कृत्रिम चेतना: एक कृत्रिम और मानवद्रोही परिकल्पना
सनी
1997 में एक सुपर कम्प्यूटर ‘डीप ब्लू’ ने शतरंज के दिग्गज खिलाड़ी और विश्व विजेता गैरी कास्परोव को हरा दिया था, हालाँकि कास्पारोव ने भी इसे हराया था। इस हार को इस तरह पेश किया गया कि जैसे मनुष्य की चेतना से उच्च स्तर की चेतना विकसित हो गयी है। यह कम्प्यूटर इस खेल के लिए हर सेकण्ड में 2000 लाख चालों को ढूँढता था। इसके बावजूद गैरी कास्परोव ने उसे कुछ गेमों में हरा दिया था। कास्परोव की हार के मायने क्या हैं? क्या कम्प्यूटर इंसान की जगह ले लेगा? न्यूज़वीक पत्रिका ने इस मैच को ”दिमाग की आखिरी हार” करार दिया। और इस तरह कृत्रिम चेतना के विषय का पदार्पण विश्व को बदल डालने वाले विज्ञान के रूप में हो चुका था। लगभग हर बड़े विश्वविद्यालय में इस विषय पर शोध हो रहा है। परन्तु यह विषय जिस तरह पढ़ाया जाता है वह ग़लत है। आर्टिफिशियल इण्टेलिजेंस, कृत्रिम चेतना, कृत्रिम बुद्धिमता शब्द से असल में उम्मीद लगायी जाती है कि यह इंसान के सभी कार्य कर सकता है व उसे उसके हर कार्यक्षेत्र से हटा देगा। सिमोन, जिन्हें 1978 का अर्थनीति का नोबल प्राइज़ मिला था, का कहना था कि ‘आर्टिफिशिअल इण्टेलिजेंस मनुष्य को हर क्षेत्र से हटा देगा’। गूगल इन्क के रिसर्च डायरेक्टर पीटर नोर्विग मनुष्य की चेतना को अक्षम बताते हैं तथा उसे ठीक करने तथा उससे बेहतर सोचने वाली मशीनों की परिकल्पना को पेश करते हैं। लेकिन तमाम वैज्ञानिकों ने इन परिकल्पनाओं को सिरे से ख़ारिज किया है। ये परिकल्पनाएँ मानवद्रोही हैं तथा मौजूदा व्यवस्था की पैरोकार हैं। ये भाववाद व अनुभववाद की अधपकी खिचड़ी है। जाहिर सी बात है कि ऐसी परिकल्पनाओं को कोई भी संजीदा वैज्ञानिक या बुद्धिजीवी गम्भीरता से नहीं ले सकता है।
ख़ैर, ऐसी खोखली परिकल्पना सिर्फ संज्ञानात्मक विज्ञान (कॅागनिटिव साइंस) के क्षेत्र में ही नहीं लगभग हर ज्ञान क्षेत्र में व्याप्त है। यह व्यापक परिघटना है। तमाम क्षेत्रों में यंत्रें द्वारा मनुष्यों को पीछे छोड़ दिये जाने, मनुष्य की मेधा के किसी कृत्रिम शक्ति द्वारा पछाड़ दिये जाने की कल्पनाएँ की जा रही हैं। ऐसा क्यों है?
