बाल ठाकरे: भारतीय फासीवाद का प्रतीक पुरुष

आनन्द

turn-thakeray-cartoon_1विगत नवम्बर के तीसरे सप्ताह में मुम्बई की फिज़ाओं में एक भय मिश्रित सन्नाटा पसरा हुआ था। वजह थी बाल ठाकरे की आसन्न मृत्यु की ख़बर। खौ़फ के इस माहौल में लोग इस बात के क़यास लगा रहे थे कि जिस शख़्स के जीते जी मुम्बई में भय और आतंक व्याप्त रहता था, उसके मरने के बाद क्या होगा? मीडिया ने भी इस उहापोह भरे माहौल को निर्मित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। ठाकरे की मृत्यु के बाद मीडिया में उनको देश के महान राष्ट्रवादी नेता के रूप में प्रतिष्ठित करने की कवायद शुरू हो गयी। इस प्रहसन की इन्तेहा तो तब हो गयी जब, जिस व्यक्ति को भारत की सरकार द्वारा गठित श्रीकृष्णा आयोग ने 1992-93 के मुम्बई दंगों में हिंसा भड़काने के आरोप में साफ तौर पर दोषी पाया था और जिस व्यक्ति पर साम्प्रदायिक रूप से भड़काऊ बयान देने की वजह से चुनाव आयोग ने चुनाव में भाग लेने और मतदान करने पर 6 साल का प्रतिबन्ध लगाया था, उसका राजकीय सम्मान के साथ अन्तिम संस्कार किया गया! इस समूचे प्रकरण में मुख्यधारा की मीडिया के अधिकांश हिस्से ने बाल ठाकरे के 4 दशक से भी ज़्यादा लम्बे राजनीतिक जीवनकाल के दौरान आम मेहनतक़श जनता के खि़लाफ किये गये बर्बर अपराधों पर निहायत ही बेशर्मी से पर्दा डाला और उनकी शान में कसीदे पढ़े गये। ज़्यादातर टी.वी. चैनलों और अख़बारों में देश के तमाम जाने-माने पत्रकार और बुद्धिजीवी ठाकरे के अपराधों को दरकिनार कर उनकी कार्टून कला और करिश्माई व्यक्तित्व की भूरि-भूरि प्रशंसा करते दिखे। ऐसे में बाल ठाकरे जैसे फासिस्ट तानाशाह के काले कारनामों का पर्दाफाश कर जनता तक उसकी राजनीति के जनविरोधी चरित्र की असलियत को ले जाना एक बेहद ज़रूरी कार्यभार है।

 

बाल ठाकरे की राजनीति की अन्तर्वस्तुः क्षेत्रीय अन्धराष्ट्रवाद

बाल ठाकरे का राजनीतिक जीवन फासीवाद के भारतीय संस्करण के विकास से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। 1950 के दशक के अन्त तक ‘नेहरूवादी समाजवाद’ (जो वास्तव में राजकीय पूँजीवाद था) की क़लई खुलने लगी थी। ग़रीबी, भुखमरी और बेरोज़गारी के ग्राफ के ऊपर उठने के साथ ही देश के अलग-अलग हिस्सों में जनाक्रोश  भी उफान पर था। भारतीय पूँजीवाद के गढ़ बम्बई में यह आक्रोश संयुक्त महाराष्ट्र आन्दोलन के रूप में सामने आया जिसमें 100 से ज़्यादा लोग शहीद हुए। अन्ततः 1 मई 1960 को महाराष्ट्र को गुजरात से अलग कर एक नया राज्य बनाया गया और बम्बई इस नये राज्य की राजधानी बनी।

