राष्ट्रमण्डल खेल – ”उभरती शक्ति“ के प्रदर्शन का सच
प्रेम प्रकाश
मशहूर कथाकार भीष्म साहनी की एक कहानी है ‘चीफ की दावत’। इसका कथानक कुछ यूँ है – एक मध्यवर्गीय व्यक्ति शामनाथ अपने घर एक अमेरिकी चीफ को दावत के लिए बुलाता है। वह इस बात से परेशान है कि अपनी बूढ़ी अनपढ़ माँ को कहाँ छिपाये कि चीफ के सामने वह न आ सके। वह यह भूल जाता है या यों कहें कि उसकी वर्गीय अवस्थिति उसे इस हद तक अमानवीय और क्रूर बना देती है कि जिसकी अस्थि मज्जा से वह चमक रहा है उसी का होना शामनाथ के दम्भी “आधुनिकता” और उभरते विकास में बाधक बन गया है। और अब मान लीजिये कि चीफ के पास खाना देर से पहुँचे तथा स्वादिष्ट न हो। कोई कथा समीक्षक इसकी समीक्षा करते हुए यह कहे कि इस कथा की प्रधान समस्या चीफ के सामने ठीक समय पर व्यंजनों को न पहुँचाने की है या यों कि रसोइये द्वारा सामान चुरा लिया गया। वास्तव में आज के भारतीय शासक वर्ग की स्थिति भी कुछ शामनाथ जैसी ही हो गयी है और मीडिया का हाल उसी कथा समीक्षक जैसा है।
आइये देखते हैं कि इस राष्ट्रमण्डल खेल के भ्रष्टमण्डल खेल में बदलने की असली नौटंकी क्या है?
दिल्ली में 3 अक्टूबर से 14 अक्टूबर तक चलने वाले इस राष्ट्रमण्डल खेल को लेकर ख़बरों का बाज़ार गर्म है। मीटिंग-मीटिंग, सैर-सपाटा, व चोरी-लूट का खेल मीडिया में सनसनी बना हुआ है। हर जुबान पर यही है – इस खेल का क्या होगा? देश की प्रतिष्ठा का क्या होगा? मानो एक प्रलयंकारी विपत्ति हमारे सामने आ गयी हो। हाय ख़ुदा! अब क्या करें? यह सब अचानक कैसे हो गया? आज एक ओर प्रमुख मुद्दा समय पर काम पूरा न होना, निर्माण कार्यों में लीकेज, छतों के टूटने की तस्वीरें, व अधूरे खेल परिसरों का उद्घाटन है तो दूसरी ओर आयोजन समिति द्वारा जनता के ख़ून-पसीने की कमाई को पानी की तरह बहाते हुए तमाम ठेका कम्पनियों के साथ मिलीभगत उजागर हुई। सत्ता पक्ष से लेकर विपक्ष के तमाम नेताओं ने इस आयोजन को लेकर प्रश्नचिन्ह लगाये हैं। केन्द्रीय सतर्कता आयोग ने कहा कि ‘ज़्यादातर काम बिना मानक के आनन-फानन में किये जा रहे हैं।’ शुरुआती आकलन में राष्ट्रमण्डल खेल से जुड़ी परियोजनाओं, बिजलीघर, मेट्रो स्टेशन आदि मिलाकर 63,284 करोड़ रुपये का ख़र्च होना था। अब माना जा रहा है कि कुल ख़र्च 80,000 करोड़ रुपये से भी ज़्यादा होगा।
आयोजन समिति के कोषाध्यक्ष अनिल खन्ना के बेटे को सिन्थेटिक टेनिसकोर्ट का ठेका दे दिया गया। बकिंघम पैलेस (लन्दन) में हुए ‘क्वींस बैटेन’ समारोह में भारी अनियमितता सामने आयी। इस समारोह के लिए ठेका कम्पनी को 450 पौण्ड प्रति कार की दर से किराया दिया गया जबकि लन्दन में बी.एम.डब्ल्यू. जैसी कार का किराया भी 250 पौण्ड ही है। पिछले 14 वर्षों से इण्डियन ओलम्पिक एसोसिएशन और 23 वर्षों से भारतीय एथलेटिक्स एसोसिएशन के अध्यक्ष तथा आयोजन समिति के प्रमुख सुरेश कलमाडी जो कि पश्चिम भारत में मारूती एवं बजाज की सबसे बड़ी एजेंसी ‘साईं सर्विस’ के मालिक हैं, से जब यह पूछा गया कि खेल के लिए 1 लाख रुपये की ट्रेडमिल का 45 दिनों का किराया 10 लाख क्यों दिया जा रहा है? लन्दन से ख़रीदा गया गुब्बारा जिसे समारोह में लगाया जायेगा की कीमत 35 करोड़ है जबकि उसे भारत लाने का ख़र्च 10 करोड़ रुपये है; तमाम ठेकों को बिना टेण्डर के क्यों दे दिया गया तो उन्होंने चुप्पी साध ली।
