एरिक हॉब्सबॉमः एक हिस्टोरियोग्राफिकल श्रद्धांजलि
अभिनव
एरिक हॉब्सबॉम नहीं रहे। 1 अक्टूबर 2012 को लम्बी बीमारी के बाद उनका निधन हो गया। उनकी उम्र 95 वर्ष थी। ल्यूकेमिया से लम्बे संघर्ष के बाद 1 अक्टूबर को लन्दन के रॉयल फ्री हॉस्पिटल में उन्होंने अन्तिम साँसें लीं। सामाजिक विज्ञान के किसी भी क्षेत्र के विद्यार्थी और यहाँ तक कि किसी भी प्रबुद्ध और राजनीतिक नागरिक के लिए एरिक हॉब्सबॉम का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। अपने तमाम भटकावों, विच्युतियों और विचलनों के बावजूद हॉब्सबॉम का नाम 20वीं सदी के महान इतिहासकारों की अग्रणी कतारों में सुरक्षित रहेगा। हॉब्सबॉम की मृत्यु के साथ ब्रिटिश मार्क्सवादी इतिहासकारों के प्रसिद्ध समूह की एक और बड़ी शख्सियत हमारे बीच से चली गयी है। लेकिन यह तय है कि हॉब्सबॉम की रचनाएँ आने वाली पीढ़ियों के लिए भी अपनी तमाम कमज़ोरियों के बावजूद उतनी ही बहुमूल्य और ज़रूरी बनी रहेंगी। पेरी एण्डरसन ने उनकी ऐतिहासिक आत्मकथा ‘इण्टरेस्टिंग टाइम्स’ को ‘एरिक हॉब्सबॉम का युग’ कहा है, और ठीक ही कहा है। इस युग ने सामाजिक विज्ञान के विद्यार्थियों को जो अमूल्य धरोहर दी है, वह अतुलनीय है। अपनी तमाम राजनीतिक ग़लतियों और भूलों के बावजूद एरिक हॉब्सबॉम हमारे युग की महान बौद्धिक प्रतिभाओं में से एक थे।
जीवन-परिचय
एरिक जे. हॉब्सबॉम का जन्म मिस्र के अलेक्ज़ैण्ड्रिया में 9 जून 1917 के दिन हुआ था। उनके पिता ब्रिटेन के एक व्यापारी थे, हालाँकि वे पोलिश मूल के यहूदी थे। उनका नाम था लियोपोल्ड पर्सी हॉब्सबॉम। और उनकी माँ का नाम था नेली हॉब्सबॉम जो कि ऑस्ट्रियाई मूल की यहूदी थीं। जब हॉब्सबॉम 14 वर्ष के हुए तब तक उनके माता-पिता की मृत्यु हो चुकी थी। माता-पिता की मृत्यु के बाद हॉब्सबॉम और उनकी बहन नैंसी को उनके चाचा सिडनी ने गोद ले लिया जो कि उस समय वियेना में थे। इसके बाद, उनके चाचा जब बर्लिन आये तो हॉब्सबॉम भी बर्लिन आ गये। वियेना और बर्लिन में ही उनका बचपन और किशोर जीवन बीता। बर्लिन में आने के बाद उन्होंने प्रिंज़ हाइनरिख जिमनेजियम में दाखि़ला लिया। 1933 में हिटलर के सत्ता में आने के बाद हॉब्सबॉम अपने परिवार समेत लन्दन चले आये। यहाँ उन्होंने सेंट मेरिलबोन ग्रामर स्कूल में दाखि़ला लिया। अपनी स्कूली शिक्षा ख़त्म करने के बाद उन्होंने किंग्स कॉलेज, कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में दाखि़ला ले लिया। यहाँ वह प्रसिद्ध ग्रुप ‘कैम्ब्रिज एपॉस्टल्स’ में शामिल हुए जो कि 1820 से ही कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में चला आ रहा था।
हॉब्सबॉम ने 1943 में म्यूरियल सीमैन से शादी की। 1951 में उनका तलाक हो गया। इसके बाद उनकी दूसरी शादी मार्लीन श्वार्ट्ज़ के साथ हुई, जो कि उनके दो बच्चों की माँ भी बनीं। 1947 में हॉब्सबॉम बर्बेक कॉलेज में लेक्चरर बने। 1959 में वह रीडर बने, 1970 में प्रोफेसर और 1982 में प्रोफेसर एमेरिटस। 1949 से 1955 तक वह कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के किंग्स कॉलेज के फेलो भी रहे। 1952 में उन्होंने प्रसिद्ध मार्क्सवादी अकादमिक पत्रिका पास्ट एण्ड प्रेज़ेण्ट की स्थापना में सहायता की और लम्बे समय तक इस पत्रिका में लेखन भी किया। 1960 के दशक में वह अमेरिका के स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय में विजिटिंग प्रोफेसर रहे और 1984 से 1997 तक मैनहैटन में ‘दि न्यू स्कूल ऑफ सोशल रीसर्च’ में विजिटिंग प्रोफेसर भी रहे। वह 2002 से मृत्यु तक बर्बेक के अध्यक्ष भी रहे। हॉब्सबॉम अंग्रेज़ी, जर्मन, फ्रेंच, स्पैनिश और इतालवी भाषा बोल सकते थे।
विचार-यात्रा और कृतित्वः पहला दौर
हॉब्सबॉम का जीवन स्वयं एक जीवन्त इतिहास का साक्षी था। उनका जन्म उस वर्ष हुआ जिस वर्ष ने दुनिया की पहली सफल मज़दूर क्रान्ति यानी रूसी बोल्शेविक क्रान्ति देखी और उनकी मृत्यु उस महीने में हुई जिस महीने में अक्तूबर 1917 की बोल्शेविक क्रान्ति के 95 वर्ष पूरे हुए। उनके जीवन काल में दो विनाशकारी महायुद्ध, शीत युद्ध, राष्ट्रीय मुक्ति युद्ध, चीन की नवजनवादी क्रान्ति और महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति, नवउदारवाद और भूमण्डलीकरण की लहर जैसी युगान्तरकारी घटनाएँ घटित हुईं और हॉब्सबॉम इन सभी घटनाओं के साक्षी और अध्येता रहे। उनके द्वारा इतिहास की कई शानदार रचनाएँ लिखी गयीं और उन सभी का मूल्यांकन और समीक्षा यहाँ सम्भव नहीं है। यहाँ कुछ विशेष रूप से महत्वपूर्ण रचनाओं और मृत्यु तक लगातार विकसित होते उनके विचारों की एक संक्षिप्त समीक्षा की जा सकती है।
हॉब्सबॉम मार्क्सवाद और कम्युनिज़्म के सम्पर्क में तब आये जब वह बर्लिन में प्रिंज़-हाइनरिख़ जिमनेजियम के छात्र थे। यहाँ उनका जुड़ाव जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी (के.पी.