जस्टिस काटजू का विधवा-विलाप और भारतीय मीडिया की असलियत

आनन्द

यदि आप गूगल पर  ‘Katju on Media’ सर्च करें तो आपको सेकेण्ड के तीसरे हिस्से से भी कम समय में तीन लाख से भी ज़्यादा लिंक मिलेंगे जिनमें भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष जस्टिस मार्कण्डेय काटजू द्वारा हाल के दिनों में भारतीय मीडिया पर दिये गये बयानों की चर्चा होगी। जस्टिस काटजू निश्चय ही इस बात से सन्तुष्ट होंगे कि उनकी ‘तीखी’ आलोचनाओं से मीडिया में एक नयी बहस उठ खड़ी हुई है। मध्य वर्ग का एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा जस्टिस काटजू के ‘रैडिकल’ तेवरों को देख उनको नायक का दर्जा देकर इस बात की आस लगाये बैठा है कि शायद अब मीडिया सुधर जायेगा। अपनी बढ़ती ख्याति देख जस्टिस काटजू आये दिन मीडिया को नयी-नयी नसीहतें दे रहे हैं। लेकिन उनके बयानों में एक भी ऐसी बात ढूंढ़ने पर भी नहीं मिलती जो भारतीय मीडिया के दर्शकों, श्रोताओं और पाठकों के लिए नयी हो। उल्टे, काटजू महोदय मीडिया के बारे में जितनी बातें उजागर करते हैं उससे ज़्यादा वो छुपा जाते हैं। शायद इसीलिए मीडिया को उनकी आलोचनाओें को ‘प्राइम टाइम’ में जगह देते हुए ज़रा भी हिचक नहीं होती! सच तो यह है कि मीडिया अन्य सभी ख़बरों की तरह जस्टिस काटजू की आलोचनाओं को भी एक माल में परिवर्तित कर बेच रही है।

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इस सच्चाई से भला कौन नहीं वाकिफ़ है कि मीडिया ख़बरों को सनसनीखेज़ तरीके से प्रस्तुत करता है। इसको तो मीडिया भी नहीं छिपाता, उल्टे वह तो इसको गर्व के साथ प्रचारित करता है। एक टी.वी. चैनल के एक कार्यक्रम का नाम ही ‘सनसनी’ है! जस्टिस काटजू इस बात पर सिसकियाँ भरते हैं कि मीडिया ग़रीबी, भुखमरी, बेरोज़गारी और महँगाई जैसी समस्याओं, जो देश की 80 फ़ीसदी आबादी को बुरी तरह प्रभावित करती हैं, पर ध्यान केन्द्रित करने की बजाय गै़र-ज़रूरी मुद्दों जैसे पि़फ़ल्म कलाकारों की निजी जिन्दगी, फ़ैशन परेड, क्रिकेट मैच, पॉप म्यूजिक, डिस्को डांस, ज्योतिष, रियैलिटी शो इत्यादि पर ज़्यादा ज़ोर देती है। काटजू महोदय इस बात पर भी दुख प्रकट करते हैं कि आतंकवाद की घटनाओं को कवर करते वक़्त मीडिया बिना कोई पड़ताल किये तुरन्त मुसलमानों को जिम्मेदार ठहरा देता है। उन्हें इस बात पर भी बेहद अफ़सोस होता है कि मीडिया समाज में वैज्ञानिक और तार्किक विचारों की बजाय अन्धविश्वास फैला रहा है। भारतीय मीडिया के अधःपतन के बारे में जिन बातों का जिक्र जस्टिस काटजू के बयानों में अक्सर होता है वे निश्चय ही चिन्ता का कारण हैं। लेकिन ये मीडिया के सतही लक्षण हैं जो जगजाहिर हैं। हालाँकि, काटजू महोदय इनका जिक्र तो संजीदगी से करते दिखायी पड़ते हैं लेकिन उनकी तहों तक जाने से वे आश्चर्यजनक रूप से कतराते हैं और उसकी बजाय वे पादरियों की भाँति मीडिया को नैतिक आचरण करने का सदुपदेश देते दिखायी पड़ते हैं।

