केजरीवाल एण्ड पार्टी के “आन्दोलन” से किसको क्या मिलेगा?

सम्‍पादकीय

भ्रष्टाचार-विरोधी महातमाशा अब नये दौर में प्रवेश कर चुका है। अण्णा हज़ारे और अरविन्द केजरीवाल के रास्ते अलग हो चुके हैं। केजरीवाल ने चुनावी राजनीतिक पार्टी बनाकर संसद और विधानसभा का रास्ता पकड़ने का फैसला किया है, जबकि अण्णा हज़ारे ने अपनी नयी टीम बनाकर अपना जनान्दोलन जारी रखने का फैसला किया है। दोनों के बीच के सम्बन्ध अपरिभाषित हैं। अरविन्द केजरीवाल अण्णा का सम्मान करते हैं, और अण्णा बीच-बीच में केजरीवाल के बारे में कुछ सन्देह व्यक्त करते हुए दिन के अन्त में उनकी “ईमानदारी” में यक़ीन करते हैं। लेकिन स्पष्ट है कि दोनों अलग-अलग तरह से अहम भूमिकाएँ निभा रहे हैं, जिसकी आज की राजनीतिक व्यवस्था को ज़रूरत है। अरविन्द केजरीवाल और उनके हनुमान, सुग्रीव, जामवन्त आदि मिलकर भ्रष्टाचारी रावणों, कुम्भकरणों, मेघनादों का पुतला-दहन करने में लगे हुये हैं। बीती रामलीला की तरह इस समकालीन रामलीला की भी मीडिया जमकर कवरेज कर रहा है। हर रोज़ केजरीवाल नये-नये बम फोड़ रहे हैं और सारे चैनलों पर छाये हुए हैं। कभी वह किसी नेता की बनियान उतार देते हैं, तो कभी किसी नेता की लंगोट खींच दे रहे हैं। लंगोट खींचने की इस कबड्डी में अब कुछ लोगों की नज़र केजरीवाल की लंगोट पर भी है, कुछ ने तो उसे छीन लेने के लिए हमले करने भी शुरू कर दिये हैं। भारतीय पूँजीवादी राजनीति का पूरा दृश्य इस समय देखने योग्य है!

अरविन्द केजरीवाल आये दिन नये-नये भण्डाफोड़ कर रहे हैं। इन भण्डाफोड़ों से नेताओं और नौकरशाहों के भ्रष्टाचार के मामले खुलकर लोगों के सामने आ रहे हैं। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या केजरीवाल के आने से पहले लोगों को यह पता नहीं था कि भारतीय पूँजीवादी राजनीति में भ्रष्टाचार का बोलबाला है? क्या लोगों को यह पता नहीं था कि संसद और विधानसभाओं में बैठने वालों और चोरों, उचक्कों, लुटेरों, रहजनों और उठाईगीरों के गिरोह में अब ज़्यादा फर्क नहीं रह गया है? निश्चित तौर पर, देश की आम जनता पहले से ही इस सत्य को जानती थी। ऐसे में, केजरीवाल नया सिर्फ इतना कर रहे हैं कि वह इस भ्रष्टाचार के आकार-प्रकार और मात्रा का खुलासा कर रहे हैं और अलग-अलग मन्त्रियों के नाम लेकर कर रहे हैं। इस पूरे उपक्रम को मीडिया सनसनीखेज़ बनाकर पेश कर रहा है। पूँजीवादी राजनीति में ‘तू नंगा-तू नंगा’ का गाना पहले विलम्बित ताल में बज रहा था, अब वह द्रुत ताल में बज रहा है! और शहरी मध्यम वर्ग को ऑफिसों और कार्यालयों में मसालेदार चर्चा का एक नया मसला मिल गया है-आज किसने किसको कितना नंगा किया? लेकिन इस पूरे तमाशे से भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला! न ही मुनाफे की लूट पर टिकी व्यवस्था पर कोई फर्क पड़ने वाला है। होगा बस इतना कि इस मुद्दे को इस हद तक रगड़ दिया जायेगा कि जनता का इसके प्रति विसंवेदीकरण हो जायेगा और भ्रष्टाचार उसके बीच