पैसा दो, खबर लो
चौथे खम्भे की ब्रेकिंग न्यूज़
आशीष
एक बार की बात है। भारत देश में जोकि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र है, वहाँ की संसद में पैसा दो–सवाल पूछो का मुद्दा प्रकाश में आया। पता चला कि कुछ गणमान्य सांसद महोदय बाकायदा पैसा लेकर सवाल पूछने का सौदा कर रहे हैं। अर्थात ‘पैसा लाओ–सवाल पाओ’। बात खुल गई, न खुलती तो अच्छी थी। संसद की गरिमा पर संकट के बादल मण्डराने लगे; हालाँकि ऐसी कोई गरिमा थी नहीं। क्योंकि संसद में कई बाहुबलियों का वर्चस्व पहले भी बना रहा है और अब भी है। वे अक्सर अपने शक्ति प्रदर्शन का प्रयोग करते रहते हैं। खैरख्वाह बताते हैं कि सांसदगणों के ये कारनामे लोकतन्त्र की गरिमामयी आभा को कुछ ज़्यादा ही चमका देते हैं। खैर! ये पैसा लेकर सवाल पूछने वाला मामला थोड़ा गम्भीर था। देश भर में हंगामा हुआ। काफी थुक्का–फजीहत हुई। लोकतन्त्र के प्रथम स्तम्भ पर बढ़ते दाग–धब्बों पर ‘चिन्तन बैठकें’ हुई। अखबारनवीसों ने बड़े–बड़े लेख लिखे। नेहरू, शास्त्री के जमाने की दुहाई दी गई; गोया उस जमाने में सब ‘पाक–साफ’ ही रहा हो। नेताओं ने एक–दूसरे की नंगई को ढाँपने में भरपूर नंगई दिखाई। बुद्धिविशारद गणों ने संसद की गिरती साख पर स्यापा पढ़ा। नसीहतें दी, तोहमतें दी, कागद पर कागद कारे हुए। आम जनता ने इस पूरी नौटंकी का जी भर मजा लिया। बात आई और गई। अब ऐसी ही एक मजेदार खबर लोकतन्त्र के चौथे स्तम्भ के बारे में सुनने को मिली है। वैसे मीडिया की भाषा में कहा जाए तो ये खबर ब्रेकिंग न्यूज़ थी। आइए आप भी सुनिए। यह रपट उसी खबर के बारे में है–
इस बार का महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव काफी चर्चा में रहा है। यहाँ पैसा दो–खबर लो का बोलाबाला रहा। प्रिण्ट एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया ने ‘चुनावी रिपोर्टिंग’ के रूप में ग्राहक उम्मीदवारों के सामने बाकायदा ‘ऑफर’ प्रस्तुत किया। वहीं उम्मीदवारों ने भी अपनी छवि को सुधारने हेतु क्षमतानुसार धनवर्षा करने में कतई कोताही नहीं की। धनवर्षा पहले भी होती रही है। मीडिया भी जनराय बनाने में सहयोगी भूमिका निभाती रही है। लेकिन ये सारा कारोबार इतना खुल्लमखुल्ला नहीं होता था। पहले दबे–दबे रूप में यह बात सामने आती थी कि अखबार वाले पैसे लेकर खबर छापते हैं। न मिलने पर छुपाते हैं। हूबहू ऐसा ही नहीं होता लेकिन प्रधान बात तो यही है कि जिसका पैसा उसका प्रचार। लेकिन इस बार तो ‘खबर’ लगाने की बोलियाँ लगीं। बिल्कुल मण्डी में खड़े होकर ‘खबर’ नामक माल बेचते मानो कह रहे हों पैसा दो–खबर लो, कई लाख दो–कई पेज लो, करोड़ दो–अखबार लो आदि आदि।
