Category Archives: भ्रष्‍टाचार

केजरीवाल एण्ड पार्टी के “आन्दोलन” से किसको क्या मिलेगा?

जो भी ताक़त महज़ भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाती है, मुनाफे पर टिकी पूरी पूँजीवादी व्यवस्था को नहीं, वह जनता को धोखा दे रही है। भ्रष्टाचार-मुक्त पूँजीवाद एक मध्यवर्गीय भ्रम है। पूँजीवाद वैसा ही हो सकता है जैसा कि वह है। केजरीवाल और अण्णा हज़ारे जैसे लोगों का काम जाने-अनजाने इसी पूँजीवादी व्यवस्था की उम्र को लम्बा करना है। इसके लिए वह भ्रष्टाचार को एकमात्र समस्या के रूप में और भ्रष्टाचार के किसी कानून के जरिये या “ईमानदार” पार्टी के सत्ता में आने के जरिये ख़ात्मे को सभी दिक्कतों के समाधान के रूप में पेश करते हैं। भ्रष्टाचार का अपने आपमें कोई अर्थ नहीं है, ठीक वैसे ही जैसे मानवाधिकारों, तानाशाही, आतंकवाद आदि जैसी श्रेणियों का अपने आपमें कोई अर्थ नहीं हैं। ये खोखले शब्द हैं और अपने आपमें ये कुछ भी नहीं बताते जब तक कि इनके साथ कोई विशेषण नहीं लगता। भ्रष्टाचार को एकमात्र समस्या के तौर पर पेश करना हमारे समाज में मौजूद असली आर्थिक लूट और सामाजिक अन्याय को छिपाता है और ‘सुशासन’ को एकमात्र मसला बना देता है।

काले धन पर श्वेत पत्र की सरकारी नौटंकी

काले धन की समस्या में अगर किसी का व्यक्तिगत और सामूहिक उत्तरदायित्व बनता है तो वह इस देश का लोभी, लालची, अनैतिक, पतन के गर्त में पहुँच चुका, विलासी, भ्रष्टाचारी और लम्पट पूँजीपति वर्ग और उसकी नुमाइन्दगी करने वाली पूँजीवादी सरकार है, चाहे वह किसी भी पार्टी के नेतृत्व में बनी हो। यह सारा काला धन जनता को ही तो लूट कर इकट्ठा किया गया है!

अण्णा हज़ारे की महिमा बनाम संसद की गरिमा: तुमको क्या माँगता है?

देश के आम मेहनकतश लोग समझ रहे हैं कि अण्णा बनाम सरकार के पूरे शो में वास्तविक सवाल छिपा दिये गये हैं। यह शो वास्तव में पूँजीवाद की वास्तविक नंगई पर पर्दा डालने की कोशिश करता है। यह एक ग़लत/काल्पनिक दुश्मन पैदा करता है। यह असली दुश्मन को नज़र से ओझल करता है। अण्णा बनाम सरकार एक छद्म विकल्पों का युग्म है। सभी जानते हैं कि अगर कानूनों और अधिनियमों से सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक समस्याएँ दूर होतीं, तो इस देश के मज़दूरों की स्थिति बहुत बेहतर होती क्योंकि उनके लिए तो 206 श्रम कानून बने हुए हैं; वैसे तो भ्रष्टाचार-निरोधक कानून भी बना हुआ है; क्या कन्या भ्रूण हत्या के खि़लाफ़ कानून पास होने से यह समस्या ख़त्म हो गयी? यह तो और बढ़ी है! क्या शिक्षा के अधिकार के लिए कानून पास होने से देश में अशिक्षा ख़त्म हुई है? क्या न्यूनतम मज़दूरी और खाद्य सुरक्षा के लिए कानून बनने से ये समस्याएँ दूर हो जायेंगी? जब 64 साल के इतिहास में एक भी कानून ने कोई समस्या हल नहीं की तो ऐसा मानने वाला अव्वल दर्जे़ का मूर्ख या छँटा हुआ राजनीतिक छलिया और चार सौ बीस ही होगा कि जनलोकपाल (या कोई भी लोकपाल) बनने से भ्रष्टाचार की समस्या दूर होगी! ज़्यादा उम्मीद तो यही है कि भ्रष्ट होने के लिए एक नया अधिकारी पैदा हो जायेगा! इसलिए मूल सवाल है मौजूदा सामाजिक-आर्थिक ढाँचे में आमूल-चूल बदलाव। और अण्णा और सरकार दोनों ही इस मूल प्रश्न पर जनता का ध्यान नहीं जाने देना चाहते हैं।

श्रीराम सेने ने मचाया उत्पात और अण्णा हो गये मौन!!

