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‘आज़ादी कूच’ के सन्दर्भ में – एक सम्भावना-सम्पन्न आन्दोलन के अन्तरविरोध और भविष्य का प्रश्न

हमारी इस कॉमरेडाना आलोचना का मकसद है इस आन्दोलन के सक्षम और युवा नेतृत्व के समक्ष कुछ ज़रूरी सवालों को उठाना जिनका जवाब भविष्य में इसे देना होगा। आज समूचा जाति-उन्मूलन आन्दोलन और साथ ही हम जैसे क्रान्तिकारी संगठन व व्यक्ति जिग्नेश मेवानी की अगुवाई में चल रहे इस आन्दोलन को उम्मीद, अधीरता और अकुलाहट के साथ देख रहे हैं। किसी भी किस्म का विचारधारात्मक समझौता, वैचारिक स्पष्टवादिता की कमी और विचारधारा और विज्ञान की कीमत पर रणकौशल और कूटनीति करने की हमेशा भारी कीमत चुकानी पड़ती है, चाहे इसका नतीजा तत्काल सामने न आये, तो भी।

कुछ अहम सवाल जिनका जवाब जाति उन्मूलन की ऐतिहासिक परियोजना को आगे बढ़ाने के लिए अनिवार्य है

अभी हमारी चर्चा का मूल विषय है एक निहायत ज़हीन, संजीदा, इंसाफ़पसन्द नौजवान की असमय मौत और उसके नतीजे के तौर पर हमारे सामने उपस्थित कुछ यक्षप्रश्न जिनका उत्तर दिये बग़ैर हम जाति के उन्मूलन की ऐतिहासिक परियोजना में ज़रा भी आगे बढ़ने की उम्मीद नहीं कर सकते हैं। कार्ल सागान जैसा वैज्ञानिक बनने की आकांक्षा रखने वाले रोहित ने आत्महत्या क्यों की? तारों की दुनिया, अन्तरिक्ष और प्रकृति से बेपनाह मुहब्बत करने वाले इस नौजवान ने जीवन की बजाय मृत्यु का आलिंगन क्यों किया? वह युवा जो इंसानों से प्यार करता था, वह इस कदर अवसाद में क्यों चला गया? वह युवा जो न्याय और समानता की लड़ाई में अगुवा कतारों में रहा करता था और जिसकी क्षमताओं की ताईद उसके विरोधी भी किया करते थे, वह अचानक इस लड़ाई और लड़ाई के अपने हमसफ़रों को इस तरह छोड़कर क्यों चला गया? इन सवालों की पहले ही तमाम क्रान्तिकारी कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों और छात्र-युवा साथियों ने अपनी तरह से जवाब देने का प्रयास किया है। हम कोई बात दुहराना नहीं चाहते हैं और इसलिए हम इस मसले पर जो कुछ सोचते हैं, उसके कुछ अलग पहलुओं को सामने रखना चाहेंगे।

हरियाणा में चला जाति तोड़ो अभियान

नौजवान भारत सभा (कलायत इकाई) द्वारा कलायत के सजूमा रोड स्थित हरिजन धर्मशाला में सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया गया। मंच संचालन नौभास के बण्टी ने किया। कार्यक्रम की शुरूआत में नौभास के उमेद ने बताया की राहुल सांकृत्यायन का पूरा जीवन जनता की चेतना को जगाने और पुरानी नकारात्मक परम्पराओं, रूढ़ियों, तर्कहीनता के खिलाफ सतत प्रचण्ड प्रहार करते रहे। राहुल जी का जीवन का सूत्र वाक्य था ‘भागो नहीं दुनिया को बदलो’ तभी अपनी अन्तिम साँस तक राहुल की लेखनी और यात्राएँ लगातार जारी रही। लेकिन बड़े अफसोस की बात है कि आज की युवा पीढ़ी के राहुल के जनपक्षधर और रूढ़िभंजक विद्रोही साहित्य से परिचित नहीं है जिसका मुख्य कारण मौजूद सत्ताधारी भी हैं जिनकी हमेशा यही कोशिश रहती है कि जनता के सच्चे सिपाहियों के परिवर्तनकामी विचारों को दबाया या कुचला जा सके। ताकि जनता की चेतना को कुन्द बनाकर उस पर अपने शासन को मजबूत किया जा सके। लेकिन इतिहास ने भी ये बार-बार साबित किया है कि जनता के सच्चे जननायकों के विचार लम्बे समय नीम-अंधेरे में दबे नहीं रह सकते। इसलिए नौजवान भारत सभा जनता की चेतना जगाने के लिए राहुल सांकृत्यायन के यथास्थिति बदलने वाले विचारों को लेकर जनता तक जाती रहेगी।