पहले से भी ज़्यादा स्वीकार्य बन जायेगा। फौरी तौर पर, नेताओं और नौकरशाहों को खूब गालियाँ पड़ेंगी और लोगों का गुस्सा थोड़ा निकल जायेगा; शायद अगले चुनाव में लोग सत्ताधारी पार्टी को कम वोट दें, और किसी अन्य पार्टी को अधिक; लेकिन इससे पूँजीवादी व्यवस्था का बाल भी बाँका नहीं होने वाला। केजरीवाल और उनकी प्रस्तावित पार्टी पूरी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था का कोई विकल्प नहीं पेश करते। वे मौजूदा व्यवस्था के भीतर ही भ्रष्टाचार की समस्या के समाधान का दावा करते हैं और इसे ही केजरीवाल ‘व्यवस्था-परिवर्तन’ का नाम देते हैं।

ऐसे में, पहला सवाल यह है कि उत्पादन और वितरण की मौजूदा व्यवस्था के कायम रहते क्या भ्रष्टाचार की समस्या का समाधान सम्भव है?

इसके बारे में हम ‘आह्वान’ के पिछले अंकों में भी विस्तार में लिख चुके हैं। जब तक एक ऐसी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था कायम है जिसमें पूरा उत्पादन और वितरण तन्त्र समाज की ज़रूरतों के लिए काम नहीं करता बल्कि पूँजीपतियों के निजी मुनाफे के लिए काम करता है, तब तक भ्रष्टाचार की समस्या का कोई समाधान नहीं है। जिस सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने की बुनियाद में ही मुनाफे, लोभ और लालच की संस्कृति व्याप्त हो, वहाँ आप सन्त किस्म के नेताओं और नौकरशाहों की उम्मीद नहीं कर सकते। ऐसी किसी भी व्यवस्था में नेताओं और नौकरशाहों का पूरा वर्ग उनकी ही सेवा करेगा जिनके हाथ में पूँजी होगी। मुनाफे की हवस कभी भी नियमों-कानूनों के दायरे में नहीं रह सकती, हालाँकि नियम और कानून जिस प्रकार की उत्पादन व्यवस्था की रखवाली करते हैं, वह स्वयं एक भ्रष्टाचार है।

बुर्जुआ अर्थशास्त्र भी मानता है कि मानवीय श्रम और प्रकृति ही समस्त संसाधनों को जन्म देते हैं लिहाज़ा देश के समस्त संसाधन पूरे देश की जनता के मालिकाने के तहत होने चाहिए न कि निजी पूँजीपतियों के मालिकाने में। मूल्य के श्रम सिद्धान्त का जन्म मार्क्स से पहले के क्लासिकीय बुर्जुआ अर्थशास्त्री कर चुके थे। तो ज़रा सोचें कि ऐसी कोई भी व्यवस्था जो संसाधनों के 85 फीसदी को ऊपर के 15 फीसदी धनपतियों की निजी सम्पत्ति बनाती हो, और वह भी कानूनी तौर पर, वह स्वयं एक भ्रष्टाचार नहीं तो और क्या है? लेकिन केजरीवाल इसे भ्रष्टाचार नहीं मानते हैं। केजरीवाल ने हाल में अम्बानी द्वारा गैस की कीमतों को बढ़ाने के लिए सरकार पर दबाव डाले जाने और उस दबाव के कारण “ईमानदार” मन्त्री जयपाल रेड्डी को हटाये जाने के बारे में भण्डाफोड़ करते हुए कहा कि यह “साँठ-गाँठ करने वाला पूँजीवाद” है! यह एक दिलचस्प बयान था! जाहिर है कि केजरीवाल “साँठ-गाँठ करने वाले पूँजीवाद” के खि़लाफ हैं। इसका यही अर्थ है कि वह एक ऐसे पूँजीवाद के खिलाफ हैं जो साँठ-गाँठ करता हो, यानी भ्रष्ट हो! लेकिन इसी बयान से यह भी साफ है कि केजरीवाल ऐसे पूँजीवाद की मुख़ालफत नहीं करते जो भ्रष्टाचारी न हो, साँठ-गाँठ न करता हो! इसीलिए वह अम्बानी-ब्राण्ड पूँजीपतियों की मुख़ालफत करते नज़र आ रहे हैं, जो कि चिन्दीचोरी, घपले, और सेंधमारी जैसे तरीकों से भारतीय पूँजीवाद के शिखर पर पहुँचा है। लेकिन टाटा और बजाज जैसे खानदानी पूँजीपतियों का समर्थन केजरीवाल को प्राप्त है! हालाँकि, यह टाटा ही था जिसके कारपोरेट भ्रष्टाचार और सरकार पर दबाव डाल कर ए-राजा को टेलीकॉम मन्त्री बनाये जाने के कृत्य का टाटा-राडिया टेपों के जरिये खुलासा हो चुका है। निश्चित तौर पर, यह एक नग्न और खुला भ्रष्टाचार था। लेकिन केजरीवाल टाटा के बारे में कोई बयान देते नज़र नहीं आते, और टाटा केजरीवाल के भ्रष्टाचार-दलन अभियान का समर्थन करते नज़र आते हैं! कैसा परस्पर प्यार है! केजरीवाल के सामने कई लोगों ने यह सवाल रख दिया था कि वह पूँजीपतियों के भ्रष्टाचार पर कोई सवाल नहीं उठाते। ऐसे में, अम्बानी ही केजरीवाल को सवाल उठाने के लिए सबसे मुफीद लगा, जिसका कारण हम ऊपर बता चुके हैं। और छोटे मालिकों और पूँजीपतियों द्वारा किया जाने वाला मज़दूरों का सर्वाधिक बर्बर शोषण तो केजरीवाल की निगाह में ही नहीं है! केजरीवाल अपने द्वारा बनायी गयी नयी पार्टी ‘आम आदमी पार्टी’ के घोषणापत्र में कहते हैं कि इन बेचारे व्यापारियों-दुकानदारों और छोटे पूँजीपतियों को मजबूरी में भ्रष्टाचार करना पड़ता है! वाह, केजरीवाल साहब! वैसे तो नेताओं-नौकरशाहों के घपलों-घोटालों का पर्दाफाश करने में आप आँकड़ों का जमकर इस्तेमाल करते हैं! लेकिन छोटे मालिकों और दुकानदारों के बारे में सरकारी और ग़ैर-सरकारी आँकड़ों के बारे में आप चुप हैं! सभी आँकड़े साफ तौर पर बताते हैं कि सभी दुकानों, व्यापारों और छोटे उद्यमों में श्रम कानूनों का सबसे बर्बर और नग्न उल्लंघन होता है और इन टटपुंजिया वर्गों की पूरी सम्पत्ति का आधार मज़दूरों के हक़ों की हिफाज़त करने वाले सभी कानूनों का उल्लंघन है। जाहिर है, केजरीवाल की पार्टी वास्तव में खाते-पीते मध्यवर्ग की पार्टी है। इस वर्ग में दुकानदारों, व्यापारियों, दलालों और छोटे मालिकों का पूरा तबका शामिल है। केजरीवाल ने अपनी पार्टी के घोषणापत्र में स्वयं ही लिख दिया है कि उनकी पार्टी के नेता मध्यवर्गीय जीवन बिताएँगे! इससे ज़्यादा साफगोई की उम्मीद नहीं की जा सकती थी। स्पष्ट तौर पर, केजरीवाल टटपुंजिया वर्गों की नुमाइन्दगी करते हैं। ऐसे वर्ग हमेशा इंक़लाब करने की दिक्कतों और जोखिम को उठाने की बजाय किसी साफ-सुथरे पूँजीवाद, साफ-सुथरे नेताओं, साफ-सुथरे नौकरशाहों का सपना देखते हैं, जो वास्तव में कभी पूरा नहीं हो सकता। और इन्हीं वर्गों के इस विभ्रम का इस्तेमाल करने वाली केजरीवाल की राजनीति समूची पूँजीवादी व्यवस्था के खिलाफ नहीं खड़ी है, बल्कि एक भ्रष्टाचार-मुक्त पूँजीवाद की बात करती है। ऐसे में, निश्चित तौर पर, केजरीवाल कोई विकल्प नहीं बन सकते हैं। इस बात का हम बस इन्तज़ार कर सकते हैं कि 2014 के चुनावों में केजरीवाल और उनकी वानर सेना का क्या होता है!