नया राज्य बनने के बाद भी ग़रीबी और बेरोज़गारी जैसी समस्याओं का निदान न होने की वजह से 1960 के दशक में जनाक्रोश एक बार फिर उफान पर था। यही वह सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि थी जिसमें बाल ठाकरे के राजनीतिक जीवन की शुरुआत हुई। बाल ठाकरे 1950 के दशक के अन्त में ‘फ्री प्रेस जरनल’ नामक अंग्रेजी अखबार में कार्टूनिस्ट थे। 1960 में इससे अलग होकर ठाकरे ने अपना मराठी अखबार ‘मार्मिक’ निकालना शुरू किया। ‘मार्मिक’ की विशेषता यह थी कि उसमें बेहद भड़काऊ शैली में बम्बई की मराठी आबादी के आक्रोश को हवा दी जाती थी। ग़ौरतलब है कि ‘मार्मिक’ के भड़काऊ लेखों का निशाना कांग्रेस या उसकी नीतियाँ न होकर बम्बई में रहने वाली गैर-मराठी आबादी हुआ करती थी जिनकी वजह से ‘भूमि-पुत्रों’ की नौकरी की सम्भावनाएँ धूमिल हुई दिखती थीं। निशाने पर कभी बम्बई में रहने वाली गुजराती और मारवाड़ी आम आबादी हुआ करती थी तो कभी दक्षिण भारतीय आम आबादी। इस प्रकार विशेषकर निम्न मध्यवर्गीय मराठी आबादी में बाल ठाकरे ने अपना आधार बनाया जिनको उनके फूहड़पन भरे भड़काऊ भाषणों और लेखों में अपनी कुण्ठित भावनाओं की अभिव्यक्ति दिखती थी। हालाँकि शुरुआत में बाल ठाकरे यह दावा किया करते थे कि उनकी कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं है, परन्तु अपने ही थूके को चाटकर 1966 उन्होंने शिव सेना की स्थापना की।

शुरुआत में शिव सेना की दो मुख्य माँगें थीं – सरकारी नौकरियों और सरकारी आवासों में मराठियों के लिए 80 फीसदी आरक्षण। अपनी स्थापना के साथ ही शिव सेना ने बम्बई में रहने वाली दक्षिण भारतीय आबादी पर निशाना साधते हुए उनके रेस्तराँ और दुकानों पर तोड़-फोड़ मचानी और शुरू की। इसी दौरान ठाकरे ने ‘याण्डू गुण्डू’  और ‘लुंगी उठाओ पुंगी बजाओ’ जैसे फूहड़ नारे रचे जो उनकी फासिस्ट मानसिकता की बानगी पेश करते हैं।

क्षेत्रीय अन्धराष्ट्रवाद को और हवा देने के लिए शिव सेना ने महाराष्ट्र और कर्नाटक के बीच चल रहे सीमा विवाद को तूल देना शुरू किया। इसकी परिणति 1969 में बम्बई के पहले बड़े दंगे में हुई जिसको शिव सेना ने प्रायोजित किया था। इन दंगों में दर्जनों जाने गयीं और सैकड़ों आहत हुए। 1980 और 1990 के दशक में शिव सेना ने हिन्दुत्व की लहर पर सवारी करते हुए अपना मुख्य निशाना मुसलमानों को बनाया। इस लहर के पीछे हटने के बाद से शिव सेना ने यूपी और बिहार से आकर मुम्बई में बसी प्रवासी मेहनतकश आबादी को अपना नया निशाना बनाया और उस पर हमलों की नई  शृंखला शुरू की।

घनघोर मज़दूर विरोधी और पूँजीपति परस्त

बाल ठाकरे की मृत्यु के पश्चात् उद्योगपतियों और राजनीतिज्ञों से लेकर फिल्मी कलाकारों, क्रिकेटरों सहित इस देश की तमाम नामी-गिरामी हस्तियों ने गहरा दुख व्यक्त किया। यह अकारण नहीं था! बाल ठाकरे का समूचा राजनीतिक जीवन पूँजीवादी शासक वर्गों की सेवा में समर्पित था। अपने शुरुआती दिनों में शिव सेना पूँजीपतियों के लिए भाड़े के लठैतों और सुपारी किलर जैसा काम करती थी। बम्बई के मज़दूर आन्दोलन की कमर तोड़ने के लिए कांग्रेसी मुख्यमन्त्री वसन्तराव नाइक और बड़े उद्योगपतियों ने शिव सेना के भाड़े के गुण्डों का खुलेआम इस्तेमाल किया। पूँजीपतियों और कांग्रेस सरकार के इशारे पर आज़ादी के बाद बम्बई की पहली प्रमुख राजनीतिक हत्या 1970 में हुई जब टेक्सटाइल्स मज़दूरों के लोकप्रिय और जुझारू नेता कृष्णा देसाई को शिव सेना के हथियारबन्द गुण्डों ने मौत के घाट उतार दिया। मज़दूरों की वर्गीय एकता तोड़ने के लिए शिव सेना ने मराठी अन्धराष्ट्रवाद का जमकर इस्तेमाल किया। 1968 में शिव सेना ने मज़दूर आन्दोलन में सेंध लगाने के मक़सद से भारतीय कामगार सेना नामक यूनियन बनायी। इस यूनियन का काम मज़दूरों के हितों के साधने की बजाये मालिकों के हितों को साधना था। इस यूनियन की मालिकपरस्ती तो तब जगजाहिर हो गयी जब 1974 की प्रसिद्ध रेलवे हड़ताल सहित कई प्रमुख हड़तालों का विरोध किया। दत्ता सामन्त के नेतृत्व वाली गिरनी कामगार यूनियन के नेतृत्व में हुए 1982 के प्रसिद्ध टेक्सटाइल्स मज़दूरों के आन्दोलन की कमर तोड़ने में भी शिव सेना की अहम भूमिका थी।

