संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार के दूसरे कार्यकाल का एक वर्ष
आसमान छूती महँगाई
अमीर-ग़रीब के बीच बढ़ती खाई
बढ़ती बेरोज़गारी, कुपोषण, भुखमरी
किस बात का जश्न?
अजय
24 मई 2010 को प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार के दूसरे कार्यकाल का एक वर्ष पूरा होने के मौके पर एक प्रेस सम्मेलन बुलाया और उसमें सरकार की पिछले एक वर्ष की उपलब्धियों को गिनाया। मनमोहन सिंह ने जिन चीज़ों को उपलब्धि के रूप में गिनाया, वे निश्चित रूप से इस देश के कारपोरेट घरानों और खाए-पिये-अघाए उच्च मध्यवर्ग के लिए उपलब्धियाँ थीं। बजट में कारपोरेट घरानों और उच्च मध्यवर्ग को ज़बर्दस्त छूटें और रियायतें दी गई ताकि उनकी समृद्धि नयी ऊँचाइयों तक पहुँचे। धनी किसानों को भी तमाम पैकेज दिये गये और उनका जमकर तुष्टिकरण किया गया। पिछले एक वर्ष में संप्रग सरकार ने किस तरह से वैश्विक मन्दी के हानिकारक प्रभावों से अर्थव्यवस्था को बचाया, इसका भी काफी बख़ान किया गया। ग़रीबों के लिए सरकार ने क्या किया इसके बारे में बताते हुए सिर्फ़ उन सुधारवादी योजनाओं का नाम लिया गया जो संप्रग सरकार के पिछले कार्यकाल में ही लागू की गईं थीं। मिसाल के तौर पर, महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी योजना, सूचना का अधिकार, आदि। इन योजनाओं का कितने प्रभावी रूप से कार्यान्वयन हो रहा है, यह किसी से छिपा नहीं है। अब तक मध्यप्रदेश, उड़ीसा, बिहार और पश्चिम बंगाल में मनरेगा में करोड़ों के घोटाले सामने आ रहे थे, और अब उत्तर प्रदेश, गुजरात, झारखण्ड में भी ये मामले सामने आने लगे हैं। पूरे देश में ही इस योजना का कार्यान्वयन भ्रष्टाचार, अयोग्यता और घोटालों से भरा हुआ है। इसके अलावा सरकार ने खाद्य सुरक्षा अधिनियम की बात की, जिसे वास्तव में खाद्य असुरक्षा अधिनियम कहना अधिक उपयुक्त होगा। कारण यह कि इस प्रस्तावित कानून के तहत दिये जाने वाले अनाज की मात्रा को 35 किग्रा से घटाकर 25 किग्रा कर देने की योजना है। हालाँकि, सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय था कि यह मात्रा 35 किग्रा होनी चाहिए। इसके साथ ही यह कानून सार्वजनिक वितरण प्रणाली को पंगु बना देने के हर इंतज़ाम से लैस है। ग़रीब परिवारों की पहचान करके उन्हें खाद्य कूपन देने की योजना का क्या हश्र होगा, इसका पूर्वानुमान अभी ही लगाया जा सकता है। जब ग़रीबी रेखा के नीचे बसर करने वाले परिवारों के राशन कार्ड बनने तक में करोड़ों रुपये के घोटाले हो रहे हैं तो कूपन देने की प्रणाली का क्या अंजाम होगा, यह समझा जा सकता है।
कुल मिलाकर सरकार के पास उपलब्धि के रूप में गिनाने के लिए मन्दी से बचना, वृद्धि दर को अधिक गिरने से बचाना, महिला आरक्षण बिल आदि जैसी कुछ बातें थीं जिनका इस देश की आम जनता से कोई लेना-देना नहीं है। ये सबकुछ पूँजीपति वर्ग की कारगर तरीके से चाकरी करने के रिपोर्ट कार्ड से अधिक और कुछ नहीं था।
वास्तव में पिछले एक साल में देश की ग़रीब मेहनतकश जनता को क्या मिला है, यह सभी जानते हैं। खाद्य सामग्री की मुद्रास्फीति दर 17 प्रतिशत के करीब जा रही है, जिसका अर्थ है आम आदमी की थाली से एक-एक करके दाल, सब्ज़ी आदि का ग़ायब होता जाना। रोज़गार सृजन की दर नकारात्मक में चल रही है। कुल मुद्रास्फीति की दर भी जून के तीसरे सप्ताह में 10 प्रतिशत को पार कर गयी। यानी कि रोज़मर्रा की ज़रूरत का हर सामान महँगा हो जाएगा। इसकी सबसे भयंकर मार देश के मज़दूर वर्ग, ग़रीब किसानों, और आम मध्यवर्ग पर पड़ेगा। कारपोरेट घरानों को तमाम करों और शुल्कों से जो छूट दी गई है उससे सरकारी ख़ज़ाने को हज़ारों करोड़ रुपये का नुकसान हुआ जिसकी भरपाई सरकार ने अप्रत्यक्ष करों में पूर्ण रूप से वृद्धि के रूप में की है। पहले से ही मुद्रास्फीति का दबाव झेल रही कीमतें अप्रत्यक्ष करों में वृद्धि के कारण और बढ़ी हैं। वहीं सरकार ने पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में बढ़ोत्तरी कर इन कीमतों को और अधिक बढ़ा दिया। संक्षेप में कहें तो कारपोरेट घरानों के मुनाफे को कायम रखने और बढ़ाने की कीमत सरकार आम जनता की जेब पर अधिक से अधिक बोझ डालकर वसूल रही है। पूँजीपति वर्ग की चाँदी ही चाँदी और जनता की बरबादी!