दूसरा सवाल यह है कि क्या केजरीवाल वाकई भ्रष्टाचार के सभी रूपों के खि़लाफ हैं? अगर ग़ौर से देखें तो ऐसा लगता नहीं है। जब से केजरीवाल और उनकी वानर सेना भ्रष्टाचार की लंका फतह करने के लिए मीडिया के मैदान में उतरी है, तब से देश में तमाम जुझारू मज़दूर आन्दोलन हो चुके हैं। ये सभी आन्दोलन जायज़ और कानूनी माँगों को लेकर किये जा रहे थे। इन आन्दोलनों का बर्बर दमन किया गया। मारुति के मज़दूर क्या माँग रहे थे? वे महज़ यूनियन बनाने का अधिकार माँग रहे थे जो कि उनका कानूनसम्मत और संविधान-प्रदत्त अधिकार है। लेकिन पूरे पूँजीपति वर्ग ने हरियाणा राज्य सरकार और केन्द्रीय सरकार के साथ मिलकर उनका दमन किया। पहले मारुति के कारखाने में सुनियोजित ढंग से हिंसा करायी गयी और उसके बाद मज़दूरों के खिलाफ पहले आतंकराज कायम किया गया, पुलिस हिरासत में गिरफ्तार मज़दूरों को बर्बर यातनाएँ दी गयीं और बाद में अच्छी-ख़ासी संख्या में उन्हें निकाल बाहर किया गया। लेकिन इस अन्याय के खि़लाफ न तो अण्णा हज़ारे और उनके चेले-चपाटियों ने एक भी बयान देना ज़रूरी समझा और न ही अरविन्द केजरीवाल और उनकी वानर सेना ने इस पर चूँ तक की! क्यों? क्या मारुति सुजुकी द्वारा श्रम कानूनों का उल्लंघन भ्रष्टाचार नहीं है? भट्टा पारसौल के किसानों से जबरन ज़मीनें छीनने का प्रयास किया गया, उन पर लाठियाँ-गोलियाँ बरसायी गयीं, जो कि सीधे-सीधे सत्ता की तानाशाही थी और किसी भी कानून के खि़लाफ था। यह भी तो भ्रष्टाचार था। तब अरविन्द केजरीवाल और उनकी वानर सेना कहाँ थी? जब दक्षिण भारत में यनम के मज़दूरों का दमन किया जा रहा था जो कि अपनी जायज़ माँगों को लेकर लड़ रहे थे, तब अरविन्द केजरीवाल को भ्रष्टाचार की याद नहीं आयी। जब तिरुपुर के मज़दूर जीने के लिए बुनियादी ज़रूरतों के छीन लिये जाने के कारण आत्महत्याएँ कर रहे थे, तब अरविन्द केजरीवाल ग़ायब रहे। ऐसे मसलों की गिनती करने में दर्जनों पन्ने काले किये जा सकते हैं। लेकिन एक बात साफ हैअरविन्द केजरीवाल का भ्रष्टाचार-विरोधी तमाशा मज़दूर वर्ग के खि़लाफ हो रहे पूँजीवादी भ्रष्टाचार के प्रति षड्यन्त्रकारी चुप्पी ओढ़े हुए है। वह बस उस भ्रष्टाचार पर शोर मचाता है, जहाँ पूँजीपति वर्ग के ही