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ओलम्पिक में भारत की स्थिति: खेल और पूँजीवाद के अन्तरसम्बन्धों का वृहत्तर परिप्रेक्ष्य

वर्ग समाज में उत्पादन के साधनों पर जिस वर्ग का प्रभुत्व होता है वह वर्ग आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर वर्चस्वकारी भूमिका में होता है। खेल और उससे जुड़े हुए आयोजन भी वर्ग निरपेक्ष नहीं है बल्कि वे भी किसी न किसी रूप में शासक वर्ग के हितों की ही सेवा करने का काम करते हैं। ओलम्पिक से लेकर एशियाड व कॉमन वेल्थ गेम्स तक और क्रिकेट वर्ल्ड कप से लेकर फीफा वर्ल्ड कप तक तमाम अन्तरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं के दौरान जो अन्धराष्ट्रवादी उन्माद पैदा किया जाता है वह वर्ग संघर्ष की धार को कुन्द करने का ही काम करता है। एक तरफ़ खेलों की राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं के दौरान पूँजीपति वर्ग को खेल, मनोरंजन और विज्ञापन उद्योग से अकूत मुनाफ़ा कमाने की ज़मीन मुहैय्या होती है, तो वहीं इन आयोजनों में जो अन्धराष्ट्रवादी उन्माद पैदा किया जाता है वह वर्ग संघर्ष की आँच पर छीटें मारने का काम ही करता है।

क़तर में होने वाला फुटबॉल विश्व कप : लूट और हत्या का खेल

पूँजीवाद के हर जश्न और उल्लास के पीछे शोषण से पिसते मेहनतकशों के लहूलुहान जिस्म और दुखों का समन्दर है। इस व्यवस्था में यह जितना सच ‘वैभव’ और अट्टालिकाओं के बारे में है उतना ही सच पूँजीवादी कला आयोजनों और खेलों के बारे में भी है। खेल मुनाफ़े के कारोबार का एक अभिन्न हिस्सा हैं। दुनियाभर की तमाम सरकारें जनता की बुनियादी ज़रूरतों को परे रखते हुए खेलों पर अन्धाधुन्ध पैसा लुटा रही हैं। क्योंकि आज खेल उपभोक्ता बाज़ार का बड़ा हिस्सेदार है। इसी वजह से खेल वित्तीय पूँजी के इशारों पर नाचता है। अरब जगत से लेकर एशियाई और अफ्रीकी देशों में जो अच्छी-ख़ासी मध्यवर्गीय आबादी खड़ी हुई है इस पर वित्तीय जगत अपनी गिद्ध-दृष्टि टिका कर बैठा है। इसी के मद्देनज़र फ़ीफ़ा के अध्यक्ष सेप ब्लैटर द्वारा 2010 में प्रस्ताव रखा गया था कि किसी अरब देश में फ़ीफ़ा वर्ल्ड कप का आयोजन किया जाना चाहिए। 2 दिसम्बर 2010 को तय हुआ कि 2022 में होने वाले फीफ़ा वर्ल्डकप को क़तर में आयोजित किया जायेगा। वर्ल्डकप की मेज़बानी मिलने के समय बताया गया कि इससे क़तर में मूलभूत ढाँचागत संरचनाओं का विकास होगा, पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा, आदि-आदि। दरअसल यह सारा विकास मुख्यतः विदेशी पूँजी को रिझाने के लिये किया जा रहा है। लेकिन जिन ढाँचागत संरचनाओं की बात की गयी थी वह मेहनतकशों की ज़िन्दगियों को मौत के मुँह में धकेल कर हो रही है।

ब्राज़ील में फ़ुटबाल वर्ल्ड कप का विरोध

यह वर्ल्ड कप फुटबॉल की धरती पर भले ही खेला गया हो पर यह ब्राज़ील की आम जनता के लिए नहीं था। यह महज़ फुटबॉल प्रेमी (अगर कोई न हो तब भी प्रचार उसे बना देगा) शरीर के भीतर उपभोक्ता आत्मा तक कुछ निश्चित विज्ञापनों द्वारा उपभोग का आह्वान था। ये खेल आज सिर्फ़ पूँजी की चुम्बक बन कर रह गये हैं। जिस तरह वर्ल्ड बैंक व आई.एम.एफ. जैसे संगठन वित्तीय पूँजी के निवेश के लिए रास्ता सुगम बनाते हैं और बड़ी-बड़ी इज़ारेदार कम्पनियों द्वारा (मुख्यतः उनके देश अमेरिका से) नियंत्रित होते हैं उसी प्रकार फ़ीफा जैसे संघ भी वित्तीय पूँजी और बड़ी-बड़ी इज़ारेदार कम्पनियों के निर्देशन पर ही चलते हैं।

आई.पी.एल.: बाज़ारू खेल बिकते खिलाड़ी!

