निजी पूँजी का ताण्डव नृत्य जारी, लुटती जनता और प्राकृतिक संसाधन!
शिवार्थ
पिछले दो दशकों के दौरान भारतीय पूँजीवाद का सबसे मानवद्रोही चेहरा उभरकर हमारे सामने आया है। उत्पादन के हर क्षेत्र में लागू की जा रही उदारीकरण-निजीकरण की नीतियाँ, एक तरफ मुनाफे और लूट की मार्जिन में अप्रत्याशित वृद्धि दरें हासिल करा रही हैं, वहीं दूसरी ओर आम जनजीवन से लेकर पर्यावरण के ऊपर सबसे भयंकर कहर बरपा करने का काम भी कर रही हैं। भारतीय खनन उद्योग इन नीतियों की सबसे सघन प्रयोग-भूमि बनकर उभरा है। यही कारण है कि कभी रेड्डी बन्धुओं के कारण, तो कभी सरकार द्वारा चलाये जा रहे ‘ऑपरेशन ग्रीन हण्ट’ के कारण खनन उद्योग लगातार चर्चा में रहा है। पिछले 23 जून को कर्नाटक के लोकायुक्त सन्तोष हेगड़े द्वारा अपने पद से इस्तीफा दिये जाने के बाद इस मुद्दे ने ख़ासा तूल पकड़ा। हेगड़े के इस्तीफे का कारण यह था कि 23 जून से कुछ दिन पहले उन्होंने कुछ अधिकारियों के साथ मिलकर अवैध रूप से कुछ अधिकारियों को सीमा से बाहर ले जाते हुए 99 लारियों को पकड़ा और उनसे करीब 8 लाख टन कच्चा लोहा ज़ब्त कर लिया और ओबुलापुरुम् माइनिंग कम्पनी नामक कम्पनी के खि़लाफ भष्ट्राचार निरोधी कानून के अन्तर्गत मुकदमा दर्ज कर लिया। इसके तुरन्त बाद ही राज्य सरकार के एक मन्त्री के हस्तक्षेप द्वारा ज़ब्त सामग्री को छुड़वा लिया गया और कम्पनी के खि़लाफ दर्ज मामला भी रफा-दफा कर दिया गया। इस पूरे प्रकरण से बौखलाकर श्रीमान हेगड़े ने राज्य सरकार पर खनन तस्करी में लिप्त लोगों को संरक्षण देने का आरोप लगाते हुए इस्तीफा दे दिया था। यह ओबुलापुरम् माइनिंग कम्पनी रेड्डी बन्धुओं की ही कम्पनी है और इस पर लम्बे समय से खनन तस्करी से लेकर खनिजों के अवैध खनन के आरोप लगते रहे हैं, लेकिन राज्य सरकार के संरक्षण के दम पर इन्हें खुली छूट प्राप्त है।
अगर प्रसंगेतर रेड्डी बन्धुओं पर थोड़ी चर्चा की जाये तो यह व्यर्थ न होगा। जिन्हें आमतौर पर रेड्डी बन्धुओं के रूप में जाना जाता है वो दरअसल गाली जर्नादन रेड्डी, गाली सोमशेखर रेड्डी, गाली करुणाकर रेड्डी और श्रीरामुल्लु का एक समूह है जिन्हें कर्नाटक के बेल्लारी जिले का बेताज बादशाह कहा जाता है। इनमें से तीन लोग करुणाकर रेड्डी, जर्नादन रेड्डी और श्रीरामुल्लु कर्नाटक की भाजपा सरकार में कैबिनेट मन्त्री हैं और सोमशेखर रेड्डी कर्नाटक मिल्क फेडरेशन के अध्यक्ष हैं। इसके साथ ही ये चारों संयुक्त रूप से ओबुलापुरम् माइनिंग कम्पनी के मैनेजिंग डॉयरेक्टर्स भी हैं। इस कम्पनी के अलावा ये अपने सहयोगियों से भी कई छोटी खनन कम्पनियाँ चलवाते हैं। 