डी.) के छात्र विंग से हुआ, जिसके सदस्यों के ज़बर्दस्त उत्साह और कम्युनिज़्म की विजय में अटूट विश्वास का हॉब्सबॉम के किशोर मस्तिष्क पर गहरा और दीर्घजीवी प्रभाव पड़ा। हॉब्सबॉम शुरू से ही एक गम्भीर पाठक थे और ज्ञान के हर स्रोत को खंगालने और टटोलने के प्रति तत्पर रहते थे। जब हिटलर के सत्ता में आने के बाद हॉब्सबॉम लन्दन आ गये और वहाँ एक ग्रामर स्कूल में अपनी स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद विश्वविद्यालय में दाखि़ला ले लिया तो उनके साथी आश्चर्य से पूछा करते थे, ”क्या कोई ऐसा विषय है जिसके बारे में हॉब्सबॉम को न पता हो?” जब हॉब्सबॉम जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी के सम्पर्क में आये थे तो उस समय कम्युनिस्ट पार्टी की नीति थी एक साथ नात्सीवाद और संशोधनवाद (यानी, वहाँ की काऊत्स्कीपंथी सामाजिक-जनवादी पार्टी) का विरोध करना। लेकिन जल्दी ही अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन को इस ”वाम” कार्यदिशा की सीमाओं का आभास हो गया। इसके बाद, नात्सीवाद और फासीवाद को हराने के लिए ‘पॉपुलर फ्रण्ट’ की लाइन आयी। इस नयी कार्यदिशा के तहत विभिन्न यूरोपीय देशों की कम्युनिस्ट पार्टी ने फासीवाद और नात्सीवाद के खि़लाफ हर ऐसी शक्ति से मोर्चा बनाने की शुरुआत की जो कि फासीवाद और नात्सीवाद का विरोध करती थीं। तमाम टिप्पणीकारों ने बताया है कि हॉब्सबॉम के मार्क्सवाद के निर्माण में इस दौर की अहम भूमिका रही, जिसमें श्रम की ताकत और पूँजी की उदारवादी ताक़तों ने पूँजीवाद के बर्बरतम रूप फासीवाद और नात्सीवाद के खि़लाफ मोर्चा बनाया। राजनीतिक तौर पर, हॉब्सबॉम के लिए वामपंथ के सभी रूपों, जिसमें कि संशोधनवाद भी शामिल है, के बीच मोर्चे की सोच ने एक केन्द्रीय स्थान हासिल कर लिया। जाहिर है, कि ऐसा कोई भी मिश्रण अन्ततः मार्क्सवाद के किसी न किसी विकृत रूप को ही जन्म देगा। कूटनीतिक तौर पर, नात्सी ताक़तों के खि़लाफ व्यापकतम मोर्चे की सोच पर अमल करना और उसे रणनीतिक रूप देने के बीच एक गहरा अन्तर है। नतीजतन, जब सोवियत संघ में ख्रुश्चेव के आने के साथ सर्वहारा अधिनायकत्व का पतन हुआ और पूर्वी यूरोपीय देशों में सोवियत सामाजिक साम्राज्यवाद ने हस्तक्षेप की नीति को अपनाना शुरू कर दिया, तब भी हॉब्सबॉम ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बने रहे, हालाँकि हॉब्सबॉम ऐसे हस्तक्षेप का विरोध करते थे। उस समय ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी में मौजूद मार्क्सवादी इतिहासकारों के समूह के अधिकांश लोगों ने कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। इस समूह में ई.पी.थॉमसन, जॉन सैविले, क्रिस्टोफर हिल, रॉडनी हिल्टन, आदि जैसे महान मार्क्सवादी इतिहासकार शामिल थे। हॉब्सबॉम ने आगे बताया कि उन्होंने इज़ाक डॉइशर की सलाह पर पार्टी सदस्यता नहीं छोड़ी। यह बात सही लगती है क्योंकि डॉइशर की यह सोच थी कि स्तालिन का युग एक औद्योगिक तानाशाही का युग था जो कि रूस में समाजवाद के निर्माण के लिए ज़रूरी पूर्वशर्तों को पूरा करने के लिए अनिवार्य था। डॉइशर के अनुसार स्तालिन की मृत्यु के बाद रूस में समाजवाद के निर्माण की ज़मीन तैयार हो गयी थी, हालाँकि इस प्रक्रिया में स्तालिन तमाम अतिरेकों तक चले गये थे। डॉइशर स्तालिन को एक तानाशाह मानने के बावजूद उनकी प्रगतिशील ऐतिहासिक भूमिका की बात करते थे और उत्तरवर्ती संशोधनवादियों से यह उम्मीद करते थे कि अब वे सोवियत संघ में समाजवाद का निर्माण करेंगे। जाहिर है, कि स्तालिन काल की ऐसी समझदारी हास्यास्पद थी और डॉइशर की आशाओं पर तुषारापात होना लाजिमी था।
अपने इस राजनीतिक विचलन के बावजूद हॉब्सबॉम ने इतिहास-लेखन और अकादमिक चिन्तन के धरातल पर मार्क्सवादी विश्लेषणात्मक उपकरणों का उत्कृष्ट इस्तेमाल किया और सचेतन तौर पर वह बोल्शेविक क्रान्ति के एजेण्डे के साथ वफादार बने रहे। लेकिन समाजवादी निर्माण के अन्तरविरोधों का न तो उन्होंने कभी व्यवस्थित अध्ययन किया और न ही उसके विचारधारात्मक पक्ष को समझ पाये। सोवियत संघ के बारे में उनकी समझदारी में ब्रिटिश तथ्यवाद, प्रत्यक्षवाद और अनुभववाद के तत्व साफ तौर पर मौजूद थे, जिसके सबसे अग्रणी प्रतिनिधि ई.एच.कार माने जा सकते हैं। जाहिर है, ऐसा कोई भी तथ्यवादी और प्रत्यक्षवादी इतिहास-लेखन किसी दौर की एक अपेक्षाकृत वस्तुपरक तस्वीर पेश कर सकता है, लेकिन उस दौर में मौजूद राजनीतिक संघर्ष, वर्ग संघर्ष और विचारधारात्मक संघर्ष की गतिकी और भूमिका को सही तरह से नहीं समझ सकता है। यही कारण है कि ई.एच.कार ने सोवियत संघ के अपने 14 खण्डों के इतिहास में सोवियत संघ में जारी प्रक्रियाओं का एक अपेक्षाकृत वस्तुगत चित्र पेश किया है, लेकिन वह पार्टी के भीतर जारी दो लाइनों के संघर्ष, समाजवादी निर्माण की समस्याओं और वैचारिक बहसों के महत्व और भूमिका को पूरी तरह नहीं समझ पाये हैं। नतीजतन, कार के लिए लेनिन द्वारा राष्ट्रों को आत्मनिर्णय का अधिकार दिया जाना, नई आर्थिक नीतियों (नेप) की शुरुआत और पार्टी के भीतर केन्द्रीयकरण एक चालाक राजनीतिज्ञ द्वारा उठाये गये कदम थे। कार लेनिन की एक ऐसी तस्वीर पेश करते हैं जिससे कि पाठक को यह कभी नहीं समझ में आता कि लेनिन और स्तालिन द्वारा लागू की गयी समाजवादी निर्माण की नीतियाँ ईमानदार सर्वहारा कार्यदिशा पर अमल थीं। उल्टे उसे यह लगता है कि कम्युनिस्ट पार्टी की सत्ता को किसी भी कीमत पर कायम रखने के लिए लेनिन और स्तालिन ने मैकियावेली और जैकोबिन दल के समान व्यवहारवादी कदम उठाये, ज़रूरत पड़ने पर दमन किया और ज़रूरत पड़ने पर समझौते भी किये। साफ है कि कार बोल्शेविक नीतियों के विचारधारात्मक आधार को नहीं समझ पाये और न ही उनके दार्शनिक सन्दर्भों को समझ पाये। और आज सामाजिक विज्ञान का हर विद्यार्थी जानता है कि महज़ तथ्यों, आनुभाविक सूचना और आँकड़ों के आधार पर कोई भी कुछ भी साबित कर सकता है। कहा जा सकता है कि एक हद तक हॉब्सबॉम भी ब्रिटिश अनुभववाद और तथ्यवाद की इस सोच से प्रभावित थे। यह इत्तेफाक नहीं है कि कार का पूरा इतिहास-लेखन इज़ाक डॉइशर से काफी प्रभावित था। डॉइशर के ही समान हॉब्सबॉम ने भी यह नतीजा निकाला था कि स्तालिन का दौर सत्तावादी (अथॉरिटैरियन) था, लेकिन वह सर्वसत्तावादी (टोटैलिटैरियन) नहीं था और समाजवादी निर्माण की जिन समस्याओं का रूस सामना कर रहा था उसमें अगर कोई