विश्व शान्ति के वाहक हथियारों के सौदागर

शमीम

आम तौर पर यह माना जाता है कि युद्ध राजनीतिक कारणों से होते हैं तथा अधिकांशतः आत्मरक्षा/आत्मसम्मान हेतु लड़े जाते हैं। बुर्जुआ संचार माध्यमों के द्वारा व्यापक जनसमुदाय में इस धारणा की स्वीकृति हेतु विभिन्न कार्यक्रमों का प्रसारण किया जाता है। युद्धाभ्यास, युद्धसामग्री की ख़रीद-फ़रोख़्त हथियारों के प्रेक्षण आदि जैसी सैन्य क्रियाओं को राष्ट्रीय अस्मिता के साथ जोड़ते हुए शोषित-उत्पीड़ित जनता को गौरवान्वित करने हेतु प्रोत्साहित करने का कार्य पूँजीवादी भाड़े के भोंपू निरन्तर करते रहते हैं। परन्तु यह तथ्य स्पष्ट है कि पूँजीवाद की उत्तरजीविता को बरकरार रखने तथा अकूत मुनाफ़े की हवस ने दो महायुद्धों व 50 के दशक के बाद विश्व के बड़े भूभाग (लातिन अमेरिका, एशिया, अफ्रीका) पर चलने वाले क्रमिक युद्धों को जन्म दिया। द्वितीय विश्वयोद्धोत्तर काल में लड़े गये अधिकांश युद्ध साम्राज्यवादी आर्थिक हितों के अनुकूल ही रहे हैं। साम्राज्यवादी देशों की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा अकूत सम्पदा की लूट के बाद यदि किसी को सर्वाधिक लाभ हुआ तो वे थीं हथियार निर्माता कम्पनियाँ! युद्ध सामग्री के वैश्विक व्यापार की विशेषता निरन्तर लाभ की मौजूदगी है। हथियारों का यह व्यवसाय सर्वाधिक लाभकारी है। किसी भी राष्ट्र द्वारा ख़रीदी गयी युद्ध सामग्री का प्रयोग अनिवार्यतः युद्ध में हो इसकी कोई गारण्टी नहीं है चूँकि युद्ध उपकरण कुछ समय बाद ही पुराने पड़ जाते हैं। अतः नवीन युद्ध उपकरणों की ख़रीद-फ़रोख़्त की प्रक्रिया पुनः प्रारम्भ हो जाती है।

वर्तमान में विश्व स्तर पर निरस्त्रीकरण के अलमबरदार वही देश हैं जो इस वैश्विक बाज़ार के संचालक हैं। इनमें अमेरिका व रूस प्रमुख हैं। ‘स्टॉकहोम इण्टरनेशनल पीस रिसर्च काउंसिल’ के अनुसार कुल विश्व का युद्ध सामग्री उद्योग डेढ़ खरब डालर का है तथा विश्व का सबसे भ्रष्टतम उद्योग है। वर्तमान में कुल विश्व का रक्षा बजट 16 हज़ार करोड़ डालर (2010) हो गया है।” विश्व की आर्थिक निर्भरता व उद्योग का 4.4 प्रतिशत युद्ध पर आधारित है।

संयुक्त राष्ट्र संघ के तमाम शान्ति पाखण्डों के बावजूद उसके सदस्य राष्ट्रों के शीर्ष 5 देश हथियारों की होड़ में चोटी पर हैं। विश्व पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा मानवता को तमाम व्यवस्थाजनित समस्याएँ उपहार में देने के बाद विगत 10 वर्षों में परमाणु हथियारों पर 10 हज़ार करोड़ डॉलर ख़र्च किये जा चुके हैं। वैश्विक स्तर पर होने वाले इस मौत के व्यापार में 50 प्रतिशत की साझेदारी अकेले अमेरिकी कम्पनियों की है जो अफगानिस्तान, पाकिस्तान, ईरान, ईराक व कश्मीर मसले पर व्यापक प्रभाव रखती है। ग़ौरतलब है कि वर्ष 2008 में भारत-अमेरिका परमाणु करार को अमली जामा पहनाने में अमेरिकी हथियार उत्पादक कम्पनियों की महत्वपूर्ण भूमिका थी। भारत-पाकिस्तान की हथियारों की होड़ में यदि किसी को सर्वाधिक मुनाफ़ा होता हैं तो वे है अमेरिकी हथियार कम्पनियाँ।

