मानवद्रोही-मुनाफ़ाखोर व्यवस्था का शिकार बनता मासूम बचपन
तूहिन
कहा जाता है कि बच्चे ही किसी समाज के भविष्य होते हैं यह बात बिल्कुल सच है परन्तु इस बात के दो मायने होते हैं कि (1) यदि बच्चों का भविष्य बेहतर होगा तो उस समाज का भविष्य बेहतर होगा और (2) यदि बच्चों का भविष्य संकट में होगा तो कुछ भी दावे किये जायें तरक्की या विकास के, उस देश का भविष्य अंधकारमय ही होगा।
आज भारत की जनसंख्या 1 अरब 21 करोड़ से अधिक है जिसमें से 18 वर्ष से कम आयु के बच्चों की संख्या लगभग 40 करोड़ है। हमारे देश की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का जो तानाबाना है उसमें बच्चों की कुल आबादी के केवल 5 प्रतिशत बच्चे ही बेहतर भविष्य को पाने के हकदार होते हैं। बाकी बच्चे किसी न किसी रूप में या स्थिति में अमीरों और उनके बच्चों की सेवा में सन्नद्ध होने को मज़बूर होते हैं। अमीरों के बच्चों के लिए अच्छे स्कूल, मनोरंजन के तमाम साधन, अच्छे से अच्छा खाना मौजूद होता है। छींक आते ही प्रतिष्ठित अस्पताल और डॉक्टर उनकी सेवा में तैनात हो जाते हैं, पुलिस, प्रशासन उनकी सेवा-सुरक्षा में तैनात दिखती है। और इनके बेहतर भविष्य का मार्ग पहले से ही तय रहता है। दूसरी ओर उन 36-38 करोड़ बच्चों की स्थिति की बात की जाये जो ग़रीब घरों में पैदा होते हैं। वे भी अपने माँ-बाप की तरह ही अभावग्रस्त जीवन जीने को मजबूर होते हैं। स्कूल तो वे देख ही नहीं पाते और जो जाते भी हैं वे नगर निगम के स्कूलों या प्राइमरी पाठशालाओं में ही जा पाते हैं। घर की स्थिति के कारण वे पढ़ाई बीच में ही छोड़ काम करने लगते हैं। ऐसे में सर्व शिक्षा अभियान भी बेमानी हो जाता है। खेल व मनोरंजन तो वे सपने में भी नहीं पाते हैं। देश के किसी भी कोने में चले जाइये वहाँ पर आपको होटलों-ढाबों, दुकानों, घरों, गैराजों, जरी, पटाखा, चूड़ी व कालीन के कारख़ानों में ग़रीबों के बच्चे अपने बचपन को ख़ाक में मिलाते दिख जायेंगे। सुबह 5 या 6 बजे से रात के 12-1 बजे तक 17-18 घण्टे काम के बदले उन्हें 10 से 50 रुपया साप्ताहिक मिलता है जबकि उनसे व्यस्कों के बराबर काम कराया जाता है। ये बच्चे इन मालिक-रूपी जोंकों के लिए सिक्का ढालने वाली मशीन भर होते हैं जिन्हें बदलने में भी कोई ख़र्च नहीं होता है। ये बिना हिले-डुले बिना हुज्जत के काम में लगे रहते हैं। उसके बाद भी उनके साथ मारपीट, गाली-गलौज आम है, जिसकी कहीं कोई सुनवाई नहीं होती है तथा कथित सभ्य और सम्भ्रान्त कहलाने वाले लोग भी बच्चों का शोषण करने में पीछे नहीं हैं। इनमें डॉक्टर, वकील, जज और नौकरशाह भी शामिल हैं जो किसी जानवर के सड़क पर कुचल जाने से विचलित हो उठते हैं और घर की पहली रोटी घी लगाकर गाय को खिलाकर पुण्य कमाते हैं।
उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार उपरोक्त सभी कामों में लगे बच्चों की संख्या सवा करोड़ है। हालाँकि इनकी असली संख्या इसकी पाँच गुना हो सकती है। ये बच्चे बहुत ही ख़तरनाक और जोखिम भरा काम करते हैं। उत्तर पूर्व के राज्य मेघालय में जहाँ पर कहने के लिए कानून और संविधान का शासन है वहाँ निजी मिल्कियत वाली चूहों के बिलों-सरीखी कोयला खदानों (Ratmines) में असम, बिहार, झारखण्ड, नेपाल और बांग्लादेश से लाये गये 5 से 18 वर्ष की उम्र के 70 हज़ार से ज़्यादा बच्चों की जिन्दगी को विनाश की ओर ढकेला जा रहा है। ग़ैर-कानूनी ढंग से चलायी जा रही इन खदानों के संचालन में राज्य के जल संसाधन राज्य मन्त्री तक शामिल हैं। ये खानें हो या कारख़ाने, बच्चों को कोई भी सुरक्षा उपकरण नहीं दिये जाते हैं और वे आये दिन गम्भीर बीमारियों की चपेट में आते हैं और असमय ही मौत के मुँह में समा जाते हैं और भर जाते हैं अपने मालिकों की जेबें, जिससे वे हर तरह की ऐयाशी करते हैं और कई बार तो ख़ुद बच्चों को अपनी ऐयाशी का साधन बनाते हैं।
पूँजीवाद जैसे-जैसे आगे बढ़ता जा रहा है उसकी मानवद्रोही प्रवृत्ति नये आयाम पर जा पहुँची है और समाज में भी उसकी पतनशीलता लगातार बढ़ती दिखायी दे रही है। बच्चों के श्रम का शोषण तो हो ही रहा है, अन्य तमाम माध्यम और स्थितियाँ भी बच्चों को भयंकर शोषण-उत्पीड़न का शिकार बना रही है। दिल्ली, उत्तर प्रदेश के विभिन्न शहर जिसमें नोएडा, गाजियाबाद, लखनऊ, कानपुर और साथ ही बिहार, झारखण्ड जैसे तमाम राज्य हैं जहाँ से व्यापक पैमाने पर बच्चों को अपहृत कर बाल मज़दूरी, वेश्यावृत्ति, भीख मँगवाने आदि कामों में लगाया जाता है। गुमशुदा बच्चों के मामले में बात करें तो केवल 2009 में ही देश भर में 60,000 बच्चे गुम हुए जबकि पिछले वर्षों में यह संख्या 44,000 के आसपास हुआ करती थी। दिल्ली में सबसे ज़्यादा गुमशुदगी या अपहरण के मामले आते हैं। दिल्ली में प्रत्येक दिन 17 बच्चे गुम होते हैं जिसमें से 6 कभी नहीं मिलते। ‘इन्स्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस’ की रिपोर्ट के अनुसार महानगरों में गुमशुदगी के मामले में दिल्ली पहले स्थान पर है।
सूचना अधिकार कानून के प्राप्त सूचना के अनुसार जनवरी 2008 से अक्टूबर 2010 तक दिल्ली से 13,570 बच्चे गुम हो गये और जनवरी 2011 से अप्रैल 2011 तक 550 बच्चे गुम हो गये। गुम हुए बच्चों में 12 से 19 साल की लड़के और लड़कियाँ हैं। 90 प्रतिशत गुम हुए बच्चे पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार व झारखण्ड के रहने वाले हैं। बच्चों की तस्करी का जो मुख्य कारण है वह है ग़रीबी। पूर्व में मानव व्यापार आंशिक तौर पर संगठित अपराधों में था परन्तु अब तो वह विश्व व्यापार का रूप ले चुका है। देश में हर साल 4 लाख बच्चे व्यवसायिक सेक्स के हत्थे चढ़ जाते हैं। इससे साफ है कि वेश्यावृत्ति का कारोबार तेज़ी से बढ़ा है। इस कारोबार के लिए ग़रीब व असुरक्षित स्थानों पर रहने वाली बच्चियों का अपहरण किया जा रहा है। अगर केवल राष्ट्रीय राजधानी की बात करें तो केवल मार्च महीने में 153 लड़कियों का अपहरण हुआ है। यह हाल जब देश की राजधानी का है तो अन्य इलाकों का क्या हाल होगा, इसका अन्दाज़ा सहज ही लगाया जा सकता है। बच्चियों को अपहरण के बाद जानवरों की दवा ‘आक्सीटोसिन’ लगाकर किशोरियों की काया में ढाला जाता