स्तालिन जैसा सख़्त व्यक्ति सत्ता में न भी आता तो किसी को भी वही नीतियाँ लागू करनी पड़तीं जो कि स्तालिन ने की। स्पष्ट है कि रूस में स्तालिन काल में समाजवादी निर्माण की इस प्रकार की अकादमिक रक्षा बेहद कमज़ोर थी और इसे तमाम मार्क्सवादी इतिहासकारों और पार्टी बुद्धिजीवियों द्वारा कठोर आलोचना का सामना करना पड़ा। इसमें कई आलोचनाएँ अब मार्क्सवादी अवस्थिति से प्रस्थान कर चुकीं थीं और कई मार्क्सवादी अवस्थिति पर रहते हुए स्तालिन काल का एक आलोचनात्मक विवेचन करने का प्रयास कर रही थीं। रूस में समाजवाद के निर्माण के बारे में एक अधूरी तथ्यवादी समझदारी और भ्रामक नतीजे निकालना हॉब्सबॉम के इतिहास-लेखन की एक बड़ी भूल थी। लेकिन इसके बावजूद हॉब्सबॉम परिवर्तन की मार्क्सवादी परियोजना के प्रति कम-से-कम 20वीं सदी के अन्त तक वफादार बने रहे थे। उसके बाद का दौर हॉब्सबॉम के पराजयवाद और निराशावाद का दौर है। यही कारण है कि पेरी एण्डरसन ने (स्वयं अपने विशेष प्रकार के पराजयबोध और ”मुक्त चिन्तनवादी मार्क्सवाद” के बावजूद) अपनी पुस्तक स्पेक्ट्रम में हॉब्सबॉम पर लिखे अध्याय को ‘पराजित वाम’ (वैंक्विश्ड लेफ्रट) नाम दिया है, जो कि एक मायने में आंशिक सत्य को अभिव्यक्त करता है। लेकिन हॉब्सबॉम की ग़लतियों का वज़न मार्क्सवादी इतिहास लेखन में उनके शानदार सकारात्मक योगदानों के मुकाबले कम पड़ता है।
हॉब्सबॉम की पहली प्रमुख कृति थी ‘प्रिमिटिव रेबेल्स’ जो कि 1959 में प्रकाशित हुई थी। इसमें हॉब्सबॉम ने आदिम लुटेरों को विद्रोहियों के रूप में चित्रित किया था, जो सम्पत्ति के विरुद्ध लूट-पाट के ज़रिये विद्रोह करते हैं। हॉब्सबॉम करीब एक दशक बाद फिर से इसी विषय-वस्तु पर वापस आये, जब उन्होंने ‘बैंडिट्स’ नामक किताब लिखी। इस पुस्तक में हॉब्सबॉम ने अपने अध्ययन को आगे बढ़ाते हुए दिखलाया कि किस तरह बाद के दौर में कुछ विद्रोही लुटेरे बनते थे, तो दूसरे क्रान्तिकारियों के साथ शामिल हो जाते थे। लेकिन हॉब्सबॉम को जिस पुस्तक ने अकादमिक जगत में एक अग्रणी मार्क्सवादी इतिहासकार के तौर पर स्थापित किया वह थी ‘इण्डस्ट्री एण्ड एम्पायर’। यह पुस्तक 1968 में प्रकाशित हुई और तब से इसके दर्जनों संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। आज भी आर्थिक इतिहास और विशेषकर 18वीं और 19वीं सदी में हुए उद्योगीकरण के अध्येताओं के लिए यह एक बेहद ज़रूरी और अहम पुस्तक है। इसमें हॉब्सबॉम 18वीं सदी में ब्रिटेन में सूत उत्पादन के क्षेत्र से औद्योगिक क्रान्ति शुरू होने की पूरी परिघटना का विस्तार से वर्णन करते हैं। इसमें बाद, वे पूरी 19वीं सदी के दौरान ब्रिटेन और फ्रांस के उद्योगीकरण की प्रक्रियाओं का तुलनात्मक विश्लेषण करते हैं। साथ ही, हॉब्सबॉम दिखलाते हैं कि किस प्रकार शुरुआती दौर की औपनिवेशिक लूट ने उद्योगीकरण के लिए आवश्यक पूँजी संचय को अंजाम दिया और किस तरह उद्योगीकरण ने पलटकर साम्राज्यवाद की परिघटना को और सुदृढ़ और स्पष्ट बनाया। 1980 के दशक में हॉब्सबॉम ने अपना ध्यान 20वीं सदी में राष्ट्रवाद की परिघटना पर केन्द्रित किया। 1983 में उनकी पुस्तक ‘नेशंस एण्ड नेशनलिज़्म सिंस 1780’ प्रकाशित हुई। इस पुस्तक में उन्होंने बुर्जुआ सिद्धान्तकारों, जैसे कि अर्नेस्ट जेलनर, के राष्ट्र के सिद्धान्तों की एक आलोचना पेश की और दिखलाया कि किस प्रकार ‘राष्ट्र’ बुर्जुआ वर्ग की निर्मिति होती है और 20वीं सदी में जनता में इसकी पकड़ का कारण क्या है। टेरेंस रेंजर के साथ लिखी पुस्तक ‘इन्वेंशन ऑफ ट्रेडिशन’ में उन्होंने दिखलाया कि ‘राष्ट्र’ जैसी विचारधाराएँ वास्तव में एक परम्परा का आविष्कार होती हैं, और सच्चे मायने में सभी परम्पराएँ चरित्र से ही आधुनिक और समकालीन होती हैं, और समकालीन आवश्यकताओं और हितों की पूर्ति के लिए ईजाद की जाती हैं। एक कल्पित अतीत को परम्परा के रूप में स्थापित किये बिना शासक वर्ग जनता के बीच अपने विचारों का वर्चस्व कायम नहीं कर सकते हैं।
हॉब्सबॉम की सर्वश्रेष्ठ रचना निस्सन्देह रूप से उनकी ‘एज ऑफ—’ शृंखला है। इसकी पहली पुस्तक ‘एज ऑफ रिवोल्यूशन’ 1962 में प्रकाशित हुई। यह सम्भवतः इस शृंखला की सर्वश्रेष्ठ पुस्तक है। इस पुस्तक में हॉब्सबॉम ने इंग्लैण्ड की औद्योगिक क्रान्ति और फ्रांस की बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति के पीछे मौजूद कारकों, ऐतिहासिक कारणों और उनके चरित्र की व्याख्या की है। ये वे क्रान्तियाँ थीं जिन्होंने बुर्जुआ वर्ग को उदीयमान शासक वर्ग के रूप में इतिहास के रंगमंच के केन्द्र में ला दिया था और दिखला दिया था कि सामन्तवाद का सूर्य अस्त हो रहा है और पूँजीवाद का सूर्य उदय हो रहा है। इस शृंखला की अगली पुस्तक करीब 13 वर्ष बाद 1975 में प्रकाशित हुई जिसका नाम था ‘एज ऑफ कैपिटल’। यह पुस्तक 19वीं सदी का एक जीवन्त आर्थिक-सामाजिक इतिहास है। यह दौर पूँजी के वर्चस्व के निर्णायक रूप में स्थापित होने और साथ ही उदीयमान सर्वहारा वर्ग के शुरुआती नायकत्वपूर्ण संघर्षों का दौर था। इस दौर ने 1830 और 1848 की यूरोपीय क्रान्तियाँ देखीं जिन्होंने सामन्तवाद और उसके अवशेषों के ताबूत पर आखिरी कील ठोंकी और साथ ही यही दौर 1848 में सर्वहारा वर्ग के पहले उभार और फिर उसकी पराजय का भी साक्षी बना। इस दौर में ही 1871 का पेरिस कम्यून भी स्थापित हुआ और फिर बुर्जुआ वर्साय की शक्तियों द्वारा खून के दलदल में डुबो दिया गया। 19वीं सदी की इन सभी युगान्तरकारी घटनाओं को हॉब्सबॉम ने उनकी पूरी जीवन्तता में पकड़ा है और इस पुस्तक को पढ़ना उस सदी को जीने के समान है।
विचार-यात्रा और कृतित्वः दूसरा दौर