हथियार व्यापार के उभार का आरम्भ

प्रथम विश्व युद्ध के आरम्भ में वैश्विक स्तर पर युद्ध सामग्री के व्यापार में अभूतपूर्व वृद्धि दिखायी देती है। भयानक मानवीय तबाही का वाहक वह युद्ध पूँजीवाद की उत्तरजीविता में आंशिक तौर पर सहायक था। तथा बड़े पैमाने पर विध्वंस की कार्रवाई को अंजाम दिया जाना अपेक्षित था। ऐसे में निश्चित ही युद्ध सामग्री के व्यापार में वृद्धि स्वाभाविक थी जो व्यापारिक कम्पनियों के हितों के अनुकूल थी। 1914 तक अमेरिकी कम्पनियों की कुल यूरोपीय व्यापार में हिस्सेदारी 16.9 करोड़ डॉलर (वर्तमान में 3.42 अरब डॉलर के बराबर) थी, परन्तु 1916 तक आते-आते इसमें भारी गिरावट आयी। अमेरिकी सरकार ने एक बेहतर मैनेजिंग कमेटी की भूमिका का निर्वाह करते हुए अलग-अलग राष्ट्रों में सेंधमारी का काम आरम्भ किया। 1914 तक यूरोप के बाहर अमेरिकी कम्पनियों का कुल व्यापार प्रतिवर्ष 82.4 करोड़ डॉलर था जो 1916 में 321.4 करोड़ डॉलर की अकल्पनीय सीमा तक पहुँच गया। इस व्यापार में एक बड़ी राशि युद्ध सामग्री के व्यापार का अंग थी क्योंकि प्रथम विश्व युद्ध का प्रारम्भ हथियार उत्पादक कम्पनियों के लिए स्वर्णिम अवसर था। भयानक मानवीय संहार व युद्ध की निरन्तरता इन कम्पनियों के मुनाफ़े के स्थायित्व की महत्वपूर्ण शर्त थी। 1916 के बाद विश्व की महत्वपूर्ण विशाल कम्पनियों ने हथियार उत्पादन के क्षेत्र में पदार्पण किया। प्रथम विश्व युद्ध के पूरे कालखण्ड में 375 अरब डॉलर की युद्ध सामग्री विभिन्न देशों को बेची गयी जिसने अत्याधिक पूँजी निवेश को उपरोक्त क्षेत्र में बढ़ावा दिया। तत्कालीन उपभोक्ता सामग्री निर्माता कम्पनियों ने भी इसमें हिस्सेदारी की। अकूत मुनाफ़ा उनकी संरचना व कार्य प्रणाली में परिवर्तन हेतु सहायक बना। परस्पर आर्थिक हितों की सुरक्षा हेतु कार्टेलों का निर्माण शुरू किया जो लेनिन के अनुसार साम्राज्यवाद की एक अभिलाक्षणिकता थी।

प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति तथा द्वितीय विश्व युद्ध के आरम्भ के मध्य का अन्तराल हथियार निर्माता कम्पनियों के इतिहास में “फर्टिलाइजे़शन” के नाम से जाना जाता है, अर्थात् युद्ध की उर्वरता को बरकरार रखने में इसकी सक्रिय भूमिका थी। पूँजी का संकेन्द्रण तथा युद्ध सामग्री पर कुछ चुनिन्दा कम्पनियों का एकाधिकार भविष्य में उनके लाभ को स्थायित्व प्रदान कर सकता था जिसमें वे कामयाब भी रहे। उस वक्त के हथियार उद्योग के नायकों में ये कम्पनियाँ शुमार थीः – जनरल मोटर्स, फोर्ड स्टैण्डर्ड ऑयल, आई.सी.आई., कोका कोला, आईबीएम। द्वितीय विश्व युद्ध के आरम्भ में प्रधान पहलू साम्राज्यवाद के आन्तरिक अन्तरविरोध, 1931 की महामन्दी, विश्वस्तर पर समाजवाद से आतंकित फासिस्ट सत्ताओं के उदय आदि के कारणों में निहित थे। परन्तु युद्ध सामग्री की व्यवसायिक कम्पनियाँ भी इस वैश्विक परिघटना में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रही थी। हैड्रिख़ मुल्लर ने, जो कि आई.टी.टी. (इण्टरनेशनल टेलीफ़ोन एण्ड टेलीग्राफ़) कम्पनी का प्रमुख था तथा फासिस्ट जर्मन तानाशाह की सेना में संचालक भी था, एक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी आई.टी.टी. कम्पनी फासिस्ट गुटों को वित्तीय सहायता प्रदान करती थी तथा अपनी सहयोगी कम्पनी फोक बुल्ट एयरक्रफ्रट कारपोरेशन के साथ मिलकर बमवर्षक विमानों की आपूर्ति फासिस्ट गुट को कर रही थी। सम्पूर्ण विश्व युद्ध के कालखण्ड में उपरोक्त कम्पनी ने संचार सेवाओं के माध्यम से नात्सी युद्ध तन्त्र को प्रत्यक्ष सहायता प्रदान की थी। तथापि युद्ध समाप्ति के पश्चात आई.टी.टी. ने अमेरिकी सेना को भी अपनी “पूर्ण सेवाएँ” प्रदान की।