विज्ञान से हम प्रकृति को व्याख्यायित करते हैं। जैसे तारों की, धरती की तस्वीर जो हम अपनी आँखों से बनाते हैं वह सच्चाई का मामूली-सा प्रतिबिम्ब होती है। अन्तरिक्ष और धरती को करोड़ों मनुष्यों ने पिछले 4000 सालों से देखा और उसकी व्याख्याएँ की हैं। प्लेटो से लेकर केप्लर तक ने और आज स्टीफन हाकिंग और अन्य समकालीन वैज्ञानिकों तक ने धरती, तारों व ब्रह्माण्ड की बेहतर तस्वीर पेश की है। मनुष्य का ज्ञान इन्द्रियग्राह्य से बुद्धिसंगत ज्ञान में विकासमान रहा है। मनुष्यों की कई परिकल्पनाएँ ग़लत थी और अपनी ग़लतियों से सीखते हुए मनुष्य कदम-ब-कदम कला, साहित्य, प्राकृतिक विज्ञान आदि विषयों को गढ़ता गया है। मानव का सम्पूर्ण इतिहास उसके समूचे व्यवहार या कहें कर्मों का इतिहास है। प्राकृतिक विज्ञान का इतिहास मानव के उत्पादन सम्बन्धों और उत्पादक शक्तियों दोनों से जुड़ता है। यह भी लगातार विकासमान है परन्तु कभी-कभी ऐसे दौर आते हैं जब विज्ञान लम्बे समय तक अपेक्षाकृत रूप से ठहरावग्रस्त रहता है। समाज के आर्थिक आधार के अनुसार ही विचारधारा के तमाम प्रभावी रूप अस्तित्वमान होते हैं। और इन्हीं रूपों से वैज्ञानिक भी प्रभावित होता है व विश्लेषण करता है। “इंसान को एक वैज्ञानिक के तौर पर काम करने से पहले एक इंसान की तरह, अमूर्त रूप में नहीं, बल्कि एक विशिष्ट प्रकार के समाज के वास्तविक इंसान की तरह जीना होता है। अगर आधुनिक भौतिकी की बात करें—तो भौतिक वैज्ञानिक पहले एक इंसान है जिसे बुर्जुआ समाज के एक सदस्य की तरह जीना होता है”(कॅाडवेल)। ग़लत विचारों के चलते तथ्यों को लम्बे समय तक सही खाँचे में नहीं डाला जाता। कई घातों-प्रतिघातों, तीखे संघर्षो से गुज़रते हुए प्राकृतिक विज्ञान सही दिशा अख्तियार करता है। यह सही दिशा द्वंद्वात्मक नज़रिये की है। आज बुर्जुआ विज्ञान द्वंद्वात्मक राह की जगह तुक्केबाजी का सहारा लेता है। इसी तुक्केबाजी से वह मंथर गति से विकसित होता है। लेनिन के शब्दों में ”वे द्वंद्वात्मक भौतिकवाद द्वारा खोले दरवाजे को नहीं देखते हैं।” यह पतनोन्मुख बुर्जुआ समाज की आम गति है। इसकी पतनशीलता मकड़जाल की तरह हर ज्ञान क्षेत्र से चिपकी हुई है। हर ज्ञान शाखा में संकट व्याप्त है। कृत्रिम चेतना का पूरा सिद्धान्त वास्तव में बुर्जुआ समाज, मूल्यों-मान्यताओं और आर्थिक आधार द्वारा पैदा की गयी विकृतियों में से एक है। इस लेख में इस परिकल्पना के निष्कर्षों और मुख्य तर्कों का आलोचनात्मक विश्लेषण रखा गया है। हम सबसे पहले इसके राजनीतिक निष्कर्षों और पूर्वाग्रहों पर चोट करेंगे। इस व्याख्या के बाद इसकी चीरफाड़ करना बेहद आसान होगा। मौजूदा प्रयोगों और बुर्जुआ वैज्ञानिकों की माथापच्ची पर एक नज़र बुर्जुआ पतनोन्मुख समाज पर भी रोशनी डालेगी। रोजर पेनरोज़ सरीखे कई भौतिकशास्त्रियों और दार्शनिकों (ड्रायफस, चोम्स्की) ने भी कृत्रिम चेतना की आलोचना की है परन्तु यह सब या तो तकनीकी पहलुओं पर चोट करते हैं (मुख्यतः गोडेल के गणितीय अपूर्णता के सिद्धांत के आधार पर जिसका सार ज्ञान की सापेक्षता है) या फिर भाववादी दृष्टिकोण से प्रस्थान करते हैं। मार्क्सवादी पद्धति के कुतुबनुमा के बग़ैर वैज्ञानिक परिकल्पनाएँ और उसको साबित करने के लिए किये जा रहे प्रयोग संयोग और तुक्केबाजी की धुँध में भटक रहे हैं।