‘एज ऑफ—’ शृंखला की अगली पुस्तक ‘एज ऑफ एम्पायर’ 1987 में प्रकाशित हुई। इस युग को हॉब्सबॉम ने श्रम और पूँजी दोनों की ही ताकतों के लिए ‘यूटोपियाई आशाओं’ का युग कहा। इस पुस्तक में हॉब्सबॉम दोनों महायुद्धों और बोल्शेविक क्रान्ति के रूप में दुनिया की पहली मज़दूर क्रान्ति का चित्रण करते हैं। बोल्शेविक क्रान्ति के एजेण्डे के साथ हॉब्सबॉम पूरी सहमति और उसके लक्ष्य के साथ पूरी सहानुभूति रखते हैं, हालाँकि वह कहीं भी रूसी क्रान्ति, उसके पहले के दौर, रूसी पार्टी में चल रही बहसों, और क्रान्ति के बाद समाजवादी निर्माण को चलने वाली शुरुआती बहसों पर विस्तार में चर्चा नहीं करते। रूसी इतिहास और रूसी कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर मौजूद दो लाइनों के संघर्ष के बारे में हॉब्सबॉम की जानकारी काफी सीमित थी; यह उनकी बाद की अन्य रचनाओं में भी दिखता है। 1987 आते-आते हॉब्सबॉम के अन्दर पराजयबोध और निराशावाद घर करने लगा था। निश्चित तौर पर, यह किताब आशाओं और गतिमानता के दौर को अपने अध्ययन के केन्द्र में रखती है। लेकिन जब यह लिखी जा रही थी, वह पराजय, विपर्यय और निराशा का दौर था। हॉब्सबॉम भी इस निराशा से बचे नहीं थे और उन पर इस निराशा का असर इस पुस्तक में नज़र आना शुरू हो गया है। यह निराशा अपने स्पष्ट रूप में शृंखला की अगली पुस्तक ‘एज ऑफ एक्स्ट्रीम्स’ में दिखलायी देती है। इस समय तक हॉब्सबॉम अपने उस दौर में प्रवेश कर चुके थे, जिसकी वजह से पेरी एण्डरसन ने हॉब्सबॉम को ‘पराजित वाम’ का नुमाइन्दा कहा है। इस पुस्तक में सोवियत संघ के विषय में हॉब्सबॉम जो टिप्पणियाँ करते हैं, उससे साफ जाहिर होता है कि वह स्तालिन काल तक हुए प्रयोगों के प्रति हमदर्दी रखते हैं, वह स्तालिन के प्रति भी एक हद तक हमदर्दी रखते हैं, लेकिन वह उस पूरे दौर की गतिकी को नहीं समझ पाये हैं। 1991 तक अमेरिकी विजयवाद और एकध्रुवीय विश्व के सपनों के समक्ष दुनिया की प्रतीतिगत असहायता के आगे हॉब्सबॉम निशब्द नज़र आते हैं। वह एक हद तक संशयवादी हो चुके हैं, परिवर्तन की किसी भी सम्भव परियोजना के बारे में, इंक़लाब के बारे में, प्रगति की अवधारणा के बारे में। हॉब्सबॉम 20वीं सदी का अन्त होते-होते अपना बचा-खुचा आशावाद खो चुके थे। समाजवादी क्रान्ति को लेकर वह अब आशान्वित नहीं रह गये थे। 1999 में ‘दि गार्डियन’ में लिखे गये एक लेख में वह कहते हैं कि पूँजीवाद मन्दी का शिकार है, दुनिया को कुछ नहीं दे पा रहा है, लेकिन समाजवाद भी असफल हो चुका है। ऐसे में विकल्प यही हो सकता है कि राज्य से अधिक से अधिक समाजवादोन्मुख योजनाएँ लागू करने और कदम उठाने के लिए अपील की जाये, उसे दबाव डालकर बाध्य किया जाये। हॉब्सबॉम का मतलब साफ है-अब क्रान्ति तो होगी नहीं और इसलिए उदार बुर्जुआ राज्य को ही अधिक से अधिक जनकल्याणकारी नीतियाँ लागू करने के लिए दबाव निर्मित किया जाये। उनकी यही समझदारी 2004 के एक साक्षात्कार में भी नज़र आती है, जिसमें वह कहते हैं कि क्लासिकीय अर्थों में न तो मज़दूर वर्ग का संगठित हो पाना सम्भव है और न ही सिर्फ सर्वहारा वर्ग की पार्टी बनाने के रास्ते कुछ हो सकता है। इसलिए अब जनता की पार्टी बनायी जानी चाहिए जो कि एक वर्ग के संकीर्ण दायरे का अतिक्रमण करे। जाहिर है, यहाँ हॉब्सबॉम बुनियादी मार्क्सवादी सिद्धान्तों को भी भूलते नज़र आते हैं। इस ”जनता की पार्टी” की विचारधारा क्या होगी? क्योंकि पूरी जनता की कोई विचारधारा तो होती नहीं है। वर्ग की विचारधारा होती है और हर पार्टी की विचारधारा पर किसी न किसी वर्ग की छाप होती है, और इसी से उसके वर्ग चरित्र की पहचान होती है। इस साक्षात्कार में हॉब्सबॉम यह ज़रूर बताते हैं कि मज़दूर वर्ग के चरित्र में भूमण्डलीकरण के दौर में भारी बदलाव आये हैं। उसकी संरचना में अनौपचारिकीकरण के साथ कई परिवर्तन आये हैं। लेकिन इन परिवर्तनों के चलते मज़दूर वर्ग (जो कि पहले हमेशा से ज़्यादा बड़ा है) को संगठित करने की रणनीतियों में क्या परिवर्तन आयेंगे, इसके बारे में हॉब्सबॉम कुछ नहीं बताते क्योंकि वह अब मज़दूर वर्ग के संगठित हो पाने को लेकर ही संशयवादी हो चले थे। मौजूद वैश्विक संकट की शुरुआत के बाद हॉब्सबॉम में एक बार फिर कुछ आशावाद जागृत हुआ था लेकिन इस आशावाद की रोशनी में कोई नया अहम काम करने की उनकी उम्र नहीं रही थी, और मन्दी की शुरुआत के कुछ साल बाद उनकी मृत्यु हो गयी।
विचार-यात्रा और कृतित्वः अन्तिम दौर
2007 में हॉब्सबॉम की पुस्तक ‘ग्लोबलाइज़ेशन, डेमोक्रेसी एण्ड टेररिज़्म’ आयी जिसमें उन्होंने अमेरिकी साम्राज्यवाद के नये मरणासन्न दौर, उसके द्वारा कल्पित शत्रुओं के निर्माण (इराक़, अफगानिस्तान) की मजबूरी को प्रदर्शित किया है, ताकि वह संकट से निजात पा सके। साथ ही हॉब्सबॉम ने साम्राज्यवाद के नये दौर और विश्व भर में धार्मिक, नस्लवादी, अन्धराष्ट्रवादी कट्टरपंथ और फासीवाद के उभार के बीच के सम्बन्ध को भी स्पष्ट किया है। लेकिन इस पुस्तक में भी किसी नयी परिवर्तनकामी परियोजना के बारे में हॉब्सबॉम कोई आशा रखते हों, ऐसा नज़र नहीं आता। मृत्यु से कुछ समय पहले आयी हॉब्सबॉम की पुस्तक ‘हाउ टू चेंज दि वर्ल्ड’ वास्तव में कोई नया विश्लेषण या विकल्प नहीं रखती, बल्कि यह 1957 से 2010 के बीच हॉब्सबॉम द्वारा लिखे गये लेखों का एक संकलन है। इनमें शामिल अधिकांश लेख मार्क्सवादी इतिहास-लेखन, समकालीन घटनाओं, और विकल्प के सवाल पर अलग-अलग मौकों पर हॉब्सबॉम की सोच को स्पष्ट करते हैं। लेकिन इन लेखों में मार्क्सवाद से जुड़े तमाम गम्भीर सैद्धान्तिक मसलों पर हॉब्सबॉम कहीं भी गहराई में जाकर विश्लेषण नहीं प्रस्तुत करते। जहाँ कहीं भी वह