प्रायोजक दो तरह से आकर्षित होते हैं। एक, टीम के अन्दर नामी खिलाड़ियों के होने से दूसरा, टीम के प्रदर्शन से। टीम का अच्छा प्रदर्शन करना निश्चित नहीं होता तब टीम में नामी खिलाड़ियों के होने की आवश्यकता और बढ़ जाती है जिसके लिए फ्रेंचाइज़ी नामी खिलाड़ियों की ज़्यादा से ज़्यादा बोली लगाती है और वही लागत कम करने के लिए टीम के बाकी सदस्यों को कम-से-कम में ख़रीदना चाहती है। हर खिलाड़ी ज़्यादा से ज़्यादा कीमत पर बिकने को हर वक़्त तैयार रहता है। ऐसे में आईपीएल या ऐसे आयोजनों से जुड़े खिलाड़ी, बोर्ड, फ्रेंचाइजी व अन्य घटक अपने-अपने स्तर पर अपने मुनाफ़े तथा अधिकाधिक धन बटोरने की अनियन्त्रित भूख के चलते तथाकथित नियमों व कानूनों के बाहर जाकर इस तरह की घटनाओं को अंजाम देते हैं। यहाँ प्रश्न व्यक्तिगत नैतिकता एवं शुचिता का नहीं वरन् उस समाज के मूलभूत नियम का है जो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को वैसे ही अनुशासित करता है। और अपनी गतिकी से एक ऐसी सभ्यता एवं जीवन रूप को रचता है जो व्यक्तिवाद व धनतन्त्र के दृष्टिहीन और दिशाहीन रास्ते पर बढ़ती है। इस घटना में शामिल खिलाड़ी, सटोरिये, अम्पायर, प्रबन्धक आदि पूँजीवाद के आम नियम-श्रम की लूट तथा धन एवं पूँजी को बढ़ाते जाने के अन्धे उन्माद से पैदा होने वाले उपोत्पाद हैं। यह भ्रष्टाचार पूँजी के किसी भी क्षेत्र की स्वाभाविक नियति का नमूना है चाहे यह खेल का क्षेत्र ही क्यों न हो।

राष्ट्रमण्डल खेल – ”उभरती शक्ति“ के प्रदर्शन का सच

पूँजी की लूट और गति, जिसने उत्पादन के विभिन्न क्षेत्रों एवं स्थान की तलाश में पूरे विश्व में निर्बाध रूप से तूफान मचा रखा है, से खेल भी अछूता नहीं है। खेल आयोजन एवं समूचा खेल तन्त्र आज एक विशाल पूँजीवादी उद्योग बन गया है जहाँ सब कुछ मुनाफे को केन्द्र में रखकर विभिन्न राष्ट्रपारीय निगमों, कम्पनियों एवं इनके सर्वोच्च निकाय पूँजीवादी राज्यव्यवस्था द्वारा संचालित किया जाता है।

कॉमनवेल्थ में ‘‘कॉमन’‘ क्या और ‘‘वेल्थ’‘ किसका ?

कॉमनवेल्थ खेलों के लिए जो हज़ारों करोड़ रुपये की राशि आवण्टित है वह बड़ी–बड़ी ठेका कम्पनियों और ठेकेदारों की जेब में जा रही है। ठेकों के लिए दिल्ली सरकार के अफ़सरों–नौकरशाहों से लेकर मन्त्रियों और सचिवों तक को मोटी–मोटी रिश्वतें दी जा रही हैं। इन रिश्वतों के बदले बिककर नेताओं–नौकरशाहों का यह पूरा वर्ग काले धन की ज़बर्दस्त कमाई कर रहा है। इन निर्माण कार्यों के लिए आवण्टित फण्डों से ठेका कम्पनियाँ और ठेकेदार, निर्माण सामग्री बनाने वाली कम्पनियाँ, एकाउंटेंसी फर्में, और उनसे जुड़ी कम्पनियों के एक विशाल दायरे को अतिलाभ मिल रहा है। और ग़ौर करने की बात यह है कि यह हज़ारों करोड़ रुपये आम जनता की जेब से वसूले गये हैं। पूँजीपतियों को लाभ पहुँचाने के लिए कुछ ऐसी संरचनाओं का निर्माण किया जा रहा है जिनका कोई उपयोग नहीं होने वाला और इनके निर्माण पर हज़ारों करोड़ रुपये ख़र्च किये जा रहे हैं। मिसाल के तौर पर, कॉमनवेल्थ खेलों के उदघाटन समारोह के लिए एक स्तम्भ का निर्माण किया जा रहा है जिसे उदघाटन समारोह के निर्माण के बाद 24 घण्टों के भीतर तोड़कर साफ़ कर दिया जाएगा!

तीन पदक और सवा अरब जनसंख्या

ये सारी सच्चाई हर खेल–प्रेमी युवा और शिक्षित वर्ग का व्यक्ति जानता है । लेकिन एक सच्चाई और है जो इस दुर्दशा का मुख्य कारण है । उसकी कभी चर्चा नहीं होती और उसे हमेशा छिपाया जाता है । भारत दुनिया के निर्धनतम देशों में से एक है । अगर आज बहुत छोटे देश भी पदक तालिका में भारत से ऊपर हैं तो इसका कारण है कि भारत के मुकाबले वहाँ का जीवन स्तर ऊँचा है जबकि इस देश में लगभग 84 करोड़ आबादी 20 रुपये दैनिक आय पर गुज़ारा करती है । शिक्षा, चिकित्सा जैसी बुनियादी जरूरतें भी पूरी नहीं हो पातीं, खेल में रुचि लेना तो दूर की बात है । और अगर इसके बावजूद भी कोई प्रतिभावान नौजवान खेल में रूचि लेता है तो उसे पर्याप्त अवसर और सुविधाएँ ही नहीं मिलते ।

बॉब वूल्मर की मौत, क्रिकेट, अपराध, राष्ट्रवाद और पूँजीवाद

मुनाफ़े पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था में हर क्षेत्र में, चाहे वह नौकरशाही हो, उद्योग जगत हो, पुलिस हो, या न्याय-व्यवस्था, भ्रष्टाचार का बोलबाला होता है। चूँकि पूँजीवादी समाज में हर काम किसी न किसी निजी फ़ायदे के लिए किया जाता है इसलिए भ्रष्टाचार की ज़मीन उपजाऊ बनी रहती है। खेल भी इससे अछूते नहीं रहते। जब से खेल में पूँजी का प्रवेश हुआ है तब से इसका भ्रष्टीकरण और अपराधीकरण जारी है।