पटना के दोन किहोते ने पहले धनी किसान आंदोलन की पूंछ पकड़ी। इस प्रयास को क्रान्तिकारी बताया। इसके लिए उन्होंने इजारेदार पूंजी के कृषि में प्रवेश को पूंजीवादी कृषि का दूसरा चरण बताया, जिसके पहले ”सामान्य पूंजीवादी खेती” नाम की कोई चीज़ हो रही थी! उनके अनुसार, इस प्रवेश के कारण लाभकारी मूल्य ‘नये अर्थ’ में एक क्रान्तिकारी मांग बन गई है। मौजूदा लेख में उन्होंने यह खुले तौर पर स्वीकार भी कर लिया है। इसके आधार पर वह धनी किसान आंदोलन में ”क्रान्तिकारी अन्तर्य’’ ढूंढ निकालते हैं। वह बताते हैं कि इस आंदोलन में ग़रीब किसानों का हिस्सा ही क्रान्तिकारी ‘अन्तर्य’ है और बाहरी खोल के रूप में धनी किसान मौजूद हैं! आगे वह यह भी बताते हैं कि धनी किसानों से लेकर मध्यम किसानों का एक बड़ा हिस्सा इजारेदार पूंजी के आने पर बर्बाद हो जाएगा और इन तबकों में ‘क्रान्तिकारी’ सम्भावनाएं हैं। वह आय-विश्लेषण करते हुए दावा करते हैं कि ‘अति अति धनी किसान’ के अलावा, धनी किसान व कुलक भी आज मित्र वर्ग हैं! हमने अपनी आलोचना में दिखलाया है कि यह ‘वर्ग’ का मार्क्सवादी विश्लेषण नहीं बल्कि समाजशास्त्रीय विश्लेषण है, जो उत्पादन सम्बन्धों को छोड़कर वितरण सम्बन्धों पर आधारित है। इसके आधार पर वह बताते हैं कि ‘उचित दाम’ की मांग किस प्रकार समाजवाद का आह्वान है। यहां वह सोवियत समाजवाद के इतिहास और समाजवादी संक्रमणकाल के आर्थिक नियमों और बुनियादी मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के साथ दुराचार करते हैं।