मार्क्सवादी विश्लेषण पद्धति में होने वाले नये योगदानों की चर्चा करते हैं, वह एक व्यापक सर्वेक्षण के रूप में ज़्यादा है, और उन नये योगदानों पर मार्क्सवादी दृष्टिकोण से हॉब्सबॉम द्वारा आलोचनात्मक विवेचन कम है। मार्क्सवाद में होने वाले नवीनतम योगदानों के बारे में हॉब्सबॉम ने 1973 की अपनी पुस्तक ‘रिवोल्यूशनरीज़’ में लिखा था। इसमें उन्होंने ग्राम्शी, अल्थूसर और कार्ल कोर्श के मार्क्सवादी पद्धति में योगदानों पर चर्चा की थी। अल्थूसर के बारे में उनका विचार यह था कि आर्थिक नियतत्ववाद से मार्क्सवाद को मुक्त करने में अल्थूसर का अहम योगदान था लेकिन अल्थूसर का संशयवाद कहीं न कहीं प्रगति की अवधारणा पर ही सवाल खड़ा कर देता है। जिस भी अध्येता ने अल्थूसर को गम्भीरता से पढ़ा है वह जानता है कि अल्थूसर का संरचनावादी मार्क्सवाद निश्चित रूप से मार्क्सवाद को आर्थिक नियतत्ववाद के आरोप से दोषमुक्त करता है, लेकिन यह अल्थूसर नहीं थे जिन्होंने मार्क्सवाद को आर्थिक नियतत्ववाद से मुक्त किया। मूल रूप से मार्क्सवाद स्वयं आर्थिक नियतत्ववाद का विरोधी है और इसलिए अल्थूसर इसे नियतत्ववाद से मुक्त नहीं कर सकते थे। लेकिन उस समय प्रचलित कठमुल्लावादी मार्क्सवाद में वर्ग अपचयनवाद और आर्थिक नियतत्ववाद का जो प्रभाव था, उसकी प्रतिक्रिया में अल्थूसर ने अतिनिर्धारण (ओवरडेटरमिनेशन) का सिद्धान्त दिया, जिसके मुताबिक आर्थिक कारकों से निर्धारित होने वाली कोई भी परिघटना, फिर से अन्य प्रकार के कारकों से अतिनिर्धारित होती है। इस सिद्धान्त के प्रतिपादन के लिए अल्थूसर मनोविश्लेषण के सिद्धान्तों, विशेषकर फ्रायड और जाक लकाँ से भी कुछ अवधारणाएँ उधार लेते हैं, और फिर उनका मार्क्सवाद के अन्तरविरोध के सिद्धान्त के साथ विश्लेषण करते हैं। यहाँ वास्तव में अल्थूसर प्रगति की अवधारणा पर प्रश्न नहीं खड़ा कर रहे हैं, बल्कि प्रगति की अवधारणा की सरल एकरेखीयता पर सवाल खड़ा कर रहे हैं, जो कि किसी भी रूप में मार्क्सवादी नहीं है, बल्कि मार्क्सवाद की विकृति का एक रूप है। लेकिन यह ज़रूर सच है कि अल्थूसर द्वारा प्रतिपादित विचारधारात्मक राज्य उपकरण (आइडियोलॉजिकल स्टेट ऐपरेटस) का सिद्धान्त कहीं न कहीं राज्य को एक अपराजेय शक्ति के रूप में चित्रित कर देता है, चाहे अल्थूसर का ऐसा इरादा रहा हो या नहीं। यह क्रान्तिकारी आत्मगत शक्तियों को अभिकरण (एजेंसी) प्रदान नहीं करता, या प्रदान करने में आनाकानी करता है। लेकिन हॉब्सबॉम की आलोचना अल्थूसर के इस सिद्धान्त पर केन्द्रित नहीं है।
अन्तोनियो ग्राम्शी का मार्क्सवाद (या कहें कि अन्तोनियो ग्राम्शी को हॉब्सबॉम ने जिस प्रकार समझा) हॉब्सबॉम के लिए विशेष रूप से आकर्षक था। हॉब्सबॉम 1950 के दशक में इटली गये और उन्होंने वहाँ के अराजकतावादी, अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी और कम्युनिस्ट आन्दोलनों का अध्ययन शुरू किया। इसी दौरान वह लम्बे समय तक अन्तोनियो ग्राम्शी के सहयोगी रहे पामीरो तोग्लियाती के सम्पर्क में आये, जो आगे संशोधनवाद का रास्ता अख्तियार कर चुके थे। तोग्लियाती ने हॉब्सबॉम का परिचय ग्राम्शी के लेखन से कराया और हॉब्सबॉम ग्राम्शी के लेखन से काफी प्रभावित हुए। 1957 में उन्होंने प्रसिद्ध प्रकाशक ‘लॉरेंस एण्ड विशार्ट’ पर दबाव डाला कि वह ग्राम्शी के जेल के दौरान के लेखन का एक संकलन छापे। प्रकाशक इस बात पर राज़ी हो गये और उसी वर्ष हॉब्सबॉम के परिचय के साथ ग्राम्शी के जेल के दौर की कुछ रचनाएँ ‘लॉरेंस एण्ड विशार्ट’ ने प्रकाशित कीं। इसके 14 वर्ष बाद इसी प्रकाशक ने ग्राम्शी के जेल लेखन का एक बड़ा संकलन छापा।
हॉब्सबॉम के आखिरी संकलन में ग्राम्शी पर उनके तीन लेख हैं। इन लेखों में हॉब्सबॉम ग्राम्शी के विचारों की समीक्षा करते हुए कहते हैं कि सही मायने में राजनीति का मार्क्सवादी सिद्धान्त ग्राम्शी का योगदान है, लेनिन का नहीं। लेनिन के विचार के केन्द्र में यह सवाल ज़्यादा था कि सत्ता पर सर्वहारा वर्ग कब्ज़ा कैसे करे, और यह सवाल कम कि सर्वहारा वर्ग सत्ता कायम कैसे रखेगा और समाजवाद का निर्माण किस प्रकार होगा। यह भी एक ग़लत प्रेक्षण है। पहली बात तो यह है कि जिन्दा लोग जिन्दा सवालों पर सोचते हैं। लेनिन जिस दौर में जीवित थे, उस दौर का सबसे ज्वलन्त प्रश्न यह था कि सर्वहारा वर्ग सत्ता कैसे स्थापित करेगा और उनका अधिकांश लेखन इस सवाल पर है कि पार्टी को कैसा होना चाहिए जिससे कि वह सही मायने में सर्वहारा वर्ग के हिरावल के तौर पर उसे नेतृत्व दे सके और बुर्जुआ सत्ता को चकनाचूर कर सर्वहारा सत्ता की स्थापना कर सके। लेकिन 1921 से लेकर 1923 तक का लेनिन का लेखन इस बात का जीता-जागता गवाह है कि लेनिन रूस में समाजवाद के निर्माण, समाजवादी आर्थिक व्यवस्था, समाजवाद के निर्माण के लिए सांस्कृतिक क्रान्ति की आवश्यकता (कम ही लोग जानते हैं कि ‘सांस्कृतिक क्रान्ति’ शब्द का प्रयोग करने वाले पहले व्यक्ति लेनिन थे, माओ नहीं। माओ ने इसे एक व्यापक और सुसंगत सिद्धान्त के तौर पर विकसित किया), नयी शिक्षा व्यवस्था की आवश्यकता पर गहन चिन्तन-मनन कर रहे थे। समाजवाद के निर्माण के अन्तरविरोधों से, दरअसल, उस समय पूरी रूसी पार्टी ही जूझ रही थी। लगातार पार्टी के भीतर बहसें जारी थीं। पहले त्रत्स्की, बुखारिन, इत्यादि और ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ के श्ल्याप्निकोव व कोलोन्ताई के बीच; उसके बाद उपरोक्त दोनों समूहों और लेनिन, स्तालिन, टॉम्स्की आदि के धड़े के बीच; उसके बाद ‘नयी आर्थिक नीतियों’ (नेप) के प्रश्न पर पूरी पार्टी में ज़बर्दस्त बहस शुरू हो गयी। लेनिन की मृत्यु से ठीक