सूखा प्राकृतिक आपदा या पूँजीवादी व्यवस्था का प्रकोप

प्रशान्त

देश में आज सूखा लगभग एक स्थायी परिघटना का रूप लेता जा रहा है। हर साल गर्मियों में देश के कई राज्य किसी न किसी सीमा तक सूखे की समस्या से जूझते दिखते हैं। दूसरा, समय के साथ इनकी गम्भीरता कम होने की जगह और बढ़ती ही जा रही है। विशेषकर महाराष्ट्र में सूखे की विभीषिका भयंकर रूप में सामने आने लगी है। इस साल एक बार फिर महाराष्ट्र सूखे की चपेट में था। यह सूखे का लगातार तीसरा साल था। लेकिन इस बार सूखे की स्थिति कहीं ज़्यादा गम्भीर थी। यह महाराष्ट्र में 1972 के बाद का सबसे भयंकर सूखा था। कई किसानों का कहना है कि उन्होंने इससे भयंकर सूखा अपनी पूरी जिन्दगी में नहीं देखा। राज्य के 35 में से 15 जिलों के 7,200 से अधिक गाँवों को सूखाग्रस्त घोषित कर दिया गया। इनमें से 902 गाँवों में चारे और पानी की अत्यधिक कमी थी और 6,200 से अधिक गाँवों में अभावग्रस्तता की स्थिति घोषित की गयी थी। नहरें, तालाब, कुएँ, भूमिगत जल – पानी के सभी स्रोत मार्च के महीने से ही पूरी तरह सूख चुके थे। राज्य में संचित जल भण्डार पिछले पाँच वर्षों के सबसे निचले स्तर पर था – मात्र 27 प्रतिशत। इसके साथ ही, सूखाग्रस्त क्षेत्रों में टैंकरों द्वारा पानी और पशुओं के लिए चारा पहुँचाने के राज्य सरकार के सारे दावे उम्मीद के मुताबिक पूरी तरह खोखले साबित हुए। कई इलाकों में 3 से 4 दिन के बाद टैंकर पहुँचते थे। राज्य के सबसे अधिक सूखा प्रभावित सांगली जिले के अटापाडी और जाथ ताल्लुका के 200 से अधिक गाँवों में औसतन प्रतिदिन 15 कि.ग्रा. चारे की जगह मात्र 200-250 ग्राम चारा और प्रति व्यक्ति 20 ली. पानी की जगह मात्र 5 से 10 ली. पानी ही पहुँचाया जा रहा था। खेती के खस्ताहाल, कर्ज़ के बोझ और ग़रीबी, भुखमरी, कुपोषण से पहले से ही बेहाल गाँवों के खेतिहर मज़दूर, ग़रीब और छोटे किसानों के लिए सूखे ने परिस्थितियाँ असहनीय बना दी हैं। इनका बड़ा हिस्सा तो पहले से ही मझोले और बड़े किसानों के खेतों पर मज़दूरी करके जैसे-तैसे अपना काम चलाता था। लेकिन इस बार सूखे ने पूर्वी महाराष्ट्र के कई इलाके में मझोले किसानों के भी ठीक-ठाक हिस्से की खेती को प्रभावित किया, जैसे सांगली जिले में अनार की खेती करने वाले किसानों की फसल का सूखे के कारण बर्बाद हो गयी। इस वजह से अधिकांश देहाती ग़रीब आबादी के पास अपनी आजीविका कमाने का कोई साधन नहीं बचा है। नतीजतन, कई गाँवों की ग़रीब आबादी अपने पशुओं को कौड़ियों के भाव बूचड़ख़ाने में बेचकर अपनी जगह-ज़मीन को छोड़ मुम्बई और पूना जैसे बड़े शहरों में काम की तलाश में दर-दर भटकने या फिर आत्महत्या करके अपनी जिन्दगी ख़त्म करने को मजबूर हो गयी है। दरअसल, पिछले एक दशक से जारी यह प्रक्रिया आज महाराष्ट्र के हज़ारों गाँवों की नियति ही बन चुकी है। महाराष्ट्र-कर्नाटक सीमा पर बसे गाँवों की हालत तो इतनी ख़राब है कि इस क्षेत्र के 41 गाँवों ने महाराष्ट्र छोड़कर कर्नाटक में शामिल किये जाने की ही माँग कर दी है।