1999 के लोकसभा चुनावों के दौरान जब सुषमा स्वराज कर्नाटक के बेल्लारी जिले से सोनिया गाँधी के विरुद्ध चुनाव लड़ रही थीं तो ये वहाँ के छुटभैया नेता हुआ करते थे और एक छोटी-सी फाइनेसिंग कम्पनी चलाते थे। इन चुनावों के दौरान ये सुषमा स्वराज के नेतृत्व में प्रभावशाली ढंग से कर्नाटक की राजनीति में उभरे, तो वहीं दूसरी ओर फाइनेसिंग कम्पनी से 200 करोड़ रुपये का घोटाला करके ओबुलापुरम् माइनिंग कम्पनी की शुरुआत की। इन्हें न सिर्फ कर्नाटक में भाजपा का संरक्षण प्राप्त था, बल्कि आन्ध्रप्रदेश के मुख्यमन्त्री वाई.एस. राजशेखर रेड्डी के भी काफी करीबी माना जाता था। इस संरक्षण के दम पर कर्नाटक के बेल्लारी और आन्ध्रप्रदेश के अनन्तपुर जिले में इन्होंने सैकड़ों लीज़ प्राप्त किये, और श्रम कानूनों से लेकर पर्यावरण, जल इत्यादि सम्बन्धी मिली भारी रियायत के दम पर इन्होंने बहुत थोड़े समय में अरबों का मुनाफा कमाया। 2005-06 तक आते-आते ये आर्थिक रूप से इतने प्रभावशाली हो चुके थे, कि इन्होंने कर्नाटक में पहली बार भाजपा सरकार के गठन में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। आज खनन उद्योग से अपनी कमाई के दम पर ये सिर्फ भाजपा ही नहीं, लगभग सभी चुनावबाज़ पार्टियों को चन्दा प्रदान करते हैं और ज़रूरत पड़ने पर अपने निजी हेलीकॉप्टर भी मुहैया कराते हैं। उदारीकरण के दौर में किस प्रकार निजी पूँजी आकूत मुनाफे के दम पर पूँजीपतियों की एक नयी किस्म पैदा कर रही, यह इस चर्चा से साफ हो जाता है।
अपनी मूल चर्चा पर वापस लौटते हुए हम देख सकते हैं कि पिछले एक दशक के दौरान दुनिया के बाज़ार में खनिजों की माँग और उनकी कीमतों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई है। साल 2000 से 2005 के बीच विश्व स्तर पर कच्चे खनिज और धातुओं की कीमत में दोगुना बढ़ोत्तरी हुई। कच्चे लोहे की कीमत में 118.5 फीसद, ताँबे की कीमत में 136 फीसद, सीसे की कीमत में 116 फीसद, निकिल की कीमत में 118 फीसद और एल्युमीनियम की कीमत में 41 फीसद की बढ़ोत्तरी हुई। खनिजों की कीमत में हुई इस बढ़ोत्तरी का श्रेय मुख्य रूप से चीन को दिया जाता है। स्टील उत्पादन में पिछले एक दशक के दौरान चीन पहले नम्बर पर है। चीन में स्टील का उत्पादन इस हद तक बढ़ गया कि कच्चे लोहे की आपूर्ति के लिए उसे भारी मात्रा में इसका आयात करना पड़ता है। साल 2000 से 2004 के बीच चीन ने दुनिया के कुल कच्चे लोहे के उत्पादन का दो तिहाई हिस्सा आयात किया। इसी तरह चीन अन्य धातु उद्योगों की आपूर्ति के लिए बॉक्साइट, ताँबा, निकिल, जिंक आदि कच्चे खनिजों का भी आयात करता है। इसके अलावा भारत, ब्राजील जैसी तीसरी दुनिया के उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं में उद्योगों का भारी विस्तार हुआ। इसी के फलस्वरूप पैदा हुई खनिजों की भारी माँग ने दुनिया के खनिज बाज़ार में 300 फीसदी उछाल ला दी और मुनाफा आठ गुना बढ़ गया। मुनाफे के इस स्रोत को उगाहने के लिए भारतीय खनन उद्योग में देशी व विदेशी पूँजी निवेश कई गुना बढ़ गया। 