जस्टिस काटजू को यह बात भी नागवार गुज़रती है कि भारत में ज़्यादातर पत्रकारों का बौद्धिक स्तर काफ़ी नीचे है। उनके अनुसार भारत के अधिकांश पत्रकारों को दर्शन, साहित्य और इतिहास की कोई समझ नहीं है। पत्रकारों की बौद्धिक क्षमता पर सवाल उठाते वक़्त काटजू महोदय इस बात को छुपा जाते हैं कि भारतीय मीडिया में ज़्यादातर पत्रकार अब दलाल, कॉरपोरेट लॉबिस्ट और स्टेनोग्राफ़र की भूमिका निभाते हैं। पत्रकारों की इस नयी भूमिका में बौद्धिकता की नहीं बल्कि चापलूसी, जुगाड़, तिकड़म, धूर्तता और मक्कारी की ज़रूरत होती है और इन सारी विधाओं में भारतीय पत्रकारों की क्षमता पर कोई सवालिया निशान नहीं लगा सकता!

हाल ही में अंग्रेज़ी अख़बार ‘द हिन्दू’ में भारत में मीडिया की भूमिका से सम्बन्धित जस्टिस काटजू का एक लेख प्रकाशित हुआ। इस लेख को पढ़ने से ऐसा जान पड़ता है मानो वे पत्रकारों के सम्मुख बौद्धिकता की एक नज़ीर पेश करना चाह रहे हों। इसमें उन्होंने मिर्जा ग़ालिब से लेकर शेक्सपियर, वाल्तेयर, दिदेरो और टॉमस पेन तक का उल्लेख किया है। इस लेख की शुरुआत में वे लिखते हैं कि मौजूदा समय में भारत एक कृषि-प्रधान सामन्ती समाज से आधुनिक औद्योगिक समाज की ओर संक्रमण के दौर से गुज़र रहा है। उनके अनुसार यह संक्रमण काल किसी भी देश के इतिहास में बेहद पीड़ादायी होता है। लेकिन अपने पूरे लेख में वह कहीं भी इस ‘पीड़ादायी दौर’ का असली नाम (पूँजीवाद) नहीं लेते और कुछ ऐसी तस्वीर पेश करते हैं मानो पश्चिमी विकसित देशों में मीडिया इस पीड़ादायी दौर (पढ़िये पूँजीवाद) से प्रभावित नहीं हुआ था और भारत में भी मीडिया को ऐसा आचरण करना चाहिए जिससे इस दौर की पीड़ा कम की जा सके। भारत के पत्रकारों से नहीं तो कम से कम जस्टिस काटजू जैसे विद्वान से यह उम्मीद की जा सकती है कि मानव सभ्यता के इतिहास की विभिन्न मंजिलों का सटीक वर्णन करें। हालाँकि वे इस बात का जिक्र करते हैं कि हमें मीडिया की भूमिका को समझने के लिए ऐतिहासिक सन्दर्भ को समझना होगा, लेकिन उनके पूरे लेख को पढ़ने के बाद ऐसा प्रतीत होता है मानो उन्होंने वाल्तेयर, दिदेरो और टॉमस पेन के युग के बाद के इतिहास के पन्नों को पलटने की ज़हमत नहीं उठायी। यदि वे यह ज़हमत उठाते तो पाते कि जिस प्रकार के आचरण के लिए वे भारतीय मीडिया की आलोचना कर रहे हैं वह भारत की विशिष्टता नहीं बल्कि मीडिया का ऐसा जन-विरोधी आचरण अमेरिका और यूरोप में उन्नीसवीं शताब्दी में पूँजीवाद के अधःपतन के साथ ही शुरू हो चुका था।

यदि काटजू महोदय इतिहास के अपने अध्ययन को ज़रा और विस्तार देते तो शायद वे भारतीय मीडिया के आचरण पर इतना चकित और अचम्भित नहीं होते क्योंकि तब वे पाते कि उन्नीसवीं सदी में ही कार्ल मार्क्स ने कहा था कि “पत्र-पत्रिकाओं के व्यवसाय की स्वतन्त्रता एक विभ्रम है। उनकी एकमात्र स्वतन्त्रता उनके व्यवसाय न होने की स्वतन्त्रता ही हो सकती है।” मीडिया के ही सन्दर्भ में लेनिन ने बीसवीं सदी के प्रारम्भ में कहा था कि फ्पूँजीपतियों के पैसे से चलने वाले अख़बार पूँजी की ही सेवा कर सकते हैं।“ अमेरिका के प्रसिद्ध उपन्यासकार अप्टन सिंक्लेयर ने अमेरिकी मीडिया के सन्दर्भ में एक शताब्दी पहले ही कहा था कि “राजनीति, पत्रकारिता तथा बड़े पूँजीपति हाथ में हाथ मिलाकर जनता तथा मज़दूरों को लूटते और धोखा देते हैं।” जब जस्टिस काटजू भारतीय मीडिया को पश्चिम से सीखने की नसीहत देते हैं तो वह भूल जाते हैं वह भारतीय मीडिया दरअसल पश्चिमी मीडिया के ‘मर्डोकीकरण’ की परिघटना से ही प्रेरणा ले रही है।

विश्व इतिहास के सन्दर्भ में तो जस्टिस काटजू को इस सन्देह का लाभ दिया जा सकता है कि शायद वे अभी उत्तर-प्रबोधनकालीन यूरोप के इतिहास के अध्ययन की प्रक्रिया में होंगे और शायद इसीलिए वे अभी तक प्रबोधनकालीन ‘नॉस्टैल्जिया’ में ही जी रहे हैं। लेकिन भारतीय समाज और भारतीय मीडिया के घनघोर पूँजीवादी चरित्र का एहसास उनको न हो, यह बात गले से नहीं उतरती। क्या जस्टिस काटजू इस सच्चाई से अवगत नहीं हैं कि भारत में सभी बड़े अख़बारों और ग़ैर-सरकारी न्यूज़ चैनलों का मालिकाना हक पूँजीपति घरानों के हाथ में है! जब भारतीय मीडिया के अधःपतन पर जस्टिस काटजू का विधवा-विलाप अपने चरम पर था, उसी दौरान एक ऐसी ख़बर आयी जिसने यह स्पष्ट संकेत दे दिये कि भारतीय मीडिया का बाज़ार अब स्वतन्त्र प्रतियोगिता वाले पूँजीवादी दौर से भी आगे निकल इज़ारेदार पूँजीवाद के दौर में प्रविष्ट हो चुका है। देश के सबसे बड़े पूँजीपतियों में से एक मुकेश अम्बानी की रिलायंस इण्डस्ट्रीज़ लिमिटेड ने इस वर्ष की शुरुआत में एक जटिल बहुसंस्तरीय सौदे के ज़रिये कई राज्यों में अख़बार और टी-वी- न्यूज़ चैनल चलाने वाले दक्षिण भारत के ‘ईनाडू’ मीडिया समूह में अपनी हिस्सेदारी देश के एक अन्य मीडिया दैत्य ‘नेटवर्क-18’ (सी.एन.एन.-आई.बी.एन., आई.बी.एन.-7, सी.एन.बी.सी., टी. वी.-18 आदि का मालिक) को बेचने के बाद ‘नेटवर्क-18’ में अपनी हिस्सेदारी ख़रीदकर दोनों मीडिया समूहों पर अपना अच्छा-ख़ासा नियन्त्रण कर लिया है। इस सौदे के ज़रिये अम्बानी ने मीडिया को भी अपनी ‘मुट्ठी में करने’ की मंशा साफ़ ज़ाहिर कर दी है। ज्ञात हो कि यह सौदा रिलायंस की भारतीय मीडिया पर नियन्त्रण करने की दूरगामी योजना का हिस्सा है। रिलायंस इण्डस्ट्रीज़ लिमिटेड मीडिया के वितरण के क्षेत्र में भी इंपफ़ोटेल ब्राडबैण्ड सर्विसेज़ नामक होल्डिंग कम्पनी के ज़रिये प्रवेश कर रही है।

