कार्टून, पाठ्यपुस्तकें और भयाक्रान्त भारतीय शासक वर्ग
सम्पादकीय
कुछ माह पहले पश्चिम बंगाल की मुख्यमन्त्री ममता बनर्जी ने एक विश्वविद्यालय शिक्षक को इसलिए सलाखों के पीछे पहुँचा दिया था कि उसने मुख्यमन्त्री महोदया का एक कार्टून किसी को ईमेल कर दिया था। इसके बाद 11वीं कक्षा की एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा प्रकाशित राजनीति विज्ञान की पाठ्यपुस्तक में नेहरू और अम्बेडकर के कार्टून पर जो विवाद उठा उसके फलस्वरूप उक्त पुस्तक को ही पठन-पाठन से निषिद्ध कर दिया गया। 11 मई को बसपा सुप्रीमो मायावती ने संसद में अम्बेडकर के कार्टून पर आपत्ति दर्ज करायी। इसके बाद देश के सभी चुनावी और ग़ैर-चुनावी अम्बेडकरवादी संगठनों और दलित अस्मिता की राजनीति करने वाले संगठनों ने इस मामले को लपक लिया। इनका कहना था कि दलित मुक्ति के मसीहा अम्बेडकर पर कार्टून दलित अस्मिता का अपमान है! वास्तव में, अम्बेडकर के व्यक्तित्व, विचार, दर्शन, अर्थशास्त्र या संगठन के बारे में कोई भी आलोचनात्मक विचार रखने को दलित अस्मिता का मुद्दा बनाना कोई नयी बात नहीं है। सरकार और विपक्ष समेत पूरी संसद इस मुद्दे पर एक होकर हंगामा कर रही थी। समझ में नहीं आ रहा था कि ये सारे महानुभाव यह सारा विरोध कर किसके खि़लाफ़ रहे थे! बहरहाल, 14 मई को शिक्षाविद् सुहास पल्शीकर और समाजशास्त्री योगेन्द्र यादव के निर्देशन में तैयार हुई इस पाठ्यपुस्तक को स्कूलों के पाठ्यक्रम से बाहर कर दिया गया। योगेन्द्र यादव और सुहास पल्शीकर ने इस्तीफ़ा दे दिया। इसके बाद दलित हितों की नुमाइन्दगी का दावा करने वाले एक ग़ैर-चुनावी संगठन रिपब्लिकन पैन्थर्स ने पल्शीकर पर हमला भी किया। वस्तुतः, विभिन्न किस्म के धार्मिक कट्टरपन्थों के समान एक अम्बेडकरवादी कट्टरपन्थ भी पैदा हुआ है, जो किसी भी किस्म की आलोचना, विरोध या टिप्पणी के प्रति उतना ही असहिष्णु है जितना कि संघी हिन्दुत्व या तालिबानी इस्लामी कट्टरपन्थ है। लेकिन यह एक अलग चर्चा का मुद्दा है और हमारी मंशा यहाँ कुछ अन्य चीज़ों को स्पष्ट करना है।
सरकार ने इसके बाद सभी पाठ्यपुस्तकों की समीक्षा करने के लिए “विशेषज्ञों” की एक समिति नियुक्त कर दी। जुलाई के पहले सप्ताह में उक्त समिति ने अपनी सिफ़ारिशें पेश कीं। इन सिफ़ारिशों के अनुसार सभी स्कूली पाठ्यपुस्तकों से कार्टून, चित्र, लेख आदि समेत ऐसी सारी सामग्रियों को हटा दिया जायेगा जिसमें कि सरकार, राजनीतिक नेताओं, नौकरशाही या व्यवस्था के प्रति कोई आलोचनात्मक टिप्पणी या नज़रिया अन्तर्निहित हो। अगर इस समिति की सिफ़ारिशें लागू हो जाती हैं, जिसकी कि ज़्यादा उम्मीद है, तो स्कूलों के पाठ्यक्रम में बच्चों को जितनी आलोचनात्मक दृष्टि मिल पाती थी वह भी नहीं मिल पायेगी। 