1993-94 में जहाँ 25,000 करोड़ रुपये का खनिज उत्पादन हुआ वहीं 2005-06 तक बढ़कर ये 84,000 करोड़ रुपये तक जा पहुँचा। यह पूँजी निवेश मुख्यतः मध्य भारत और दक्षिणी भारत के इलाके में हुआ। कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ और झारखण्ड इस पूँजी निवेश का केन्द्र बन कर उभरे हैं।
कर्नाटक – अगर कर्नाटक से बात शुरू की जाये तो खनन उद्योग में यहाँ पर भारी तेज़ी जिसे ‘माइनिंग बूम’ भी कहा जाता है, की शुरुआत 1990 के उत्तरार्द्ध में हुई और बेल्लारी जिला इसका केन्द्र बना। यहाँ पर करीब 1000 लाख टन लौह अयस्क के भण्डार हैं। 2001-02 व 2002-03 में यहाँ से करीब 124 लाख टन और 139 लाख टन लौह अयस्क का खनन किया गया, जो कि कुल भण्डार का मात्र 1.2 प्रतिशत था। इसके बाद करीब 2005-06 तक यह खनन करीब 1845 लाख टन तक पहुँच गया, निर्यात 61.9 लाख टन से बढ़कर 907.6 लाख टन तक पहुँच गया। इस आश्चर्यजनक वृद्धि का कारण पूरे इलाके में निजी पूँजी का निवेश और उसे प्रदान की गयी ज़बर्दस्त छूट। इस छूट का अन्दाज़़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस दौरान राज्य में करीब 207 नये लीज़ प्रदान किये गये जिनमें ज़्यादातर रेड्डी बन्धु उनके सहयोगियों एवं चन्द एक कम्पनियों के नाम ही थे। इस दशक के दौरान लगातार जारी खनन के दम पर बेल्लारी जिला देश के कुल लौह अयस्क के 20 फीसदी हिस्से का उत्पादन करने लगा। वन पर्यावरण की अनदेखी करते हुए, लगातार जारी खनन ने जहाँ एक तरफ भारी मात्रा में लोगों को अपनी जगह-ज़मीन से उजाड़ दिया जिनके पुनर्वास का कोई इन्तज़ाम नहीं किया गया, वहीं इस क्षेत्र की प्राकृतिक हरितिमा भी तहस-नहस हो गयी।
आन्ध्रप्रदेश – यहाँ पर खनन उद्योग के विस्तार की कहानी कर्नाटक जैसी ही रही है। रेड्डी बन्धुओं में से एक जर्नादन रेड्डी ने पूर्व मुख्यमन्त्री वाई.एस. राजशेखर रेड्डी से अपनी नज़दीकियों के दम पर ओबुलापुरम् माइनिंग कम्पनी के लिए अनन्तपुर से लेकर विशाखापटनम् जैसे खनिज-सम्पन्न इलाकों के लीज़ प्राप्त किये और दस सालों में करोड़ों का खनन व्यापार किया। सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित एक आयोग ने 2009 में यह रिपोर्ट सौंपी कि खनन उद्योग में भारी अनियमिताओं को राज्य सरकार ने संरक्षण दिया है और जानबूझकर खनन कम्पनियों विशेषकर ओबुलापुरम् कम्पनी को प्रतिबन्धित वन्य क्षेत्रों में भी खनन कराने के लीज़ प्रदान किये।
