अब हर हाथ में फउन होगा!
नवनीत प्रभाकर
आठ अगस्त को प्रधानमन्त्री ने घोषणा की कि अब वो ग़रीबी रेखा (बी.पी.एल.) से नीचे जी रहे हर ग़रीब के हाथ में मोबाइल फोन पहुँचा देंगे! इसके पीछे उनका तर्क यह था कि अब सभी ग़रीब अपने सम्बन्धियों से सम्पर्क में रह सकेंगे! चूँकि यह योजना ग़रीबी रेखा से नीचे के ग़रीबों के लिए है इसलिए सभी को हर महीने 200 मिनट का फ्री टॉकटाइम भी दिया जायेगा! शक़ न करें! यह महज़ इत्तेफाक है कि 2014 में लोक सभा का चुनाव आने वाला है! आप लोग तो हर बात पर ही नाक-भौं सिंकोड़ते हैं! सरकार अच्छा करे तो बुरी, बुरा करे तो बुरी! आप कहेंगे कि दो साल पहले से ही ये लोग वोट के लिए जनता को आकृष्ट करने में लग गये है। अभी बात बोल दी और चुनाव आते-आते इस स्कीम को अमली जामा पहना दिया जायेगा! व्यापक ग़रीब जनता के वोट को बटोरने का अच्छा तरीका!
अब उस सूरत की कल्पना करते हैं जब यह योजना सही ढंग से लागू हो जाती है। यू.पी.ए. सरकार ने दावा किया है कि करीब 60 लाख फोन बाँटे जायेँगे। वोटों की राजनीति में यह बड़ा लोकलुभावन काम करेगा। दूसरा फायदा देखिये! चुनावों के दौरान कोई भी चुनावी पार्टी पूरी आबादी से प्रत्यक्ष सम्पर्क नहीं कर सकती है क्योंकि हर गाँव या हर घर जाना सम्भव नहीं होता। लेकिन अब चुनावी पार्टियाँ फोन के माध्यम से अपना एक-एक वाक्य का एस.एम.एस., रिंगटोन, कॉलर ट्यून के रूप में पहुँचा सकते हैं। यानी, सम्बन्धियों से ज़्यादा आपसे बात ये चुनावी पार्टियाँ करेंगी! तीसरा फायदा यह कि पूँजीवादी चुनावों में कई पार्टियाँ घर-घर जाकर 50 से 200 रुपये में पूरे परिवार का वोट खरीद लेती हैं (ये बात दीगर है कि बाद में ये पैसे जनता के फण्ड से ये नेता दुगुना, तिगुना करके वसूल लेते हैं!)। लेकिन शुरुआत में ये रकम नेता या पार्टी को ही देनी पड़ती है। इस बार कांग्रेस के दिग्गजों ने दिमाग़ लगाया! वोट भी ख़रीदा तो जनता के पैसे से! हार भी गये तो अपने बाप का पैसा तो लगा नहीं!