केवल रिलायंस ही नहीं, कई अन्य देशी व विदेशी कॉरपोरेट घराने भारतीय मीडिया के बाज़ार पर कब्ज़ा करने की ज़ोर-आज़माइश में लगे हैं। पिछले कुछ सालों से मीडिया के क्षेत्र में बड़ी पूँजी द्वारा छोटी पूँजी को लील जाने के अनेक उदाहरण सामने आये हैं और आने वाले समय में यह प्रक्रिया निश्चय ही तेजी़ पकड़ेगी। वैसे तो भारत में ‘क्रॉस ओनरशिप’ से सम्बन्धित कोई पाबन्दी न होने से पहले से ही कई मीडिया समूह प्रिण्ट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया दोनों ही क्षेत्रें मे दबदबा रखते हैं (जैसे कि इण्डिया टुडे ग्रुप, टाइम्स ग्रुप, ईनाडू ग्रुप इत्यादि), लेकिन रिलायंस जैसे बड़े दैत्य के इस क्षेत्र में खुलेआम कूद पड़ने से आने वाले दिनों में बची-खुची छोटी मछलियों को बड़ी मछलियों द्वारा लील जाने की प्रबल सम्भावना है। यानी कि देश में समाचारों की रही-सही विविधता भी समय बीतने के साथ कम ही होने की सम्भावना है। यह हैरानी की बात है कि भारतीय मीडिया की दुर्दशा को लेकर जस्टिस काटजू के जितने भी बयान अभी तक आये हैं उनमें मीडिया की लोकतन्त्र के रखवाले बाहरी दिखावे वाली छवि के पीछे की इस घृणित पूँजीवादी चरित्र का जिक्र तक नहीं होता।

जस्टिस काटजू मीडिया को सही रास्ते पर लाने की कितनी भी नसीहतें देते फिरें, मीडिया के मालिकों को यह अच्छी तरह पता है कि वे जिस रास्ते पर चल रहे हैं वही उनके लक्ष्य को पूरा करने का, यानी, अकूत मुनाफ़ा कमाने का रास्ता है। देश में सबसे ज़्यादा बिकने वाले अंग्रेज़ी अख़बार ‘टाइम्स ऑफ इण्डिया’ के मालिकों में से एक समीर जैन खुले आम यह बात कहता है कि अख़बार और कुछ नहीं एक माल है और इसलिए समाचारों को बेचने में कुछ भी बुरा नहीं है और हम वही बेचते हैं जो उपभोक्ता (पाठक) की माँग होती है। इस बयान की रोशनी में इस तथ्य को आसानी से समझा जा सकता है कि क्यों ‘टाइम्स ऑफ इण्डिया’ का मुनाफ़ा न्यूयार्क टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट और वॉल स्ट्रीट जरनल के मुनाफ़ों के कुल योग से भी अधिक है। मीडिया समूह तो अब खुले तौर पर इस बात का दम्भ भरते हैं कि भारत में समाचार, मनोरंजन और खेलों के बीच की विभाजक रेखा धूमिल होती जा रही है। आई.पी.एल. इस नंगी सच्चाई का सबसे बड़ा उदाहरण है जिसके करीब आते ही अख़बारों और न्यूज़ चैनलों की तो बाँछें खिल जाती हैं क्योंकि इस दौरान उनको क्रिकेट, बालीवुड, राजनीति, अश्लीलता की मिली-जुली गरमागरम मसालेदार चटपटी ख़बरें आसानी से मिल जाती हैं जो उनके मुनाफ़े की हवस शान्त करने का बेहतरीन माध्यम हैं।