झारखण्ड – खनिज सम्पदा के लिहाज़ से झारखण्ड सबसे सम्पन्न प्रदेश है। देश की कुल खनिज सम्पदा का 40 फीसदी यहीं भरा पड़ा है, और 1995 तक देश के कुल खनिज उत्पादन का 27.77 प्रतिशत यही से आता था। झारखण्ड राज्य के गठन के तुरन्त बाद ही 2001-06 के बीच खनन उद्योग के लिए देशी-विदेशी कुल मिलाकर 44 समझौते किये गये जिन्हें सरकारी भाषा में मेमोरेण्डम ऑफ अण्डरस्टैण्डिंग (एम.ओ.यू.) कहा गया। इनमें से 2 लाख करोड़ के समझौते सिर्फ अक्रोलेर मित्तल, टाटा और जिन्दल ग्रुप के साथ किये गये। पाँच साल के भीतर ही हज़ारों करोड़ रुपये के वैध-अवैध खनन किये गये। 2006 में मधु कोड़ा राज्यवासियों से यह वायदा करते हुए सत्ता में आये कि वो इन समझौतों की जाँच करेंगे और ग़ैर-ज़रूरी समझौते रद्द किये जायेंगे, लेकिन अपने तीन साल के कार्यकाल के दौरान पुराने समझौतों की जाँच करना तो दूर, अपने विशेष अधिकार क्षेत्र का इस्तेमाल करते हुए सभी सरकारी अड़चनों को किनारे करते हुए 26 नये समझौते किये और निजी कम्पनियों को 100 नये लीज़ प्रदान किये। इन्हीं समझौते के दम पर अपने छोटे से कार्यकाल में 4600 करोड़ रुपये का व्यारा-न्यारा करने में सफल हो पाये। इन्हीं दस सालों के दौरान कई हज़ार आदिवासी परिवार विस्थापन का शिकार हुए, उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार सिर्फ 2001-2003 के बीच 7900 हेक्टेयर जंगल ख़त्म हुए, नदियों के मनमाने इस्तेमाल से लेकर भूजल के कई स्रोत वस्तुतः ख़त्म होने के कगार तक पहुँचा दिये गये और बिना किसी प्रबन्ध के हज़ारों टन औद्योगिक कचरा राज्य के हवाले कर दिया गया।
छत्तीसगढ़ – खनिज सम्पदा की विविधता की बहुतायत है इस प्रदेश में। यहाँ करीब 28 प्रकार के खनिज प्राप्त किये जाते हैं। 2001-2010 तक इसका भी हश्र झारखण्ड जैसा ही हुआ है। इसकी शुरुआत सन् 2001 में स्टारलाइट कम्पनी द्वारा भारतीय एल्युमीनियम कम्पनी (बाल्को) के अधिग्रहण के साथ हुई थी। उस समय निजीकरण की इस प्रक्रिया के खि़लाफ वहाँ के कर्मचारियों ने सर्वोच्च न्यायालय में यह तर्क रखते हुए याचिका दायर की कि यह अधिग्रहण ग़ैर-कानूनी है क्योंकि अधिग्रहण की गयी भूमि भारतीय संविधान के पाँचवें शेड्यूल के अन्तर्गत आती है। 1997 में उच्च न्यायालय ने आन्ध्र प्रदेश में यही हवाला देते हुए एक निजी कम्पनी द्वारा अधिग्रहण पर रोक लगा दिया था। इस बार सर्वोच्च न्यायालय ने यह याचिका यह कहते हुए खारिज़ कर दी कि इस मसले में हस्तक्षेप करके न्यायपालिका अपने कार्यक्षेत्र का अतिक्रमण करेगी और राज्य की नीतियों को प्रभावित करने का काम करेगी। तब से लेकर इन दस सालों के दौरान राज्य सरकार ने देशी-विदेशी कम्पनियों, जिसमें वेदान्ता, जिन्दल स्टील इत्यादि प्रमुख हैं, के साथ मिलकर कुल 102 समझौते (एम.ओ.यू.) किये हैं। उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार राज्य की करीब 90,000 हेक्टेयर से अधिक भूमि खनन के लिए इस्तेमाल की जा रही है, जिनमें से ज़्यादातर घने वन क्षेत्रों के इलाके हैं। इससे जहाँ वन्य क्षेत्र भारी मात्रा में घट रहे हैं, वहीं इन इलाकों में रहने वाले आदिवासियों को बिना किसी प्रबन्ध के निरन्तर उनकी ज़मीनों से बेदख़ल किया जा रहा है।