अहमदनगर में दलित परिवार का बर्बर क़त्लेआम और दलित मुक्ति की परियोजना के अहम सवाल

दलित जातियों का एक बेहद छोटा सा हिस्सा जो सामाजिक पदानुक्रम में ऊपर चला गया है, वह आज पूँजीवाद की ही सेवा कर रहा है। यह हिस्सा ग़रीब मेहनतकश दलित आबादी पर होने वाले हर अत्याचार पर सन्दिग्ध चुप्पी साधता रहा है। यह खाता-पीता उच्च-मध्यवर्गीय तबका आज किसी भी रूप में ग़रीब दलित आबादी के साथ नहीं खड़ा है। फ़िलहाल यह तबका बीमा और बँगलों की किश्तें भरने में व्यस्त है। इस व्यस्तता से थोड़ी राहत मिलने पर यह तमाम गोष्ठियों में दलित मुक्ति की गरमा-गरम बातें करते हुए मिल जाता है। हालाँकि कई बार इसे भी अपमानजनक टीका-टिप्पणियों का शिकार होना पड़ता है, लेकिन इसका विरोध प्रतीकात्मक कार्रवाइयों और दिखावटी रस्म-अदायगी तक ही सीमित है। यह पूँजीवाद से मिली समृद्धि की कुछ मलाई चाटकर सन्तोष कर रहा है।

अस्मितावादी और व्यवहारवादी दलित राजनीति का राजनीतिक निर्वाण

रामविलास पासवान का रिकॉर्ड तो वैसे भी अपनी राजनीतिक निरन्तरता को कायम रखने में बेहद ख़राब रहा है और राजनीतिक फायदे और पद की चाहत में द्रविड़ प्राणायाम करने में वह पहले ही माहिर हो चुके हैं। लेकिन रामदास आठवले की ‘रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इण्डिया’ और उदित राज की ‘जस्टिस पार्टी’ ने जिस कुशलता और चपलता के साथ अचानक पलटी मारी है, उससे अस्मितावादी दलित राजनीति के पैरोकार काफ़ी क्षुब्ध हैं और उसे अम्बेडकरवाद से विचलन और ग़द्दारी बता रहे हैं। लेकिन हमें ऐसा लगता है कि रामदास आठवले भी पहले इस बात का चयन करने में किसी आलोचनात्मक निर्णय क्षमता का परिचय नहीं देते रहे हैं कि किसकी गोद में बैठकर ज़्यादा राजनीतिक हित साधे जा सकते हैं। सत्ता और शासक वर्ग की दलाली में रामविलास पासवान और रामदास आठवले ने पहले भी ऐसे झण्डे गाड़े हैं और ऐसे किले फतह किये हैं कि उनकी मिसालों को दुहरा पाना किसी के लिए भी एक चुनौतीपूर्ण काम साबित होगा। सबसे ज़्यादा लोग उदित राज के पलटी मारने पर स्यापा कर रहे हैं।