बाल ठाकरे का पूँजीवाद और पूँजीपतियों के प्रति समर्पण इस तथ्य से ज़ाहिर हो जाता है कि तमाम राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों पर अपनी बेबाक टिप्पणियों के लिए मशहूर इस शख़्स ने 4 दशक से भी ज़्यादा लम्बे राजनीतिक जीवन में पूँजीपतियों और कॉरपोरेट घरानों के खि़लाफ कभी भी कोई टिप्पणी नहीं की और भारत के पूँजीपतियों ने भी हमेशा ठाकरे का जिक्र तारीफ भरे अल्पफ़ाज़ में ही किया। शिव सेना-भाजपा की गठबन्धन सरकार ने भी अपने कार्यकाल के दौरान देशी और विदेशी पूँजीपतियों को बेहिसाब मुनाफा कमाने और श्रम की लूट की खुली छूट दे दी। कुख़्यात एनॅरान प्रकरण में महाराष्ट्र की आम जनता के हितों को ताक पर रख अमरीकी कम्पनी एनरॉन के सामने घुटने टेकने में इस सरकार ने पुरानी कांग्रेसी सरकार के भी कीर्तिमान तोड़ डाले। इसके अतिरिक्त निजीकरण की प्रक्रिया में भी इस सरकार के कार्यकाल के दौरान अभूतपूर्व तेजी आयी। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे बुनियादी क्षेत्रों को भी मुनाफा कमाने के मक़सद से निजी क्षेत्र के हवाले कर दिया गया।

 

हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिकता की ओर झुकाव

बाल ठाकरे को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए भारतीय फासीवाद के नये झण्डाबरदार नरेन्द्र मोदी ने उनको एक ‘योद्धा’ और ‘मार्गदर्शक’ बताया। ठाकरे और मोदी जैसे ‘योद्धाओं’ के द्वारा लड़े गये ‘युद्धों’ की बर्बर जनविरोधी प्रकृति में समानताओं से साफ ज़ाहिर हो जाता है कि ठाकरे ने मोदी का किस दिशा में मार्गदर्शन किया। 1992-93 के बम्बई दंगों में बाल ठाकरे की भूमिका ने 2002 के गुज़रात दंगों में मोदी का निश्चय ही मार्गदर्शन किया होगा। यह महज़ इत्तेफाक नहीं है कि गुज़रात दंगों के बाद बाल ठाकरे उन चन्द नेताओं में थे जिन्होंने मोदी का खुलकर बचाव और समर्थन किया। साम्प्रदायिक दंगों को प्रायोजित करने के मानवद्रोही आपराधिक कृत्य के बाद किस प्रकार कानून की गिरफ्त में आने की बजाये उल्टे दंगों से पनपे साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का लाभ चुनावी राजनीति में कर सत्ता हासिल की जाये, इसके गुर भी मोदी ने अपने मार्गदर्शक से ही सीखे होंगे। हालाँकि बाल ठाकरे की अभिव्यक्तियों और लेखों में मुस्लिम-विरोधी बातें शुरू से पायी जा सकती हैं परन्तु शिव सेना का हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिक राजनीति की ओर झुकाव 1980 के दशक में राम मन्दिर आन्दोलन के उभार के साथ हुआ। वैसे तो 1980 के दशक में भी मुस्लिम-विरोधी दंगों में शिवसेना का हाथ था परन्तु बाबरी मस्जिद के ध्वस्त होने के बाद हुए बम्बई दंगों ने वहशीपने के पुराने सारे कीर्तिमान ध्वस्त कर दिये और हफ्तों तक बम्बई की सड़कों पर मौत का ताण्डव चलता रहा। इन दंगों की जाँच के लिए भारत सरकार द्वारा गठित श्रीकृष्ण आयोग ने बाल ठाकरे को दंगे भड़काने के आरोप का स्पष्ट रूप में दोषी पाया था। यह बात दीगर है कि भारत की चुनावी राजनीति के दंगल में दंगे भड़काने जैसा मानवद्रोही अपराध पतन की ओर नहीं बल्कि उत्थान की ओर ले जाता है।