खेल के नाम पर दिल्ली विश्वविद्यालय के हास्टलों को विदेशियों के ठहरने के लिए तानाशाही ढंग से ख़ाली करा दिया गया और इसके लिए विद्यार्थियों से कोई राय नहीं ली गयी। जबकि हास्टल ग़रीब एवं दूर से आये विद्यार्थियों के लिए बनाये जाते हैं। सड़कों और फुटपाथों के सौन्दर्यीकरण के नाम पर करोड़ों रुपया बहाया जा रहा है। चारों तरफ लूट मची हुई है। बिना किसी पूर्वयोजना के सड़कों एवं फुटपाथों को अलग-अलग एजेंसियों ने खोद रखा है। इन अनियमितताओं के आँकड़ों की एक लम्बी सूची है जिससे तमाम पन्ने रँगे जा सकते हैं।
आयोजन समिति ने भ्रष्टाचार की इस उठती हुई आग पर पानी के छींटे मारते हुए कोषाध्यक्ष अनिल खन्ना से इस्तीफा ले लिया है। तीन सदस्यों – संयुक्त महानिदेशक टी. एस. राजदरबारी, उप महानिदेशक संजय महिन्द्रू, संयुक्त महानिदेशक (लेखा व वित्त) एम. जय चन्द्रन को निलम्बित कर दिया। जाँच के लिए एक संयुक्त संसदीय समिति का गठन किया गया है। लूट के नियमतीकरण का प्रथम अध्याय निलम्बन व इस्तीफे से शुरू हो चुका है जो अन्ततः पूँजीवादी व्यवस्था के जाँच आयोगों और इक्का-दुक्का दण्ड पर जाकर समाप्त होगा। लेकिन असली लूट जो इस व्यवस्था की नियति है, जो श्रम कानूनों का उल्लंघन ही नहीं बल्कि मानवीय अधिकारों का बर्बर शोषण और लूट है, को छिपाने के लिए एक धूम्रावरण डालने का काम सरकारी एजेंसियाँ एवं उनके भाड़े के टट्टू मीडिया ने शुरू कर दिया है। ठीक वैसे ही जैसे कि नियोजित तरीके से जनता के धन पर डाका डलवाइये और बाद में डकैतों के गिरोह को यह कहते हुए भगा दीजिये कि “ओह! बहुत ग़लत हुआ!”
इस लूट और भ्रष्टाचार के तन्त्र में राज्य के जिस सबसे क्रूरतम चेहरे को छिपाने की कोशिश की जा रही है, वह मज़दूरों की निर्मम लूट व उन्हें मौत के दलदल में ढकेल देने की है। ख़ुद दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि ‘सरकार विदेशियों को यह दिखाना चाहती है कि भारत में एक भी ग़रीब नहीं है।’ सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त निर्धनता आयुक्त हर्ष मन्दर ने कहा कि ‘श्रम कानूनों को तोड़ा जा रहा है। राज्य ने अपने कानूनों को तोड़ दिया है।’
खेलों की मेजबानी मिलने के समय यह बताया गया था कि देश में मूलभूत ढाँचागत संरचनाओं का विकास होगा, टूरिज़्म को बढ़ावा मिलेगा, आदि-आदि। लेकिन आज यह साफ हो गया है कि जिन ढाँचागत संरचनाओं की बात की गयी थी वह घटिया मानकों से तैयार हो रही हैं। तकनीकी विनिर्देशों की धज्जियाँ उड़ायी जा रही हैं। दूसरे, दिल्ली के विशेष इलाके एवं उच्चवर्गीय कालोनियाँ जो इस निर्माण से ‘लाभान्वित’ हो रही हैं वही पूरी दिल्ली और भारत नहीं है। दिल्ली के नागरिकों के लिए जिस तथाकथित विश्वस्तरीय इंफ्रास्ट्रक्चर की बात की जा रही है – उसके लिए ‘राष्ट्रमण्डल खेलों को धन्यवाद’! लेकिन सोचने की बात है – यह किसके लिए और किसकी कीमत पर?