वास्तव में, देश में सूखे की आज जो भयावह दशा सामने है वह कोई अचानक नहीं पैदा हो गयी है। अगर देश में सूखे और अकाल के इतिहास पर नज़र डाली जाये तो पता चलता है कि सूखा पिछले लम्बे समय से देश की ग़रीब जनता के जीवन को बेहाल करता रहा है। 1877, 1899, 1918, 1972, 1987 और 2002 देश में सूखे के सबसे बदतर साल रहे हैं। 1987 का सूखा तो शताब्दी का सबसे भीषण सूखा माना जाता है, जिसने देश की कुल खेती योग्य क्षेत्रफल के 59-60 प्रतिशत और लगभग 23 करोड़ आबादी को प्रभावित किया था। वास्तव में, देश में हर 32 साल पर भीषण गम्भीरता का सूखा पड़ता है, जबकि हर तीसरा साल सूखा वर्ष हुआ करता है। यही नहीं, देश के आर्थिक, वैज्ञानिक और तकनीकी विकास के साथ सूखे की आवर्तिता और गम्भीरता कम होने की जगह लगातार बढ़ती ही गयी है। 19वीं शताब्दी में अकाल और सूखे की संख्या जहाँ 38 थी, वह 20वीं शताब्दी में बढ़कर 60 हो गयी और भौगोलिक रूप से इसका क्षेत्रफल भी विस्तारित होता गया। आज देश के कुल क्षेत्रफल का लगभग 16 प्रतिशत हिस्सा सूखा-प्रवण (Drought-prone) है और 5 करोड़ आबादी हर साल सूखे की मार झेलती है। देश की कुल खेती योग्य भूमि का 68 प्रतिशत किसी न किसी सीमा तक सूखे से प्रभावित है।

लेकिन सूखे की इस स्थिति के लिए बारिश की कमी या मानसून की अनियमितता किसी भी रूप में मुख्य रूप से जिम्मेदार नहीं है। देश के विभिन्न भागों में मानसून के दौरान जितना पानी बरसता है, अगर उसके दसवें हिस्से का भी व्यवस्थित रूप से और दक्षतापूर्वक संचय किया जाता, सिंचाई के लिए नहरों की उचित व्यवस्था की जाती, भूमिगत जल के संरक्षण के लिए कारगर कदम उठाये जाते, मुनाफ़े के लिए होने वाले इसके अन्धाधुन्ध उपयोग पर नियन्त्रण लगाया गया होता और पूरे देश के स्तर पर कृषि के विकास की एक योजनाबद्ध नीति अपनाने के साथ जल संचयन की आधुनिकतम तकनीकों के इस्तेमाल और इनके अग्रवर्ती विकास पर समोचित ध्यान दिया गया होता और आवश्यक पूँजी निवेश किया गया होता तो सूखे के कुप्रभावों से अगर पूरी तरह से नहीं तो कम से कम काफ़ी हद तक छुटकारा पाना तो सम्भव ही था। देश में जल संचयन (Water harvesting) की आज जो दयनीय दशा है उसका अन्दाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि चेरापूँजी, जो कि देश का सबसे अधिक वर्षा वाला क्षेत्र और विश्व के सबसे नम क्षेत्रों में से एक है, साल के नौ महीनों में पानी की कमी से जूझता है!! देश में आज भूमिगत जल स्रोतों की स्थिति भी गम्भीर है। तो सवाल उठता है कि आखिर आज़ादी के बाद से देश के हुक्मरानों ने इस समस्या के स्थायी व दूरगामी समाधान के लिए कोई प्रभावी कदम क्यों नहीं उठाये? क्यों हर बार सूखा राहत कोष आदि के ज़रिये सिर्फ तात्कालिक रूप से समस्या को दबाया भर जाता रहा? क्यों बार-बार भूमिगत जल स्रोतों के गम्भीर संकट की ओर बढ़ने के तथ्य सामने आने के बावजूद इसके इस्तेमाल पर न तो कोई नियन्त्रण ही लगाया गया और न इसके संरक्षण के लिए कोई भी योजना ही बनायी गयी?