2005 में संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान एक नया ‘नेशनल फ्रेमवर्क फॉर करिकुलम’ बनाया गया था, जो कि 2000 में भाजपा-नीत राजग सरकार द्वारा बनाये गये ‘नेशनल फ्रेमवर्क फॉर करिकुलम’ (जिसे कि बिड़ला-अम्बानी रिपोर्ट के नाम से भी जाना जाता है) को रद्द करता था। यह एक सकारात्मक कदम था क्योंकि राजग सरकार के कार्यकाल में बने फ्रेमवर्क का चरित्र निहायत ग़रीब-विरोधी, दलित-विरोधी और स्त्री-विरोधी था। नया फ्रेमवर्क कई प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्रियों, समाजशास्त्रियों और इतिहासकारों के निर्देशन में बना था। यह नया फ्रेमवर्क शिक्षा में आलोचनात्मकता के पहलू को बढ़ाने की बात करता था। इसी फ्रेमवर्क के तहत एन.सी.ई.आर.टी. ने नयी पाठ्यपुस्तकों को तैयार किया। ये पाठ्यपुस्तकें बुज़ुर्आ सुधारवाद, बुज़ुर्आ प्रबोधन की तार्किकता और अस्मितावादी राजनीति के जुमलों से भरी हुईं थीं। लेकिन इतना ज़रूर था कि ये पहले की पाठ्यपुस्तकों के समान पूर्णतः अनालोचनात्मक नहीं थीं। ये शासक वर्ग, व्यवस्था और उसके निकायों के प्रति आलोचनात्मक बातें भी कहती थीं। वैसे तो इन पाठ्यपुस्तकों के हटाये जाने पर तमाम सुधारवादी और सामाजिक जनवादी बुद्धिजीवी काफ़ी छाती पीट रहे हैं मानो कि ये पाठ्यपुस्तकें क्रान्तिकारी और रैडिकल रही हों, लेकिन सच्चाई यह है कि ये पाठ्यपुस्तकें किन्हीं सामान्य राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय परिस्थितियों में व्यवस्था के वर्चस्व (हेजेमनी) को ज़्यादा बेहतर तरीके से स्थापित करती थीं। ये बच्चों के दिमाग़ में एक ऐसे प्रकार की आलोचनात्मकता का निर्माण करती थीं जिससे कि बच्चे ये मानें कि बुज़ुर्आ उदारवादी जनवाद और पूँजीवादी व्यवस्था में निश्चित तौर पर कमियाँ-कमज़ोरियाँ हैं, लेकिन इससे बेहतर व्यवस्था और कोई नहीं हो सकती; हमें करना यह चाहिए कि इसी व्यवस्था को अधिक से अधिक जवाबदेह, भागीदारीपूर्ण (पार्टिसिपेटरी), सामाजिक और आर्थिक रूप से अधिकतम सम्भव न्यायपूर्ण बनायें। अपने तमाम आलोचनात्मकता के दावों के बावजूद ये पाठ्यपुस्तकें यथास्थितिवादी ही थीं, यथास्थिति-विरोधी नहीं। हम प्रो. यशपाल, योगेन्द्र यादव और सुहास पल्शीकर आदि जैसे लोगों से इतनी ही उम्मीद कर सकते थे। बुज़ुर्आ प्रबोधन, स्वतन्त्रता, समानता, भ्रातृत्व और न्याय को ‘बुज़ुर्आ’ विशेषण के बिना इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। बुज़ुर्आ प्रबोधन तार्किक चयन करने वाले प्रतिस्पर्द्धी बुज़ुर्आ व्यक्ति (इण्डिविजुअल) का प्रबोधन बन गया; बुज़ुर्आ स्वतन्त्रता मुनाफ़ा कमाने और सम्पत्ति की स्वतन्त्रता बन गया; बुज़ुर्आ समानता का अर्थ बुज़ुर्आ न्याय के समक्ष औपचारिक समानता से अधिक कुछ नहीं रह गया; और बुज़ुर्आ भ्रातृत्व पूँजीपति वर्ग का भ्रातृत्व बनकर रह गया। लेकिन सुधारवादी और सामाजिक जनवादी शिक्षाशास्त्री और समाजशास्त्री पाठ्यपुस्तकों में इसे समस्त मनुष्यों के लिए प्रबोधन, समानता, स्वतन्त्रता, भ्रातृत्व और न्याय के रूप में पेश करते हैं। उनके लिए बुज़ुर्आ समानता, स्वतन्त्रता, भ्रातृत्व और न्याय प्राकृतिक समानता, स्वतन्त्रता, भ्रातृत्व और न्याय हैं। पूँजीवादी व्यवस्था इसी धोखे पर खड़ी होती है। लेकिन वास्तविकता में समानता, स्वतन्त्रता, भ्रातृत्व और न्याय की ये बातें खोखली साबित होती हैं क्योंकि वास्तविकता में पूँजीवादी समाज मुनाफ़ाखोरी, लोभ, लालच, अपराध और भ्रष्टाचार को जन्म देता है। निजी सम्पत्ति और मुनाफ़े के तर्क से संचालित कोई भी व्यवस्था नैसर्गिक रूप में यही चीज़ें पैदा कर सकती है।
इस विसंगति के प्रति बुज़ुर्आ शिक्षा व्यवस्था दो प्रकार से प्रतिक्रिया देती है। पहले किस्म की प्रतिक्रिया है सच्चाई से इंकार या उसका निर्लज्ज खण्डन। पहले की भारतीय शिक्षा व्यवस्था यही करती थी। मिसाल के तौर पर अर्थशास्त्र में पढ़ाया जाता था कि तीन प्रकार की अर्थव्यवस्थाएँ होती हैं – पूँजीवादी, समाजवादी और मिश्रित; उसके बाद बताया जाता था कि पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की अमुक ख़ामियाँ और अमुक फ़ायदे हैं, समाजवादी अर्थव्यवस्था की अमुक ख़ामियाँ और अमुक फ़ायदे हैं; और अन्त में मिश्रित अर्थव्यवस्था के बारे में बताया जाता था कि इसमें समाजवादी अर्थव्यवस्था के भी फ़ायदे हैं और पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के भी फ़ायदे हैं, और इसमें ख़ामियाँ कोई नहीं हैं, क्योंकि इसे पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने अपनाया था! यह पहले की शिक्षा व्यवस्था का एक उदाहरण था जो कि अर्थव्यवस्था, राजनीति और समाज की सच्चाइयों से सीधे इंकार कर देता था। बाद में शासक वर्ग को समझ में आया कि ऐसी शिक्षा व्यवस्था जो कि पूरी व्यवस्था के बारे में कुछ भी नकारात्मक नहीं बताती और सबकुछ सकारात्मक बताती है, वह ज़्यादा प्रभावी नहीं है। कारण यह कि छात्र जैसे-जैसे बड़ा होता है, उसके लिए पाठ्यपुस्तकों की सामग्री मज़ाक का मुद्दा बन जाती है क्योंकि वह अपने अनुभव से जानता है