फैजाबाद में हुए साम्प्रदायिक दंगों के निहितार्थ
लालचन्द्र
दशहरे के पर्व को हमारे देश में बुराई पर अच्छाई की जीत की खुशी में मनाया जाता है। दशहरे के अगले दिन जब खुशी की खुमारी उतरी नहीं थी, अखबारों में छपी दंगे की खबर ने हिलाकर रख दिया। और उस फैजाबाद में जहाँ पर 1992 में बाबरी मस्जिद के ध्वंस के समय भी कोई बलवा या दंगा नहीं हुआ था व महज़ एहतियातन कर्फ्यू लगा दिया गया था, आज उसे भी दंगों की भेंट साम्प्रदायिक ताकतों ने चढ़ा दिया है। प्रादेशिक राजधानी लखनऊ से फैज़ाबाद दंगे की जाँच के लिए गयी टीम में मैं भी शामिल था। हमने फैजाबाद शहर में हुए दंगे की जाँच की और दंगे के पीड़ितों से बात की और जो तथ्य सामने आये उससे लगता है कि पूरे फैजाबाद जिले को कैसे साम्प्रदायिकता की आग में डालने की तैयारी हिन्दुत्ववादी ताकतें कर रही हैं।
दशहरा के पर्व के एक महीने पहले 21-22 सितम्बर को बड़ी देवकाली मन्दिर से मूर्ति चोरी की घटना के बाद अखबारों की रिपोर्टिंग ने साम्प्रदायिकता को हवा दी। गोरक्षनाथ खण्डपीठ के महन्त व सांसद योगी आदित्यनाथ ने फैज़ाबाद आकर जिस तरह की बयानबाज़ी की वह भी ग़ौर करने की चीज़ है, कि यदि मूर्ति बरामद नहीं हुई तो हमें जो करना है हम वो करेंगे। केन्द्रीय दुर्गा पूजा समिति के अध्यक्ष मनोज जायेसवाल (जो कि सपा के नेता हैं) ने कहा अगर मूर्ति बरामद नहीं होगी तो इस बार हम मूर्ति विसर्जन नहीं करेंगे। फैजाबाद जिले में खुलेआम योगी आदित्यनाथ के कैसेट बजाये जा रहे थे जो कि बेहद आपत्तिजनक बातों से भरे होते हैं कि ‘जिस हिन्दू का खून न खौला खून नहीं वह पानी है’, ‘मन्दिर वहीं बनाना है’, ने माहौल को बेहद गर्म कर दिया था। 24 अक्टूबर को दशहरे के दिन मूर्ति विसर्जन के लिए निकलने वाली शोभा यात्रा के चौक पहुँचने पर पहले अफवाह उड़ी कि दो गुटों में मारपीट हो गयी है। इससे लोगों में कुछ गड़बड़ी की आशंका फैल गयी, दोनों पक्ष के लोग उत्तेजित हो गये। इसके बाद दूसरी अफवाह की किसी समुदाय विशेष ने लड़की के साथ छेड़खानी की है। इसके बाद दोनों पक्षों में मारपीट व गुम्मेबाज़ी (ईंट फेंकना) शुरू हो गयी और इसी बीच कुछ दंगाइयों ने चौक स्थित दुकानों में लूटपाट व आगजनी शुरू की। दंगाइयों ने मस्जिद में तोड़फोड़ की, वहाँ पर स्थित अखबार के दफ्तर में लूटपाट व तोड़फोड़ की, बाकी ऊपर स्थित दुकानों में आग लगा दी, लूटे गये सामान को ट्रक में लेकर भाग गये। इस वक्त संघ के कार्यकर्ताओं की उपस्थिति को भी देखा गया। दुकानदारों, मस्जिद के चौकीदार के बार-बार कहने के बाद भी मौजूदा पुलिस बल व अधिकारी मूकदर्शक बने रहे और दंगाई नंगा नाच खेलते रहे। फैज़ाबाद में हुए दंगे को इसी जिले के रुदौली व भदरसा में उसी दिन, कुछ घण्टे पहले हुए दंगे व उसकी अफवाहों से और हवा मिली थी। मुस्लिम समुदाय की तरफ से उग्र प्रतिरोध न होने से इस दंगे को बड़ा रूप नहीं दिया जा सका। जबकि अफवाहों को फैलाने वाले समूह जगह-जगह सक्रिय थे।
इस घटना के पीछे राज्य सरकार की मंशा पर काफी बड़े सवाल खड़े हो रहे हैं। क्या सरकार का खुफिया विभाग सो रहा था कि उसने महीने भर से बनाये जा रहे माहौल की खबर स्थानीय व उच्च स्तर के अधिकारियों को नहीं दी थी क्योंकि दंगे के समय कोई बड़ा अधिकारी मौके पर नहीं था? इस घटना के बाद मुख्यमन्त्री का यह कहना कि ये दंगे विपक्षियों की साजिश का नतीजा हैं, यही स्पष्ट करता है कि राज्य सरकार फिरकापरस्त ताकतों को छूट देकर अपनी चुनावी गोटी लाल कर रही है, और उसका ध्यान 2014 में होने वाले लोकसभा के चुनावों पर है। अन्यथा वह चौक जैसे संवेदनशील इलाके को भगवान भरोसे नहीं छोड़ती। इसके लिए यह तथ्य यही काफी है कि आग बुझाने के लिए तैनात की गयी दो अग्निशमन गाड़ियों में से एक में पानी ही नहीं था और दूसरी थोड़ी ही देर में खाली हो गयी जो पानी भरने गयी तो वापस ही नहीं लौटी।
