क्रिस्टोफ़र कॉडवेल और भौतिकी का संकट

सनी

क्रिस्टोफ़र कॉडवेल के जीवन काल में एक फॉस्फोरिक चमक है जो आज भी चमत्कारिक आभा के कारण आकर्षित करती है। उनका जीवन एक धूमकेतु के समान था जो पश्चिम के आकाश को चन्द पलों के लिए आलोकित कर चला गया, परन्तु आज भी कई वैज्ञानिक उस धूमकेतु के प्रभाव और उसके रास्ते को माप रहे हैं। कॅाडवेल का कार्य कम्युनिस्ट परम्परा की सम्पदा का हिस्सा है। कॉडवेल का मार्क्सवाद की ओर झुकाव 27 साल की उम्र में हुआ और उनका मार्क्सवादी लेखन 2 सालों के भीतर पूरा किया गया था। उन्होंने ‘इल्यूज़न एण्ड रियलिटी’, ‘स्टडीज़ इन ए डाइंग कल्चर’, ‘फरदर स्टडीज़ इन ए डाइंग कल्चर’, ‘क्राइसिस इन फिजिक्स’ व कुछ अधूरी रचनाओं को इस बेहद छोटे समयकाल में पूरा किया। उनके गहन चिन्तन का अन्दाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि वे इस काल में हर दिन में करीब 5 हज़ार शब्द लिख रहे थे! वे सिर्फ चिन्तन में ही नहीं बल्कि व्यवहार में भी मार्क्सवाद को अपना चुके थे। कम्युनिस्ट पार्टी की पॉपलर शाखा से जुड़कर गली-गली जाकर प्रचार तथा ‘डेली वर्कर’ अख़बार की बिक्री उनके दैनिक कार्यों में शामिल थी। यही वह वजह थी कि उन्होंने स्पेन के तानाशाह फ्रांको की सेना के खि़लाफ़ स्पेन के क्रान्तिकारियों के युद्ध में हिस्सा लिया, जिसे स्पेनी गुहयुद्ध के नाम से जाना जाता है। यहीं कॉडवेल महज़ 29 साल की उम्र में  शहीद हुए। कॉडवेल की अधिकांश रचनाएँ उनकी मृत्यु के बाद ही छप सकीं और तब ही यह जाना जा सका कि कम्युनिस्ट आन्दोलन को कितनी क्षति हुई है। कला, मनोविज्ञान, दर्शन, इतिहास, भौतिकी, कविता, गणित, भाषाविज्ञान, न्यूरोलॉजी, साहित्यिक आलोचना तथा अन्य विषयों में कॉडवेल का ज्ञान सूक्ष्म और गहन था। यह फ्रायड की आलोचना, सौन्दर्यबोध की व्याख्या से आइंसटीन के सामान्य सापेक्षिकता सिद्धान्त और डार्विन के उद्विकास के सिद्धान्त तक जाता था।

कॉडवेल के लिए ज्ञान कोई बौद्धिक गहना नहीं था बल्कि वह कम्युनिस्ट ललक थी। “कम्युनिज़्म एक खोखला जुमला बन जाता है, महज एक प्रपंच, और कम्युनिस्ट एक धोखेबाज़, अगर वह अपनी चेतना को मानव ज्ञान की सम्पदा को हासिल करने में नहीं लगाता है।” लेनिन का यही उद्धरण शायद कॉडवेल की बौद्धिकता का शिलालेख था। कॉडवेल ने अपने लिए भी ऐसा ही व्यापक प्रोजेक्ट लिया था। कॉडवेल का दृष्टिकोण और उनकी समझ लगातार गहरी हो रही थी। ख़ुद अपने लेखों में उन्होंने अपने पहले लिखे लेखों का खण्डन किया। कॉडवेल के कार्य को समूचा देखा जाये तो वे लगातार बुज़ुर्आ समाज में विकसित हो रहे विषयों के बीच की खाइयों पर रोशनी डाल रहे थे, इसके पतन के कारणों की पड़ताल कर रहे थे तथा उसका एक समाजवादी विकल्प पेश कर रहे थे। उनके लेखों में हरेक विषयवस्तु की सूक्ष्म और वृहद व बेहद अलग कोणों से व्याख्या मिलती है। वे मानवीय प्रेम के वैज्ञानिक आधार से लेकर मानवीय सारतत्व और जेनेटिक्स के रिश्ते, तो कहीं भौतिकी में आये “संकट” की चीरफाड़ करते हुए मिलते हैं।

