सूचना का अधिकार : एक कागजी हथियार
योगेश
2005 जब में सूचना का अधिकार अधिनियम लागू हुआ था तो यू.पी.ए. सरकार ने इस कानून को ‘‘लोकतन्त्र’’ को पारदर्शी बनाए रखने और ‘जनता का हथियार’ कहकर खूब महिमामण्डित किया था। लेकिन चार वर्ष बीतते–बीतते जहाँ इस कानून के ठीक से लागू ही न हो पाने पर सवाल उठने लगे, वहीं दूसरी तरफ दो सूचना का अधिकार कार्यकर्त्ताओं की हत्या ने पूँजीवादी ‘लोकतन्त्र’ की हकीकत को भी सामने ला दिया। ऐसे में यू.पी.ए. सरकार ने सूचना अधिकार में दबे–पाँव संशोधन कर इस कागजी ‘हथियार’ की धार को भी कुन्द करने की कोशिश की है। सरकार ने 14 अक्टूबर 2009 को दिल्ली में मीटिंग कर एक संशोधन का प्रस्ताव पेश किया जिसके तहत सरकार सूचना अधिकारी को ‘फाइल नोटिंग’ दिखाने का हक औैर ‘फालूत और तंग करनेवाले’ सवालों को खारिज करने का अधिकार देना चाहती है। इस प्रस्तावित संशोधन का बुद्धिजीवियों ने अलग–अलग माध्यमों से काफी विरोध किया। ज़ाहिरा तौर पर सूचना अधिकार कानून एक जनवादी हक है और इन संशोधनों पर विरोध करना भी जायज हैं। लेकिन इस भ्रम में रहना घातक है कि इस कानून से देश की जनता को कोई क्रान्तिकारी अधिकार मिल गया है और इसके जरिये जनता को प्रशासन और व्यवस्था के भ्रष्टाचार से मुक्ति मिल जाएगी। क्योंकि एक भ्रष्टाचार–मुक्त पूँजीवाद की कल्पना करना असंभव है। इस कानून के चार साल के ‘‘गौरवमय’’ इतिहास पर नज़र डाल लेने से ही इस कथन की सच्चाई साबित हो जाती है।
पिछले चार वर्ष का कुल लेखा–जोखा एक रिपोर्ट खुद–ब–खुद बयान कर देती है। एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार 85 प्रतिशत जनता को तो इस कानून के बारे में पूरी जानकारी भी नहीं है। जिन्हें है भी उनमें से केवल 27 प्रतिशत को ही सही जानकारी उपलब्ध हो पाती है इस कानून की दूसरी बड़ी खामी जो सामने आई वह यह है कि सरकारी अधिकारी सूचना आवेदक को सूचना प्राप्त कराने के लिए भगाते रहे या अधूरी सूचनाएँ दी गई। जबकि कई ग्रामीण इलाकों में तो कोई सूचना दी ही नहीं गई। इलाहाबाद उच्च न्यायालय में आपको एक सूचना माँगने के 500 रुपए लगेंगे और जो सूचना मिलेगी उसकी कीमत होगी प्रति पेज 50 रुपए! इस मामले को वहाँ के सामाजिक कार्यकर्त्ताओं ने कोर्ट में चुनौती दी। लेकिन कोर्ट इसे नहीं मान रहा। उनके अनुसार लोक प्राधिकरण को यह अधिकार है। इसके अतिरिक्त, आप हाईकोर्ट के जज और मन्त्रियों की नियुक्ति पर कोई सवाल नहीं कर सकते। वहीं बिहार में सुशासन का ढोल पीटने वाले नीतीश जी के राज में एक आवेदक को सूचनाएँ उपलब्ध करने के लिए एक अधिकारी ने पन्द्रह लाख चौबीस हजार नौ सौ बासठ रुपये (15,24962) का बिल भेज दिया तथा कई बार इस अधिकार का इस्तेमाल करने वालों को परेशान करने और झूठे आरोपों में फँसाने की कोशिशें होती रही। इतना ही नहीं, पुणे के सतीश शेट्टी और बिहार के शशिधर मिश्र ने जब सरकारी विभाग और प्रावेइट कम्पनी के भ्रष्टाचार को उजागर करने के लिए सूचनाएँ माँगी तो दोनों की हत्याएँ करा दी गयी। यानी अगर इसके इस्तेमाल की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़े तो यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि सरकारी भ्रष्टाचार पर फन्दा लगाने वाला यह कानून कई बार स्वयं ही लोगों के गले का फन्दा बन जा रहा है।
वैसे भी सूचना अधिकार कानून बनाने की मंशा सरकार की इसलिए नहीं थी कि व्यवस्था को भ्रष्टाचार–मुक्त और पारदर्शी बनाया जाए। बल्कि पूँजीवादी व्यवस्था के पैरोकार समय–समय पर ऐसे कुछ कदम उठाते रहते है जो भ्रष्टाचार पर रोक लगाने और राजनीतिक–प्रशासनिक ‘‘सुधार’’ का काम करते हैं, ताकि जनता का विश्वास इस व्यवस्था में बना रहे। वास्तव में सूचना के अधिकार का कानून एक ऐसा अधिकार है जो देश की जनता को दशकों पहले मिल जाना चाहिए था। भारत में मौजूद पूँजीवादी व्यवस्था लोगों को सीमित जनवादी अधिकार देती है। अभी भी अगर हम पश्चिमी पूँजीवादी देशों की व्यवस्थाओं से तुलना करें तो कई ऐसे जनवादी अधिकार हैं जो जनता को बहुत पहले ही मिल जाने चाहिए थे। इसलिए सूचना के अधिकार को देकर पूँजीवादी व्यवस्था ने कोई उपकार नहीं किया है। उल्टे इस बात के लिए इसकी आलोचना होनी चाहिए कि यह आज़ादी के लगभग छह दशक बाद क्यों मिला ?