एक दौर था जब यह माना जाता था कि समाचार पत्रों और न्यूज़ चैनलों की आय का मुख्य स्रोत विज्ञापन होते हैं। लेकिन अब भारतीय मीडिया ने अपनी आय के ड्डोतों में विविधता लाने के नये तरीके, मिसाल के लिए ‘प्राइवेट ट्रीटी’, ‘प्रमोशनल डील’, ‘कारपोरेट अवार्ड’ और ‘पेड न्यूज़’ आदि ईजाद कर लिये हैं। ‘प्राइवेट ट्रीटी’ में मीडिया घराने किसी कम्पनी से सौदा करते हैं जिसके तहत वे उस कम्पनी को नकारात्मक ‘कवरेज’ न देने का और सकारात्मक ‘कवरेज’ देने का वायदा करते हैं और बदले में उस कम्पनी के शेयर हथियाते हैं। शेयर बाज़ार सूचकांक के गिरने से मीडिया में जो खलबली मचती है उसका कारण भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर मीडिया की चिन्ता ही नहीं होती बल्कि उनके अपने शेयरों की कीमत में गिरावट से होने वाले घाटे भी होते हैं। ‘प्रमोशनल डील’ के तहत मीडिया घराने कम्पनियों से सौदा करते हैं कि वे अपने कार्यक्रमों के ज़रिये कम्पनी के ‘ब्राण्ड’ को बढ़ावा देंगे। ‘तू मेरी खुजला मैं तेरी खुजलाऊँ’ वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए मीडिया घराने ‘कॅारपारेट लीडरशिप एवार्ड’ देते हैं और कॉरपारेट घराने ‘मीडिया एवाडर्स’ देते हैं!

जब उपरोक्त तरीकों से भी मीडिया दैत्यों के मुनाफ़े की हवस नहीं शान्त हुई तो उन्होंने ‘पेड न्यूज़’ नामक नया हथकण्डा ईजाद किया। उन्होंने अपनी मुनाफ़े वाली नज़र चुनावों में नेताओं और चुनावी दलों द्वारा पानी की तरह बहाये जाने वाले धन पर टिकायी। वैसे तो यह पहले से ही होता रहा होगा लेकिन पिछले लोकसभा चुनावों में और महाराष्ट्र विधान सभा चुनावों में यह नंगे रूप में सामने आया कि कई अख़बारों ने नेताओं से पैसा लेकर उनकी प्रशस्ति में लेख प्रकाशित किये और वह भी विज्ञापन के रूप में नहीं बल्कि बाकायदा समाचार और सम्पादकीय के रूप में। ऐसा पाया गया है कि चुनावों के समय कई पत्रकार दलालों की तरह ‘रेट कार्ड’ लेकर नेताओं के इर्द-गिर्द घूमते हैं जिसमें केवल न सिर्फ किसी नेता के पक्ष में ख़बरें छापने के रेट लिखे होते हैं बल्कि इसके भी अलग रेट होते हैं कि विपक्षी उम्मीदवार से सम्बन्धित ख़बरें न छापी जायें या उनकी नकारात्मक तस्वीर ही प्रस्तुत की जाये। ‘पेड न्यूज़’ की इस परिघटना ने भारतीय पूँजीवादी लोकतंत्र के ‘स्वतन्त्र और निष्पक्ष’ चुनावों के सारे दावों की रही-सही हवा भी निकाल दी है।