कृत्रिम चेतना की राजनीति
पूँजीवाद का उदय माल-उत्पादन के लिए लगने वाली बड़ी-बड़ी मशीनों के दौर से हुआ था। स्टीम इंजन की खोज, प्रिण्टिंग, कम्प्यूटर, एरोप्लेन सभी इसी युग की खोजें हैं और तभी से ही श्रम और पूँजी की ताकतें भी एक दूसरे से टकराती रही हैं। मशीनीकरण ने श्रम की उत्पादकता का स्तर बढ़ाया तो दूसरी ओर बड़ी आबादी को बेरोज़गार किया जिसे अपना घर, ज़मीन छोड़ कर विस्थापित होना पड़ा। फैक्टरियों में नयी नयी मशीनरी लगायी जाती है जिससे पूँजीपति श्रम की उत्पादकता बढ़ाकर कम समय में ही पहले से ज़्यादा उत्पादन करने में सक्षम हो जाता है। वह श्रम से अतिरिक्त मूल्य निचोड़ने की अपनी दर को बढ़ा लेता है। मशीनीकरण के ज़रिये पूँजीपति लगातार अपनी लागत को कम करने का और अपने मुनाफे को बढ़ाने का प्रयास करता रहता है। बाज़ार की प्रतिस्पर्द्धा में यह एक हवस में तब्दील हो जाता है क्योंकि बाज़ार में वही पूँजीपति टिक सकता है जो कीमतों के युद्ध में विजयी होता है, यानी कि अपने उत्पाद की कीमत कम-से-कम रखता है। और कीमतों को कम से कम वही पूँजीपति रख सकता है जो लागत को कम-से-कम रखे, और लागत को कम-से-कम वही पूँजीपति रख सकता है जो मशीनीकरण और स्वचालन का जमकर इस्तेमाल करे ताकि श्रम की उत्पादकता को बढ़ाकर श्रमिकों की ही छँटनी की जा सके। यही हवस पागलपन की हद तक पहुँचती है, और बुर्जुआ विचारजगत में कई परिकल्पनाओं को जन्म देती है। वह एक ऐसे रोबोट की परिकल्पना तक जाती है जो उसकी फैक्टरी से मज़दूरों को ग़ायब कर देती है। यह तर्क हवाई है और लेख के अगले हिस्से में हम इसे तार-तार करेंगे परन्तु अभी इसे आगे बढ़ाकर देखते हैं। बुर्जुआ समाज का कलाकार, अर्थनीतिज्ञ, राजनीतिज्ञ या वैज्ञानिक एक ऐसी मशीनरी की कल्पना करता है जो लगातार मुनाफा बढ़ायेगी और इंसान को उत्पादन के मानसिक और शारीरिक कार्य से मुक्त कर देगी! इस परिकल्पना को अर्थनीति के स्तर पर ‘तकनोलॉजिकल बेरोजगारी’ कहते हैं जिस पर कई बुर्जुआ अर्थनीतिज्ञ अलग-अलग मत रखते हैं। वैसे अगर इस तर्क को मान लिया जाये तो होगा यह की उत्पादन में श्रम करने वाले रोबोट होंगे! एक बहुत बड़ी आबादी उत्पादन से बाहर धकेल दी जायेगी और कुछ पूँजीपति पृथ्वी की सम्पदाओं का दोहन करेंगे! या थोड़े समय बाद कुछ बेहतर मशीनें खुद पूँजीपतियो को हटाकर पूरी दुनिया पर कब्ज़ा कर लेंगी। बड़ी भद्दी सोच है! परन्तु यह महज़ सोच है! सबसे पहले तो यह एक फन्तासी है और अगर इस फन्तासी को यथार्थ मान लिया जाये तो बेरोज़गार आबादी इस निजा़म के खि़लाफ विद्रोह कर देगी। यह फन्तासी मुख्यतः मशीनों आदि को ऐसा औजार