जाति प्रश्न और अम्बेडकर के विचारों पर एक अहम बहस

हिन्दी के पाठकों के समक्ष अभी भी यह पूरी बहस एक साथ, एक जगह उपलब्ध नहीं थी। और हमें लगता है कि इस बहस में उठाये गये मुद्दे सामान्य महत्व के हैं। इसलिए हम इस पूरी बहस को बिना काँट-छाँट के यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं। हम चाहेंगे कि आम पाठक गण भी इसमें हस्तक्षेप करें ताकि यह बहस एक सही दिशा में आगे बढ़ सके। इस बहस को पढ़ने से पहले इस लिंक पर इस संगोष्ठी में चली पूरी बहस का वीडियो अवश्य देखें, ताकि इन लेखों में आने वाले सन्दर्भों को सही तरीके से समझ सकें: http://www.youtube.com/watch?v=TYZPrNd4kDQआनन्द तेलतुम्बडे के लेख का अनुवाद ‘हाशिया’ ब्लॉग चलाने वाले रेयाजुल हक़ ने किया है, जो कि सटीक नहीं है। जहाँ ग़लतियाँ हैं उन्हें ठीक करते हुए हम इस अनुवाद को प्रकाशित कर रहे हैं।

आनन्द तेलतुम्बडे को जवाबः स्व-उद्घोषित शिक्षकों और उपदेशकों के नाम

तेलतुम्बडे यहाँ असत्य वचन का सहारा ले रहे हैं कि उन्होंने मार्क्सवाद और अम्बेडकरवाद के मिश्रण या समन्वय की कभी बात नहीं की या उसे अवांछित माना है। 1997 में उन्होंने पुणे विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग में एक पेपर प्रस्तुत किया, ‘अम्बेडकर इन एण्ड फॉर दि पोस्ट-अम्बेडकर दलित मूवमेण्ट’। इसमें दलित पैंथर्स की चर्चा करते हुए वह लिखते हैं, “जातिवाद का असर जो कि दलित अनुभव के साथ समेकित है वह अनिवार्य रूप से अम्बेडकर को लाता है, क्योंकि उनका फ्रेमवर्क एकमात्र फ्रेमवर्क था जो कि इसका संज्ञान लेता था। लेकिन, वंचना की अन्य समकालीन समस्याओं के लिए मार्क्सवाद क्रान्तिकारी परिवर्तन का एक वैज्ञानिक फ्रेमवर्क देता था। हालाँकि, दलितों और ग़ैर-दलितों के बीच के वंचित लोग एक बुनियादी बदलाव की आकांक्षा रखते थे, लेकिन इनमें से पहले वालों ने सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन के उस पद्धति को अपनाया जो उन्हें अम्बेडकरीय दिखती थी, जबकि बाद वालों ने मार्क्सीय कहलाने वाली पद्धति को अपनाया जो कि हर सामाजिक प्रक्रिया को महज़ भौतिक यथार्थ का प्रतिबिम्बन मानती थी।………… अब पाठक ही बतायें कि तेलतुम्बडे जो दावा कर रहे हैं, क्या उसे झूठ की श्रेणी में नहीं रखा जाना चाहिए? क्या यहाँ पर ‘अम्बेडकरीय’ और ‘मार्क्सीय’ दोनों को ‘अम्बेडकरवाद’ और ‘मार्क्सवाद’ के अर्थों में यानी ‘दो विचारधाराओं’ के अर्थों में प्रयोग नहीं किया गया है? फिर तेलतुम्बडे यह आधारहीन और झूठा दावा क्यों करते हैं कि उन्होंने कभी ‘अम्बेडकरवाद’ शब्द का प्रयोग नहीं किया क्योंकि वह नहीं मानते कि ऐसी कोई अलग विचारधारा है? क्या यहाँ पर उन्होंने अम्बेडकर की विचारधारा और मार्क्स की विचारधारा और उनके मिश्रण की वांछितता की बात नहीं की? हम सलाह देना चाहेंगे कि तेलतुम्बडे के कद के एक जनपक्षधर बुद्धिजीवी को बौद्धिक नैतिकता का पालन करना चाहिए और इस प्रकार सफ़ेद झूठ नहीं बोलना चाहिए।