है और देह व्यापार की मण्डियों में उतारा जाता है। आज बच्चियों पर आक्सीटोसिन के इस्तेमाल के लिए उत्तर प्रदेश और राजस्थान में मुफीद प्रयोगशालाएँ बनी हैं जिसमें अलवर, धौलापुर, आगरा, मेरठ, फिरोजपुर प्रमुख हैं। विशेषज्ञ डॉक्टर बताते हैं कि आक्सीटोसिन शरीर में विस्तार लाता है परन्तु सामान्य स्थितियों में इसका इस्तेमाल बेहद घातक हो जाता है। कई जगहों पर इंसानों के व्यापारी विकृत मानसिकता वाले बच्चों को पंगु बनाकर उनसे भीख मँगवाने का कार्य कराते हैं इसका सबसे बड़ा केन्द्र कानपुर है। जेब काटने के धन्धे में भी बच्चों का इस्तेमाल किया जा रहा है जिससें गाजियाबाद प्रशिक्षण केन्द्र के तौर पर उभरा है। ड्रग्स की सप्लाई या तस्करी के लिए जिस प्रशिक्षण की ज़रूरत होती है उसका सबसे बड़ा केन्द्र मुम्बई है। इधर ‘चाइल्ड पोर्नोग्राफी’ के रूप में बच्चों के खि़लाफ़ अपराध का एक नया बाज़ार पैदा हुआ है। बाहरी व्यक्तियों के अलावा बच्चे कई बार घर-परिवार आस-पड़ोस नाते-रिश्तेदारों के शोषण के शिकार होते हैं जिसमें यौन शोषण मुख्य है। आँकड़े बताते हैं कि देश में हर 155वें मिनट पर 16 वर्ष से नीचे का एक बच्चा दुराचार का शिकार होता है। देश में हर तेरह घण्टे पर 10 वर्ष से कम आयु के एक बच्चे से दुराचार होता है। 2006 में जहाँ कुल 5,102 मामले दर्ज हुए तो 2007 में दर्ज़ होने वाले मामलों की संख्या 6,377 थी। दर्ज मामलों से अलग देश भर में बच्चों के साथ बलात्कार की एक अलग ही भयावह तस्वीर होगी। यौन शोषित बच्चों की दृष्टि से भारत का विश्व में प्रथम स्थान है। इस सम्बन्ध में कुछ आँकड़े नीचे दिये जा रहे हैं।
बच्चों के खि़लाफ़ हो रहे अपराधों के खि़लाफ़ पुलिस/शासन न्यायालय कानून आदि का जो रुख़ है वह बेहद ठण्डा, अवमानना भरा है। ग़रीबों के प्रति रवैया ऐसा है कि जैसे वे इंसान हो ही नहीं। जब भी बच्चों के खि़लाफ़ हुए अपराध की रिपोर्ट थाने में लिखाने की कोशिश एक ग़रीब व्यक्ति करता है तो थाने से उसे डरा-धमकाकर भगा दिया जाता है। यदि मीडिया आदि के दबाव में लिख भी लिया जाता है तो उस पर कोई कार्यवाही नहीं की जाती है। उसे ठण्डे बस्ते में डाल दिया जाता है, कई बार अपराधी व्यक्ति का पता लगने पर भी उसे नहीं पकड़ती और यदि पकड़ भी लिया तो ऊपरी दबाव में उसे छोड़ देती है। निठारी जैसा जघन्य काण्ड उजागर होने पर समाजवादी पार्टी का एक नेता कहता है कि इसमें कौन-सी बड़ी बात हो गयी, यह तो रोज़ होता ही है। यह है नेताओं के चरित्र की और उनके पक्षधरता की सच्ची तस्वीर। जब किसी अधिकारी का बच्चा पकड़ा जाता है तो पूरी नौकरशाही-नेताशाही दिन-रात एक करके दो दिन के भीतर बच्चे को उसके परिवार को सौंप देती है। क्योंकि यह पूरी व्यवस्था ही पूँजी और उसके चाकरों की सुरक्षा के लिए खड़ी की गयी है। नहीं तो क्या कारण था कि अपराधियों को पकड़ा नहीं गया और वे खुले साँड़ की तरह अपना मुँह इधर-उधर मार रहे हैं, बच्चों की जिन्दगियाँ बरबाद कर रहे हैं? देश का संविधान बिना किसी भेदभाव के सभी बच्चों की हिफ़ाज़त, देखभाल, विकास, शिक्षा की गारण्टी देता