द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के पश्चात अमेरिका की 23 विशाल कम्पनियों ने युद्ध सामग्री का उत्पादन आरम्भ किया। उत्पादित सामग्री के परीक्षण हेतु एशिया व अफ्रीका के देशों को चुना गया। युद्ध की निरन्तरता उद्योग में मुनाफ़े को बरकरार रखने की अनिवार्य शर्त थी जिसकी परिणति वियतनाम, दक्षिण कोरिया, ईरान-ईराक, भारत-पाक युद्धों के रूप में स्पष्ट दृष्टिगोचर हुई। इजरायल-मिस्र समझौते के पश्चात् मध्य-पूर्व विश्व में अमेरिकी सैन्य उद्योग के मुनाफ़े की नवीन सम्भावनाओं का सर्जन हुआ। बोलेविया, चिली, यूनान, इण्डोनेशिया, इथोपिया, निकारागुआ जैसे राष्ट्रों में दक्षिणपन्थी षड्यन्त्रकारियों को अमेरिकी सरकार के सलाहकार निगमों ने सहायता पहुँचायी जिसके फलस्वरूप सम्बन्धित देशों के सेनाध्यक्षों ने अमेरिकी हथियार कम्पनियों के लिए मनोनुकूल परिस्थितियों का सर्जन किया। विश्वव्यापी सैनिक साम्राज्य का निर्माण इनके अस्तित्व की शर्त थी। वियतनाम पर अमेरिकी आक्रमण के समय युद्ध निगमों द्वारा युद्ध के पक्ष में माहौल बनाना तथा युद्ध को मानवता के हित में घोषित करना उनके मुनाफ़े पर पर्दा डालने का एक उपकरण था।

वियतनामी जनता द्वारा आर्थिक सामाजिक तबाही झेलने व हिन्द चीन के जंगलों में हज़ारों अमेरिकी सैनिकों की मौत के बावजूद कम्पनियों का मुनाफ़ा बरकरार रहा। 1955 से वियतनाम युद्ध की समाप्ति तक युद्ध सामग्री निर्माता निगमों को स्वयं अमेरिका से ही 75 प्रतिशत आर्डर प्राप्त हुए हैं तथा कुल 13,340 करोड़ डॉलर की राशि की युद्ध सामग्री का प्रयोग वियतनाम युद्ध में अमेरिका ने किया।

1952 में पारित मार्शल प्लान व शीत युद्ध के आरम्भ ने हथियार निर्माता कम्पनियों की पर्याप्त सहायता की। मौत के साज़ो-सामान की इस सौदागरी को द्वितीय विश्वयोद्धोत्तर काल में पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति विल्सन ने अमेरिकी रणनीति का एक प्रमुख अंग बनाया था। उसने विकासशील देशों को परस्पर युद्ध में उलझाये रखने की कला को “गन एण्ड बटर” सिद्धान्त का नाम दिया था जो अमेरिकी साम्राज्यवादी शक्तिमत्ता व हथियार कम्पनियों के मुनाफ़े दोनों को बरकरार रखने में सहायक थी। ‘यूरोपीय आर्थिक समुदाय’ के गठन में अमेरिकी कम्पनियों का मुनाफ़ा अन्तर्निहित था जिसमें हथियार उत्पादक कम्पनियाँ भी सम्मिलित थी। 1970 के बाद आशिंक तौर पर इन इज़ारेदार (अमेरिकी) कम्पनियों को जापान की हथियार-निर्माता कम्पनियों ने चुनौती देना प्रारम्भ कर दिया था। वर्तमान स्थिति यह है कि हाल ही में न्यूर्याक टाइम्स की एक ख़बर के अनुसार हथियारों का उत्पादन करने व कानूनी तौर पर उनका निर्यात करने में एक हज़ार से अधिक अमेरिकी कम्पनियाँ सक्रिय हैं जिनमें से अधिकांश उपभोक्ता सामग्रियों का भी निर्माण करती हैं।