खुद पर फिदा मार्क्सवादियों और छद्म अम्बेडकरवादियों के नाम

अब जो लोग मेरे लेखन से वाकिफ़ हैं, उन्हें यह बात कहीं नहीं मिलेगी कि मैंने कभी अम्बेडकरवाद और मार्क्सवाद के समन्वय की हिमायत की है। बल्कि मैंने कभी अम्बेडकरवाद शब्द का इस्तेमाल भी नहीं किया है, जिसे मेरे नाम के साथ जोड़ा जा रहा है। ‘जाति का उन्मूलन’ के प्रति जैसा रवैया रखने का मुझ पर आरोप लगाया जा रहा है, कि यह कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणापत्र जितना ही अहम है, इससे यह संकेत मिलता है मानो जाति का उन्मूलन बेकार है। अप्रोच पेपर में दूसरों के नज़रियों का मज़ाक उड़ाने या उन्हें नकारने के साथ-साथ उनके अपने नज़रिए को ही सही समझदारी बताने के हवाले भरे पड़े हैं।

जाति उन्मूलन का रास्ता मज़दूर इंक़लाब और समाजवाद से होकर जाता है, संसदवादी, अस्मितावादी या सुधारवादी राजनीति से नहीं!

सुखविन्दर ने अपने आलेख में प्रदर्शित किया कि अम्बेडकर के चिन्तन में कोई निरन्तरता नहीं है। सामाजिक एजेण्डे के प्रश्न पर पहले वह हिन्दू धर्म में ही सुधार करना चाहते थे; बाद में उन्होंने बुद्धवाद में धर्मान्तरण के रास्ते की वकालत की; और मरने से पहले उन्होंने इसे भी नाकाफ़ी करार दिया। उनका चिन्तन निरीश्वरवादी चिन्तन भी नहीं था और उनका मानना था कि समाज में धर्म रहना चाहिए क्योंकि इसी से समाज में कोई आचार या अच्छे मूल्य रहते हैं। इसलिए वे कम्युनिस्टों और निरीश्वरवादियों की नास्तिकता पर हमला करते थे। आर्थिक पहलू देखें तो अम्बेडकर के पास जो आर्थिक कार्यक्रम था वह पब्लिक सेक्टर पूँजीवाद का ही कार्यक्रम था; बल्कि नेहरू का पब्लिक सेक्टर पूँजीवाद का एजेण्डा कुछ मायनों में अम्बेडकर से ज़्यादा रैडिकल था, या कम-से-कम दिखता था। जाति के ख़ात्मे के लिए उन्होंने जो रास्ता सुझाया वह शहरीकरण और उद्योगीकरण का था। लेकिन इतिहास ने दिखलाया है कि शहरीकरण और उद्योगीकरण ने जाति का स्वरूप बदल डाला है, लेकिन उसका ख़ात्मा नहीं किया। अम्बेडकर राजनीतिक तौर पर पूँजीवाद का कोई विकल्प नहीं देते थे। उनकी राजनीति अधिक से अधिक रैडिकल व्यवहारवाद और संविधानवाद तक जाती थी। जनता इतिहास को बदलने वाली शक्ति होती है, इसमें उनका कभी यकीन नहीं था, बल्कि वे नायकों की भूमिका को प्रमुख मानते थे।

दलित मुक्ति का रास्ता मज़दूर इंकलाब से होकर जाता है, पहचान की खोखली राजनीति से नहीं!

अम्बेडकर की कोई भी आलोचना नहीं की जा सकती! यदि कोई क्रान्तिकारी परिप्रेक्ष्य से अम्बेडकर की राजनीतिक परियोजना की सीमाओं और अन्तरविरोधों की तरफ़ ध्यान आकर्षित करता है, तो दलितवादी बुद्धिजीवी और संगठन और साथ ही दलित आबादी को तुष्टिकरण और विचारधारात्मक आत्मसमर्पण के जरिये जीतने का सपना पालने वाले “क्रांन्तिकारी” कम्युनिस्ट भी उस पर टूट पड़ते हैं और आनन-फानन में उसे दलित-विरोधी, सवर्णवादी आदि घोषित कर दिया जाता है!