इसके अलावा, जिस टूरिज़्म विकास की बात का भ्रम सरकार ने फैलाया है उसके पीछे न तो कोई ठोस आँकड़े हैं और न ही प्रमाण। पर्यटन पर बंगलुरू के अनुसंधान संस्थान ‘इक्विटेवल टूरिज़्म ऑप्शन’ ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि सरकार का यह कथन कि खेलों से टूरिज़्म को बढ़ावा मिलेगा ग़लत है। क्योंकि ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि मेगा स्पोर्टस आयोजनों ने टूरिज़्म को बढ़ावा दिया है। बल्कि इससे ऋणात्मक प्रभाव ही पड़ता है। रिपोर्ट बताती है कि 1982 के एशियन गेम्स के समय भी टूरिज़्म को ख़ास बढ़ावा नहीं मिला था। विदेशों में खेलों को प्रमोट करने के लिए सरकार ने 250 करोड़ रुपये ख़र्च किये जबकि दिल्ली में ठहरने की व्यवस्था की हालत दयनीय है।
पूँजी की लूट और गति, जिसने उत्पादन के विभिन्न क्षेत्रों एवं स्थान की तलाश में पूरे विश्व में निर्बाध रूप से तूफान मचा रखा है, से खेल भी अछूता नहीं है। खेल आयोजन एवं समूचा खेल तन्त्र आज एक विशाल पूँजीवादी उद्योग बन गया है जहाँ सब कुछ मुनाफे को केन्द्र में रखकर विभिन्न राष्ट्रपारीय निगमों, कम्पनियों एवं इनके सर्वोच्च निकाय पूँजीवादी राज्यव्यवस्था द्वारा संचालित किया जाता है।
2010 के फीफा विश्वकप के दर्शकों को केवल दक्षिण अफ्रीका के कई मिलियन डॉलर के भव्य स्टेडियम दिखे न कि वे लोग जो केपटाउन से विस्थापित कर दिये गये। ठीक उसी तरह करोड़ों रुपये के राष्ट्रमण्डल खेलों का तमाशा दिल्ली के उच्च वर्ग एवं पूँजीवादी तन्त्र को लाभान्वित करेगा न कि आम नागरिक को। आम आदमी की तो इस यज्ञ में आहुति दी जायेगी।
राजधानी दिल्ली में खेलों के लिए जारी ‘स्वच्छता अभियान’ के कारण खेलों के बाद 30 लाख लोग बेघर हो जायेंगे जिसमें से 12-15 लाख प्रवासी श्रमिक हैं। एक लाख परिवारों को पार्किंग एवं सौन्दर्यीकरण के नाम पर उजाड़ दिया गया। श्रम कानूनों की धज्जियाँ उड़ाते हुए 2000 से अधिक बाल श्रमिकों से काम लिया गया। झुग्गियों में रहने वाले मज़दूरों की अस्वास्थ्यकर स्थिति के कारण 70 से अधिक लोगों की मौत हो गयी जो हमारे-आपके संज्ञान में आयी। जबकि वास्तविकता इससे कहीं अधिक वीभत्स और अमानवीय है। आठ-आठ फुट की झुग्गियों में सात-आठ मज़दूर रहते हैं जो किसी गुलाम समाज से भी बदतर है। झुग्गियों एवं मज़दूर कैम्पों के बगल में सड़ती नाली, शौचालयों का अभाव, कीड़ों और मच्छरों के बीच रहते ये मज़दूर कोई और नहीं बल्कि वे लोग हैं जिनके दम पर दिल्ली की चमक-दमक है और अब इनको खदेड़ा जा रहा है। 50,000 वयस्क एवं 60,000 बाल भिखारियों को दिल्ली के बाहर ढकेल दिया गया। 44 झुग्गियाँ अगर खेल तक उजाड़ दी गयीं तो 40,000 बच्चे शिक्षा से वंचित हो जायेंगे। श्रम मन्त्री हरीश रावत ने ख़ुद स्वीकारा कि खेल परियोजनाओं में सुरक्षा मानकों की अनदेखी से अब तक 42 लोगों की जानें गयीं। लेकिन हम जानते हैं कि इससे कई गुना जिन्दगियाँ निर्माण की भेंट चढ़ने के बाद भी पुलिस-ठेकेदार गँठजोड़ के कारण सामने नहीं आ पाते। श्रम की बढ़ती माँग और अपनी झुग्गियों से विस्थापित होने के कारण लगभग पाँच लाख बच्चे और महिलाओं के देह व्यापार में घसीटे जाने का ख़तरा है। सार्वजनिक धन के अपव्यय, लूट, घोटालों और ऐयाशी के ख़र्चों को पूरा करने के लिए दिल्ली सरकार लोगों पर बिजली-पानी आदि के दाम बढ़ाकर व नये टैक्स लगाकर दोहरी लूट मचा रही है।