लेकिन भारत का मध्यवर्ग इस अधिकार के मिलने पर फूले नहीं समाता और मनमोहन सिंह और सोनिया गाँधी की भलमनसाहत पर सदके जाता है। इसका लाभ उठाने के लिए जिस आरम्भिक बौद्धिक, राजनीतिक और सामाजिक सम्पदा और रुतबे की ज़रूरत है वह देश के आम मेहनतकश 85 करोड़ लोगों के पास नहीं है। आँकड़े भी इस बात की ताईद करते हैं कि इस अधिकार का सफलतापूर्वक उपयोग भी अपवादों को छोड़कर अधिकांश मामलों में निम्न मध्यम वर्ग या उससे ऊपर के लोगों ने किया है। प्रशासन के भ्रष्टाचार और व्यवस्था के अन्याय का जो वर्ग सबसे बुरी तरह शिकार होते हैं वे इस अधिकार का उपयोग नहीं कर पाते हैं। और अब इसमें हो रहे संशोधन के बाद तो इस कानून की रही–सही ताक़त भी जाती रहेगी। इसका थोड़ा–बहुत उपयोग इस संशोधन के बाद भी मध्यम वर्ग ही कर पाएँगे। लेकिन यही वे वर्ग हैं जो जनता के व्यापक हिस्सों में जनमत निर्माण का काम करते हैं। साफ़ है कि संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार ने यह कानून अपने पक्ष में वोट बटोरने और सत्ता में बने रहने के लिए बनाया है। कुल मिलाकर, यह कानून कितना जनहितकारी साबित हुआ है यह हमने आँकड़ों के जरिये देख ही लिया है।
इसके अतिरिक्त, जैसा कि हमने पहले कहा है, हर पूँजीवादी व्यवस्था अपनी उम्र को बढ़ाने के लिए कुछ ऐसे रैडिकल दिखने वाले कानून और अधिनियम बनाती ही रहती है। इसके बिना पूँजीवादी व्यवस्था का वर्चस्व कभी बना नहीं रह सकता। ऐसे सुधारवादी कदमों के बिना वह जनता की सहमति (कन्सेण्ट) को बरकरार नहीं रख सकती। ये कानून व्यवस्था के लिए सेफ़्टी वॉल्व की तरह काम करते हैं और जनअसन्तोष को क्रमिक प्रक्रिया में कम करते हैं। इस वर्चस्व को पूर्ण बनाने का काम अरविन्द केजरीवाल, अरुणा राय जैसे तमाम सुधारवादी करते हैं जो इन कानूनों को बेहद क्रान्तिकारी कानून के रूप में पेश करते हैं। यह अकारण नहीं है कि इस कानून के अस्तित्व में आने के साथ ही इससे सम्बन्धित हज़ारों स्वयंसेवी संगठन (एन.जी.ओ.) देश भर में खुल गये। इस कानून पर भी एक पूँजीवादी समाज में जमकर कमाई हो रही है। कानून के बारे में जनता के बीच जागरूकता फैलाने और लोगों को इसका इस्तेमाल करने के लिए प्रेरित करने के नाम पर ये एन.जी.ओ. लाखों रुपयों की कमाई कर रहे हैं।
कानूनों, अधिनियमों या विधेयकों से एक पूँजीवादी समाज में भ्रष्टाचार ख़त्म नहीं हो सकता। हमें यह समझना होगा कि पूँजीवादी व्यवस्था अपने आप में जनता के साथ बहुत बड़ा भ्रष्टाचार है। एक मुनाफ़ा–केन्द्रित समाज में भ्रष्टाचार पनपने से कोई उपदेश, कानून या अपील नहीं रोक सकता। यह ऐसे समाज में नियमत: और अनिवार्यत: पैदा होगा। इसलिए ऐसे कानूनों का उपयोग करने में कोई बुराई नहीं है लेकिन उनकी सम्भावना–सम्पन्न्ता को लेकर कोई विभ्रम की स्थिति नहीं पैदा की जानी चाहिए।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मार्च-अप्रैल 2010
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