनों की धज्जियाँ उड़ाने की खुली छूट दे दी है। हाल ही में एक स्वयंसेवी संगठन ने दिल्ली हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर करते हुए कॉमनवेल्थ खेलों के निर्माण कार्य में लगे मज़दूरों की जीवन और कार्य स्थितियों की जाँच–पड़ताल की माँग की। इस पर अदालत ने एक समिति का गठन किया और उसे इस जाँच का ज़िम्मा सौंपा। इस समिति ने सभी कार्यस्थलों का दौरा किया और अपनी रिपोर्ट अदालत को सौंपी। इस रिपोर्ट में साफ़ कहा गया है कि मज़दूरों को अमानवीय स्थितियों में रखा गया है। जिन जगहों पर वे रहते हैं वे ईंटों से घेरी गयी और लोहे की चादर से ढंकी गयी छोटी–छोटी जगहें हैं जिनमें कोई खिड़की नहीं है। शौचालय की सुविधा इन मज़दूरों को नहीं दी गयी है। इन झुग्गी के छोटे–छोटे कमरों में कई बार आठ–आठ मज़दूर रहते हैं। मज़दूर सुबह आठ बजे काम पर आ जाते हैं और कई बार रात ग्यारह बजे तक काम करते रहते हैं। ठेका कम्पनियाँ और टुटपुँजिया ठेकेदार किसी श्रम कानून का कोई पालन नहीं करते हैं और सरकार की तरफ से उन्हें पूरी छूट मिली हुई है। इन मज़दूरों ने जब–जब प्रतिरोध का कोई भी प्रयास किया है उन्हें या तो काम से निकाल दिया गया है या उन्हें अन्य प्रकार से परेशान किया गया है। कुल मिलाकर, इन मज़दूरों को वास्तव में गुलामों की स्थितियों में रखा गया है, आधुनिक पूँजीवादी सभ्यता के उजरती गुलाम; जिनका काम है समाज के 10 प्रतिशत खाए–अघाए परजीवी शासकों के लिए दुनिया का हर ऐशो–आराम पैदा करना।
और दूसरी तरफ़ ऐसे लोग भी मौजूद हैं जो कॉमनवेल्थ खेल के लिए हो रहे निर्माणों के इस गोरखधन्धे से अरबों–अरब रुपये पीट रहे हैं। कॉमनवेल्थ खेलों के लिए जो हज़ारों करोड़ रुपये की राशि आवण्टित है वह बड़ी–बड़ी ठेका कम्पनियों और ठेकेदारों की जेब में जा रही है। ठेकों के लिए दिल्ली सरकार के अफ़सरों–नौकरशाहों से लेकर मन्त्रियों और सचिवों तक को मोटी–मोटी रिश्वतें दी जा रही हैं। इन रिश्वतों के बदले बिककर नेताओं–नौकरशाहों का यह पूरा वर्ग काले धन की ज़बर्दस्त कमाई कर रहा है। इन निर्माण कार्यों के लिए आवण्टित फण्डों से ठेका कम्पनियाँ और ठेकेदार, निर्माण सामग्री बनाने वाली कम्पनियाँ, एकाउंटेंसी फर्में, और उनसे जुड़ी कम्पनियों के एक विशाल दायरे को अतिलाभ मिल रहा है। और ग़ौर करने की बात यह है कि यह हज़ारों करोड़ रुपये आम जनता की जेब से वसूले गये हैं। पूँजीपतियों को लाभ पहुँचाने के लिए कुछ ऐसी संरचनाओं का निर्माण किया जा रहा है जिनका कोई उपयोग नहीं होने वाला और इनके निर्माण पर हज़ारों करोड़ रुपये ख़र्च किये जा रहे हैं। मिसाल के तौर पर, कॉमनवेल्थ खेलों के उदघाटन समारोह के लिए एक स्तम्भ का निर्माण किया जा रहा है जिसे उदघाटन समारोह के निर्माण के बाद 24 घण्टों के भीतर तोड़कर साफ़ कर दिया जाएगा! इसके बाद भी कम्पनियों का मुनाफ़ा और अधिक बढ़े इसके लिए मज़दूरों को सारे नियम–कायदे–कानूनों को ताक़ पर रखकर निचोड़ने की आज़ादी भी पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी के तौर पर काम करने वाली सरकार ने इन कम्पनियों को दे दी है। साफ़ है कि इन खेलों से इस देश की आम जनता को मिलने वाला तो कुछ भी नहीं है, हाँ, महँगाई की मार से बची उसकी अठन्नी में से चवन्नी और निकल जाएगी! ऊपर से पूरे शहर को प्रदूषण से भरकर नर्क बना दिया गया है। ज़ाहिर है, कार के शीशों के भीतर सफ़र करने वाले धन्नासेठों को धूल–धुँए से अधिक दिक्कत नहीं होने वाली है। इस नर्क में सड़ेगा आम ग़रीब आदमी जो बसों में सफ़र करता है, फुटपाथों पर पैदल चलता है। दूसरी तरफ़ पूँजीपतियों, ठेकेदारों और कारपोरेट घरानों को मालामाल करने के लिए सरकार ने कॉमनवेल्थ खेलों का ज़बर्दस्त इस्तेमाल किया है। हर तरह से इनकी जेबें नोटों से ठूँस दी गई हैं। बदले में नेताओं–नौकरशाहों ने भी मोटी फीस वसूली है। और इस सारे प्रपंच को शासक वर्ग जनता की छाती पर बैठकर रच रहा है।
वैसे तो यह अपने आप में एक स्वतन्त्र सम्प्रभु राष्ट्र के लिए शर्म की बात है कि वह उस कॉमनवेल्थ का अंग बना रहे जिसकी प्रमुख उस भूतपूर्व औपनिवेशिक सत्ता की महारानी है, जिसने उसे 250 वर्षों तक लूटा है। लेकिन राष्ट्रवाद की पिपरही बजाने वाली भाजपा से कांग्रेस तक कभी इस पर प्रश्न नहीं उठाते। इसकी बात छोड़ भी दी जाय तो यह समझना काफ़ी मुश्किल है कि इस कॉमनवेल्थ में कॉमन क्या है और वेल्थ किसका है! साफ़ तौर पर वेल्थ किसी भी रूप में कॉमन नहीं दिख रहा है। जो कॉमन दिखता है वह वाकई काफ़ी कॉमन है – एक बार फिर समाज का परजीवी पूँजीपति वर्ग और उसके लग्गू–भग्गू एक विशालकाय खेल आयोजन के परदे के पीछे आम मेहनतकश जनता को नोच खाने और निचोड़ डालने में लगे हुए हैं।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मार्च-अप्रैल 2010
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