पहले राष्ट्रीय प्रश्न को लेकर पार्टी के भीतर घना संघर्ष चल रहा था। उस समय की बहसों पर अलग से एक लेख लिखा जा सकता है। हॉब्सबॉम के पूरे लेखन में रूसी पार्टी के भीतर जारी इन बहसों के बारे में कोई विशेष जिक्र नहीं मिलता। ऐसा लगता है कि हॉब्सबॉम में पार्टी के भीतर जारी बहसों को लेकर जो दिलचस्पी पैदा हुई वह 1950 के दशक में पैदा हुई, जब स्तालिन की मृत्यु के बाद ख्रुश्चेव के नेतृत्व में संशोधनवाद की शुरुआत होती है, बीसवीं कांग्रेस के बाद तमाम यूरोपीय पार्टियों में राजनीतिक संकट पैदा होता है और जब यह संकट ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर पैदा होता है। लेकिन उसके पहले के दौर में जारी बहसों के बारे में हॉब्सबॉम का लेखन नगण्य है। इसलिए हॉब्सबॉम की यह टिप्पणी, कि लेनिन का इस सवाल से कम सरोकार था कि समाजवादी सत्ता को कायम कैसे रखा जाये, और इससे ज़्यादा था कि सत्ता हासिल कैसे की जाये, एक कम जानकारी के कारण दी गयी टिप्पणी प्रतीत होती है। इसका अर्थ यह नहीं है कि राज्य और समाज के बारे में, वर्चस्व के बारे में, अवस्थितिबद्ध युद्ध की पिछड़े पूँजीवादी देशों में उपयोगिता के बारे में ग्राम्शी का योगदान कोई छोटा योगदान था। निश्चित तौर पर, आज पिछड़े पूँजीवादी देशों में समाजवादी क्रान्ति के लिए सक्रिय क्रान्तिकारी सर्वहारा ताक़तों के लिए ग्राम्शी के तमाम सिद्धान्त बेहद उपयोगी हैं और उन्हें समझना वाकई समाजवादी सत्ता को कायम रखने और उससे पहले समाजवादी सत्ता को स्थापित करने के लिए भी, अनिवार्य है। लेकिन यहाँ ग्राम्शी की लेनिन से तुलना करने की कोई आवश्यकता नहीं है। ग्राम्शी वास्तव में लेनिन को एक उत्कृष्ट सर्वहारा राजनीतिज्ञ मानते थे और अपने तमाम सिद्धान्तों के प्रतिपादन में वह लेनिन के ही विचारों को आगे बढ़ाते हुए प्रतीत होते हैं। कई बुद्धिजीवियों को एक विशिष्ट कारण से ग्राम्शी के योगदान को क्लासिकीय मार्क्सवाद से प्रस्थान के दौर पर चित्रित करने की आदत है। ग्राम्शी का महत्वपूर्ण राजनीतिक लेखन जेल में हुआ, जिसके कारण उन्हें अपने शब्दों का चुनाव फासीवादी सेंसरशिप को ध्यान में रखकर करना पड़ता था। मिसाल के तौर पर, अगर आप ग्राम्शी के जेल के दौरान लिखे गये लेख ‘ऑन एजुकेशन’ को पढ़ें तो आप उसका अर्थ शाब्दिक तौर पर नहीं निकाल सकते हैं। यह कूटलेखन की शैली में लिखा गया लेख है, जिसे पूरे ऐतिहासिक सन्दर्भों के बग़ैर समझना मुश्किल होगा। जेण्टाइल के शिक्षा सम्बन्धी प्रस्तावों और सुधारों के बारे में ग्राम्शी को बिल्कुल ग़लत समझ लिये जाने का ख़तरा है, अगर आप ग्राम्शी के लेखन को पढ़ने से पहले ग्राम्शी के लेखन पर किये गये ऐतिहासिक शोधों से परिचित नहीं होते हैं। ग्राम्शी के राजनीतिक लेखन को वास्तव में लेनिनवाद की निरन्तरता में देखकर ही सही ढंग से समझा जा सकता है। लेकिन हॉब्सबॉम यहाँ इस निरन्तरता की बजाये एक ‘रप्चर’ को देखते हैं जो और कुछ नहीं बल्कि एक ‘ऑप्टिकल इल्यूज़न’ है। हॉब्सबॉम मार्क्सवादी पद्धति को अपनाते ज़रूर हैं, लेकिन इस पद्धति को अपनाने का उनका तरीका यांत्रिक और अनैतिहासिक है। वह मार्क्सवादी पद्धतिशास्त्र के विकास को समझने के लिए मार्क्सवादी पद्धति का नहीं बल्कि ई.एच. कार की शैली के अनुभववाद और तथ्यवाद का अनुसरण करते हैं। लिहाज़ा, वे मार्क्सवाद के ऐतिहासिक विकास को नहीं समझ पाते और उन्हें उसमें बार-बार ‘रप्चर’ नज़र आते हैं। लेनिन का योगदान, माओ का योगदान, ग्राम्शी का योगदान, ये सभी उनके लिए अलग-अलग समय पर हुए ‘रप्चर’ हैं और इसमें हॉब्सबॉम मार्क्सवाद के विकास की निरन्तरता को नहीं देख पाते। सोवियत समाजवाद की समस्याओं के बारे में हॉब्सबॉम की यह समझ थी कि वहाँ एक सामाजिक रूप से प्रबन्धित और सामाजिक मालिकाने वाली व्यवस्था है, लेकिन निर्णय लेने की प्रक्रिया मज़दूर वर्ग के हाथ में नहीं पहुँची है और उसके स्थान पर पार्टी निर्णय लेती है। जैसा कि हमने पहले संकेत किया था, मार्क्सवादी उपकरणों के इस्तेमाल के बावजूद ब्रिटिश अनुभववाद, तथ्यवाद और प्रत्यक्षवाद का हॉब्सबॉम के इतिहास-लेखन पर गहरा प्रभाव था। तथ्यों और अनुभवों का एक यान्त्रिक विश्लेषण किसी को यह दिखला सकता है कि सोवियत समाजवादी प्रयोग के दौरान पार्टी सर्वहारा वर्ग की ओर से निर्णय ले रही थी। यह सच भी है। लेकिन सवाल यह है कि पार्टी का चरित्र क्या था? क्या वह स्तालिन के जीवित रहते संशोधनवादी हो चुकी थी? क्या वह बुर्जुआ रास्ते की राही बन चुकी थी? हॉब्सबॉम भी मानते हैं कि ऐसा नहीं है। ऐसे में, यह मानना होगा कि सोवियत संघ की सामाजिक संरचना समाजवादी थी क्योंकि वहाँ समाजवादी राज्यसत्ता कायम थी और यह समाजवादी राज्यसत्ता ऊपर से स्थापित नहीं हुई थी, बल्कि नीचे से खड़े हुए सर्वहारा वर्ग और ग़रीब किसानों के आन्दोलन के नतीजे के तौर पर नैसर्गिक प्रक्रिया में सत्ता में आयी थी। अब सवाल उठता है कि सर्वहारा वर्ग स्तालिन काल में निर्णय लेने की प्रक्रिया में आगे क्यों नहीं बढ़ सका। निश्चित तौर पर, सर्वहारा वर्ग के हाथ में निर्णय लेने की ताक़त के आने की प्रक्रिया 1920 के दशक के उत्तरार्द्ध से रुकने लगी थी और बाद में यह पूरी तरह ठहरावग्रस्त होकर पीछे की ओर भी गयी। लेकिन इसके कारणों का हॉब्सबॉम कोई विश्लेषण नहीं करते। इसका कारण था समाजवादी संक्रमण की एक ग़ैर-द्वन्द्वात्मक समझदारी का पार्टी के भीतर जड़ जमाये होना। इस अर्थवादी समझदारी के अनुसार राज्यसत्ता पर सर्वहारा वर्ग के काबिज़ होने और सम्पत्ति-सम्बन्धों के धरातल पर समाजवादी सम्बन्धों के स्थापित होने के बाद समाजवादी राज्यसत्ता के सामने एक ही प्रमुख कार्य