ये तो बात तब हुई जब स्कीम सही तरीके से लागू हो जाये। लेकिन लम्बे दौर में इसका क्या हश्र होगा? व्यवहार में यह सम्भव है या नहीं यह बाद में पता चलेगा। रिपोर्ट बताती है कि देश की 77 प्रतिशत आबादी 20 रुपये या कम के रोज़ाना आय पर गुज़ारा करती है। इतने कम पैसे में आदमी क्या खायेगा, क्या पहनेगा और क्या शिक्षा, चिकित्सा, घर आदि का इन्तज़ाम करेगा? इतने में तो इंसान होने की शर्तें भी पूरी नहीं होतीं। रोज़गार की हालत यह है कि हर चौथा व्यक्ति बेरोज़गार है। 38 करोड़ बेघर है या झुग्गियों में रहते है, नौ हज़ार बच्चे रोज भूख और कुपोषण से मर जाते हैं। ऐसे हालात में आप ही सोचिए कि मुख्य मुद्दा क्या बनता है? यह कि व्यक्ति के इंसान होने की शर्त पूरी की जाये। यानी, रोटी-कपड़ा-मकान उपलब्ध कराया जाये। लेकिन सभी चुनावी पार्टियाँ तो पूँजीपतियों के तलवे चाटने में ही व्यस्त रहती हैं। ये कभी चाहती भी नहीं हैं कि ग़रीबी-बेरोज़गारी ख़त्म हो और अगर चाहें तो भी खत्म नहीं कर सकतीं। ऐसे में जनता को बहलाकर रखना होता है। तो चुनावी पार्टियाँ और सरकारें कभी फ्री में टीवी और साड़ी बँटवाती हैं, कभी दो रुपया किलो अनाज देने का वायदा करती हैं, तो कभी ग़रीबों को मोबाइल फोन देने का वायदा करती हैं। सरकारी स्कीमों के तहत जो चीजें बँटती है,उनकी गुणवत्ता के बारे में आप जानते ही हैं कि कैसी होती है। बड़े कम्पनियों का जो भी रिजेक्ट किया हुआ या रद्दी क्वालिटी का सामान होता है उसे सरकार पूरी कीमत देकर खरीदती है। फिर वितरण केन्द्र, प्रखण्ड आदि का अलग नाटक। अगर थोड़़ा सोचें कि कोई भी सरकारी काम कैसे होता है तो पता चल जायेगा कि आगे क्या होगा! पहली बात तो यह कि अधिकांश बी.पी.एल. ग़रीबों के पास बी.पी.एल. कार्ड नहीं होता। सरकारी दफ्तरों का चक्कर लगाकर लोग हार मान लेते है पर कार्ड नहीं बनता है। कार्ड अगर रहता है तो अपात्र लोगों के पास। तो जाहिर सी बात है कि अन्य स्कीमों की तरह इसका फायदा भी इन्हीं को होगा। ब्लॉक व पंचायत अधिकारियों की तो बल्ले-बल्ले! उनके तो सारे बेटे-बेटियों, नाती-पोतों की डिमांड पूरी हो जायेगी।
अब ज़रा एक दूसरे पहलू पर ध्यान देते है। एक तो यह कि 30 करोड़ जनता बिजली की सेवा से पूर्णतया वंचित है। कई विद्युतीकृत क्षेत्रें में भी नाममात्र के लिए बिजली आती है। करीब 25 प्रतिशत आबादी (30 करोड़) ग़रीबी रेखा के नीचे है। अगर इस आबादी को मोबाइल दिया जाता है तो शायद प्रधानमन्त्री को 200 मिनट रिचार्ज के साथ 200 मिनट चार्ज की भी स्कीम देनी पड़ेगी तब जाकर वह अपने रिश्तेदारों से बात कर सकेगी! वैसे, जब देश में हर तीसरा व्यक्ति प्रायः भूखा सोता है तो पेट की याद पहले आती है न कि रिश्तेदार की! अगर एक शाम भर पेट खाने के लिए मोबाइल बेचना पड़ जाये तो ज़्यादा आश्चर्य नहीं होना चाहिए!
पिछले कुछ साल के दौरान रिकार्डतोड़ घोटाले हुए। लाखों टन अनाज सड़ गया पर लोग भूख से मरते रहे। स्वास्थ्य सेवा के अभाव में भी कई लोग मारे गये। अच्छे स्कूल नहीं होते जिसमें गुणवत्ता वाली शिक्षा प्राप्त हो सके। बड़ी आबादी के सिर के ऊपर छत नहीं है। ऐसे में, जनता को मोबाइल नहीं जीवन की बुनियादी ज़रूरतें चाहिए। लेकिन सरकार भी यह योजना इसलिए लेकर नहीं आयी है कि कोई वास्तविक समस्या हल हो। वह तो इस योजना को महज़ इसलिए लेकर आयी है कि व्यवस्था का भ्रम कुछ और दीर्घजीवी हो जाये। लेकिन हताशा में उठाये गये ऐसे कदमों से कोई भ्रम भी नहीं पैदा होगा और ग़रीबी, बेघरी और भुखमरी का दंश झेल रही जनता इसे अपने साथ एक भद्दा मज़ाक ही समझेगी। जिन नौजवानों को यह बात समझ में आती है, उन्हें जनता के बीच उतरकर इस सच्चाई को समझाना चाहिए।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-दिसम्बर 2012
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