बनाकर पेश करती है जिसे हराना मनुष्य के दम की बात नहीं है! परन्तु यह बार-बार भूल जाती है कि हर-हमेशा डेविडों ने गोलिएथों को गुलेल से हराया है! और यह कि ”जनता के महासागर में बड़े-बड़े हथियारों के जखीरे डूब जाते हैं”(माओ)। यह परिकल्पना कभी उपन्यासों, कविताओं, फिल्मों, गानों में, यानी की अधिरचना का एक अंग बनकर अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है। असिमोव की पूरी रोबोट शृंखला, इ.रोबोट, मेट्रिक्स, ए.आई. सरीखी फिल्में परिकल्पनाओं में आर्थिक हवस का मूर्त रूप होती हैं। हर व्यवस्था का आर्थिक आधार अपने अनुकूल अधिरचना खड़ा करता है जो उसके विकास में मददगार होता है। आदि काल से तमाम जादुई परिकल्पनाएँ इसी तरह मनुष्य की चेतना को उसके मूलाधार से बाँधे रखने का काम करती हैं। कृत्रिम चेतना का भी वास्तविक कार्य यही है। यह वैज्ञानिक परिकल्पना पूँजीवादी मूलाधार का समर्थन करती है और श्रम के शिविर पर सवाल खड़ा करती है, जनता के प्रतिरोध को नकारती है और उसके अजेय शौर्य को भोंडा करके पेश करती है। पूँजीवाद मनुष्य को उसकी ही रचना के खिलाफ खड़ा करता है; यह फन्तासी मनुष्य को उसकी ही रचना के खि़लाफ खड़ा कर उसे मनुष्य से अपराजेय बना देती है। यह विडम्बना है कि पहले तो यह व्यवस्था करोड़ों इंसानों को बेरोज़गार रखती है, उन्हें भूखा रखती है, उनके श्रम शक्ति सम्पन्न शरीर को और मष्तिष्क को निष्क्रिय रखती है और दूसरी तरफ उस तक्नोलोजी में पैसा लगाती है जिससे कि मानव को हटाकर ”चेतना सम्पन्न रोबोट” बनाया जा सके। सामान्य चेतना क्या कहती है? तर्क क्या कहता है? क्या एक सीधा-सादा तर्क यह नहीं है कि जिस देश में रोज 9,000 बच्चे भूख और कुपोषण से मरते हों तो क्या वहाँ 58 लाख टन अनाज गोदामों में सड़ाना बेवकूफी नहीं है? इस सवाल को हल करने के लिए किसी सुपर कम्पयूटर की ज़रूरत नहीं है जो एक सेकण्ड में 2000 लाख चाल सोच सकता है। यह महज़ कल्पनालोक में अच्छी लगती है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद से यह महज़ परिकल्पना के स्तर तक मौजूद है। यहाँ हम आगे बढ़कर इसके उस तर्क पर चोट करेंगे जो मनुष्य की रचना का अमूर्तिकरण इस हद तक करता है कि यह अमूर्त रचना जीवित हो उठती है।
कृत्रिम चेतना का दर्शन
कृत्रिम चेतना का विचार दूसरे विश्व युद्ध के बाद अस्तित्व में आया। कई देशों की पूँजीवादी सरकारों ने बढ़-चढ़कर इसमें पैसा लगाया। ट्यूरिंग का कम्प्यूटेशन का सिद्धान्त इस क्षेत्र का मुख्य स्रोत था। मनुष्य के तंत्रिका तन्त्र को बहुत ही निम्न स्तर के तन्त्र से समझने कि कोशिशें की गयीं। ट्यूरिंग ने 1950 में ”कम्प्यूटिंग मशीनरी एंड इंटेलिजेंस” नामक अपने लेख में आर्टिफिशियल इण्टेलिजेंस का आधार रखा। विख्यात ट्यूरिंग टेस्ट जो किसी मशीन के इण्टेलिजेंस का टेस्ट होता है इसी लेख में प्रस्तुत किया गया। 