विज्ञान के क्षेत्र में क्रिस्टोफ़र कॉडवेल का योगदान

एक कवि व साहित्यिक आलोचक के रूप में कॉडवेल को राल्फ फ़ॉक्स, एलेक बेस्ट, जॉर्ज थॉमसन के समकक्ष माना जाता है परन्तु विज्ञान के क्षेत्र में कॉडवेल के कार्य का अभी भी सटीक अध्ययन नहीं हुआ है। यह लेख इस कार्य को करने का बीड़ा नहीं उठाता है पर यह एक शुरुआती कदम है। क्रिस्टोफ़र कॉडवेल की विज्ञान-सम्बन्धी रचनाओं की समीक्षा बौद्धिक जुगाली नहीं है, बल्कि कई मायनों में यह ज़रूरी है। कॉडवेल ने अपने दौर में मौजूद भौतिकी के संकट के कारणों की पड़ताल की है। कॉडवेल ने द्वन्द्वात्मक तरीके से भौतिकी के चारों ओर फैली हुई भाववादी व आधिभौतिकवादी धुन्ध को चीरते हुए क्वाण्टम तथा सापेक्षिक भौतिकी के सार को ग्रहण किया और संकट के कारणों की बेहद साफ़ विवेचना की। कॉडवेल की भौतिकी और उसके दार्शनिक आधार की समझ अपने समकालीन वैज्ञानिक और दार्शनिकों से बेहद आगे थी। यह लेनिन की ‘अनुभवसिद्ध आलोचना और भौतिकवाद’ में भौतिकी के संकट की व्याख्या को आगे बढ़ाने वाला कदम था। यही पड़ताल आगे जापान के मार्क्सवादी वैज्ञानिकों सकाता और ताकेतानी के लेखों में नज़र आती है। कॉडवेल की ऊष्मागतिकी के दूसरे नियम पर टिप्पणी को प्रिगोझिन ने 1975 में सही साबित किया।  कॉडवेल की द्वन्द्वात्मक शैली सीखने लायक है। बिना किसी परिघटना के सार के उद्घाटित हुए भी हम प्रथमतः (एप्रायोरी) द्वन्द्वात्मक होकर कमोबेश सही नतीजों या सही नतीजों की दिशा पर पहुँच सकते हैं। आधुनिक भौतिकी में मौजूदा संकट को समझने में भी कॉडवेल का लेखन मददगार साबित होगा, हमारा यह स्पष्ट मत है। कॉडवेल के कार्य के महत्त्व को समझने के लिए यह बेहतर होगा की हम पहले उस काल में मौजूद संकट तथा विज्ञान के स्तर व अलग-अलग वैज्ञानिक मतों को जान लें, जिससे कि कॉडवेल द्वारा की गयी संकट की व्याख्या समझी जा सके।