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के सम्बन्ध में जाने–माने पत्रकार पी–सार्इंनाथ की रिपोर्ट बताती है कि पूरे चुनावी काल में लगभग 10 करोड़ रुपये मीडिया की जेब में गये। इतनी बड़ी धनराशि सीधे विज्ञापन के रूप में नहीं आई बल्कि ‘समाचार पैकेज’ के रूप में प्रचार कार्य हेतु इस्तेमाल की गई। सूत्र बताते हैं कि इस चुनावी ‘कवरेज पैकेज’ के लिए मीडिया ने कम से कम 15 से 20 लाख रुपये तक की बोली लगाई थी। ‘नो मनी–नो न्यूज़’ की थ्योरी का सदाचारपूर्वक पालन करते हुए मीडिया उद्योग ने छककर कमाई की, वहीं करोड़पति उम्मीदवार, महँगा से महँगा चुनावी पैकेज लेकर अपनी साफ–सुथरी छवि परोसने में लगे रहे। यथा दाम, तथा काम। दाम के मुताबिक खबर लगाकर दाग–धब्बेदार उम्मीदवारों को रिन जैसी सफेदी में चमकाकर ऐसे परोसा गया कि उम्मीदवार ग्राहकों को भी लगे कि उनका पूरा पैसा वसूल हुआ। क्रेता भी खुश, विक्रेता भी खुश ।
इस चुनावी सौदे में अलग–अलग तरीके की खबरों के अलग–अलग रेट तय किये गये थे। यथा – एक उम्मीदवार के प्रोफाइल के लिए अलग रेट, अपनी उपलब्धिायों के लिए अलग रेट। अगर आप पर कोई मामला दर्ज है तो उसके लिए अलग रेट अदा करना होता था। बताते हैं कि महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में जितने विधायक चुने गये उसमें 50 फीसदी से ज़्यादा पर आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं। लेकिन पूँजी की ताकत ने ऐसी चमक मारी कि इनके दाग–धब्बे खोज पाना सहज नहीं है। उम्मीदवार ग्राहकों की चरित्रगत महानता की ऐसी मिसालें पेश की गयीं कि उन पर मुस्कराए बग़ैर रह नहीं सकते। मुख्यमन्त्री अशोक चव्हाण की तुलना सम्राट अशोक तक से कर डाली गयी।
ऐसा नहीं है कि ‘नो मनी–नो न्यूज़’ वाले फार्मूला का प्रयोग महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में ही हुआ है। इस चुनाव के ठीक पहले लोकसभा चुनाव के मौके पर ऐसे कारनामे खुलेआम देखने–सुनने को मिले थे। एक नमूना ‘हिन्दुस्तान’ अखबार का ही लेते हैं। उ–प्र– के वाराणसी शहर में 16 अप्रैल से ठीक एक दिन पहले 15 अप्रैल को अखबार का प्रथम पृष्ठ विज्ञापननुमा खबर के रूप में प्रस्तुत था। लेकिन प्रस्तुति ऐसी कि यह अंदाज़ा लगा पाना मुश्किल हो जाए कि यह पृष्ठ विज्ञापन के रूप में है। उसमें छपी खबर ले देकर एक ही उम्मीदवार की कसीदाकारी करते दिख रही थी। उन दिनों चुनावी विज्ञापनों को बतौर ‘खबर’ छापने के लिए ‘दैनिक जागरण’ व ‘हिन्दुस्तान’ तो अच्छी खासी रकम वसूल रहे थे। मुख्यधारा के दल के अमूमन हर उम्मीदवार से बिना रसीद दस से 20 लाख रुपये ऐंठने की खबरें भी रही हैं। जिसके एवज में विज्ञापननुमा एक–एक पृष्ठ के चित्र छापे गये। वहीं समाचार भी मिलने वाले पैसे के मुताबिक बनाए जा रहे थे। यह सबकुछ तब किया जा रहा था जब चुनाव की घोषणा हो चुकी थी आचार संहिता लागू थी। जनता की गाढ़ी कमाई जो सरकारी खजाने में जमा होती रहती है उसका इस्तेमाल ये जनप्रतिनिधि सचमुच अपना चेहरा चमकाने में खर्च करते रहते हैं और करते रहते थे। वहीं खबरची उद्योग के मालिकान ‘खबर’ नामक माल की सप्लाई एण्ड डिमाण्ड के नियम से बम्पर मुनाफा पीटने में जुटे रहते हैं। बाज़ार व्यवस्था का यही सच है!