1950 के दौर में मैकार्थी, मिन्स्की, नेविल, सिमोन आदि वैज्ञानिकों ने इसको आगे बढाया। यही वह दौर था जब अमेरिका भी ऐसे ही कृत्रिम मशीन अनुवादक की तलाश में था जो रुसी लेखों को अनुवादित कर सके जिससे कि स्पुतनिक के बारे में अमरीका को पूरी जानकारी हो। परन्तु जल्द ही यह लड़खड़ा कर गिर गया। आर्टिफिशियल इण्टेलिजेंस उम्मीद पर खरा नहीं उतरा और 1973 में इंग्लैण्ड ने लाईटहिल रिपोर्ट के आधार पर इस अनुसंधान को सिर्फ दो विश्वविद्यालयों के अलावा हर जगह बन्द कर दिया। पर फिर से 1982 में कृत्रिम चेतना के विकास के क्षेत्र में जमकर निवेश हुआ जो कि 1988 तक आते आते फिर से धराशायी होकर गिर पड़ा। परन्तु फिर से एक बार इस क्षेत्र में निवेश होना शुरू हुआ और कई सफल कम्प्यूटर बने जो मनुष्य द्वारा निर्धारित कार्यों को कर सकते थे। शोध आकलन, सर्जिकल ऑपरेशन, लॉजिस्टिक, कम्प्यूटर गेम, प्ले स्टेशन, डेटा माईनिंग, अन्तरिक्ष विमान, हथियारों, गूगल सर्च इंजिन व अन्य सर्च इंजन में ”कृत्रिम चेतना” की अवधारणा का जमकर प्रयोग होने लगा है। परन्तु आज 70 साल बीत जाने के बाद भी चेतन मशीन की परिकल्पना ने जीवन नहीं प्राप्त किया है और न ही करेगी चाहे इसको लेकर पीटर नोर्विग कितना ही चिल्ला लें।
यह बात हम यूँ ही नहीं कह रहे हैं। इसके कारण वैज्ञानिक और दार्शनिक धरातल पर मौजूद है। दार्शनिक धरातल वैज्ञानिक धरातल का ही सामान्यकरण है। आखिर यह कृत्रिम चेतना क्या है? वास्तव में, ये कम्प्यूटर प्रोग्राम है। एक कम्प्यूटर प्रोग्राम अपने कण्डीशनल ऑपरेटरों के ज़रिये तमाम सम्भावित परिघटनाओं के बारे में कुछ पूर्वाकलन कर सकता है। उन्नत से उन्नत कम्प्यूटर अपने गणितीय ऑपरेटरों के ज़रिये कुछ ही सम्भावित परिस्थितियों के कुछ ही सम्भावित नतीजों के कुछ ही सम्भावित पूर्वानुमान लगा सकते हैं। ये प्रोग्राम दिये गये तथ्यों, आँकड़ों और गणनाओं पर ही चल सकते हैं, और नयी गणनाएँ भी ये उनके आधार पर ही कर सकते हैं। मनुष्य के पास एक शक्ति होती है, जो किसी भी कम्प्यूटर प्रोग्राम के पास नहीं हो सकती है-कल्पना और भावना की शक्ति। और अधिकांश निर्णयों के आधार में हर-हमेशा कल्पना, भावना और तर्कों तथा तथ्यों की भूमिकाएँ होती हैं। निश्चित तौर पर, ऐसे में कोई उन्नत से उन्नत कृत्रिम चेतना का प्रोग्राम सभी सम्भावित परिस्थितियों का आकलन नहीं कर सकता। ऐसे में कोई भी नयी अकल्पित, अनाकलित लेकिन निश्चित तौर पर सम्भावित परिस्थिति उस कृत्रिम चेतना के कार्यक्रम को दुष्क्रिया की स्थिति में डाल सकती है; उनकी ही भाषा में कहें तो ‘सिस्टम एरर’ पैदा कर सकती है! ये सारे कम्प्यूटर और उन्हें चलाने वाले सॉफ्टवेयर और उनकी एल्गोरिथम कैसे मनुष्य के मस्तिष्क के समान सोच पाएँगे? ये कम्पयूटर सिलिकॉन और जर्मेनियम से बनी चिप में इंसान द्वारा तय गणितीय मानकों पर आँकड़ों को व्यवस्थित करते हैं व उनसे आकलन निकालते हैं; क्रिस्टोफेल कॉडवेल के शब्दों में यह कम्प्यूटर ऑपरेटेबिलिटी के ठप्पे से भरा होता है यानी यह आँकडों को जमा करने और आकलन के मानवीय तरीकों का