है। बाल मज़दूरी, बन्धुआ मज़दूरी बाल अधिकार के सम्बन्ध में अनेक कानून बने हैं, परन्तु इस पर अमल कराने की जवाबदेही किसी की नहीं है! बाल अधिकार के लिए राष्ट्रीय और राज्य आयोग बनाये गये हैं परन्तु ढिण्ढोरा पीटने वाले राष्ट्रीय आयोग को साल भर में देश भर के बच्चों से ख़तरनाक काम कराये जाने के खि़लाफ़ कोई ठोस तथ्य नहीं मिल पाये हैं! इसके खि़लाफ़ कानून 1986 में बनाया गया था। घरों में बच्चों से काम कराने के खि़लाफ़ भी 2006 में कानून बनाया गया था। पर इन कानूनों को लेकर राज्य कितना संजीदा है इसका अन्दाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि आज तक केवल 7 हज़ार बच्चों को ही जोखिम भरे कामों से मुक्त कराया जा सका है। राज्य और उसका तन्त्र, जिसमें न्यायपालिका भी शामिल है इस भयावह स्थिति से आँखें मूँदे हैं। इसकी वजह यह है कि ये बच्चे ग़रीब परिवार से आते हैं।
बच्चों की शारीरिक सुरक्षा के अतिरिक्त एक और स्रोत है जिसमें राज्य पंगु दिखता है। यह है राष्ट्रीय बजट में बच्चों पर ख़र्च किया जाने वाला ख़र्च, जो लगातार कम होता जा रहा है। 2008 और 2009 के बजट में पूरे बजट का 5.28 प्रतिशत बच्चों के लिए आरक्षित किया गया था जो 2009-10 में घटकर 4.32 प्रतिशत रह गया। इन्हीं सब कारणों से विश्व में भारत का मानव विकास सूचकांक में 127वाँ स्थान है। इस देश में अनाज एक तरह गोदामों में सड़ता है तो दूसरी ओर बच्चों का 47 प्रतिशत हिस्सा कुपोषण का शिकार है। 9 हज़ार बच्चे रोज़ भूख और कुपोषण से मारे जाते हैं। ऐसे समय में राज्य अपनी भूमिका और जिम्मेदारी से लगातार पीछे हटता जा रहा है, तो दूसरी ओर एन.जी.ओ.-नामक भिखमंगी संस्थाएँ बच्चों को बचाने की चीख-पुकार मचवा रही हैं। इनका काम ही होता है कि सुधार के नाम पर इस मानवद्रोही व्यवस्था के दामन पर लगे ख़ून के धब्बों को साफ करके उसे संजीवनी प्रदान करना। तथाकथित सभ्य समाज के “संवेदनशील” लोग एन.जी.ओ. की संस्थाएँ खड़ी कर बचपन को बचाने में लगे हैं। ये सभी भद्रजन जाने-अनजाने लोगों के बीच भ्रम फैलाते हैं और इस आशा का संचार करते हैं कि बच्चों को बचाने का रास्ता इस व्यवस्था में भी निकल सकता है। बालीवुड और हॉलीवुड की सेलिब्रिटीज (सुष्मिता सेन, एंजेलीना जोली) बच्चों को देश/विदेश से गोद लेकर अख़बारों की सुर्खियां बटोरती हैं। तथाकथित भद्रजन मिथ्या गर्व की भावना से भरकर उन्हें अपना रोलमॉडल बनाता है। करोड़ों-करोड़ बच्चों के तबाह होते भविष्य को ऐसे लॉलीपॉपों से कुछ भी राहत नहीं मिल सकती। फिर यह सवाल उठता है कि किया क्या जाये?
ऊपर के विवरणों से साफ है, कि इस व्यवस्था में बच्चों की व्यापक आबादी का भविष्य अंधकारमय है यदि आप दिल से युवा हैं और चाहते हैं कि बच्चों को बचाया जाये तो इस मानवद्रोही व्यवस्था को जल्द को जल्द बदलने की मुहिम में जुड़ना होगा। इस व्यवस्था का विकल्प खड़ा करने में प्रगतिशील व परिवर्तनकामी ताकतों को साथ आना होगा।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2012
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