पूँजीपति वर्ग की इस सेवा के लिए उनका प्रतिनिधित्व करने वाले पूँजीवादी पार्टियों के नुमाइंदे भी पूरी कीमत वसूल रहे हैं। जाहिर है यह कीमत भी अम्बानियों, जिन्दलों और मित्तलों से नहीं बल्कि इस देश की समस्त सम्पदा का उत्पादन करने वाले मेहनतकश वर्गों से वसूली जा रही है। प्रधानमन्त्री और मन्त्रीमण्डल की सुरक्षा से लेकर उनके ऐशो-आराम तक के व्यय को हालिया बजट में बढ़ा दिया गया। कानूनी तरीके से अपनी आय में बढ़ोत्तरी करने के अलावा नेताओं और नौकरशाहों का वर्ग भ्रष्टाचार के जरिये काला धन छापने का काम भी बड़े पैमाने पर कर रहा है। बीते वर्ष केन्द्रीय सरकार के चार मन्त्री अलग-अलग मामलों में घोटाले में फँसे। शशि थरूर, शरद पवार और प्रफुल्ल पटेल आई.पी.एल. के घोटाले में फँसे और ए.राजा 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में फँसे। ये तो वे नाम थे जो सामने आ गये। हम मानकर चल सकते हैं कि सरकार के तमाम अन्य मन्त्री और नौकरशाह भी सूखी तनख्वाह पर बसर नहीं करते हैं!
सूचना के अधिकार की भी पिछले वर्ष काफी फजीहत हुई। जो लोग इस अधिनियम के आने पर खुशी से लोट-पोट हो गये थे, वे अब तय नहीं कर पा रहे हैं कि कैसे प्रतिक्रिया दें। एक तो कई सूचना अधिकार कार्यकर्ताओं के उत्पीड़न और हत्या के मामलों ने दिखला दिया कि पूँजीपति वर्ग जनता को मूर्ख बनाने के लिए कुछ रैडिकल और सुधारवादी कानून बना सकता है, लेकिन उन्हें सही तरीके से लागू करने का न उसका इरादा है और न ही उसकी इच्छा। अपना सिरदर्द और कम किया जा सके इसलिए संसद में बैठने वाले कथित जनप्रतिनिधियों ने सूचना अधिकार कानून में ही संशोधन की कोशिशें शुरू कर दी हैं जो देर-सबेर हो ही जाएगा; सीधे तौर पर या चोर दरवाज़े से।
कुल मिलाकर संप्रग गठबन्धन सरकार के दूसरे कार्यकाल का एक वर्ष पूँजीपतियों, धन्नासेठों, उच्च मध्यवर्ग, दलालों, ठेकेदारों और धनी किसानों के लिए सुनहला दौर था। इन्हें अपनी अकूत सम्पदा में वृद्धि के लिए सरकार ने हर तरीके से सहायक और प्रबन्धक की भूमिका निभाई। बजट से लेकर रोज़मर्रा के नीति सम्बन्धी निर्णयों में सरकार ने बार-बार साबित किया की वह पूँजीपति वर्ग की चाकरी करने वाली प्रबन्धन समिति से अधिक और कुछ भी नहीं है।
आम मेहनतकश ग़रीब आबादी और आम छात्रों-नौजवानों के लिए यह बीता वर्ष अपनी आँखें खोलने और जाग जाने के कई नये कारण दे गया है। यह हमें कई वजहें दे गया है कि हम अपना दिमाग़ी आलस्य, निराशा और कायरता को छोड़ें और आगे आकर इस देश की तकदीर बदलने के रास्तों के बारे में सोचना और काम करना शुरू करें। इस व्यवस्था में हमारा कोई भविष्य नहीं है। किसी भी किस्म की सुधारवादी योजना, वायदों और चुनावी नौटंकी के जरिये किसी नये लुटेरे या लुटेरों के गिरोह को चुन लेने से हमारी किसी समस्या का कोई समाधान नहीं होने वाला है। हमें इस समाज और व्यवस्था की चौहद्दियों से आगे सोचना होगा। और कोई विकल्प नहीं है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2010
'आह्वान' की सदस्यता लें!
आर्थिक सहयोग भी करें!