खेल आयोजन के लिए बेताब भारतीय राज्य खिलाड़ियों को बुनियादी सुविधाएँ तक मुहैया नहीं करा पाता। सभी फेडरेशन यौन शोषण से लेकर तमाम अनियमितताओं में लिप्त हैं। हर खेल संघ पर नेताओं या ऐसे ही लोगों का कब्ज़ा है जो खेल को अपने वोट बैंक के लिए एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करते हैं। स्टेडियम या अन्य खेल परिसरों को उनके राजनीतिक कार्यक्रमों या ऐसे ही जलसों के लिए इस्तेमाल किया जाता है। तो ऐसे में जिस खेल का नाम लेकर हाय-तौबा मचाया जा रहा है उसकी असलियत को समझा जा सकता है। यह अनायास नहीं है कि लगभग 130 करोड़ आबादी वाला भारत ओलम्पिक में एक मेडल के लिए तरसता रहता है। दिल्ली की मुख्यमन्त्री शीला दीक्षित ने कहा कि “खेलों के बाद शहर के 30 लाख लोग ऐसे होंगे जिनके पास घर नहीं होगा। यह एक गम्भीर मुद्दा है। खेलों के बाद इसको प्राथमिकता दी जायेगी।” लेकिन इस देश का अवाम यह जानता है कि चुनावी नेताओं के वायदे किस तरह महज़ लोगों को छलने का काम करते हैं और शीला कोई इसका अपवाद नहीं हैं।
7 अगस्त के ‘दैनिक भास्कर’ में देश के एक पूँजीपति की भावनात्मक अपील छपी थी कि राष्ट्रमण्डल खेल राष्ट्रीय सम्मान का प्रतीक है और इसको राष्ट्रवाद से जोड़ा। ज़ाहिरा तौर पर जब पूँजीपतियों की लूट का घिनौना चेहरा लोगों के सामने आता है और जब जनता का गुस्सा व्यवस्था के लिए ख़तरनाक आयाम ग्रहण करने लगता है तो मण्डी में पैदा हुआ पूँजीवाद का राष्ट्रवाद व्यापक जनता से राष्ट्र की दुहाई देता है। इनका राष्ट्रवाद वह है जो पूँजीपतियों की सेवा करे। उनकी लूट का समर्थन करे। इनका विकास वह है जो मुनाफे को तेज़ और अधिक बनाये। पूँजीवाद के लिए जनता की हर जायज़ माँग और अपने दुःख-तकलीफ के खि़लाफ आवाज़ विकास-विरोधी व आतंकवाद ठहरा दी जाती है। लेकिन हमें पता है कि विवाद की वास्तविक जड़ पूँजीवादी व्यवस्था की काहिली, भ्रष्टाचार, अपारदर्शिता और लूट है और यह पूरी व्यवस्था श्रमिकों के शोषण पर टिकी है। आज राष्ट्रमण्डल खेल की अनियमितताओं को किसी एक व्यक्ति या तन्त्र के कार्यान्वयन की ग़लती के रूप में दिखाना एक साजिश है जो देश के मध्यवर्ग के मानसिक तुष्टि का ही काम करेगी। एक बार को यह मान भी लिया जाये कि अगर सभी काम समय पर पूरा हो जाते व निर्माण कार्यों का स्तर भी स्वीकार्यता की सीमा तक होता तो भी मज़दूरों की नारकीय जीवन स्थितियों, उनके ख़ून-पसीने की लूट और गुलामों जैसे सलूक का क्या कोई जिक्र आता?
देश के जिस संविधान की गौरवगाथा मे ‘बुद्धिजीवी’ समुदाय मीडिया और मध्यवर्ग मुग्ध-मग्न होता है उसी संविधान के रक्षक सर्वोच्च न्यायालय के बगल में 30 लाख लोगों को बेघर कर दिया गया है जो संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है जो ‘नागरिकों को जीवन की रक्षा का अधिकार’ देता है। 71 देशों के 10,000 खिलाड़ियों के 12 दिन का यह खेल भारतीय जनता का नहीं बल्कि भारतीय पूँजीवादी राज्य व पूँजीपति वर्ग की अपनी उभरती शक्ति और ‘आधुनिकता’ का शक्ति प्रदर्शन है। इस चकाचौंध कर देने वाले विकास की कीमत मज़दूरों के अँधेरे तलघर-सी जिन्दगी के बरक्स है। राष्ट्रमण्डल खेलों में जिस तरह भ्रष्टाचार में आकण्ठ डूबा आयोजक मण्डल एवं सरकारी एजेंसियों का काला चेहरा सामने आया है, वह इस देश की जनता के लिए कोई नयी बात नहीं है। हर छमाही, तिमाही ऐसे मेनहोल खुल जाते हैं जो जनता की गाढ़ी कमाई का बन्दरबाट करते चेहरे दिखायी देते हैं। असल में यह लूट-मुनाफे की व्यवस्था में हो रही लूट का ‘बाई प्रोडक्ट’ है। यह तो होना ही है। सवाल यह है कि हम ऐसे लूट के ‘खेल’ की कब तक अनदेखी करते रहेंगे?
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अक्टूबर 2010
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