घोर दलित विरोधी

बाल ठाकरे और शिव सेना शुरू से ही अपने आपको ‘मराठी मानुस’ का रहनुमा कहते आये हैं। परन्तु ग़ौर करने वाली बात यह है कि उनके ‘मराठी मानुस’ से उनका तात्पर्य उच्च जाति वाले मराठी पुरुषों से होता है। महाराष्ट्र की दलित आबादी राज्य की कुल जनसंख्या का लगभग पाँचवाँ भाग है  जो इस दायरे से बिल्कुल बाहर है। 1974 में बनी दलितों की जुझारू पार्टी दलित पैंथर्स पर शिवसेना के गुण्डों ने कई हमले किये क्योंकि उसके सदस्य खुले रूप में हिन्दू धर्म के प्रतिक्रियावादी और दकियानूसी विचारों का विरोध करते थे। दलित पैंथर के एक नेता भगवत जाधव की हत्या शिव सेना के गुण्डों ने ही की थी।

अस्सी के दशक में महाराष्ट्र के मराठवाड़ा और विदर्भ के ग्रामीण क्षेत्रों में शिव सेना ने दलितों के खि़लाफ अत्याचारों की झड़ी लगा दी। शिव सेना के गुण्डे दलित खेतिहर मज़दूरों और छोटे किसानों द्वारा गाँवों में बंजर ज़मीन पर कब्जे़ का विरोध किया करते थे और दलितों के घरों और फसलों पर हमले किया करते थे। इन हमलों मे कई दलितों की जानें गयीं जिनमें दलित नेता अंबादास सवाणे की हत्या शामिल थी।

शिव सेना ने महाराष्ट्र की उच्च जातियों के बीच अपना आधार पुख़्ता करने के मक़सद से मण्डल आयोग की सिफारिशों का उच्च जातीय नज़रिये से विरोध किया। शिव सेना-भाजपा गठबन्धन सरकार के कार्यकाल में भी दलितों पर कई हमले हुए जिनमें रमाबाई नगर की घटना सबसे कुख्यात है जिसमें अंबेडकर की मूर्ति को उच्च जातियों द्वारा अपमानित किये जाने के विरोध मे प्रदर्शन कर रहे दलितों पर पुलिस ने बिना किसी उकसावे के एकतरफा गोलीबारी की जिसमें दस लोगों की मौत हो गयी और दर्जनों घायल हुए। इन सभी घटनाओं से शिव सेना की दलित विरोधी मानसिकता साफ ज़ाहिर है। यह बात दीग़र है कि अपने सिकुड़ते वोट बैंक को विस्तार देने के लिए हाल के वर्षों में शिव सेना ने पतित दलित नेताओं और बुद्धिजीवियों को अपने साथ लाने की कोशिश की है।

मूल रूप से जनवाद-विरोधी

दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र होने का दावा करने वाले भारतीय राज्य ने अपनी पोल खुद ही खोल दी जब उसने बाल ठाकरे जैसे नेता की राजकीय सम्मान के साथ अन्त्येष्टि की। शिव सेना का समूचा राजनीतिक इतिहास जनवाद-विरोधी कारनामों से सराबोर रहा है। बाल ठाकरे ने स्वयं हिटलर और नाथूराम गोडसे जैसे फासिस्टों की सार्वजनिक रूप से प्रशंसा की। मुम्बई में शिव सेना के आतंक का सामना न सिर्फ गैर मराठियों और मुस्लिमों को करना पड़ा, बल्कि तमाम पत्रकार और बुद्धिजीवी भी इस फासिस्ट सेना के आतंक की चपेट में आये। मुम्बई में जिस किसी अखबार या टी.वी. चैनल ने बाल ठाकरे या शिव सेना की शान में गुस्ताख़ी की उसे सेना के गुण्डों के कोपभाजन का शिकार बनना पड़ा। शिव सेना के गुण्डों ने परम्पराओं पर चोट करने वाले तमाम प्रगतिशील नाटकों और फिल्मों पर हमला किया। विजय तेंदुलकर के प्रसिद्ध नाटक सखाराम बाइंडर और घासीराम कोतवाल, गोविन्द निहलानी का मशहूर टी वी सीरियल तमस, दीपा मेहता की फिल्म फायर इसकी बानगी भर हैं। इनके अतिरिक्त हर साल वैलेन्टाइंस डे के दिन शिव सेना के गुण्डों की काली करतूतों से भला कौन नहीं वाकिफ होगा।