उड़ीसा – भारत के खनिज उत्पादन के लिए उड़ीसा 1950 के दशक से ही जाना जाता रहा है। उसी दौर से यह अवैध खनन और खनन माफियाओं का भी केन्द्र रहा है, लेकिन पिछले दस सालों के दौरान यह देश के सबसे बड़े अनियन्त्रित और अवैध खनन के केन्द्र के तौर पर उभरा। यही कारण है कि लम्बे समय से विभिन्न ग़ैर-सरकारी एजेंसियों द्वारा राज्य सरकार से इसमें हस्तक्षेप करने की माँग की जा रही है, जिसको नवीन पटनायक सरकार ने सिरे से यह कहते हुए खारिज़ कर दिया कि ऐसा कोई भी हस्तक्षेप राज्य की तरक्की में बाधा बनेगा। राज्य सरकार द्वारा जारी उपेक्षा के चलते सुप्रीम कोर्ट ने दिसम्बर 2009 में एक केन्द्रीय आयोग गठित करके यहाँ पर खनन उद्योग पर जाँच बैठायी। कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से राज्य सरकार को लीज़ की अवधि समाप्त होने के बावजूद कम्पनियों द्वारा जारी खनन को मंजूरी देने के लिए राज्य सरकार को दोषी करार दिया है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि राज्य में कार्यरत 341 खदानों में से 215 अवैध रूप से कार्यरत हैं। इस रिपोर्ट पर कुछ जुबानी-जमाख़र्च करने के बाद फिलहाल की स्थिति यह है कि राज्य सरकार ने देशी-विदेशी कम्पनियों के साथ कुल मिलाकर 69 नये समझौते किये हैं जिनमें से 49 स्टील आधारित प्लाण्ट लगाने के लिए और 20 कोयला आधारित प्लाण्ट लगाने के लिए।
इन पाँच राज्यों के अलावा पूरे देश स्तर पर बात की जाये तो देश में कुल 23,700 खदानों में 8,700 वैध खदान हैं और 15,000 अवैध (ये आँकड़े उन तथ्यों की रोशनी में देखे जाने चाहिए कि देश की ज़्यादातर खदानों में वैध और अवैध के बीच की विभाजक रेखा बहुत धूमिल है)। साइंस फॉर सेण्टर एण्ड इंवायरमेण्ट (सी.एस.ई.) द्वारा 2008 में जारी की गयी रिपोर्ट “रिच लैण्डस पूअर पीपुल” के अनुसार आज देश में कुल 1.64 लाख हेक्टेयर जंगल खनन केन्द्रों में बदल दिये गये हैं। 2005-06 के दौरान सिर्फ लौह-अयस्क के खनन के लिए 77 मिलियन टन पानी का इस्तेमाल किया गया और कई भूजल स्रोतों को ख़त्म होने की कगार तक पहुँचा दिया गया। 2005-06 के दौरान देश के खनिज उत्पादन के दौरान 1.84 बिलियन टन कचरा निकला जिसको ज़्यादातर जगहों पर प्रकृति के भरोसे छोड़ दिया गया। इसी रिपोर्ट में राजस्थान का हवाला देते हुए बताया गया कि इन खदानों में काम करने वाले मज़दूरों को 30 से 50 रुपये तक की दिहाड़ी पर रखा जाता है। कई जगहों पर महिलाओं और बच्चों से 15-30 रुपये दिहाड़ी पर भी काम कराया जा रहा है। ज़्यादातर खदानों में औसतन प्रतिदिन एक मज़दूर की मौत होती है। पानी से लेकर शौचालय इत्यादि तक और दुर्घटना निरोधी संयन्त्र कहीं भी उपलब्ध नहीं हैं। दुर्घटना के अलावा ज़्यादातर मज़दूर कम उम्र में ही टी.बी. और सिलिकोसिस जैसी बीमारियों के शिकार हो जाते हैं।