तमाम घपलों-घोटालों के सामने आने के बावजूद पूँजीवादी भारतीय मीडिया किस्म-किस्म के हथकण्डों के ज़रिये मुनाफ़ा कमाने के अलावा शासक वर्ग की नीतियों, विचारों और संस्कृति के पक्ष में सहमति के निर्माण का कार्यभार भी बखूबी निभाती है। इस सच्चाई का अन्दाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले दो दशकों से जारी नवउदारवादी नीतियाँ देश की व्यापक आम आबादी के लिए भले ही प्राणघातक हों और भले ही वे समाज में बढ़ते हुए भ्रष्टाचार का मूल कारण हों, देश के लगभग सभी अख़बारों और न्यूज़ चैनलों में उनके प्रति आम सहमति रहती है और उनके प्रति आलोचनात्मक विश्लेषण नियम की बजाय अपवाद होता है। यह अमूमन देखने में आया है कि तथाकथित आर्थिक सुधारों की पैरोकारी में तो भारतीय मीडिया बुज़ुर्आ राजनीतिक दलों से भी दो कदम आगे रहता है और बुर्जुआ वर्ग के भोंपू जैसा आचरण करता है। यही नहीं विभिन्न मीडिया समूह अलग-अलग राजनीतिक दलों के खेमों में बँटे होते हैं और इस या उस राजनीतिक दल की तरफ़दारी करते हैं। राजनीतिक दलों और नेताओं की विभिन्न मीडिया घरानों में प्रत्यक्ष या परोक्ष हिस्सेदारी होती है। तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश और महाराष्ट्र समेत कई राज्यों में तो नेता खुलेआम अख़बार और टी-वी- चैनल चलाते हैं। मीडिया घरानों की आपसी होड़ और उनके अन्तरविरोधों की वजह से भारतीय लोकतन्त्र की गटरगंगा के बारे में जो खुलासे हुए हैं वे हालाँकि व्यवस्था के पतन की ओर साफ़ इशारा करते हैं, लेकिन उनके जरिये समूची व्यवस्था को खड़े करने की बजाय मीडिया लोगों का गुस्सा कुछ नेताओं, नौकरशाहों और राजनीतिक दलों के खि़लाफ़ केन्द्रित कर देता है जिससे जनता को समस्याओं की असली जड़ यानी पूँजीवादी व्यवस्था के बारे में जानकारी नहीं पहुँच पाती। मीडिया में ख़बरों का चयन, उनकी प्राथमिकता, बहसतलब मुद्दे, जनता की भावनाएँ और आकांक्षाएँ, जन प्रतिरोध इत्यादि कुछ इस तरह प्रस्तुत किये जाते हैं जिससे जनता में भ्रष्ट नेताओं के खि़लाफ़ तो गुस्सा रहता है लेकिन विश्व और जीवन दृष्टि के रूप में कुल मिलाकर शासक वर्ग के विचारों का ही वर्चस्व कायम रहता है।

ऐसे परिदृश्य में मुनाफ़ाखोर मीडिया से यह अपेक्षा करना कि वह जनता का पक्ष लेगा और वैज्ञानिक तथा प्रगतिशील दृष्टिकोण बनाने में सहायक होगा, आकाश-कुसुम की अभिलाषा के समान लगता है। यह तो तय है कि जैसे-जैसे मीडिया पर बड़ी पूँजी का शिकंजा कसता जायेगा, वैसे-वैसे मीडिया का चरित्र ज़्यादा से ज़्यादा जनविरोधी होता जायेगा और आम जनता के जीवन की वास्तविक परिस्थितियों और मीडिया में उनकी प्रस्तुति के बीच की दूरी बढ़ती ही जायेगी। जस्टिस काटजू की यह बात तो सही है कि भारत में पत्र-पत्रिकाओं का एक गौरवशाली अतीत रहा है और विशेषकर स्वतन्त्रता संघर्ष के दौरान उनकी बेहद सकारात्मक और प्रगतिशील भूमिका रही है। लेकिन वह यह बात भूल जाते हैं कि ऐसी सभी पत्र-पत्रिकाएँ जनता के संघर्षों की तपन में उपजी और पनपी थीं और उनका उद्देश्य मुनाफ़ा कमाना हरगिज़ नहीं था। आज के दौर में पूँजीवादी मीडिया से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती की वह जनता का पक्ष ले। यह कार्यभार अब जनसंघर्षों से जुड़ी प्रगतिशील और क्रान्तिकारी ताकतों के जिम्मे आ गया है कि वे पूँजीवादी मीडिया के बरक्स एक वैकल्पिक जनमीडिया खड़ा करें। यह वैकल्पिक मीडिया पूँजी की ताकत पर नहीं बल्कि जनता के अपने संसाधनों पर निर्भर होना चाहिए। तभी और केवल तभी वह शासक वर्ग के वैचारिक और सांस्कृतिक वर्चस्व को तोड़ने में सक्षम होगा और समाज में वैज्ञानिक, प्रगतिशील और क्रान्तिकारी विचारों की पैठ बना पाने में सफल होगा।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2012

 

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