कि पाठ्यपुस्तकों में बतायी गयी चीज़ें बिल्कुल ग़लत हैं। वह इन्हें बस परीक्षा देने तक याद रखता था और फिर भूल जाता था। इसलिए बाद में शिक्षा व्यवस्था में कुछ बदलाव किये गये। इन बदलावों का मकसद था व्यवस्था के बारे में कुछ सच्चाइयों को बताना। नयी शिक्षा व्यवस्था में “आलोचनात्मक” शिक्षा के नाम पर यह बताया जाने लगा कि व्यवस्था बेदाग़ या कमियों से परे नहीं है। इस व्यवस्था में कई दिक्कतें हैं। जाति व्यवस्था, स्त्री-पुरुष असमानता, ग़रीबी, बेरोज़गारी आदि के बारे में बताया जाने लगा। लेकिन इन चीज़ों के बारे में यह नहीं बताया गया कि ये मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था की नैसर्गिक और स्वाभाविक पैदावार हैं; यह नहीं बताया गया कि यह व्यवस्था इन चीज़ों के अलावा जनता को और कुछ दे भी नहीं सकती है। इन दिक्कतों को उदार बुज़ुर्आ पूँजीवादी जनवाद के एक नॉर्मेटिव प्रोटोटाइप का विचलन (एबरेशन) बताया जाता है। इस नयी शिक्षा व्यवस्था में हमें बताया जाता है कि उदार बुज़ुर्आ जनवाद के उस नॉर्मेटिव प्रोटोटाइप को प्राप्त किया जा सकता है, जो कि शुद्ध है, उत्कृष्ट है, नैसर्गिक है, न्यायपूर्ण है, आदर्श है। यही वांछित व्यवस्था है; इसी की आवश्यकता है। अन्य सभी व्यवस्थाएँ (वास्तव में उनका मतलब सिर्फ समाजवाद से ही होता है) सर्वसत्तावादी और जनवाद-विरोधी साबित हो चुकी हैं। इसलिए उदार बुज़ुर्आ जनवाद के इस नॉर्मेटिव प्रोटोटाइप का जो अशुद्ध संस्करण मौजूद है, उसे ही बेहतर बनाना हमारे सामने एकमात्र विकल्प है। वास्तव में, यह नतीजा वही है, जो कि फ्रांसिस फुकोयामा का नतीजा था। बस कहने का अन्दाज़ अलग है।
जिन पाठ्यपुस्तकों को अभी पाठ्यक्रम से हटाया गया है, वे पाठ्यपुस्तकें वास्तव में यही सन्देश छात्रों को देती हैं। वे मौजूदा व्यवस्था की कमियों-कमज़ोरियों पर पर्दा नहीं डालती हैं। वे बताती हैं कि आज देश में बेरोज़गारी है, ग़रीबी है, कुपोषण है, भुखमरी है, जातिगत और जेण्डरगत उत्पीड़न है, वग़ैरह-वग़ैरह। लेकिन इसका कारण यह है कि नॉर्मेटिव प्रोटोटाइप का अशुद्धियों से भरा हुआ संस्करण हमारे बीच मौजूद है। अगर उदार पूँजीवादी जनवाद को सटीकता के साथ लागू किया जा सके तो यही सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था है। साथ ही, अनकहे तौर पर यह सन्देश भी होता है कि अपनी तमाम अशुद्धियों में भी यही व्यवस्था सर्वाधिक वांछित है क्योंकि अन्य कोई भी व्यवस्था ग़ैर-जनवादी, तानाशाहीपूर्ण, और उत्पीड़नकारी होगी। ये पुस्तकें हमें बताती हैं कि ‘देखिये यह व्यवस्था आपको विरोध का ‘स्पेस’ देती है!’ इसलिए आप उत्पीड़न और शोषण झेलने के बाद कम-से-कम कह तो सकते हैं कि आपका शोषण और उत्पीड़न हुआ; यहाँ तक कि यह व्यवस्था आपको इस शोषण-उत्पीड़न के खि़लाफ़ जन्तर-मन्तर जैसी जगहों पर थोड़ा ‘जिन्दाबाद-मुर्दाबाद’ भी करने की इजाज़त देती है! (अब यह दीगर बात है कि जैसे ही आप का यह प्रतिरोध एक व्यवस्था-विरोधी प्रबल आन्दोलन का रूप ग्रहण करता है, तो आप अचानक राष्ट्रद्रोही, राज्य के दुश्मन घोषित कर दिये जाते हैं और फिर आपको यू.ए.पी.ए., पोटा, टाडा, मकोका जैसे अतियथार्थवादी रूप में “जनवादी” व़फ़ानूनों के तहत भीतर कर दिया जाता है!) बहरहाल, इन पाठ्यपुस्तकों का लुब्बेलुबाब यह है कि उदार पूँजीवादी जनवाद अपनी सभी कमियों के साथ भी वह सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था है जिसकी आज मानवता उम्मीद कर सकती है, हालाँकि इसमें कई विचलन, अशुद्धियाँ आदि मौजूद हैं। इसलिए एक छात्र को क्या करना चाहिए? उसे एक बेहतर नागरिक बनना चाहिए; संविधान में विश्वास रखना चाहिए; देश की कानून-व्यवस्था में विश्वास करना चाहिए; उसे न्याय के लिए संघर्ष तो करना चाहिए, लेकिन विद्रोह नहीं करना चाहिए! यह संघर्ष उसे कोर्ट-कचहरी, नियम-कायदे में रहते हुए करना चाहिए! क्योंकि जो लोग आज इस व्यवस्था से ही बाहर जाने की बात करते हैं, वे अन्त में तानाशाही की व्यवस्था स्थापित कर देंगे; या फिर वे भटके हुए लोग हैं, अराजकतावादी हैं, वग़ैरह! एक छात्र को एक “जिम्मेदार” नागरिक के तौर पर विकसित होना चाहिए और इसी व्यवस्था को अधिक से अधिक जवाबदेहीपूर्ण, भागीदारीपूर्ण और सामाजिक और आर्थिक रूप से न्यायपूर्ण बनाने का प्रयास करना चाहिए। वास्तव में, इन पाठ्यपुस्तकों की राजनीति तमाम “आलोचनात्मकता” के बावजूद एक अधिक वर्चस्वकारी, सुधारवादी, “कल्याणवादी”, कहीं-कहीं सामाजिक जनवादी, अस्मितावादी राजनीति है। यह वर्तमान “मानवतावादी” साम्राज्यवादी एजेंसियों के भागीदारीपूर्ण लोकतन्त्र (पार्टिसिपेटरी डेमोक्रेसी), जवाबदेहीपूर्ण सरकार (एकाउण्टेबल गवर्नमेण्ट) और सामाजिक-आर्थिक न्याय (सोशियो-इकोनॉमिक जस्टिस) के उन्हीं जुमलों की चाशनी में भीगी हुई है, जिनका इस्तेमाल आज साम्राज्यवादी एजेंसियों के टुकड़ों पर पलने वाले एन.जी.ओ. जमकर करते हैं।
अब सवाल यह उठता है कि अगर मौजूदा पाठ्यपुस्तकें बुज़ुर्आ पूँजीवाद के वर्चस्व को ज़्यादा बेहतर तरीके से लागू करने का उपकरण शिक्षा व्यवस्था के क्षेत्र में मुहैया करा रही थीं, और पहले के कम वर्चस्वकारी और ज़्यादा प्रभुत्वकारी पाठ्यपुस्तकों से बेहतर थीं, तो उन्हें सरकार ने पाठ्यक्रम से क्यों हटाया?