यह संक्षिप्त चर्चा हमारे सामने उदारीकरण और निजीकरण के दौर में खड़े हुए खनन उद्योग की झलक पेश करती है और राज्य की कार्य-प्रणाली सम्बन्धी दो स्पष्ट रुझान प्रस्तुत करती है। पहला, राज्य सरकार के पूरे चरित्र में आये परिवर्तन सम्बन्धी रुझान। जहाँ 1990 के दशक के पहले राज्य पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी होते हुए भी एक नियन्त्रक की भूमिका भी अदा करता था, वह भूमिका अब ज़्यादा से ज़्यादा कम हो गयी है। कर्नाटक जैसी जगहों पर तो रेड्डी बन्धुओं जैसे पूँजीपतियों की एक ऐसी जमात पैदा हुई है जो स्वयं ही मैनेजिंग कमेटी का भी काम करती हैं। अन्य जगहों पर नवीन पटनायक से लेकर मधु कोड़ा जैसे लोग राज्य मशीनरी को पूरी तरह पूँजीपतियों की गोद में ले जाकर बैठाने का काम करते हैं। दूसरा रुझान न्यायपालिका सम्बन्धी है। न्यायपालिका का पक्ष स्पष्ट रूप से ज़्यादातर जगहों पर पूँजीपतियों के साथ नज़र आता है, और जिन जगहों पर वो ऐसा नहीं करता वहाँ उसकी कार्यवाइयाँ महज़ औपचारिक साबित होती हैं, उनकी कोई ‘ऑपरेटिव’ भूमिका नहीं होती।
पिछले दिनों जब ये रुझान आम जनता के बीच भी अधिक से अधिक स्पष्ट हुए हैं तो केन्द्र सरकार ने फिक्की, ऐसोचम जैसी संस्थाओं के साथ मिलकर एक ‘माइंस एण्ड मिनरल्स रेगुलेशन बिल’, 2010 का मसौदा तैयार किया है। इस मसौदे का मकसद है राज्य और न्यायपालिका की भूमिका को नये सिरे से परिभाषित करना, ताकि आने वाले समय में पर्यावरण से लेकर विस्थापन-सम्बन्धी अड़चनों को निजी पूँजी के रास्ते से दूर किया जाये या सरकारी भाषा में कहा जाये तो पूँजी निवेश के लिए वातावरण को अनुकूल बनाया जाये। इस पूरी अवधि के दौरान खनन उद्योग से लेकर हर क्षेत्र में निजी पूँजी का ताण्डव नृत्य जारी रहा है और भविष्य में यह और भी मुखर रूप में जारी रहेगा। इसी दौरान देश में एक तरफ इस ताण्डव से पैदा हुए आकूत मुनाफे और लूट की मलाई चाटकर उदारीकरण और निजीकरण की दुहाई देने वालों की एक जमात पैदा हुई है जो ‘शाइनिंग इण्डिया’ का हिस्सा है। दूसरी तरफ ये सभी राज्य जो खनन उद्योग का केन्द्र बनकर उभरे हैं वे ग़रीबी, भुखमरी, अशिक्षा और बदहाली के केन्द्र भी साबित हुए हैं। ऐसा नहीं है कि इन जगहों पर कोई प्रतिरोध के स्वर सामने नहीं आये हैं, लेकिन अकेले दम पर सशक्त रूप से ये प्रतिरोध ख़ुद को ज़ाहिर करने में असमर्थ रहे हैं। ऐसे में इस देश के लाखों युवाओं के सामने अपनी पक्षधरता तय करने और उसे ज़ाहिर करने का समय है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अक्टूबर 2010
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