बचता है-उत्पादक शक्तियों का अधिकतम सम्भव तेज़ गति से विकास, क्योंकि इसी के जरिये उत्पादन को प्रचुरता की मंजिल में पहुँचाया जा सकता है, जो कि कम्युनिस्ट समाज के प्रादुर्भाव की बुनियादी शर्त है। आगे माओ ने बताया कि स्तालिन और उनके नेतृत्व में रूसी पार्टी की इस समझदारी में एक भारी अर्थवादी भूल थी जो कि काऊत्स्की के समय से ही यूरोपीय मज़दूर व कम्युनिस्ट आन्दोलन में गहरायी से जड़ जमाये हुए थी। यह अर्थवादी समझदारी इस बात को समझने में नाकाम रही कि समाजवादी राज्यसत्ता स्थापित होने के बाद भी लम्बे समय तक उत्पादन सम्बन्धों के क्रान्तिकारीकरण का काम जारी रहता है; बुर्जुआ विचारों और संस्कृतियों के विरुद्ध विचारधारात्मक संघर्ष जारी रहता है; सोवियत पार्टी की यह समझ थी कि सम्पत्ति सम्बन्ध ही उत्पादन सम्बन्ध होते हैं, और इसलिए निजी सम्पत्ति के ख़ात्मे के बाद पार्टी इस बात को लेकर अपेक्षाकृत बेपरवाह हो गयी थी कि बुर्जुआ तत्व अभी भी तख़्तापलट करने की स्थिति में आ सकते हैं और सोवियत समाजवादी अर्थव्यवस्था अभी भी श्रम विभाजन के ज़रिये बुर्जुआ सम्बन्धों को पुनरुत्पादित कर रही है। माओ ने बताया कि यह समझना बेहद ज़रूरी है कि सम्पत्ति सम्बन्धों के धरातल पर समाजवादी सम्बन्धों की स्थापना के बावजूद समाज में तीन महान अन्तरवैयक्तिक असमानताएँ-मानसिक और शारीरिक श्रम के बीच, गाँव और शहर के बीच, उद्योग और कृषि के बीच-मौजूद रहती हैं और इनके कारण माल उत्पादन और विनिमय सम्बन्धों की मौजूदगी बरकरार रहती है। इसके कारण वस्तुओं का अस्तित्व महज़ उपयोग मूल्य के कारण नहीं बल्कि विनिमय मूल्य के तौर पर भी कायम रहता है। जब तक ये तीन असमानताएँ और इसके आधार पर होने वाला श्रम विभाजन समाप्त नहीं होता, तब तक महज़ समाजवादी सम्पत्ति सम्बन्धों की स्थापना से यह सुनिश्चित नहीं किया जा सकता है कि अब पूँजीवादी पुनर्स्थापना नहीं होगी। इतिहास ने माओ की इस शिक्षा को सिद्ध किया है। लेकिन हॉब्सबॉम इस बारे में अनभिज्ञ प्रतीत होते हैं। न ही वह स्वतन्त्र तौर पर इस नतीजे पर पहुँचते हैं। नतीजतन, उनके पास सोवियत समाजवाद की एक मार्क्सवादी आलोचना मौजूद नहीं है और वह महज़ कुछ तथ्यात्मक नतीजे सामने रखकर आगे बढ़ जाते हैं, जैसे कि सोवियत संघ में निर्णय की क्षमता सर्वहारा वर्ग के हाथ में न आने के कारण उसका विराजनीतिकीकरण होना। यह आंशिक तौर पर सत्य है, लेकिन इसके पूरे विश्लेषण को सामने न रखा जाये तो सोवियत पार्टी के बारे में और विशेष तौर पर स्तालिन के बारे में एक द्वन्द्वात्मक समझदारी नहीं बनायी जा सकती है। हॉब्सबॉम के लेखन से ही साफ हो जाता है कि यूरोपीय मार्क्सवाद के बाहर मार्क्सवाद में हुए अन्य योगदानों की बारे में उनकी जानकारी बेहद सीमित थी। आपको हॉब्सबॉम के पूरे लेखन में कहीं भी माओ के युगान्तरकारी अवदानों पर कोई विस्तृत चर्चा नहीं मिलेगी। आपको भारत, जापान, इण्डोनेशिया, ईरान, और लातिनी अमेरिका में मौजूद मार्क्सवादी विचारसरणियों के बारे में भी कोई विस्तृत विवेचन नहीं मिलेगा। हमें कुछेक जगहों पर मारियातेगुई के नाम का जिक्र मिलता है जो मार्क्सवाद और देशीवाद (इण्डीजेनिज़्म) के मिश्रण का एक विशिष्ट संस्करण तैयार करते हैं; आपको भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन के बारे में कुछ चलते-चलते की गयी टिप्पणियाँ मिल सकती हैं। लेकिन निश्चित तौर पर यह पर्याप्त नहीं है। जाहिर है कि एक व्यक्ति से हर बात की जानकारी होने की उम्मीद करना ही ग़लत है। लेकिन जितनी चीज़ों के बारे में हॉब्सबॉम ने अपने विचार सकारात्मक और स्पष्ट तौर पर रखे हैं, उनसे ही हॉब्सबॉम के पद्धतिशास्त्र और अप्रोच के बारे में काफी नतीजे निकाले जा सकते हैं। और जिन चीज़ों को हॉब्सबॉम देखने और समझने से चूक गये वे विश्व इतिहास की कोई क्षेत्रीय और अमहत्वपूर्ण घटनाएँ नहीं थीं; वे युगान्तरकारी घटनाएँ थीं। इसलिए कहीं न कहीं हॉब्सबॉम के अप्रोच में एक अधूरापन नज़र आता है।
हॉब्सबॉम ने मृत्यु से कुछ समय पहले अपने एक साक्षात्कार में कहा कि जब उन्होंने ‘एज ऑफ एक्स्ट्रीम्स’ (1994) लिखी थी तब से विश्व में कई बदलाव आ चुके हैं। इन बदलावों में हॉब्सबॉम ने दुनिया के आर्थिक केन्द्र के दक्षिण-पूर्वी एशिया में स्थानान्तरित होने, एकध्रुवीय विश्व की परियोजना के असफल होने, विकासशील देशों के नये धड़े के पैदा होने और राष्ट्रीय राज्यों के और कमज़ोर होने को गिना है। हॉब्सबॉम इस बात पर आश्चर्य करते हैं कि अमेरिका का शासक वर्ग अभी भी अपनी नवरूढ़िवादी (नवउदारवादी) परियोजना की सफलता पर यक़ीन कर सकता है। हॉब्सबॉम ने पश्चिम बंगाल के चुनावों में माकपा की हार पर भी ताज्जुब जताया। इस आखिरी बात को हम अपने विचार के दायरे से बाहर कर सकते हैं क्योंकि अकादमिक तौर पर एक उत्कृष्ट मार्क्सवादी बने रहने के बावजूद, राजनीतिक तौर पर उनकी पक्षधरता 1956 के बाद से ही संशोधनवाद के साथ बनी रही है, हालाँकि कुछ आपत्तियों के साथ। लेकिन अगर हॉब्सबॉम द्वारा गिनाये गये परिवर्तनों पर निगाह डालें तो हम स्पष्ट रूप में हॉब्सबॉम में फिर से आशावाद के संचार के कुछ तत्व देख सकते हैं। 