प्रतिबिम्ब मात्र है और कम्प्यूटर पर लगे सिलिकॉन और जेर्मेनियम का वजन बढ़ाने और करोड़ों चिप लगाने के बावजूद यह यही काम करेगा! यह मनुष्य की तरह द्वंद्वात्मक तौर पर नहीं सोच सकता है। चाहे वह कास्पोरोव से शतरंज खेलने वाला डीप ब्लू हो या नोर्विग का गूगल सर्च इंजन! शतरंज के खाने अगर बढ़ा दिया जाये या घोड़े की चाल बदल दी जाये तो कम्प्यूटर हार जायेगा। एक और बोर्ड गेम ‘गो’ में कृत्रिम चेतना वाले कम्पयूटर को नौसिखिये भी हरा देते हैं! और वैसे भी हमारा ब्रह्माण्ड तो इन खेलों के नियमों से बंधा नहीं है, पदार्थ लगातार विकासमान है और पदार्थ के हर स्तर पर अलग नियम काम करते हैं! उन्नत से उन्नत कम्प्यूटर जो काम सबसे अच्छी तरीके से कर सकता है वह यह है कि वह मनुष्य द्वारा सिखाये रास्ते पर अधिकतम सम्भव सटीकता से चले। दरअसल, यह मनुष्य की चेतना का ही प्रतिबिम्ब है! मनुष्य और मशीन को अलग करके नहीं देखा जा सकता है यह उसके अजैविक जगत का हिस्सा है। यह मशीन मानसिक श्रम करने का औज़ार है जिस तरह हथोड़ा शारीरिक श्रम को आसान बनाने का औज़ार होता है। परन्तु कई वैज्ञानिक प्रचारित करते हैं वे अलग से नयी चेतना का निर्माण कर रहे हैं और वे कदम-कदम पर इन कम्प्यूटरों की कभी जानवरों से तो कभी मनुष्य से तुलना करते रहते हैं। गूगल के पीटर नोर्विग ने अपनी किताब में लिखा है कि जैसे चिड़िया कि उड़ान को हम कृत्रिम रूप से हवाई जहाज़ से सृजित कर सकते हैं वैसे हम चेतना को भी किसी आधुनिक मशीन में सृजित कर सकते हैं। यह भाववाद है! आप जो चाहे वह नहीं कर सकते! कल आप इसी तर्क के आधार पर कहेंगे चलिए नयी धरती बनाते हैं, चलो क्यों न नया ब्रह्माण्ड बनाया जाये! खैर कल्पनालोक से बाहर निकलते हैं! हॉब्स को उद्धृत करते हुए वह मस्तिष्क को कैल्कुलेटर बताते हैं जिसमे चेतना गणितीय सूत्रों के द्वारा प्रवेश करती है! चेतना आखिर है क्या? रंग, खुशबू, ठोस, गीला, कर्कश आदि क्या हैं? क्या यह गणितीय सूत्र हैं जिन्हें कम्प्यूटर को समझाया जा सकता है? मनुष्य की सामाजिक चेतना पिछले 4000 साल से विकास कर रही है। इसके विकास का इतिहास मनुष्यता का इतिहास है, यह मनुष्य के आत्मगत जगत और उसके वस्तुगत जगत का इतिहास है। दरअसल मनुष्य को वस्तुगत और आत्मगत में अलग नहीं किया जा सकता है, जैसा कि फायरबाख ने कहा है कि मनुष्य वस्तुगत-आत्मगत होता है। मनुष्य का आत्मिक और भौतिक जगत एकीकृत होते हैं। यह वह रेखा है जो यांत्रिक भौतिकवादी को द्वंद्वात्मक भौतिकवादी से अलग करती है। न मशीन द्वंद्ववाद समझ सकती है और न ही यांत्रिक भौतिकवादी! इसी कारण कृत्रिम चेतना का यह सिद्धांत मानवद्रोही है। यह मानवीय सारतत्व पर चोट करता है। यह मानवीय सार को एक मशीन द्वारा बनाने कि बात करता है। परन्तु ”मानवीय सारतत्व अमूर्त रूप में हर व्यक्ति में विराजमान नहीं होता है। वास्तव में, यह सम्पूर्ण सामाजिक रिश्तों का समुच्चय है”(मार्क्स)। यह मार्क्सवाद के ज्ञान सिद्धांत के खि़लाफ जाता है। श्रमशील मनुष्य को चिन्तनशील मनुष्य से अलग नहीं किया जा सकता है।
