वर्तमान सरकार उच्च शिक्षा को विश्व व्यापार संगठन में शामिल करने के लिए प्रतिबद्ध है। दिसम्बर 2015 के दोहा बैठक में उच्च शिक्षा को गैट (जनरल एग्रीमेण्ट ऑन ट्रेड) के तहत लाने का प्रस्ताव था। भारत सरकार ने इस मुद्दे पर दोहा सम्मलेन में कोई विरोध दर्ज नहीं किया और न ही इसको चर्चा के लिए खोला। इससे यह स्पष्ट है कि भारत सरकार उच्च शिक्षा में डब्ल्यूटीओ के समझौते को लाने वाली है। एक बार अगर उच्च शिक्षा को इस समझौते के तहत लाया जाता है तो न तो सरकार किसी भी सरकारी विश्वविद्यालय को कोई अनुदान देगी और न ही शिक्षा से सम्बन्धित अधिकार संविधान के दायरे में होंगे। क्योंकि किसी भी देश के लिए जो डब्ल्यूटीओ और गैट्स पर हस्ताक्षर करता है उसके लिए इसके प्रावधान बाध्यताकारी होते हैं। इससे देश में रहा-सहा उच्च शिक्षा का ढाँचा भी तबाह हो जायेगा और यह इतना महँगा हो जायेगा कि देश की ग़रीब जनता की बात तो दूर मध्यवर्ग के एक ठीक-ठाक हिस्से के लिए भी यह दूर की कौड़ी होगा। एमिटी यूनिवर्सिटी, लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी और शारदा यूनिवर्सिटी तथा अन्य निजी शिक्षा संस्थानों की फीस आज भी सामान्य पाठ्क्रमों के लिए 50,000 से 1,00,000 रुपये प्रति सेमेस्टर है। अगर यह समझौता उच्च शिक्षा में लागू होता है तो जहाँ एक और देशी-विदेशी पूँजीपतियों के लिए शिक्षा से मुनाफा वसूलने की बेलगाम छूट मिल जायेगी वहीं जनता से भी शिक्षा का मौलिक अधिकार छिन जायेगा। जिस तरह से आज सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा के बाद निजी अस्पतालों का मुनाफा लोगों की ज़िन्दगी की कीमतों पर फल रहा है उसी तरह शिक्षा के रहे-सहे ढाँचे में जो थोड़ी बहुत ग़रीब आबादी आम घरों से पहुँच रही है वह भी बन्द हो जायेगी। इस प्रकार यह पूरी नीति हमारे बच्चों से न सिर्फ़ उनके पढ़ने का अधिकार छीन लेगी वरन उनसे सोचने, सपने देखने का हक भी छीनेगी।