1990 के दशक के साम्राज्यवादी विजयवाद के ख़ात्मे से हॉब्सबॉम निश्चित तौर पर कुछ आशान्वित नज़र आते हैं। लेकिन इसके बावजूद हॉब्सबॉम इस साक्षात्कार में यह मानते हैं कि मज़दूर वर्ग के लिए फिर से संगठित होना एक बहुत मुश्किल काम है। इसके प्रमुख कारण के तौर पर वह अनौपचारिकीकरण को गिनाते हैं। यह तथ्यात्मक तौर पर बिल्कुल सही है। लेकिन इसके समाधान के तौर पर हॉब्सबॉम सर्वहारा वर्ग और उसके हिरावल, यानी कम्युनिस्ट पार्टी की नेतृत्वकारी भूमिका के सिद्धान्त को छोड़ने के लिए तैयार नज़र आते हैं, जिस पर आज के दौर में ख़ास तौर पर ज़ोर डाला जाना चाहिए। अरब जनउभार और ‘वॉल स्ट्रीट कब्ज़ा करो’ आन्दोलनों ने बिल्कुल यही दिखलाया है कि आज मज़दूर वर्ग के नेतृत्व और उसके हिरावल की ज़रूरत लेनिन के समय से भी ज़्यादा है। बोल्शेविक पार्टी की ज़रूरत आज पहले कभी से भी ज़्यादा है। लेकिन हॉब्सबॉम मज़दूर वर्ग की संरचना में आये बदलाव और उसके कारण उपस्थित नयी चुनौतियों के समाधान के तौर पर लेनिनवादी पार्टी सिद्धान्त और सर्वहारा वर्ग के क्रान्तिकारी नेतृत्व के सिद्धान्त को छोड़ देने के लिए तैयार हैं। सर्वहारा वर्ग की क्रान्तिकारी सम्भावनासम्पन्नता को लेकर वह संशयवादी हैं। और मृत्युपर्यन्त वह इस सम्भावना के प्रति संशयवादी बने रहे। स्वचालन ने सर्वहारा वर्ग के चरित्र को बदल दिया है और उसकी क्रान्तिकारी अन्तर्वस्तु को क्षरित कर दिया है, ऐसा हॉब्सबॉम का मानना था। इसलिए वह समूची ग़रीब आबादी और बौद्धिक मध्य वर्ग में सहयोग की बात करते हैं और इसी मोर्चे में उम्मीद की किरणों की तलाश करते हैं। जाहिर है, ऐसा होना सम्भव नहीं है। सर्वहारा वर्ग की क्रान्तिकारी सम्भावना में कोई कमी नहीं है, उल्टे वह बढ़ी है। बस उसे आज विकसित देशों में ढूँढ़ने की बजाये, हॉब्सबॉम को ‘तीसरी दुनिया’ के देशों के सर्वहारा वर्ग पर निगाह दौड़ानी चाहिए थी। बल्कि यह कहना चाहिए कि बौद्धिक मध्यवर्ग अपनी रही-सही क्रान्तिकारी सम्भावनाओं को भी खोता जा रहा है। लेकिन निराशावाद और संशयवाद के कारण हॉब्सबॉम इस सच्चाई को नहीं देख पा रहे थे। अपने इन रुझानों के कारण ही हॉब्सबॉम एक समय ‘न्यू लेबर’ के समर्थक और यहाँ तक कि उसके सिद्धान्तकार बन गये थे। यह ‘न्यू लेबर’ वही लहर थी जिसकी शुरुआत नील किनॉक ने की थी। नील किनॉक ने ब्रिटिश लेबर पार्टी में मौजूद सभी रैडिकल मार्क्सवादियों को निकाल बाहर किया था और लेबर पार्टी को सीधे-सीधे दक्षिणपंथ के रास्ते पर अग्रसर कर दिया था। इसी लहर पर सवार होकर टोनी ब्लेयर सत्ता में पहुँचा था। इस रास्ते को समर्थन देने वालों में समाजशास्त्री एंथनी गिडेंस भी थे, जिन्होंने इसे ‘‘तीसरा रास्ता” (यानी पूँजीवाद और समाजवाद से अलग) का नाम दिया था! बाद में पता चला कि तीसरा रास्ता कोई नहीं होता, और ब्लेयर अपने खुले साम्राज्यवादी रूप में दुनिया के सामने था। गिडेंस जैसे अवसरवादी लोग तो ब्लेयर के नवउदारवादी और साम्राज्यवादी शासन को सही ठहराने के लिए सिद्धान्त गढ़ने का काम करते रहे, लेकिन हॉब्सबॉम ने तुरन्त ही अपनी ग़लती को पहचाना और ब्लेयर को फ्थैचर इन ट्राउज़र्स” कहकर अपना रास्ता अलग कर लिया। सैद्धान्तिक तौर पर, वह मार्क्सवाद के साथ खड़े रहे, लेकिन अपने निराशावाद के चलते हॉब्सबॉम दुनिया में फ्मौजूद विकल्पों” में से कम बुरे का चुनाव करते रहे। यही कारण था कि अपने निराशावाद के चलते 2009 में हॉब्सबॉम ने ‘दि गार्डियन’ के एक लेख में मिश्रित अर्थव्यवस्था की हिमायत की जिसकी नीतियाँ समाजवादोन्मुख हों। जाहिर है, ऐसा कोई रास्ता पूँजीवाद के भीतर सम्भव नहीं है। लेकिन बौद्धिक ईमानदारी और राजनीतिक निराशाबोध का द्वन्द्व हॉब्सबॉम की अवस्थिति को कई जगहों पर सही मार्क्सवादी अवस्थिति से बहुत दूर खड़ा कर देता था।
हॉब्सबॉम एक जटिल व्यक्तित्व थे। बौद्धिक ईमानदारी और विपर्यय के दौर में जीने के चलते पैदा होने वाले निराशावाद के द्वन्द्व के कारण यह जटिलता और भी बढ़ जाती है। लेकिन निश्चित तौर पर वह उन भूतपूर्व मार्क्सवादियों से लाख गुना बेहतर बुद्धिजीवी और इंसान थे, जो पूरी तरह से पूँजीवाद और साम्राज्यवाद की गोद में बैठ गये थे और द्वन्द्वमुक्त हो गये थे; न ही हॉब्सबॉम ने कभी मार्क्सवाद में सोचे-समझे तौर पर कोई विकृति पैदा करने की कोशिश की, हालाँकि उनकी समझ पर बहस हो सकती है; हॉब्सबॉम ने कभी मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, स्तालिन और माओ के प्रति कभी कोई असम्मान या गाली-गलौच जैसी निकृष्ट हरकत नहीं की, जैसा कि आजकल के कई राजनीतिक नौदौलतिये कर रहे हैं, जो कि अपने आपको मार्क्सवादी भी कहते हैं; हॉब्सबॉम जीवनपर्यन्त बोल्शेविक क्रान्ति के एजेण्डे से आत्मिक तौर पर जुड़े रहे और लगातार आशाओं के उद्गमों की तलाश करते रहे। लेकिन अनिरन्तर और असंगतिपूर्ण मार्क्सवादी अप्रोच और पद्धति के कारण वह अक्सर अपनी इस तलाश में नाकाम रहे।
लेकिन अपने स्वर्णिम दौर में हॉब्सबॉम ने जो मार्क्सवादी इतिहास लिखा वह आज भी सर्वश्रेष्ठ मार्क्सवादी इतिहास-लेखन में गिना जा सकता है। हॉब्सबॉम का इतिहास लेखन निश्चित तौर पर ई.पी. थॉमसन के सामाजिक इतिहास की धारा से अलग था, जिसका अपना एक अलग किस्म का योगदान रहा था (और जिसने एक अलग तरह से मार्क्सवाद को नुकसान भी पहुँचाया था!); वह क्रिस्टोफर हिल के इतिहास-लेखन जितना केन्द्रित और सटीक भी नहीं था। लेकिन हॉब्सबॉम जैसी व्यापक (दिक् के आधार पर भी और काल के आधार पर भी) दृष्टि हमें और कहीं देखने को नहीं मिलती। विषय का एक विस्तृत क्षितिज, काल की एक लम्बी रेखा और सामाजिक और आर्थिक इतिहास लेखन का एक दिलचस्प तालमेल हॉब्सबॉम के इतिहास लेखन के विशेष गुण हैं। यही कारण है कि आज भी यूरोपीय क्रान्तियों, पूँजीवाद और उद्योगीकरण पर लिखी गयी उनकी रचनाएँ इतिहास के छात्र चाव से पढ़ते हैं। और हमें उम्मीद है, बल्कि कहना चाहिए कि हमें पता है, ये रचनाएँ आने वाले लम्बे समय तक उसी चाव और दिलचस्पी के साथ पढ़ी जाती रहेंगी।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-दिसम्बर 2012
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