‘राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना’ भी चढ़ी भ्रष्टाचार की भेंट
लालचन्द, लखनऊ
केन्द्र सरकार ने अपने ‘‘कल्याणकारी’‘ मुखौटे को थोड़ा और सजाने के लिए हाल ही में ग़रीबों को स्वास्थ्य सुविधा देने के नाम पर ‘राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना’ का श्रीगणेश किया था। हालाँकि सभी जानते हैं कि टटपुंजिया अस्पतालों को इस योजना के दायरे में लाकर सरकार ग़रीबों की जान बचा नहीं रही है, बल्कि और जोखिम में डाल रही है। लेकिन फिर भी रोज़मर्रा के छोटी-मोटी बीमारियों से इस योजना के उपयुक्त रूप से लागू होने से कुछ राहत मिल सकती थी। इसका लाभ 2002 की बी.पी.एल. सूची में आने वाले सभी परिवारों को मिलना था। इस योजना के तहत हर कार्डधारक को हर साल 100 रुपये जमा करना होता है और केन्द्र सरकार उसके नाम पर हर साल 300 रुपये जमा करती है; इस प्रकार 400 रुपये का स्वास्थ्य बीमा होता है। इस योजना के तहत धारक को एक कार्ड दिया जाता है जिसके आधार पर बीमा कार्ड धारक व्यक्ति के परिवार को 30 हज़ार रुपये सालाना का क्लेम (दावा) दिया जाता है। इसमें पहले से मौजूद सभी बीमारियों का इलाज शामिल है। इस काम के लिए वाराणसी की एक फर्म मेसर्स एम.डी. इण्डिया हेल्थ केयर सर्विसेज़ को सेवा प्रदाता संस्था के रूप में चुना गया है।
कई समाचार एजेंसियों ने यूनीवर्सल हेल्थ इंश्योरेंस स्कीम में हुए घोटाले की ख़बर प्रकाशित की है। सी.बी.आई. ने कई दफ्तरों में छापे मारकर बड़े पैमाने पर गड़बड़ी को पकड़ा है। फर्जी बी.पी.एल. कार्ड बनवाकर, नेशनल इंश्योरेंस के अधिकारियों से मिलीभगत करके सैकड़ों अपात्र लोगों ने क्लेम लिये हैं। इसमें अभी तक 30 लाख का घोटाला सामने आया है।
इस योजना में भ्रष्टाचार होने का आधार तो पहले से ही तैयार था। बी.पी.एल. कार्डधारकों के सर्वेक्षण में पाया गया है कि केवल 30 प्रतिशत ही वास्तविक लाभार्थी हैं। और जब बी.पी.एल. कार्डधारकों के सत्यापन की बात आती है तो सरकारी तंत्र को नींद आने लगती है। हम यहाँ पर ग़रीबी रेखा के पैमाने की बात ही नहीं कर रहे हैं जो कि हास्यास्पद है। ग़रीबों का मज़ाक बनाया गया है।
हर सरकारी योजना की तरह यह योजना भी भ्रष्टाचार की शिकार हो गयी है। ऐसा होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। अब आगे क्या खेल होगा, सभी को पता है। जाँच समिति का गठन होगा, दोषी साबित होंगे, लेकिन कार्रवाई ठण्डे बस्ते में डाल दी जाएगी। जैसा कि देखा गया है कि भ्रष्टाचार मिटाने के तमाम कदम बेअसर साबित हुए हैं। ज़्यादा मामलों में राज्यपाल या केन्द्रीय गृह मन्त्रलय जैसे संवैधानिक प्राधिकारी भ्रष्टाचार के मामले में ‘’बड़े लोगों’‘ के खि़लाफ कार्रवाई करने की इजाज़त नहीं देते हैं।
दूसरी बात, देश के पूर्व प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी ने साफ तौर पर इस बात को स्वीकार किया था कि जनता के हित में जो भी योजनाएँ बनाई जाती हैं उसमें भेजे जाने वाली रकम का केवल 15 प्रतिशत ही उचित व्यक्ति तक पहुँच पाता है। बाकी की 85 प्रतिशत रकम नेता-नौकरशाह और उनके लग्गू-भग्गू डकार जाते हैं और साँस भी नहीं लेते हैं।
दिल्ली के ‘सेण्टर फॉर मीडिया स्टडीज़’ ने जून 2008 में जारी अपनी रिपोर्ट में बताया है कि ग़रीबी रेखा के नीचे के लोगों ने 2007 में कम-से-कम 883 करोड़ रुपये घूस के रूप में नौकरशाहों, कर्मचारियों को दिये ताकि उन्हें सरकारी योजनाओं का लाभ मिल सके।
अन्तिम बात, कि जिस व्यवस्था की बुनियाद ही अन्धी लूट (कानूनी व गैर-कानूनी दोनों) पर टिकी हो वहाँ भ्रष्टाचार को ख़त्म नहीं किया जा सकता, चाहें जितने स्टिंग ऑपरेशन कर लिये जाएँ, चाहें एक से बढ़कर एक जाँच एजेंसियाँ बना ली जांय। ढाक के तीन पात वाली कहावत ही साबित होगी।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2010
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