दरअसल, इसे समझने के लिए भी ज़्यादा मेहनत करने की आवश्यकता नहीं है। आज़ादी के बाद देश के आर्थिक विकास के लिए बनायी गयी नीतियाँ आम जनता के जीवन को सुखी और ख़ुशहाल बनाने के लिए नहीं बल्कि देश के शासक वर्गों, यानी, सम्पत्तिशाली वर्गों, खासकर औद्योगिक पूँजीपतियों के हितों को साधने के लिए बनायी जाती रहीं। और जल प्रबन्धन का क्षेत्र भी इसका कोई अपवाद नहीं था। आज़ादी के बाद जब तक देश की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से कृषि पर निर्भर थी और कृषि के वाणिज्यीकरण और पूँजीवादीकरण के पूरा न होने के चलते बाज़ार के मुनाफ़ा-आधारित नियम इस क्षेत्र में अपने स्वाभाविक रूप में क्रियाशील नहीं हो पाये थे, तब तक सरकारी हस्तक्षेप द्वारा कृषि और भूमि सम्बन्धों के पूँजीवादीकरण के एक हिस्से के रूप में ही जल प्रबन्धन के तहत आवश्यक अवरचनागत सुविधाओं का विकास किया गया। पूँजीवादीकरण की यह प्रक्रिया औद्योगिक पूँजी के हितों के मातहत, मुख्यतः केन्द्रीय नियन्त्रण द्वारा संचालित, लेकिन अलग-अलग राज्यों में वहाँ के राज्य-स्तरीय राजनीतिक समीकरणों और सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार अलग-अलग रूपों और अलग-अलग तीव्रता के साथ पूरी की गयी। एक ओर, इस क्रमिक पूँजीवादी विकास के कारण ग्रामीण आबादी का विभेदीकरण होना शुरू हुआ और पूँजीवादी भूस्वामियों-कुलकों और अमीर किसानों के वर्ग के साथ ही बड़े पैमाने पर ग़रीब-छोटे किसानों और खेतिहर मज़दूरों के वर्ग भी अस्तित्व में आये। कृषि क्षेत्र में बाज़ार प्रतियोगिता की बढ़ती पकड़, सरकारी सहायता की विभिन्न वर्गों तक स्वाभाविक गै़र-बराबर पहुँच और सूखा-अकाल-बाढ़ आदि प्राकृतिक आपदाओं की सतत् मौजूदगी इस विभेदीकरण को और बढ़ाने का काम करती रही तथा ग़रीब और छोटे किसानों को सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा में रूपान्तरित होने के लिए मजबूर करती रहीं। सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा की इस विशाल आबादी की आवश्यकता औद्योगिक पूँजीपति को भी थी और ग्रामीण कृषि पूँजीपति वर्ग को भी, और सूखे आदि जैसी प्राकृतिक आपदाओं की इस आबादी के निर्माण में एक निश्चित और सुस्पष्ट भूमिका रही।

दूसरी ओर, देश की अर्थव्यवस्था के वैविध्यीकरण की प्रक्रिया भी इसी के समानान्तर चलती रही। देश की कुल राष्ट्रीय आय में कृषि का हिस्सा लगातार कम होता चला गया – 1961 में 57 प्रतिशत और 1987-88 में 35 प्रतिशत से लेकर 2002 में 22 प्रतिशत। इस कारण 90 के दशक के पहले तो सूखा देश के सकल घरेलू उत्पाद पर भी नकारात्मक रूप से असर डालता था। जैसे 1957-58, 1965-66, 1972-73 और 1979-80 के वर्षों में सूखे के कारण पैदा हुई कृषि मन्दी देश की सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था की मन्दी के रूप में परिलक्षित हुई और देश की कुल सकल घरेलू उत्पाद दर ऋणात्मक रही। जबकि 90 के दशक के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था प्राकृतिक आपदाओं के कुप्रभावों से काफी हद तक अपने को सुरक्षित रखने में सफल हो चुकी थी। जैसे 2002-2003 में सूखे की वजह से सकल घरेलू उत्पाद पर मात्र 1 प्रतिशत का प्रभाव पड़ा। सूखे और अन्य प्राकृतिक आपदाओं का देश की जी.डी.पी. पर असर कम होने का अर्थ यह नहीं है कि देश का आर्थिक विकास समेकित हो गया हो और देश की समस्त जनता का जीवन भी प्राकृतिक आपदाओं के कुप्रभावों से मुक्त हो गया हो। इसका सिर्फ इतना अर्थ है कि शासक वर्गों ने अपने मुनाफ़े को प्राकृतिक आपदाओं के असर से बचाने के तरीके ईजाद कर लिये हैं, और सूखा आदि प्राकृतिक आपदाओं का दूरगामी व स्थायी तो क्या आज तात्कालिक समाधान और राहत उपलब्ध कराने की भी इनके लिए कोई ज़रूरत नहीं रह गयी है।