इसका कारण समझने के लिए कुछ बातों को समझना ज़रूरी है। पहली बात तो यह है कि आज का दौर पूँजीवाद के लिए बेहद नाजुक है। 2006 से विश्व पूँजीवाद जिस भयंकर संकट में फँसा हुआ है, वह ख़त्म होने का नाम नहीं ले रहा है। अमेरिका में सबप्राइम संकट के रूप में 2006 में शुरू हुए संकट ने जल्द ही पूरी दुनिया के वित्तीय तन्त्र को अपनी गिरफ्ऱत में ले लिया। वित्तीय पूँजी के अभूतपूर्व प्रभुत्व के दौर में वित्तीय जगत में पैदा हुए संकट को वास्तविक अर्थव्यवस्था का संकट बनने में देर नहीं लगी। 2008 आते-आते इस संकट का गुरुत्व-केन्द्र पूर्व की ओर स्थानान्तरित होकर यूरोप जा पहुँचा था। सार्वभौम ऋण संकट के रूप में यूरोप का यह संकट अभी भी जारी है। और अब ऐसे स्पष्ट संकेत मिलने लगे हैं कि यह संकट अब तथाकथित ‘उभरती अर्थव्यवस्थाओं’ की ओर बढ़ चुका है। भारत में पिछले एक वर्ष से अर्थव्यवस्था की हालत लगातार गिरती जा रही है। हाल ही में, औद्योगिक वृद्धि दर अभूतपूर्व रूप से नीचे चली गयी। महँगाई, बढ़ती बेरोज़गारी दर, ग़रीबी और बेघरी का दबाव झेल रहे इन विकासशील देशों के लिए मन्दी का दबाव झेल पाना पश्चिमी उन्नत पूँजीवादी देशों के मुकाबले ज़्यादा कठिन साबित होगा। अगर इन देशों में मन्दी अपने पूरे प्रवाह के साथ आती है, तो इस आर्थिक संकट के राजनीतिक और सामाजिक फल शासक वर्ग के लिए ख़तरनाक हो सकते हैं।
ऐसे में इन देशों का शासक वर्ग डरा हुआ है। वह किसी भी किस्म के प्रतिरोध, विरोध और असहमति को कुचलने पर आमादा है। कहते हैं कि डरे हुए आदमी को रस्सी में भी साँप नज़र आती है। भारतीय शासक वर्ग की मानसिकता भी कमोबेश ऐसी ही है। मौजूदा पाठ्यपुस्तक व कार्टून विवाद और उसके बाद सरकारी पाठ्यपुस्तक समीक्षा समिति की यह सिफ़ारिश कि ऐसी सभी पुस्तकों, कार्टूनों आदि को प्रतिबन्धित कर दिया जाना चाहिए जिसमें राजनीतिक वर्ग, संविधान, सरकार, पुलिस-फ़ौज या नौकरशाही के प्रति कोई भी आलोचना या टिप्पणी हो, यही दिखला रही है कि भारतीय शासक वर्ग को हरेक आहट ख़तरे की आहट लग रही है। यह सच है कि जिन पाठ्यपुस्तकों को हटाया गया वे बुज़ुर्आ व्यवस्था के वर्चस्व की पूरी प्रणाली को ज़्यादा सुचारू रूप से शिक्षा के क्षेत्र में चलाने का काम करतीं। लेकिन आर्थिक और राजनीतिक संकटों के दौर में पूँजीपति वर्ग और उसकी व्यवस्था के वर्चस्वकारी उपकरण चरमरा जाते हैं। वैसे भारतीय शासक वर्गों का यह भय कि पाठ्यपुस्तकों में शासक वर्ग और उसकी व्यवस्था के प्रति व्यंग्यात्मकता या आलोचना प्रतिरोध को बढ़ावा दे सकती है, बिल्कुल आधारहीन भी नहीं है। वास्तविकता में आज देश की जनता पूरी पूँजीवादी व्यवस्था, पूँजीवादी पार्टियों और पूँजीपति वर्ग से मोहभंग की स्थिति में है। उसके अन्दर शासक वर्ग के प्रति ज़बर्दस्त गुस्सा भरा हुआ है। पिछले कुछ वर्षों में दमन, उत्पीड़न, शोषण, भ्रष्टाचार की घटनाओं के चलते यह शासक वर्ग और पूरी व्यवस्था बुरी तरह से बेनकाब हुए हैं। मज़दूर वर्ग का गुस्सा भी समय-समय पर फूट रहा है। पूरे देश में जगह-जगह पिछले 10 वर्षों में कई महत्वपूर्ण मज़दूर आन्दोलन हो चुके हैं। किसी भी छोटे मसले पर मेहनतकश वर्गों का गुस्सा सत्ता और उसके प्रतीकों के खि़लाफ़ फूट रहा है। ऐसे में, सत्ता में बैठे व्याभिचारी, भ्रष्टाचारी और लुटेरे पूँजीपति वर्ग के नुमाइन्दों के दिल में यह डर पनपना लाजिमी है।