इसलिए यह समझना कोई ज़्यादा मुश्किल काम नहीं कि ज्ञान एक वैज्ञानिक वस्तु होता है जिसे मशीन समझ नहीं सकती है। वह बस अनुकरण कर सकती है। समझने के लिए आलोचनात्मक विवेक चाहिए, एक द्वंद्वात्मक विचार प्रणाली चाहिये। परन्तु कृत्रिम चेतना के अनुसार ये मशीनें मानव से बेहतर सोचेंगी और आगे भी बढेंगी। यह सब कोरी बकवास है। यह परिकल्पना ज्ञान को महज प्लेटो, अरस्तु, सुकरात, हेगेल, माइकेलेंजेलो, आइन्स्टाइन आदि के अन्दर ढूँढती है न कि सम्पूर्ण मानव समाज के व्यवहार में। यह मानवीय संघर्ष के इतिहास को, व्यवहार से पैदा हुए और विकसित होते ज्ञान कि प्रक्रिया को ढाँपता है। यह सोच मेहनतकश जनता को कोल्हू का बैल समझती है जिसे चलाने के लिये विशिष्ट बुद्धि सम्पन्न व्यक्तियों की ज़रुरत होती है और अब यह कार्य कृत्रिम चेतना करेगी। यह बुर्जुआ राज्य सत्ता की सेवा में लगने को तत्पर है और वस्तुतः कृत्रिम चेतना के प्रयोग से निकले सॉफ्टवेयर सर्विलिएंस में प्रयोग हो रहे हैं। आर्टिफिशियल इण्टेलिजेंस सरीखी परिकल्पनाएँ बुर्जुआ विज्ञान की सीमाओं और खोखलेपन को सतह पर ले आती हैं।
असल में कृत्रिम चेतना के प्रयोग और उससे निकले कम्प्यूटर क्या हैं? और वे कैसे प्रयोग में आयेंगे? ये कम्प्यूटर निश्चित तौर पर मानवीय श्रम की उत्पादकता को बढ़ाएँगे, बेहतर मशीनें बनेंगी परन्तु यह ध्यान में रखना होगा कि पूँजीवाद में विज्ञान पूँजी का गुलाम होता है व मुनाफे की सेवा में लगता है। इसका एक घिनौना उदाहरण एक कृत्रिम चेतना की अवधारणा पर आधारित रोबोट रोक्सी है जो सिर्फ इसलिये बनायी गयी है की वह आदमी की कामवासना को शान्त कर सके! पूँजीवाद का संकट विज्ञान के स्तर पर भी मौजूद रहता है, बावजूद इसके विज्ञान और तकनीक विकासमान रहती हैं, भले ही वह गति मन्थर हो। ऐसे में विज्ञान का रुग्ण और विकृत इस्तेमाल होता है। वह युद्धक हथियार बनाने, रॉक्सी जैसे रोबोट बनाने और उम्र घटाने की दवाइयाँ बनाने आदि में इस्तेमाल किया जाता है। कृत्रिम चेतना शब्द गलत है और इस तकनीक का मूल प्रतिबिम्ब नहीं करता है।
कृत्रिम चेतना वास्तव में कुछ भी नहीं है। यह मनुष्य की चेतना का ही विस्तार है। यह स्वचालन की ही एक नयी मंजिल है। कुछ मानवीय कार्यों को, जो कि पूर्वाकलित किये जा सकते हैं, अंजाम देने के लिए कुछ ऐसे उपकरणों का निर्माण किया जा सकता है और किया जा रहा है जो स्वयं एक हद तक पहले से दर्ज और आकलित निर्णय ले सकते हैं। लेकिन यह कहना कि कृत्रिम चेतना से लैस रोबोट किसी दिन मनुष्य का स्थान ले लेंगे, एक निहायत मूर्खतापूर्ण सपना है। ऐसा कभी नहीं हो सकता है। जो मानव चेतना की प्रकृति और चरित्र को नहीं समझते हैं, वही इस खोखले सपने के नशे में डूब सकते हैं।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-दिसम्बर 2012
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