दो हिस्सों के बीच मुनाफे/लूट के माल में हिस्सेदारी को लेकर मारामारी है-एक ओर मालिक वर्ग और उपभोक्ता वर्ग (यानी शहरी और ग्रामीण उच्च मध्य वर्ग) और दूसरी ओर नेता-नौकरशाह वर्ग! जिस भ्रष्टाचार के खि़लाफ लड़ने की अरविन्द केजरीवाल बात कर रहे हैं, वह अव्वलन तो इस व्यवस्था के भीतर ख़त्म हो ही नहीं सकता, और अगर ख़त्म हो भी गया तो इससे देश की आम मेहनतकश आबादी को कुछ भी नहीं मिलेगा। इससे केवल दो वर्गों को लाभ होगा-पहला, देश का कारपोरेट मालिक वर्ग और दूसरा देश का खाता-पीता उच्च मध्य वर्ग। यही दोनों केजरीवाल के अभियान के सबसे महत्वपूर्ण समर्थक वर्ग हैं। इसके अतिरिक्त, निम्न मध्यवर्ग भी भ्रष्टाचारी पूँजीपति वर्ग के खि़लाफ अपने गुस्से के कारण इस अभियान की भीड़ में शामिल हो जाता है। लेकिन यह उसकी छद्म चेतना के कारण होता है। उसे भी अरविन्द केजरीवाल के तमाशे के अन्त में बताशे भी नहीं मिलने वाले!

तीसरा महत्वपूर्ण सवाल! अरविन्द केजरीवाल, मनीष सिसोदिया जैसे ‘इण्डिया अगेंस्ट करप्शन’ के लोग मुख्य रूप से एन.जी.ओ. चलाने वाले बड़े खिलाड़ी हैं। हाल में हुए खुलासों से पता चला है कि इनके एन.जी.ओ. को पैसा देने वाली दाता एजेंसियों में फोर्ड फाउण्डेशन, एक्शन एड, रैण्ड कारपोरेशन आदि जैसी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा चलायी जाने वाली संस्थाएँ हैं। केजरीवाल के ही एन.जी.ओ. को इन साम्राज्यवादी एजेंसियों से मिलने वाला चन्दा कई करोड़ रुपयों का है! क्या केजरीवाल को पता नहीं है कि ये साम्राज्यवादी एजेंसियाँ वही हैं जिन्होंने भारत और भारत जैसे तमाम देशों की जनता को लूट-खसोटकर अपना मुनाफे का साम्राज्य पैदा किया है? क्या केजरीवाल को पता नहीं है कि इन एजेंसियों को पैसा देने वाली वे कम्पनियाँ भी हैं, जिनके कारण 50 पैसे की लागत से बनने वाली जीवन-रक्षक दवाइयाँ भारत में कई सौ रुपयों में बिकती हैं, जिनके कारण ग़रीब सड़कों पर तड़प-तड़पकर मरते हैं? केजरीवाल जैसों को क्या यह मालूम नहीं है कि इन साम्राज्यवादी एजेंसियों ने कई लातिन अमेरिकी और अफ्रीकी देशों में जनता द्वारा लोकतान्त्रिक रूप से चुनी गयी सत्ताओं का खूनी तख्तापलट करवाने के लिए अमेरिका के टट्टू सेना जनरलों को