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फैजाबाद में हुए साम्प्रदायिक दंगों के निहितार्थ

जनता की लाशों पर राजनीति करने वाले ये पूँजीवादी चुनावी मदारी अपने खूनी खेल में लगे हैं। जो सीधे या परोक्ष रूप में इसमें नहीं शामिल हैं वे अपने को जनता का हितैषी होने, प्रगतिशील होने के रूप में अपने को पेश कर रहे हैं और बड़े शातिराना तरीके से अपना चुनावी खेल खेल रहे हैं। जबकि हम सभी जानते हैं कि सभी चुनावी मदारी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं उनके नारों व झण्डों में ऊपरी फर्क ही होता है। आज के दौर में दक्षिण व ”वाम” की विभाजक रेखाएँ काफी धुंधली होती जा रही हैं। दूसरा संसद और विधान सभाओं में अल्पमत-बहुमत की नौटंकी करके इन साम्प्रदायिक दंगों को नहीं रोका जा सकता है। इतिहास इसका गवाह है।

उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार का “समाजवाद”

आज साँपनाथ की जगह नागनाथ को चुनने या कम बुरे-ज़्यादा बुरे के बीच चुनाव करने का कर्तव्य, जनता का बुनियादी कर्तव्य बताया जा रहा है। 2014 को लोकसभा के चुनाव में हमसे फिर इन्हीं में से किसी को चुनने की अपील की जायेगी। पाँच साल तक मायावती की निरंकुशता, तानाशाही, गुलामी झेली अब पाँच साल के लिए सपा की झेलनी है। ऐसे में सभी सचेत व इंसाफपसन्द लोगों का कर्तव्य है कि वे अपने दिमाग़ पर ज़ोर डालें। रास्ता ज़रूर निकलेगा, परन्तु एक बात साफ है इस वर्तमान चुनावी नौटंकी से कोई रास्ता नहीं निकलने वाला।

एक साजि़श जिससे जनता की चेतना पथरा जाए

‘‘पूँजीवाद न सिर्फ विज्ञान और उसकी खोजों का मुनाफ़े के लिए आदमखोर तरीके से इस्तेमाल कर रहा है बल्कि आध्यात्म और धर्म का भी वह ऐसा ही इस्तेमाल कर रहा है। इसमें आध्यत्मिकता और धर्म का इस्तेमाल ज़्यादा घातक है क्योंकि इसका इस्तेमाल जनता के नियन्त्रण और उसकी चेतना को कुन्द और दास बनाने के लिए किया जाता है। पूँजीवाद विज्ञान की सभी नेमतों का उपयोग तो करना चाहता है परन्तु विज्ञान और तर्क की रोशनी को जनता के व्यापक तबकों तक पहुँचने से रोकने के लिए या उसे विकृत रूप में आम जनसमुदायों में पहुँचाने के लिए हर सम्भव प्रयास करता है।”

सलवा जुडूम के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय का फैसला

छत्तीसगढ की भाजपा शासित सरकार लगातार यह तर्क देती रही कि माओवादी विद्रोहियों को रोकने के लिए उसके पास एकमात्र विकल्प है कि वह दमन के सहारे शासन करे। दमन के लिए छत्तीसगढ़ सरकार ने अपने सुरक्षा बलों के अलावा आदिवासी आबादी के एक छोटे हिस्से को जो कि अशिक्षित, गरीब व पिछड़ा था पैसे व हथियार देकर उन्हीं के साथी आदिवासियों के खिलाफ खड़ा कर दिया। ये वहां के जंगली रास्तों व भाषा-बोली को भलीभांति जानते थे। इसका फायदा राज्य के सुरक्षा बलों ने भी उठाया।

उच्च शिक्षा में गुणवत्ता के नाम पर सिब्बल जी ने दिखाया निजी पूँजी के प्रति प्रेम!

विदेशी या निजी विश्वविद्यालयों व शिक्षकों द्वारा उच्च शिक्षा की गुणवत्ता की गारण्टी करने के नाम पर उच्च शिक्षा को बिकाऊ माल बना देने की साजिश की जा रही है। संयुक्त उपक्रम के सहारे 800 विश्वविद्यालय और 35-40 हज़ार महाविद्यालय खोले जाने की बात कपिल सिब्बल कर रहे हैं, जिनमें चार करोड़ 60 लाख बच्चे शिक्षा ग्रहण करेंगे। साफ है कि जो भी देशी व विदेशी कॉलेज व विश्वविद्यालय खुलेगा, उसमें अमीरज़ादों को ही प्रवेश मिल सकेगा, जोकि 35-40 लाख सालाना दे पाने की क्षमता रखते हैं। बाकी छात्रों को केवल झुनझुना ही थमा दिया जायेगा। उन्हें तो केवल कुशल मज़दूर ही बनने की शिक्षा दी जायेगी, क्योंकि इस व्यवस्था की नज़र में उन्हें यही पाने का हक है।

फर्जी मुठभेड़ों और हिरासती मौतों के रिकॉर्ड तोड़े उत्तर प्रदेश पुलिस ने

पिछले तमाम सालों में मुठभेड़ों के जरिये देश में हुई हत्याओं के लिए उत्तर प्रदेश कुख्यात रहा है। आँकड़ों पर नज़र डालें तो हम पाते हैं कि 2006 में भारत में मुठभेड़ों में हुई कुल 122 मौतों में से 82 अकेले उत्तर प्रदेश में हुई। 2007 में यह संख्या 48 थी जो देश में हुई 95 मौतों के 50 फीसदी से भी ज़्यादा थी। 2008 में जब देश भर में 103 लोग पुलिस मुठभेड़ों में मारे गये तो उत्तर प्रदेश में यह संख्या 41 थी। 2009 में उत्तर प्रदेश पुलिस ने 83 लोगों को मुठभेड़ों में मारकर अपने ही पिछले सभी रिकॉर्ड ध्वस्त कर डाले।

‘राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना’ भी चढ़ी भ्रष्टाचार की भेंट

इस योजना में भ्रष्टाचार होने का आधार तो पहले से ही तैयार था। बी.पी.एल. कार्डधारकों के सर्वेक्षण में पाया गया है कि केवल 30 प्रतिशत ही वास्तविक लाभार्थी हैं। और जब बी.पी.एल. कार्डधारकों के सत्यापन की बात आती है तो सरकारी तंत्र को नींद आने लगती है। हम यहाँ पर ग़रीबी रेखा के पैमाने की बात ही नहीं कर रहे हैं जो कि हास्यास्पद है। ग़रीबों का मज़ाक बनाया गया है।