इस प्रकार हम पाते हैं कि बाल ठाकरे ने जीवन-पर्यन्त जिस किस्म की राजनीति की उसकी अभिलाक्षणिकताएँ फासीवादी राजनीति से मेल खाती हैं। भारतीय बुर्जुआ राजनीति की गटरगंगा में जो भूमिका राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा की रही है वही भूमिका महाराष्ट्र के क्षेत्रीय स्तर पर शिव सेना ने निभायी है। ये शब्द के वास्तविक अर्थों में स्वाभाविक सहयोगी हैं। यही वजह है कि ‘आयाराम-गयाराम’ के चुनावी राजनीतिक परिदृश्य में शिव सेना और भाजपा का गठजोड़ दो दशकों से बरकरार है। बाल ठाकरे की मृत्यु के बाद कुछ लोगों ने ऐसे विचार प्रकट किये कि शायद भारत में फासीवाद की राजनीति कमज़ोर पड़ेगी। परन्तु सच्चाई यह है कि फासीवाद किसी व्यक्ति की सोच से नहीं पैदा होता है बल्कि यह संकटग्रस्त पूँजीवादी व्यवस्था का उत्पाद है और जब तक इस व्यवस्था का कोई क्रान्तिकारी विकल्प सामने नहीं आयेगा तब तक फासीवाद अपने तमाम रूपों में अस्तित्वमान रहेगा। बाल ठाकरे जैसे व्यक्तित्व फासीवाद के वाहक मात्र होते हैं और उनके जाने के बाद भी यदि क्रान्तिकारी ताकतें अपनी स्थिति सुदृढ़ करने में क़ामयाब नहीं होती हैं तो पूँजीवाद अपनी स्वाभाविक गति से नये फासीवादी व्यक्तित्वों का निर्माण करता रहेगा और कुंठा का शिकार जनता का एक हिस्सा उनमें नायकों की तलाश करता रहेगा।

कुत्ते की पूँछ भला कैसे सीधी हो सकती है?

बाल ठाकरे के अन्तिम संस्कार के दौरान शिव सैनिकों के शान्तिपूर्ण आचरण की मीडिया में जमकर तारीफ हुई। इस दौरान किसी भी हिंसक वारदात के न होने की स्थिति को कुछ इस तरह दर्शाया गया मानो कि शिव सैनिकों का हृदय परिवर्तन हो गया हो। मगर कुत्ते की पूँछ भला कैसे सीधी हो सकती है! अभी बाल ठाकरे की चिता की आग भी नहीं बुझी थी जब शिव सेना के गुण्डों ने कुछ ऐसी हरकतें कर डाली जिससे भारतीय मीडिया द्वारा बाल ठाकरे और शिव सेना के दामन पर लगे खूनी धब्बों को साफ करने की तमाम कोशिशों बेकार साबित हो गयीं और उसका असली फासीवादी स्वरूप उभर कर सामने आ गया। सेना के गुण्डों ने पुलिस पर दबाव डालकर शाहीन और रेणु नाम की दो लड़कियों को गिरफ्तार करवाया। यही नहीं उन्होंने शाहीन के चाचा की क्लिनिक पर अपने चिरपरिचित अन्दाज़ में तोड़ फोड़ की। शाहीन का ‘अपराध’ यह था कि उसने फेसबुक पर यह टिप्पणी करने की जुर्रत की थी कि मुम्बई बन्द ख़ौफ की वजह से है न कि बाल ठाकरे के सम्मान में। जबकि रेणु का ‘अपराध’ यह था कि उसने फेसबुक पर अपनी मित्र शाहीन की उक्त टिप्पणी को ‘लाइक’ और ‘शेयर’ किया था। इसके बाद शिव सेना के गुण्डों ने ग़ैरकानूनी रूप से मुम्बई के मशहूर शिवाजी पार्क पर हफ्तों तक कब्ज़ा जमाये रखा और तबसे  वह यह माँग कर रही है कि पार्क में बाल ठाकरे का एक स्मारक बनाया जाये। इन सभी घटनाओं से यह ज़ाहिर होता है कि बाल ठाकरे के जाने के बाद भी शिव सेना फासीवादी दिशा से पीछे हटने की बजाये उसी ओर अग्रसर रहेगी।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-दिसम्‍बर 2012

 

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