संकट का इतिहास

आधुनिक भौतिकी की यात्र न्यूटोनीय यान्त्रिकी से होती है और यहीं पर ही संकट के बीज भी पलते हैं। न्यूटन का ब्रह्माण्ड यान्त्रिक था। इसकी विभक्ति लाप्लास के कैलकुलेटर में होती है। यह कैलकुलेटर आज की परिस्थितियों के आँकड़ों से भविष्य का बख़ान कर सकता है। आगे सितारों की गति के आँकड़े को तथा प्रकाश के तरंगीय चरित्र को न्यूटनीय व्याख्या में समायोजित करने के प्रयास में ईथर की संकल्पना दी गयी। यानी, पदार्थ के कण तरंगीय गति से ऊर्जा का स्थानान्तरण करते हैं। जैसे पानी पर उठी तरंगें पानी पर ही उठ सकती हैं, उसी तरह ईथर का माध्यम विद्युतीय-चुम्बकीय तरंगों की ज़रूरत था। आइंसटीन के सापेक्षिकता के विशेष सिद्धान्त ने ईथर को विज्ञान जगत से पुरातन विभाग के हवाले किया और प्रेक्षण के चरित्र को दिखाया। आइंसटीन ने यह दिखाया कि निरपेक्ष काल तथा निरपेक्ष दिक् कुछ नहीं होता सिर्फ सापेक्ष स्पेस-टाइम (दिक्-काल) होता है। 1913 में बोर ने और 1926 में श्रोडिंगर ने सूक्ष्म जगत के आम सिद्धान्त क्वाण्टम सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। तभी यह ज्ञात हुआ कि सूक्ष्म जगत में पदार्थ समय में क्वाण्टाइज़्ड है, यानी कि वह सिर्फ विशिष्ट ऊर्जा स्तरों में मौजूद होता है। वहीं 1916 में आइंसटीन ने सापेक्षिकता के सिद्धान्त को आगे बढ़ाते हुए बताया कि पदार्थ का भार तथा उसकी गति भी सापेक्ष होते हैं, यही सापेक्षिकता के आम सिद्धान्त का मूलतत्व है। आइन्सटीन ने न्यूटन के आणविक विश्व को, जिसमें हर कण स्वतन्त्र रूप से गतिमान था, एक नये एकतापूर्ण विश्व में बदल दिया। यह दौर ऐतिहासिक रूप से भी कई बहस-मुबाहिसों से होते हुए गुज़रा। आइंसटीन-प्लांक की आधिभौतिक प्रतिरक्षा, हाइजेनबर्ग-डिरॉक का प्रत्यक्षवादी छोर, बोल्ट्ज़मेन, लोरेण्ट्ज़ और लैंगविन का भौतिकवादी दृष्टिकोण ये सब एक-दूसरे से टकरा रहे थे। भौतिकी में जो ज्ञात था उस पर प्रश्नचिह्न लगा दिया गया था। संकट की घोषणा कर दी गयी थी।