मौजूदा राजनीतिक और आर्थिक संकट पूँजीवादी व्यवस्था के लिए उस स्पेस को लगातार सिकोड़ रहा है जिसमें वह प्रतिरोध और विरोध को अपने वर्चस्वकारी प्रणालियों द्वारा सहयोजित कर सकता है। पाठ्यपुस्तक विवाद में पहले की पाठ्यपुस्तकों की निन्दा और हाल में हटायी गयीं पाठ्यपुस्तकों की प्रशंसा से ज़्यादा अहम बात यह समझना है कि हटायी गयीं पाठ्यपुस्तकें भी कोई जनपक्षधर, क्रान्तिकारी, रैडिकल और समानतावादी नहीं थीं। बल्कि वे तो बुज़ुर्आ वर्ग के वर्चस्व को ज़्यादा चालाकी से बाल मस्तिष्कों में बिठाने का काम करने में सक्षम थीं। उन्हें इसलिए नहीं हटाया गया कि वे बच्चों के दिमाग़ में कोई क्रान्तिकारी आलोचनात्मकता पैदा करने वाली थीं, जैसा कि तमाम सुधारवादी, सामाजिक जनवादी और रैडिकल बुज़ुर्आ बुद्धिजीवी तमाम पत्र-पत्रिकाओं में लिख रहे हैं। उन्हें इसलिए हटाया गया कि ये पाठ्यपुस्तकें जिस प्रकार का वर्चस्वकारी उपकरण मुहैया करा रही थीं, उनका ‘ख़र्च’ उठा पाना मौजूदा राजनीतिक और आर्थिक संकट के दौर में पूँजीपति वर्ग के लिए सम्भव नहीं रह गया है। इस संकट के दौर में पूरी पूँजीवादी व्यवस्था के वर्चस्वकारी ढाँचे में दरारें पड़ रही हैं, उसकी वर्चस्वकारी प्रणालियाँ दुष्क्रियाशील (डिस्फंक्शनल) होती जा रही हैं और व्यवस्था वर्चस्व (हेजेमनी) से प्रभुत्व (डॉमिनेंस) की प्रणालियों के प्रयोग की तरफ़ आगे बढ़ रही है। इतिहास में यह उन्हीं दौरों में होता है जब कोई व्यवस्था अन्तकारी तौर पर संकटग्रस्त होती है। आज पूँजीवाद अन्तकारी तौर पर संकटग्रस्त है। इसके रोगों से इसे छुटकारा इसकी मृत्यु ही दिला सकती है। ज्यों-ज्यों यह व्यवस्था सहमति लेकर शासन करने और प्रतिरोध को सहयोजित करने की क्षमता खोती जायेगी, वैसे-वैसे इसका दमनकारी चरित्र और नंगा होता जायेगा। यह प्रक्रिया निकट भविष्य में पूरी होने वाली नहीं है और न ही निकट भविष्य में इसके अधिक से अधिक दमनकारी होते जा रहे चरित्र के खि़लाफ़ कोई देशव्यापी क्रान्तिकारी आन्दोलन खड़ा होने वाला है जो कि कोई आमूलगामी परिवर्तन ला सके। लेकिन यह भी सच है कि मौजूदा परिवर्तनों की दिशा यह संकेत कर रही है कि पूँजीवादी व्यवस्था मरणासन्न स्थिति में पहुँच चुकी है। यह अपनी आन्तरिक शक्ति के बूते नहीं बल्कि जड़त्व की शक्ति के बूते टिकी है; यह शक्तिशाली इसलिए दिख रही है कि आज जनता की ताकतें घुटनों के बल बैठी हैं।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2012
'आह्वान' की सदस्यता लें!
आर्थिक सहयोग भी करें!