अकूत धन और हथियार मुहैया कराये, ताकि अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी और फ्रांस जैसे देशों के साम्राज्यवादी हितों को कोई नुकसान न पहुँचे? निश्चित तौर पर, केजरीवाल इतने मूर्ख और अज्ञानी नहीं होंगे कि उन्हें यह पता न हो। लेकिन फिर भी इन्हीं साम्राज्यवादी एजेंसियों के फेंके हड्डी के टुकड़ों पर श्रीमान सुथरा यानी अरविन्द केजरीवाल की पूरी राजनीति चलती है! इसी से काफी-कुछ पता चलता है।

अरविन्द केजरीवाल के “आन्दोलन” को जिन वर्गों का समर्थन प्राप्त है, उनमें से सबसे महत्वपूर्ण है शहरी उच्च मध्यवर्ग। यह वह वर्ग है जो पूँजीवादी व्यवस्था के लिए सबसे अहम उपभोक्ता वर्ग है। 22 वर्षों की नवउदारवादी नीतियों ने इस वर्ग को काफी-कुछ दिया है। दुनिया भर के ब्राण्ड इस वर्ग की पहुँच में हैं। इस वर्ग ने पश्चिमी आधुनिकता का स्वाद चखा है लेकिन इसने अपनी अन्धराष्ट्रवादी (अक्सर धार्मिक कट्टरपंथ के साथ) सोच को बनाये रखा है। यह वह वर्ग है जो हॉलीवुड की फिल्मों में दिखायी जाने वाली दुनिया चाहता हैसाफ-सुथरे पार्क, चमकते शॉपिंग मॉल, नागरिकों की सेवा करने वाली पुलिस और नौकरशाही (जाहिर है कि उसके लिए नागरिक का अर्थ उपभोक्ता है!), बढ़िया स्कूल और कॉलेज, सुपर-स्पेशियैलिटी अस्पताल, एक सैन्य रूप से शक्तिशाली देश, सशक्त उच्च मध्य वर्ग आदि। यह एक विशिष्ट और निश्चित छवि है, जिसकी आकांक्षा इस उच्च मध्यवर्ग को है। उसके पास आर्थिक शक्ति आयी है और अब वह कुछ राजनीतिक शक्ति चाहता है। केजरीवाल का “आन्दोलन” उसे आकर्षित करता है क्योंकि वह एक ऐसी ही पूँजीवादी व्यवस्था का सपना उसे दिखाता है, जो भ्रष्टाचार-मुक्त होगा, साथ-सुथरा होगा, जिसमें हर चीज़ सलीके से चलेगी, कुछ गड़बड़ नहीं होगा! एक अहम बात यह भी है कि देश के मेहनतकश वर्गों को अगर इतनी ही सुविधाएँ और अधिकार न मिले तो उसे कोई दिक्कत नहीं है। उसके लिए ये अक्षम और कामचोर लोग हैं और व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जिसमें योग्यता और ‘मेरिट’ की पूछ हो! किसी भी किस्म के कल्याणवाद का यह वर्ग समर्थन नहीं करता। अपने वर्ग स्वभाव से वह नवउदारवादी बाज़ार पूँजीवाद का समर्थक है, बशर्ते कि वह भ्रष्टाचार-मुक्त हो!