कॉडवेल संकट को सापेक्षिकता के आम सिद्धान्त या क्वाण्टम सिद्धान्त में नही बल्कि बुज़ुर्आ संस्कृति के संकट में देखते हैं। कॉडवेल के अनुसार औद्योगिक क्रान्ति के युग में पैदा हुई न्यूटोनीय भौतिकी का दार्शनिक आधार बुज़ुर्आ था, यह खुले बाज़ार के नियमों में व्यापार की आज़ादी तथा निजी एवं स्वतन्त्र सम्पत्ति सम्बन्ध के आधार से अपना विश्वदृष्टिकोण निकालती है। यह विश्वदृष्टिकोण यान्त्रिक भौतिकवाद था। आइंसटीन ख़ुद इसी दृष्टिकोण से यानी विश्व के आधिभौतिकवादी (नियतत्ववादी) दृष्टिकोण से लैस थे। वे भी लगातार सापेक्षिकता सिद्धान्त से सापेक्षिकता को हटाकर निरपेक्ष, पूर्ण आधार ढूँढ़ते रहे। लेकिन यह भी सच है कि आइंसटीन का यह नियतत्ववाद बोर और हाइज़ेनबर्ग के नवकाण्टीय अज्ञेयवाद की प्रतिक्रिया के रूप में अधिक पैदा हुआ था, सकारात्मक तौर पर कम। सकारात्मक तौर पर आइंस्टीन की पद्धति प्रकृतिवादी भौतिकवाद और स्पिनोज़ावाद के करीब पड़ती थी और कई बार द्वन्द्वात्मक भी होती थी। आइंसटीन ने हमारे दृष्टिकोण को बदलकर रख दिया, प्रेक्षण के सवाल को वैज्ञानिक पड़ताल का विषय बना दिया। इसी प्रेक्षण की समस्या के सूक्ष्म स्तर पर फिर से प्रकट होने पर (अनिश्चितता के रूप में) उलट दार्शनिक छोर पर खड़े हाइज़ेनबर्ग, माख़, ऐडिंगटन का अज्ञेयवादी दर्शन से भौतिक विश्व को अबूझ, अज्ञेय करार देता है। “मनुष्य से संघर्ष में प्रकृति एक विचार-योग्य वस्तु प्रतीत होती है, यह वस्तु केवल मात्रात्मक होती है, गुणों से मुक्त और इसलिए बुज़ुर्आ भौतिकी की प्रकृति गुणों से मुक्त होती है— पहले पदार्थ को रंग, ध्वनि, ऊष्मा, ‘धक्का देने योग्य’ जो भी गति के रूप होते हैं उन सबसे वंचित किया जाता है। गति, लम्बाई, भार और रूप को प्रेक्षक से स्वतन्त्र निरपेक्ष वस्तुगत गुण माना जाता है। परन्तु एक के बाद दूसरी वस्तु प्रेक्षक के सापेक्ष साबित होती है। इसीलिए पदार्थ अन्ततः बिना किसी गुण यानी ग़ैर-आत्मगत गुण के बचता है जिसके पास सिर्फ अंक होते हैं। परन्तु अंक तो भाव हैं और वस्तुगत यथार्थ ग़ायब हो जाता है। पदार्थ अबूझ बन जाता है।” (क्राइसिस इन फिजिक्स)। और यहीं से संकट का शोर मचता है। “बुज़ुर्आ भौतिकी में कभी-कभी संकट के कारण को एक तरफ़ वृहत या सापेक्षिकता भौतिकी और दूसरी सूक्ष्म जगत या क्वाण्टम सिद्धान्त के अन्तरविरोध को ठहराया जाता है। दोनों क्षेत्रों की संकल्पनाएँ एक-दूसरे से बेमेल हैं। परन्तु इस अन्तरविरोध को मौजूदा संकट का असल कारण मानना ग़लत होगा। यह संकट इसके लिए बेहद आम है। यही विशिष्ट अन्तरविरोध है जो किसी एक रूप में संकट के रूप में प्रकट होता है।” (क्राइसिस इन फिजिक्स)। क्रिस्टोफ़र कॉडवेल बुज़ुर्आ समाज और उसकी पतनोन्मुख संस्कृति के कटु आलोचक थे। यही पतन उन्होंने विज्ञान में भी देखा। बुज़ुर्आ समाज में पैदा हुआ श्रम का बँटवारा, मानसिक और शारीरिक श्रम के बँटवारा, ऐसे व्यक्तित्व और जीवन दर्शन का निर्माण करता है जो विखण्डित व भोंड़ा होता है। एक वैज्ञानिक भी समाज के इन्हीं लोगों में से आता है। वह भी इसी संस्कृति की फसल होती है। यही कारण है कि विज्ञान जिस द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी आधार पर खड़ा है, बुज़ुर्आ व्यक्तिव उसे महज़ भौड़े भौतिकवादी और आदर्शवादी दृष्टिकोण से समझने में नाकाम होता है। शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम में बँटे समाज में वस्तुगत व आत्मगत के बीच का सम्बन्ध कट जाता है और जब वस्तुगत से आत्मगत कट जाता है तब अवैज्ञानिक ग़ैर-द्वन्द्वात्मक दर्शन-प्रत्ययवाद (आत्मगतता का छोर) और भोंड़ा भौतिकवाद (वस्तुगतता का छोर) तथा प्रत्यक्षवाद (दोनों के सम्बन्ध को हटा देना) व इनके अन्य तरह की शाखाएँ-उपशाखाएँ निकलती हैं। “मैकैनिक्स (यान्त्रिकता) और भाववाद हालाँकि बेमेल और विपरीत प्रतीत होते हैं और ये सिर्फ इसलिए ऐसे प्रतीत होते हैं कि ये एक ही सिक्के दो अलग पहलू हैं। ये समाज में वस्तुगत और आत्मगत के बीच कटाव के कारण होता है जो कि बुज़ुर्आ अर्थव्यवस्था का परिणाम है।”