बहरहाल, 90 के दशक में नवउदारीकरण-निजीकरण की नीतियों की शुरुआत होने के समय तक देश में तीव्र पूँजीवादी विकास के लिए आधारभूत काम पूरा हो चुका था। अब ग्रामीण क्षेत्रों में भी बाज़ार की राक्षसी ताकतें अपने डरावने और वीभत्स अट्टहासों के साथ मानवता को लील जाने के लिए पूरी तरह मुँह बाये खड़ी थीं। नवउदारीकरण-निजीकरण की शुरुआत के साथ ही कृषि क्षेत्र में मुनाफ़े की अन्धी दौड़ अत्यन्त तीव्र हो गयी। मानव संसाधनों और प्राकृतिक संसाधनों का जमकर शोषण और दोहन प्रारम्भ हो गया। खाद्यान्न फसलों की जगह कम समय में ज़्यादा मुनाफ़ा पैदा करने वाली नकदी फसलों की खेती का चलन तेज़ी से बढ़ा। इस अन्धी प्रतियोगिता ने भूमिगत जल स्रोतों पर बहुत बुरा प्रभाव डाला। ख़ासकर नकदी फसलों जैसे गन्ना, कपास, अनार, सूरजमुखी आदि का भूमिगत जल-स्तर पर विशेष रूप से नकारात्मक प्रभाव पड़ा। आज कम बारिश होने की सूरत में भूमिगत जल का गिरता स्तर सूखे की भीषणता को और गम्भीर बना देता है। दूसरी ओर, इसी दौरान पानी के निजीकरण की प्रक्रिया ने भी ख़ासी गति पकड़ी है। इसके अलावा राजनेताओं-सरकारी अधिकारियों-कॉरपोरेट घरानों-पूँजीवादी फार्मरों-कुलकों के बीच साँठ-गाँठ और बची खुची सरकारी योजनाओं-नीतियों के क्रियान्वयन में होने वाले भ्रष्टाचार ने गाँवों की ग़रीब किसान आबादी तक खेती-योग्य पानी की पहुँच को बस प्रतीकात्मक ही बना दिया है। ऐसे भी उदाहरणों की कमी नहीं है जहाँ सिंचाई के पानी को निजी कम्पनियों के हवाले कर दिया गया हो। जैसे इसी वर्ष सूखे की गम्भीर दशा में भी विदर्भ के इलाके में सिंचाई के पानी को आत्महत्या करते किसानों के खेतों को देने के बजाय प्राईवेट बिजली उत्पादक कम्पनियों को दे दिया गया, जिनमें विदर्भ इलाके के ही भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी की भी एक कम्पनी शामिल है। कुल मिलाकर इसने पानी के अनियन्त्रित-अराजक उपयोग को तो बढ़ाया ही, साथ ही पानी का मुट्ठीभर थैलीशाहों के हाथों में संकेन्द्रण को भी बढ़ाया। साफ है, इन परिस्थितियों में बारिश की कमी छोटी-ग़रीब किसान आबादी की बची हुई छोटी-मोटी खेती को तो बर्बाद करती ही है और कर्ज का बोझ कुछ और अधिक बढ़ाती ही है। लेकिन आज इस आबादी पर सूखे के कुप्रभाव का मुख्य पहलू यह नहीं है। इसकी आजीविका का मुख्य साधन तो पहले से ही दूसरों के खेतों पर मज़दूरी करना हो चुका है। इसलिए आज मुख्य पहलू सूखे के दौरान इनकी श्रमशक्ति के मूल्य का और घट जाना है। उदाहरण के तौर पर पूर्वी महाराष्ट्र की अच्छी-ख़ासी आबादी गन्ने की कटाई के मौसम में पश्चिमी महाराष्ट्र के गन्ना उत्पादकों के यहाँ ठेके पर काम करने के लिए हर साल प्रवास करती है। लेकिन जिस साल सूखा पड़ता है, उस साल गन्ना मालिक इनकी मज़दूरी को काफ़ी कम करने में सफल हो जाते हैं। ऐसे ही अन्य तमाम उदाहरण मौजूद हैं जो सूखे के दौरान मालिक किसानों द्वारा खेतिहर मज़दूरों की मज़दूरी को सीधे-सीधे घटा पाने के अवसरों की उपलब्धता को दर्शाते हैं, और वह भी मालिक किसानों के पक्ष में सहानुभूति और मज़दूरों पर उनके द्वारा किये जाने वाले एहसान के रूप में!