पहले इस वर्ग का समर्थन भाजपा को प्राप्त था। भाजपा को दुकानदारों और छोटे उद्यमियों की पार्टी कहा जाता था। शुरुआती दौर में, भाजपा ने अपने भ्रष्टाचार-मुक्त होने की एक छवि बनाने पर काफी ज़ोर दिया था। लेकिन पहली बार सत्ता में आते ही भाजपा के नेता-मन्त्री ऐसे हवसी हुए कि भ्रष्टाचार के सारे रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिये! भाजपा के सत्ता में आते ही यह भी साफ हो गया कि आज के दौर में कोई भी चुनावी पार्टी स्वदेशी और छोटी पूँजी का राग तब तक ही अलाप सकती है, जब तक वह सत्ता में नहीं आयी है और उसे वोटों की ज़रूरत है। जैसे ही वह सत्ता में आयेगी उसे बड़ी पूँजी, देशी-विदेशी कारपोरेट घरानों के हितों की ही सेवा करनी होगी। भाजपा को भी यही करना था और उसने यही किया। बड़ी पूँजी के चाकर और अव्वल दर्जे के लोभी और भ्रष्टाचारी होने के खुलासे के साथ ही भाजपा ने उच्च मध्य वर्ग और विशेषकर हिन्दू उच्च मध्य वर्ग का समर्थन खोना शुरू कर दिया। भाजपा के लिए आज का संकट भी यही है। वह जो कुछ कर सकती है, कांग्रेस वह सबकुछ उससे बेहतर कर रही है। स्वदेशी, हिन्दू राष्ट्र, मन्दिर, छोटी पूँजी आदि की हिमायत करने के पत्ते वह पहले ही फेंक चुकी है, और जब तक भारतीय राजनीति की ताश की गड्डी दुबारा फेंटी नहीं जाती, तब तक वह फिर से इन पत्तों का इस्तेमाल नहीं कर सकती। कहने का अर्थ है कि आने वाले लम्बे समय तक भाजपा अपने पुराने पारम्परिक मुद्दों के जरिये अपने बूते सत्ता में नहीं आ सकती। ऐसे में, उच्च मध्य वर्ग के सामने राजनीतिक विकल्प की जो ख़ाली जगह थी उसे केजरीवाल और उनकी वानर सेना ने भरा है। वास्तव में, केजरीवाल के राजनीतिक जुमलों और प्रतीकों में काफी कुछ ऐसा है जिसकी हिन्दुत्व ब्रिगेड के जुमलों और प्रतीकों से तुलना की जा सकती है। और केजरीवाल पर अक्सर यह आरोप भी लगते रहे हैं कि वह भाजपा और संघ के प्रति झुकाव रखते हैं। उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि भी कुछ ऐसी ही है। ऐसे में आरोप सामने आये हैं जिनके अनुसार केजरीवाल हिन्दुत्व ब्रिगेड के उन रणनीतिकारों के इशारों पर काम कर रहे हैं जो सीधे तौर पर भाजपा से नहीं जुड़े हैं, जैसे कि गोविन्दाचार्य आदि।

वास्तव में, केजरीवाल के उभार को एक और दृष्टि से भी देखा जा सकता है। इस समय भारतीय पूँजीवादी राजनीति में विकल्प का संकट भयंकर हदों तक गहरा चुका है। पूरा का पूरा चुनावी राजनीतिक वर्ग भ्रष्टाचार के सभी कीर्तिमान ध्वस्त कर चुका है। पूँजीवादी व्यवस्था के पहरेदार और उसके हितों की रखवाली करने वाले दूरदर्शी चिन्तक इस बात को समझ रहे हैं कि राजनीतिक वर्ग का इस कदर नंगा होना किसी भी रूप में व्यवस्था की सेहत के लिए अच्छा नहीं है। ऐसे में, पूँजीवादी व्यवस्था अपनी नैसर्गिक गति से किसी ऐसी ताक़त को जन्म देती है जो कि व्यवस्था के प्रति जनता की नफरत और गुस्से को एक नकली दुश्मन देता है, जिस पर कि वह अपने गुस्से को निकाल सके। आज के समय में यह नकली शत्रु है भ्रष्टाचार। जनता पूरी व्यवस्था के खि़लाफ ही न उठ खड़ी हो, वह मुनाफे की लूट के तन्त्र के खिलाफ ही न सोचने लगे