युद्ध सामग्री की नवीन मण्डी

द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात एशिया व भारतीय उपमहाद्वीप के देशों में साम्राज्यवादी हस्तक्षेप और विशेषतः अमेरिकी दखलन्दाज़ी ने एक हद तक हथियार निर्माता कम्पनियों के हितों की पूर्ति का काम किया है। इसके अतिरिक्त यह विश्व का ऐसा अशान्त क्षेत्र है जहाँ सर्वाधिक सीमा-विवाद है। इसकी आड़ में ये उपमहाद्वीपीय देश युद्ध की सामग्री की ख़रीद-फ़रोख़्त को रक्षा-सम्बन्धी आवश्यकता बताकर राष्ट्रीय व अन्तरराष्ट्रीय कम्पनियों के मुनाफ़े में वृद्धि करते हैं। “बाज़ार समाजवाद” के पथगामी चीन का चालू वित्तवर्ष में रक्षा बजट अमेरिका के बाद विश्व का दूसरा सर्वाधिक विशाल सैन्य बजट है। ‘आन्तरिक सुरक्षा’ को चाकचौबन्द करने के कारण 1993-2010 तक सामूहिक विद्रोहों की घटनाओं में निहित है, जो 8,700 से बढ़कर 90,000 तक की अकल्पनीय सीमा तक पहुँच गयीं हैं। चीन द्वारा युद्ध मशीनरी उद्योग के क्षेत्र में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाना भी एक महत्वपूर्ण कारक है। वर्तमान में चीन  ओसियान देशों व पाकिस्तान को युद्ध सामग्री निर्यात करने में प्रथम स्थान पर है। मध्य एशिया में अमेरिकी लठैत इज़रायल के प्रधानमन्त्री ने हाल ही में कहा है कि “मिसाइलों का व्यापार सन्तरी से ज़्यादा लाभदायक है”। वर्तमान में इज़रायल के सैन्य सामग्री उत्पादन में जर्मन बैंक डॉइश बैंक की महत्वपूर्ण भूमिका है जो हथियार उत्पादक निगमों को वित्तीय सहायता प्रदान करता है। पिछले 10 वर्षों में हथियार निर्यात में 50 फीसदी की वृद्धि हुई है। इज़रायल का कुल निर्यात सैन्य सामग्री पर व्यय 100 करोड़ मार्क से अधिक है।

हाल ही में वित्तमन्त्री प्रणब मुखर्जी ने प्रस्तावित ‘खाद्य सुरक्षा अधिनियम’ के सम्बन्ध में देश की जनता का ज्ञानवर्धन करते हुए कहा कि मनमोहन राजा के राज में राजकोष में धन का अभाव है। परन्तु जनावश्यकताओं व प्राथमिकताओं के विपरीत चालू वित्तवर्ष में कुल रक्षा बजट में पिछले वर्ष की तुलना में 17 फीसदी की वृद्धि की गयी! विश्व-शान्ति, अहिंसा जैसे मानवतावादी उपदेश देने वाला देश फिलवक़्त विश्व का सबसे बड़ा युद्ध सामग्री आयातित करने वाला देश है। भारत ने हथियारों की ख़रीद पर पहले के मुकाबले 38 फीसदी की वृद्धि करते हुए कुल उद्योग में 10 फीसदी की ख़रीद की गयी। आई-पी-आर-आई- की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत आने वाले 15 वर्षों में नवीन रक्षा उपकरणों पर 1 खरब डॉलर से ज़्यादा की राशि ख़र्च करेगा। 16 मार्च को जब वित्तमन्त्री ने 1,93,40,729 करोड़ का रक्षा बजट पेश किया तब शायद बेशर्मों को भी शर्मिन्दगी का आश्रय लेना पड़ा कि प्रतिदिन 9 हज़ार बच्चों की हत्यारी व्यवस्था रक्षा ज़रूरतों के नाम पर ऐसी नंगई का परिचय दे रही है।

जनता की गाढ़ी कमाई से विश्व साम्राज्यवाद व उसके चाटूकार पूँजीपतियों की तिजोरियाँ भरने की प्रक्रिया को एक उदाहरण से समझा जा सकता है। जनवरी 2012 में पफ़्रांसीसी कम्पनी रफाएल से लड़ाकू विमानों की ख़रीद-फ़रोख़्त की प्रक्रिया उपरोक्त तथ्य की सत्यता को प्रमाणित करने के लिए काफ़ी है 54 हज़ार करोड़ रुपये के सौदे की इस प्रतिस्पर्द्धा में यूरोप के चार अन्य देशों (ब्रिटेन, जर्मनी, स्पेन व इटली) ने संयुक्त रूप से विमान देने की निविदा लगायी थी जो कि उनके हित में नहीं हो पाया। अमेरिकी कम्पनियों द्वारा रखे गये प्रस्ताव को ठुकराये जाने पर अमेरिका भी तिलमिलाया था। ऐसे में भारतीय पूँजीपति वर्ग की मैनेजिंग कमेटी ने फ्रांसीसी राष्ट्रपति सरकोजी को रक्षा सौदे का टॉनिक उपहार में दिया तथा सम्बन्धित विमान कम्पनी के लिए यह सौदा संजीवनी साबित हुआ। कम्पनी के शेयर की कीमत में आश्चर्यजनक उछाल आया। अनुमानतः यदि यह सौदा नहीं होता तो कम्पनी को अपनी उत्पादन इकाइयाँ भी बन्द करनी पड़ सकती थी।