अण्णा हज़ारे अपने आप को फँसता देख मौनव्रत पर चले गये और यह उनका पहला मौन व्रत नहीं है। जब मुम्बई में उत्तर भारतीयों को पीटा जा रहा था तब भी वे मौन थे, गुजरात में लोग सरेआम कत्ल किये जा रहे थे तब भी वे मौन थे; उल्टे इस नरसंहार के जिम्मेदार नरेन्द्र मोदी की भी एक बार प्रशंसा की, हालाँकि बाद में पलट गये; इसके अलावा राज ठाकरे जैसे लोगों के साथ मंच साझा करने में भी अण्णा हज़ारे गर्व अनुभव करते हैं! पूरे देश में लाखों किसान आत्महत्या कर रहे हैं, वे तब भी मौन हैं; देश भर में मज़दूरों को कुचला जा रहा है और उनके हक-अधिकारों को रौंदा जा रहा है, तब भी वे मौन है। उनके भ्रष्टाचार विरोध का ड्रामा चल रहा था उसी समय गुड़गाँव में मज़दूर अपनी गरिमा और अधिकारों के लिए लड़ रहे थे। अण्णा हज़ारे या उनकी मण्डली के एक भी मदारी को यह नज़र नहीं आया। नज़र भी क्यों आता, सुजुकी और मारूती जैसे कारपोरेट तो चिरन्तर सदाचारी हैं, और शायद इसीलिए जनलोकपाल के दायरे में कारपोरेट जगत का भ्रष्टाचार नहीं आता। अण्णा हज़ारे को बस अपना ‘जनलोकपाल बिल’ पास होना मँगता है! चाहे मज़दूर मरते रहें, ग़रीब किसान आत्महत्या करते रहें।

यू आई डी योजना – जनता के नाम पर पूँजी और उसकी राज्यसत्ता का आधार मजबूत करने की चाल

यह एक चिंताजनक सवाल है कि नागरिकों की निजी गुप्तता पर हमला करने वाली जिन योजनाओं को अमेरिका और ब्रिटेन जैसे उन्नत देशों में अव्यवहारिक और जनविरोधी मानकर रद्द कर दिया गया वैसी ही योजना को भारत का शासक वर्ग बड़ी ही आसानी से लागू कर रहा है और इसका कोई कारगर विरोध भी अभी तक नहीं उभरा है। हालाँकि नागरिक आजादी और जनवादी अधिकार आंदोलन से जुड़े कुछ कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों ने इस मुद्दे पर अखबारों में और इण्टरनेट पर लिखा है लेकिन देश की व्यापक आम आबादी और यहाँ कि पढ़े लिखे मध्य वर्ग को भी इस योजना के भयावह निहितार्थ के बारे में कोई जानकारी नहीं है। ऐसे में नागरिक आजादी और जनवादी अधिकार आंदोलन से जुड़े लोगों और प्रबुद्ध नागरिकों का दायित्व है कि इस मुद्दे पर एकजुट होकर एक देशव्यापी मुहिम चलाकर देश की जनता को शासक वर्ग की इस धूर्ततापूर्ण चाल के बारे में आगाह करें जिससे कि एक कारगर प्रतिरोध खड़ा किया जा सके।

अण्णा हज़ारे का भ्रष्टाचार-विरोधी अभियान और मौजूदा व्यवस्था से जुड़े कुछ अहम सवाल

हज़ारे का वर्तमान भ्रष्टाचार-विरोधी आन्दोलन भी आंशिक तौर पर उनकी इसी राजनीति और विचारधारा से पैदा हुआ है। और यह इस समय इसलिए पैदा हुआ है क्योंकि भ्रष्टाचार के विरुद्ध आम जनता में व्याप्त गुस्से के झटके को सोख जाने वाला कोई ऐसा ‘शॉक एब्ज़ॉर्बर’ व्यवस्था को भी चाहिए था, जो व्यवस्था के लिए ही ख़तरा न बन जाये। ऐसे में, भ्रष्टाचार का नैतिकता-अनैतिकता, सदाचार-अनाचार के जुमलों में विश्लेषण करने वाले किसी अण्णा हज़ारे से बेहतर उम्मीदवार और कौन हो सकता था, जो यह समझने में अक्षम हो कि भ्रष्टाचार एक ऐसी परिघटना है जो पूँजीवाद का अभिन्न अंग है; जो वास्तव में यह समझने अक्षम हो, कि पूँजीवादी कानूनी परिभाषा के अनुसार जो कार्य भ्रष्टाचार माने जाते हैं, अगर वे न भी हों, तो पूँजीवादी व्यवस्था अपने आपमें भ्रष्टाचार है जो ग़रीब मज़दूर आबादी, किसान आबादी और आम मेहनतकश जनता के शोषण-उत्पीड़न पर टिकी हुई है। आदमखोर पूँजीवादी आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था कठघरे में न खड़ी हो, इसके लिए अण्णा हज़ारे की ‘‘परिघटना’‘ का पूँजीवादी व्यवस्था ने कुशल उपयोग किया।