इसके लिए उसे एक अवास्तविक निशाना दिया जाता है, एक कल्पित शत्रु दिया जाता है, एक प्रकार का पुतला, जिस पर लात-घूँसे बरसाकर वह अपनी भड़ाँस निकालती है। पूँजीवादी व्यवस्था के थिंक टैंक’ समझते हैं कि भड़ाँस निकलना बहुत ज़रूरी है। इसीलिए जब भारतीय पूँजीवादी राजनीति जब-जब संकट का शिकार हुई है तो कुछ ऐसे चरित्र दृश्यपटल पर अवतरित हुए हैं, जिन्होंने कोई वास्तविक परिवर्तन का काम नहीं किया, बल्कि वास्तविक परिवर्तन न हो सके इसलिए परिवर्तन के कुछ भारी-भरकम जुमले दिये, जैसे कि ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’, ‘नयी आज़ादी’, ‘दूसरी आज़ादी’, आदि। विनोबा भावे, जयप्रकाश नारायण, अण्णा हज़ारे और अब केजरीवाल ऐसे ही चरित्र हैं। केजरीवाल आज भारतीय पूँजीवाद की ज़रूरत हैं। यह एक दीगर बात है कि आज के राजनीतिक संकट के दौर में भारतीय पूँजीवाद को कोई जयप्रकाश नारायण जैसा कुशल पूँजीवादी राजनीतिज्ञ नहीं मिला। इसीलिए केजरीवाल और उनकी वानर सेना जितनी तेज़ी से मीडिया में अवतरित हुई, उतनी ही तेज़ी से अन्तर्धान भी हो जायेगी। 2014 के चुनाव इस मायने में निर्णायक होंगे।

अन्त में, कहा जा सकता है कि जो भी ताक़त महज़ भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाती है, मुनाफे पर टिकी पूरी पूँजीवादी व्यवस्था को नहीं, वह जनता को धोखा दे रही है। भ्रष्टाचार-मुक्त पूँजीवाद एक मध्यवर्गीय भ्रम है। पूँजीवाद वैसा ही हो सकता है जैसा कि वह है। केजरीवाल और अण्णा हज़ारे जैसे लोगों का काम जाने-अनजाने इसी पूँजीवादी व्यवस्था की उम्र को लम्बा करना है। इसके लिए वह भ्रष्टाचार को एकमात्र समस्या के रूप में और भ्रष्टाचार के किसी कानून के जरिये या “ईमानदार” पार्टी के सत्ता में आने के जरिये ख़ात्मे को सभी दिक्कतों के समाधान के रूप में पेश करते हैं। भ्रष्टाचार का अपने आपमें कोई अर्थ नहीं है, ठीक वैसे ही जैसे मानवाधिकारों, तानाशाही, आतंकवाद आदि जैसी श्रेणियों का अपने आपमें कोई अर्थ नहीं हैं। ये खोखले शब्द हैं और अपने आपमें ये कुछ भी नहीं बताते जब तक कि इनके साथ कोई विशेषण नहीं लगता। भ्रष्टाचार को एकमात्र समस्या के तौर पर पेश करना हमारे समाज में मौजूद असली आर्थिक लूट और सामाजिक अन्याय को छिपाता है और ‘सुशासन’ को एकमात्र मसला बना देता है। यह इस प्रश्न को छिपा देता है कि सुशासन किसके द्वारा और किसके लिए? भ्रष्टाचार को एकमात्र समस्या बताना या सभी समस्याओं की जड़ बताना असली प्रश्नों पर पर्दा डाल देना है और गुस्से और घृणा से भरी जनता को एक आसान-सा दुश्मन दे देना है, जो कि वास्तव में नकली है, आभासी है। केजरीवाल की नौटंकी आज इसी काम को अंजाम दे रही है। सभी परिवर्तनकामी नौजवानों को आज यह समझना चाहिए कि जिन दिक्कतों का सामना हमारे देश की आम मेहनतकश जनता कर रही है उसके मूल में भ्रष्टाचार नहीं है, बल्कि निजी मालिकाने और मुनाफे पर टिकी समूची पूँजीवादी व्यवस्था है। भ्रष्टाचार महज़ लक्षण है, मूल रोग तो पूँजीवाद है।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-दिसम्‍बर 2012

 

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