शीत युद्ध की समाप्ति व सोवियत संघ के विघटन के बाद विश्व पूँजीवादी व्यवस्था के पैरोकार विश्व स्तर पर सैन्य ख़र्चों में कटौती का राग अलाप रहे थे परन्तु वास्तविकता इसके ठीक विपरीत है। पृथ्वी के संसाधनों का बड़ा भाग संहारक हथियारों, प़फ़ौज व विनाशकारी अभियान में ख़र्च किया जा रहा है। स्पष्ट है कि इस विध्वंस लीला में साम्राज्यवादी शक्तियाँ ऐसी परिस्थितियाँ तैयार करती हैं कि उनके रक्षा उपकरणों की खपत हो सके तथा हथियार उत्पादक कम्पनियों के शुद्ध मुनाफ़े में वृद्धि होती रहे। यह अकारण ही नहीं है कि भारत पर लगे परमाणु परीक्षण प्रतिबन्ध को बुश ने स्वतः ही हटा दिया था। आर्थिक मन्दी के वर्तमान दौर में सैन्य सामग्री उद्योग पूँजीवाद के लिए एक संजीवनी के समान है। अन्य उद्योगों के मुव़फ़ाबले इसकी यह विशेषता है कि इसकी माँग में ठहराव नहीं आता। यह एक त्रासद सच्चाई है कि विश्व बाज़ार में हथियारों का सबसे बड़ा ख़रीददार वह राष्ट्र है जो स्वतन्त्रता प्राप्ति के 64 वर्षों के पश्चात् भी अपने नागरिकों की न्यूनतम जीवनयापन योग्य आवश्यकताओं की भी पूर्ति नहीं कर पाता। पूँजीपतियों के ऐश्वर्य के टापुओं में वृद्धि व जनता को आंतकित करने हेतु सेना की शक्तिमत्ता के प्रदर्शन (26 जनवरी की परेड में युद्ध सामग्री के प्रदर्शनों का सम्भवतः यही कारण है!) किये जाते हैं। वहीं सरकार, मीडिया भारतीय सेना के कसीदे पढ़ने से भी नहीं चूकती। लेकिन रक्षा सौदों में कमीशनखोरी व भ्रष्टाचार के मुद्दे भी सेना के उच्च अधिकारियों व मन्त्रियों को कई बार शर्मसार कर चुके हैं। ग़ौरतलब है कि भारत में बड़े घोटालों का आरम्भ सेना से ही हुआ है। आज़ादी के तुरन्त बाद जीप घोटाले से बोफोर्स घोटाला, जर्मन पनडुब्बी घोटाला, कारगिल ताबूत घोटाला, मिग विमान तथा आदर्श सोसायटी घोटाले तक की लम्बी फेहरिस्त है। अभी हाल में ट्रक खरीद  अनियमितता में भी भ्रष्टाचार की सम्भावना से इंकार नहीं किया जाना चाहिए। वहीं विश्व स्तर पर “वार ऑन टेरर” के नारे के साथ साम्राज्यवादी चौधरी अमेरिका पश्चिम एशिया से लेकर विश्व के एक बड़े भूभाग पर अपने नापाक मँसूबों को व्यवहार में लागू करने की पि़फ़राक में है। साफ है कि विश्व पूँजीवादी व्यवस्था के पास मानवता को युद्ध, भुखमरी, तबाही के सिवा कुछ भी देने के लिए नहीं है। उसके अस्तित्व की शर्त इंसानी लाशों पर समृद्धि की मीनारें खड़ी करना है। साम्राज्यवादी-पूँजीवादी मुनाफ़ा-केन्द्रित होड़ विश्व परिदृश्य में क्या परिवर्तन लायेगी यह साम्राज्यवादियों की चाहत से अधिक इस बात पर निर्भर करता है कि दुनिया की क्रान्तिकारी ताकतें भावी क्रान्तिकारी सम्भावनाओं को किस हद तक अपने पक्ष में प्रयोग करने में समर्थ होती हैं।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2012

 

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