वास्तव में, अगर देश के स्तर पर समग्रता में देखें तो साफ़ पता चल जाता है कि आज देश के तीव्र आर्थिक “विकास” के लिए आवश्यक सस्ती श्रमशक्ति के निर्माण में सूखा कितनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। अगर 2001 और 2011 की जनगणना के आँकड़ों पर नज़र डालें तो तस्वीर पूरी तरह साफ़ हो जाती है। 1991 और 2001 के बीच लगभग 70 लाख फसल उत्पादक अपनी खेती को छोड़ने के लिए मजबूर हुए, अर्थात लगभग 2000 प्रतिदिन। इसी प्रकार 2001 और 2011 के बीच शहरी आबादी में 9 करोड़ का इजाफ़ा हुआ। इसमें भी उस आबादी की सही-सही गिनती शामिल नहीं है जो बहुत थोड़े-थोड़े अन्तरालों के लिए प्रवास करती है क्योंकि जनगणना में इस प्रकार के प्रवास की गणना के लिए कोई उचित पद्धति मौजूद ही नहीं है, अन्यथा यह संख्या इससे भी कहीं ज़्यादा होती। ग़ौरतलब है कि शहरी आबादी में इतनी बड़ी संख्या में वृद्धि इससे पहले 1921 में हुई थी जब युद्ध और महामारियों के कहर से बहुत बड़ी आबादी शहरों की ओर पलायन करने को मजबूर हो गयी थी। लेकिन इस समय तो ऐसी कोई भी आपातकालीन स्थिती नहीं थी। हाँ, सतत् रूप से मौजूद कृषि का वह संकट ज़रूर था, जिसे सूखे ने और बढ़ाने का ही काम किया। इसलिए यह कहना कोई मनोगत आकलन नहीं होगा कि लगभग एक निश्चित योजना के रूप में ही विभिन्न सरकारों और नीति-निर्धारकों द्वारा सूखे के प्रति पूर्ण उदासीनता का रवैया अपनाया जाता रहा है। दरअसल, कृषि के इस सतत् संकट के कारण पिछले 20 वर्ष ग्रामीण भारत के ताने-बाने के छिन्न-भिन्न होने के अकथनीय-अकल्पनीय रूप से पीड़ादायी वर्ष रहे हैं। इसने दरिद्रता, भूख, कुपोषण, बेरोज़गारी से त्रस्त मज़दूरों, विशेष कर ‘घुमन्तू’ (‘फुटलूज़’) मज़दूरों, की उस विशाल आबादी को जन्म दिया है जो कम से कम मज़दूरी पर कहीं भी और किसी भी हालत में काम करने को मजबूर है। यही वह आबादी है जिसके श्रम के शोषण के दम पर तेज़ी से “उभरतेय” भारत का धनाढ्य वर्ग आज रंगरलियाँ मना रहा है। साफ़ है इस मजबूर श्रमिक आबादी के निर्माण में सूखे व अन्य प्राकृतिक आपदाओं की विशेष भूमिका है। कुछ सालों पहले तक सरकारें सूखे के दौरान सस्ते रोज़गारों का निर्माण कर इस श्रमशक्ति का जम कर दोहन करती थीं और लगे हाथ ग़रीब जनता पर अपना एहसान भी जता दिया करती थीं। जैसे 2002-03 के दौरान मात्र 15 महीनों में 45 करोड़ कार्य दिवस के बराबर रोज़गार निर्मित किया गया था। आवश्यकता पड़ने पर सरकारें आज भी ऐसा कर सकती हैं, हालाँकि अब इस सरकारी हस्तक्षेप की ज़्यादा ज़रूरत रह नहीं गयी है। कारण यह की पिछले दो दशकों के दौरान देश के स्तर पर ठेकेदारों और ऐजेण्टों का वह विशाल नेटवर्क भी अस्तित्व में आ चुका है जो इस आबादी को एक जगह से दूसरी जगह हाँकने के लिए तैयार रहता है। शहरों ओैर ग्रामीण क्षेत्रों में श्रम की आवश्यकता की पूर्ति आज ठेकेदारों का यह जाल-तन्त्र ही दक्षतापूर्वक पूरा कर रहा है।