कॉडवेल के द्वारा संकट की यह पड़ताल लेनिन की ‘अनुभवसिद्ध आलोचना और भौतिकवाद’ के अनुरूप है (हालाँकि यह उतनी स्पष्ट व गहरी नहीं है)। कॉडवेल यहाँ संकट की बुज़ुर्आ समाज की आम प्रवृत्ति के रूप में पहचान करते हैं। जीव विज्ञान, गणित, कला, साहित्य में मौजूद संकट का आधार वे बुज़ुर्आ संस्कृति के पतन में देखते हैं। बुज़ुर्आ संस्कृति के पतन का सामान्यीकरण कॉडवेल की अन्य कृतियों की भी विषयवस्तु है। जापान के मार्क्सवादी सकाता व ताकेतानी ने क्वाण्टम सिद्धान्त के बाद पैदा हुए संकट का कारण वस्तु और प्रेक्षक के बीच सम्बन्ध को न समझना बताया था। ख़ुद सापेक्षिकता का आम सिद्धान्त प्रेक्षण, वस्तुगत-आत्मगत के रिश्ते की समझ को महत्व देता है। सकाता ने हर वैज्ञानिक को यही राय दी थी: प्रयोगशाला के दरवाज़े के भीतर जाने के पहले ही प्रथमतः द्वन्द्वात्मक होगा, क्योंकि प्रयोगशाला के आँकड़े या तो वैज्ञानिक को नियतत्ववादी बनाते हैं, या अज्ञेयवादी। यही वह सबसे महत्वपूर्ण बात है जो कॉडवेल के विवेचन में दिखती है। इसी बात पर मैकगिल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर शॉन लवजॉय ध्यान दिलाते हैं। कॉडवेल थर्मोडायनमिक्स के दूसरे नियम के आधार पर ऐण्ट्रोपी की सही व्याख्या करते हैं और क्लॉसियस व होल्महोल्ट्ज़ द्वारा दिये गये “ऊष्मीय मृत्यु” को भौतिकी पर वैज्ञानिकों के दार्शनिक दिवालियेपन को थोपना बताते हैं, जो 1975 में प्रिगोझिन ने “ऊष्मीय मृत्यु” को कूड़ेदान में डालकर साबित किया। ज्ञात हो कि आज भी भौतिकी में संकट का भूत मँडरा रहा है। हाइजे़नबर्ग की अज्ञेयवादी संकल्पना ने हज़ारों स्ट्रिंग सिद्धान्तों का रूप लेकर संकट को विकराल किया है। आइंसटीन ने 1905 में जिस समस्या की ओर इशारा किया था (सापेक्षिता और क्वाण्टम के एकीकरण की) वह अभी तक सम्भव नहीं हुआ है। कॉडवेल के लिए इस संकट का सुलझाव व्यापक सामाजिक व्यवस्था के बदलाव से भी जुड़ा हुआ था। बुज़ुर्आ समाज और अर्थव्यवस्था मानव चेतना को बाँध देते हैं, दृष्टिकोण के क्षितिज को सँकरा बनाते हैं और वैज्ञानिक चेतना का निषेध करते हैं। उन्हें वैज्ञानिक चेतना वहीं तक चाहिए जहाँ तक उनके मुनाफ़े के लिए ज़रूरी है। अन्यथा विश्व दृष्टिकोण और पद्धति के तौर पर यह व्यवस्था सुनियोजित तौर पर लोगों को भाववादी और यान्त्रिक बनाती है। एक ऐसी दुनिया में भौतिकी का “संकट” बार-बार पैदा होगा, जो कि वास्तव में संकट नहीं है, बल्कि विज्ञान की जीवनदायिनी शक्ति है। बिना अनसुलझे सवालों के विज्ञान तरक्की नहीं कर सकता। आज जो अनसुलझा है, वह कल सुलझ सकता है, लेकिन तब नये अनसुलझे प्रश्न विज्ञान के सामने होंगे। लेकिन यह पूरी प्रक्रिया बुज़ुर्आ मूल्यों, संस्कृति और कूपमण्डूकता से मुक्त समाज में कहीं तेज़ गति से और सुचारू रूप से चल सकती है।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2012

 

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