इस प्रकरण पर कई बुद्धिजीवीगण ऐसे प्रलाप कर रहे हैं मानो उन्हें मालूम ही न हो कि ‘आदर्श’, ‘नैतिकता’, ‘शुचिता’ जैसे शब्दों का वर्ग चरित्र होता है। अब विष्णु पराड़कर व गणेशशंकर विद्यार्थी की पत्रकारिता की महज दुहाई देकर कुछ नहीं कर सकते। हमें मालूम होना चाहिए कि उपनिवेशवाद–विरोधी संघर्ष के दौरान पनपी राष्ट्रवादी चेतना से लैस तत्कालीन पत्रकारिता की जमीन राष्ट्रीय पूँजी के हितों के अनुरूप थी। यह दौर राष्ट्रीय आन्दोलन के दौर की तरह नहीं है, जब जनहितों के विपरीत हित रखने वाले सम्पत्तिधारी वर्ग अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ जनता के साथ खड़े हो रहे हों। आज सत्ता उन्हीं के हाथ में है और शोषण की पूरी मशीनरी को वे अपने गोरे पूर्वजों से भी अधिक कुशलता से चला रहे हैं। हकीकत यह है कि जो सामाजिक बँटवारा हमें भौतिक जीवन में देखने को मिलता है वैसा ही कुछ विचारों की दुनिया में प्रत्यक्षमान है। आज सर्वग्रासी मरणासन्न पूँजीवाद का दौर है जो अपनी समस्त सकर्मकता और तार्कितता खो चुका है। कारपोरेटीकरण का बोलाबाला है; उसी की पूँजी मीडिया जगत की धमनियों में प्रवहमान है इसलिये मीडिया जगत के धनलोलुप क्रियाकलापों की अभिव्यक्ति को मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था और अर्थतन्त्र की अभिव्यक्ति के रूप में ही देखे जाने की ज़रूरत है। जैसी पूँजी वैसा रूप, जिसकी पूँजी उसका गान।
हिन्दुजा, आईबीएन, टूडे ग्रुप, या शोभना भरतिया ने मीडिया उद्योग में पूँजी निवेश मुनाफा कमाने के लिए किया है। कम खर्च ज़्यादा मुनाफा ही इनका मूलमन्त्र है। सूचना–समाचार क्षेत्र आज अधिकाधिक लाभ कमाने वाले सेक्टरों में से एक के रूप में जाना जाता है। आज के दौर में कारपोरेट लोग मीडिया को विज्ञापन देते हैं जिनसे मीडिया की हर साल लगभग 18000 करोड़ रुपयों की कमाई होती है। सरकारी विज्ञापनों से, कागज–कोटे में मिलने वाली कमाई तो है ही। ऐसे में मीडिया जगत की पक्षधरता के बारे में भ्रमित होने की ज़रूरत नहीं हैं।
क्या यह अकारण है कि जब देश के कई हिस्सों में आदिवासियों को उनकी जगह–जमीन से उजाड़ा जाता है तो खबर गायब रहती है ? क्या यह अकारण है कि दार्जिलिंग से लेकर असम तक के चायबागान के मज़दूर अपने हकों की आवाज उठाते हैं तो खबर गायब मिलती है ? क्या यह अकारण है कि जब सूरत के डायमण्ड कारीगरों का बर्बर दमन होता है तब खबर गायब मिलती है ? यही नहीं, कुछ खबरों को लगातार गायब करना, कुछ खबरों को ऐसे सनसनीखेज तरीके से परोसना कि आदमी और कुछ सोच ही न पाये। इसका भी मतलब है। अगर अपवादस्वरूप कुछ एक खबरें जनपक्ष के रूप में सामने आ भी जाती है तो वह भी व्यवस्था के अन्दरूनी खींचतान का ही परिणाम है। मूलत: मीडिया अपने वर्गीय हितों के अनुरूप ही व्यवहार कर रही है और वह यही करेगी। उससे अन्यथा उम्मीद करना या तो महज मासूमियत है या परले दर्जे की मूर्खता। ऐसे में ‘नो मनी–नो न्यूज़’ जैसे ढेरों कारनामे पूँजीवादी लोकतन्त्र की रियल छवि से हमें परिचित करा रहे हैं तो अच्छा ही है!
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मार्च-अप्रैल 2010
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