साफ है, शासक वर्ग के लिए इतने अधिक उपयोगी सूखे का कोई स्थायी समाधान करने के बारे में कोई सोच भी कैसे सकता था!! इसीलिए, आज सूखे की जिस गम्भीर हालात का महाराष्ट्र और कमोबेश देश के अन्य कई राज्य सामना कर रहे हैं, वह अनायास या संयोगवश नहीं पैदा हो गयी है, बल्कि पूँजीवादी विकास का परिणाम भी है और पूँजीवादी विकास का एक विशेष, महत्वपूर्ण और अभिन्न हिस्सा भी। सरकारी अधिकारियों-नेताओं-मन्त्रियों-धनाढ्यों की देश की ग़रीब जनता के प्रति घृणा और उनके दुःखों के प्रति उदासीनता का आज जो कुरूपतम और रुग्णतम चेहरा सामने आ रहा है वह पूँजी के सबसे मानवद्रोही और परजीवी रूप, यानी वित्तीय पूँजी की जकड़बन्दी, का ही एक उदाहरण है। जैसे पानी के लिए तरसते ठाणे के कुछ गाँवों में भीख-स्वरूप पानी के कुछ गिलास भर बँटवा देना “जनप्रतिनिधियों” द्वारा मानवीय संवेदनाओं और बेबसी के साथ किये जाने वाले घृणित खिलवाड़ की ऐसी ही एक ऐसी मिसाल पेश करता है जिसे शायद शब्द में व्यक्त नहीं किया जा सकता। आज देश की ग़रीब जनता अपने कटु अनुभवों से ही इन “जनप्रतिनिधियों” और इस व्यवस्था की सच्चाई समझती जा रही है। ठाणे के सूखा-प्रभावित इन्हीं गाँवों में से एक, डोलारे गाँव, जो पावर्ती जाधव नामक महिला की पानी भरने के किए जाने वाले लम्बे इन्तज़ार के कारण हुई मृत्यु की वजह से सुर्खियों में आया, के निवासियों ने लम्बे समय से सारे चुनावी दलों को आजमाने के बाद हार मानकर इस बार चुनावों का ही बहिष्कार तक कर दिया था। हालाँकि इससे भी इन्हें पानी नसीब नहीं हुआ!! सारी चुनावबाज़ पार्टियाँ और उनके आका, देश के धनाढ्य वर्ग, आज पूरी तरह आश्वस्त हैं कि आखि़र देश की ग़रीब आबादी उनके चंगुल से निकलकर जायेगी कहाँ!! साफ है, पूँजी के ऑक्टोपसी गिरफ्त में जकड़ी मानवता आज चीख़-चीख़कर मुनाफ़े पर टिकी इस व्यवस्था से मुक्ति माँग रही है। और आज इस व्यवस्था का विकल्प खड़ा करने की तैयारी करने के अलावा और कोई विकल्प शेष नहीं रह गया है। देश की करोड़ों बेबस आँखें आज देश के नौजवानों से शायद यही उम्मीद लगाये बैठी हैं!

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2012

 

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