जस्टिस काटजू का विधवा-विलाप और भारतीय मीडिया की असलियत
मुनाफ़ाखोर मीडिया से यह अपेक्षा करना कि वह जनता का पक्ष लेगा और वैज्ञानिक तथा प्रगतिशील दृष्टिकोण बनाने में सहायक होगा, आकाश-कुसुम की अभिलाषा के समान लगता है। यह तो तय है कि जैसे-जैसे मीडिया पर बड़ी पूँजी का शिकंजा कसता जायेगा, वैसे-वैसे मीडिया का चरित्र ज़्यादा से ज़्यादा जनविरोधी होता जायेगा और आम जनता के जीवन की वास्तविक परिस्थितियों और मीडिया में उनकी प्रस्तुति के बीच की दूरी बढ़ती ही जायेगी। जस्टिस काटजू की यह बात तो सही है कि भारत में पत्र-पत्रिकाओं का एक गौरवशाली अतीत रहा है और विशेषकर स्वतन्त्रता संघर्ष के दौरान उनकी बेहद सकारात्मक और प्रगतिशील भूमिका रही है। लेकिन वह यह बात भूल जाते हैं कि ऐसी सभी पत्र-पत्रिकाएँ जनता के संघर्षों की तपन में उपजी और पनपी थीं और उनका उद्देश्य मुनाफ़ा कमाना हरगिज़ नहीं था। आज के दौर में पूँजीवादी मीडिया से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती की वह जनता का पक्ष ले।