बाबा रामदेव का स्वाभिमान और खाता-पीता मध्यवर्ग

आज के अँधेरे दौर में यह बात सच है कि जनता के पिछड़ेपन, ठहराव व परिवर्तनकारी शक्तियों की ताकत कमजोर होने का लाभ तमाम पाखण्डी, अन्धराष्ट्रवादी, धार्मिक-फासीवादी उठा रहे हैं। पर आज नहीं कल जनता इनके कुकृत्यों को समझेगी। मौजूदा लुटेरी व्यवस्था से इनके नाभिनालबद्ध सम्बन्ध को समझेगी। वह जानेगी कि मेहनत की लूट पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था पर ही ऐसे ज़हरीले खरपतवार उगते हैं। वह जागेगी और मौजूदा व्यवस्था के साथ-साथ इन पाखण्डियों को भी इतिहास की बहुत गहरी कब्र में दफन करेगी। और निश्चित रूप से जनता इन पाखण्डियों को ‘ममी’ के रूप में तो क्या किसी अभिलेख में भी सुरक्षित रखने की ज़रूरत नहीं समझेगी।

अण्णा हज़ारे का भ्रष्टाचार-विरोधी अभियान और मौजूदा व्यवस्था से जुड़े कुछ अहम सवाल

एक ऐसे समाज में जिसमें पैसे की ताकत सबसे बड़ी ताकत है, जिसमें लालच, लोभ और मुनाफे का ही राज हो, वहाँ जन लोकपाल की अभ्रष्टीयता पर ऐसा दिव्य विश्वास क्यों? जन लोकपाल को नहीं ख़रीदा जा सकता, वह भ्रष्ट नहीं होगा, वह लालच-लोभ के वशीभूत नहीं होगा, या कारपोरेट घरानों की ताकत के आगे घुटने नहीं टेक देगा, इसकी क्या गारण्टी है? जब ऐसे जन लोकपाल को नियुक्त करने वाली समिति के प्रस्तावित सदस्य तक आज बिक रहे हैं, तो जन लोकपाल क्यों नहीं बिक सकता? सन्दर्भ आप समझ गये होंगे। न्यायपालिका में पोर-पोर तक में समाये भ्रष्टाचार के बारे में आज सभी जानते हैं। और यह जिला मजिस्ट्रेट के स्तर से लेकर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों तक में मौजूद है। एक पूँजीवादी समाज में जहाँ भौतिक प्रोत्साहन ही सबसे बड़ा प्रोत्साहन है, वहाँ हर चीज़ बिक सकती है। ऐसे में, जन लोकपाल के रूप में एक भस्मासुर ही पैदा होगा और कुछ नहीं।

विकास पुरुष नीतीश कुमार का ऐतिहासिक जनादेश और सुशासन का सच!

नीतीश कुमार की सरकार की जनपक्षधरता अभी हाल के ही एक और मसले में भी सामने आ गयी। अभी चैनपुर-बिशुनपुर इलाक़े में एक पूँजीपति एस्बेस्टस का कारख़ाना लगाने वाला है। इस इलाक़े की पूरी जनता इसके ख़िलाफ है और सड़कों पर उतर रही है। लेकिन नीतीश कुमार की सरकार इन पर लाठियाँ बरसाने और इन्हें गिरफ़्तार करने का काम कर रही है। इसी से पता चलता है कि नीतीश कुमार की सरकार किनके लिए विकास करना चाहती है। यह विकास पूँजीपतियों को ध्यान में रखकर किया जा रहा है और इसकी सच्चाई आने वाले पाँच वर्षों में और अच्छी तरह से उजागर हो जायेगी।

एस-बैण्ड घोटाला: सारे घोटालों का नया सरदार!

एक ऐसे समाज में जहाँ हर काम को करने की प्रेरक शक्ति निजी मुनाफ़ा और लालच हो, वहाँ विज्ञान और वैज्ञानिक अनुसन्धान भी इसके प्रभाव से अछूते नहीं रह सकते। एस-बैण्ड स्पेक्ट्रम घोटाले ने इसी बात को एक बार फिर रेखांकित किया है। जहाँ विज्ञान और तकनोलॉजी का मकसद ही मानव जीवन की बेहतरी न होकर निजी कम्पनियों का मुनाफ़ा हो वहाँ पर इसरो जैसा स्वच्छ छवि वाला संस्थान भी भ्रष्टाचार के कलंक से अछूता नहीं रह सकता।