दूसरी ओर भाजपा के बड़े नेता इन दंगों को सपा की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीतियों को बता रहे हैं कि सपा ने आतंकवादियों को छोड़ने, समुदाय विशेष की लड़कियों को 30 हजार की सहायता राशि देने, रंगनाथ मिश्रा कमेटी की सिफारिशों को लागू करने का संकल्प लिया है जिसके नतीजे के तौर पर यह सब हो रहा है। इसके साथ ही भाजपा, हिन्दू युवा वाहिनी, शिवसेना जैसे संगठन पूरे पूर्वांचल में नफरत का ज़हर फैला रहे हैं। सिद्धार्थनगर में हिन्दू युवा वाहिनी के पदाधिकारी खुले आम ऐलान कर रहे हैं कि प्रदेश सरकार गोकशी को रोकने का कानून बनाये अन्यथा किसी गोकशी की घटना होने पर पुलिस को इत्तला दिये बिना मस्जिद के सामने सुअर को काट दो। इस तरह के बयान एक पूरे समुदाय को आतंकित करने के लिए किये जा रहे हैं। फैजाबाद की अगली कड़ी में गोरखपुर, सिद्धार्थनगर, पडरौना, आजमगढ़, बलिया के क्षेत्र भी आते हैं तो यह आश्चर्य की बात नहीं होगी। फैज़ाबाद का यह दंगा सपा के सत्ता में आने के बाद शुरू हुए दंगों में सबसे हालिया दंगा है। इसके पहले बरेली, मुजफ्रफरनगर, प्रतापगढ़ के अस्थान, कोसीकला आदि जगहों पर दंगे हो चुके हैं जिसमें हिन्दूवादी ताकतों के साथ ही सपा के विधायकों/नेताओं की संलिप्तता भी उजागर हुई है।
जनता की लाशों पर राजनीति करने वाले ये पूँजीवादी चुनावी मदारी अपने खूनी खेल में लगे हैं। जो सीधे या परोक्ष रूप में इसमें नहीं शामिल हैं वे अपने को जनता का हितैषी होने, प्रगतिशील होने के रूप में अपने को पेश कर रहे हैं और बड़े शातिराना तरीके से अपना चुनावी खेल खेल रहे हैं। जबकि हम सभी जानते हैं कि सभी चुनावी मदारी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं उनके नारों व झण्डों में ऊपरी फर्क ही होता है। आज के दौर में दक्षिण व ”वाम” की विभाजक रेखाएँ काफी धुंधली होती जा रही हैं। दूसरा संसद और विधान सभाओं में अल्पमत-बहुमत की नौटंकी करके इन साम्प्रदायिक दंगों को नहीं रोका जा सकता है। इतिहास इसका गवाह है। किसी भी जातीय-धार्मिक दंगे द्वारा पूँजीवादी व्यवस्था के वफादार चाकर राज्यसत्ता के ऊपर आने वाले तात्कालिक संकट को कुछ समय के लिए टालने में सफल हो जाते हैं। क्योंकि वे जनता का ध्यान उन मुद्दों से हटा देते हैं जिससे कि उनकी जिन्दगी बेहद तकलीफदेह बन गयी होती है। मसलन, हम महँगाई, बेरोज़गारी, अशिक्षा, कुपोषण, अन्याय आदि मुद्दों पर, उसके असली नियन्ताओं की शिनाख़्त कर उसे बदलने के बारे में सोचने की बजाये, फलाँ जाति-धर्म वाले को अपना दुश्मन व अपनी सभी परेशानियों का कारण समझने लगते हैं और अपने असली दुश्मन को भूल जाते हैं। ग़रीब मज़दूरों, किसानों के असली दुश्मन पूँजीपति हैं और चुनावी पार्टियाँ इन्हीं के वफादार व काट खाने वाले कुत्ते हैं। समय-समय पर इन कुत्तों को पूँजीपति जनता पर छोड़ देते हैं। इस काट खाने की कीमत भी जनता अपना पेट काटकर ही चुकाती है क्योंकि वही हमारे जनप्रतिनिधि जो बनते हैं! इसलिए आज ज़रूरी है कि तमाम लोग जो इंसाफपसन्द हैं, अमनपसन्द है, मानवता के भविष्य के प्रति आशावान हैं वे इन तमान चुनावी मदारियों, वे जो जाति-धर्म को राजनीति से जोड़ते है उनका साथ छोड़कर आम लोगों की वर्गीय एकता को कायम करने का प्रयास करें। भगतसिंह के अनुसार, ‘’वर्ग चेतना का यही सुन्दर रास्ता है जो साम्प्रदायिकता को रोक सकता है” साथ ही एक एक ऐसी राजनीति का आधार तैयार कर सकता है जो जनता के असली दुश्मनों का सफाया कर दे तथा एक ऐसी समाज का निर्माण करे जहाँ, ऊँच-नीच, धर्म-जाति, रंग भेद का नामोनिशान नहीं होगा।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-दिसम्बर 2012
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