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सेपियंस : युवल नोआ हरारी के प्रतिक्रियावादी बौद्धिक कचरे और सड़कछाप लुगदी को मिली विश्‍वख्‍याति

अफ़सोस की बात है कि बहुत से प्रगतिशील लोग इस पुस्‍तक को इतिहास और मानव की उत्‍पत्ति समझने हेतु पढ़ और पढ़वा रहे हैं। स्‍कूल तथा कॉलेज के छात्र अक्सर पॉपुलर विज्ञान की क़िताबों को पढ़कर विज्ञान की नयी खोजों तथा ब्रह्माण्‍ड के रहस्यों को जानना चाहते हैं, वे भी आजकल हरारी की क़िताब के ज़रिये विज्ञान की अधकचरी और ग़लत समझदारी बना रहे हैं। युवल नोआ हरारी विशुद्ध मूर्ख है जो विज्ञान और इतिहास के जटिल प्रश्‍नों के लिए चना जोर गर्म रास्‍ता सुझाता है। लेकिन उसकी मूर्खता भी आज एक बड़ी आबादी में विभ्रम फैला रही है और हुक्‍मरानों की ही राजनीति की नुमाइश करती है।

कोरोना महामारी में चरमराई भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था

इस बीमारी को महामारी में तब्दील करने की मुख्य़ ज़िम्मेदारी मोदी सरकार की ही है। पिछले साल की ही तरह दोबारा सरकार ने न कॉण्टैक्ट ट्रेसिंग की और न ही बीमारी को रोकने के लिए कोई क़दम उठाये। केवल मास्क‍ न पहनने पर जुर्माना लगाने के जरिये सरकारी ख़ज़ाना भरा गया जबकि असल में संक्रमण बस्ती -बस्ती फैलता रहा। जब यह संक्रमण फैल रहा था तब मोदी और भाजपा के नेताओं ने बिना किसी सामाजिक दूरी के चुनावी रैलियाँ की। पिछले साल नमस्ते ट्रम्प के आयोजन के ज़रिये तो इस साल चुनाव के ज़रिये प्रधानमन्त्री मोदी सुपरस्प्रैडर साबित हुए हैं। न सिर्फ़ बीमारी के कारण लोगों की मृत्यु हुई है बल्कि भूख और बेघर होने के डर से बीमारी में ही लोग पैदल चल पड़े। सरकार ने हर क़दम में जो लापरवाही की, वह ग़रीबों के हिस्से में आयी और जो पहलक़दमी की, उसने अमीरों के घरों को बचाया। परन्तु दूसरी लहर में न केवल ग़रीब बस्तियों पर मौत का मसीहा मंडरा रहा था बल्कि इसने अमीरों की बसावट पर भी अपने पंख फैलाये।

हमारा आख़िरी जवाब – कुतर्कों, कठदलीली, कूढ़मग़ज़ी और कुलकपरस्ती की पवनचक्की के पंखों में गोल-गोल घिसट रहे दोन किहोते दि ला पटना और “यथार्थवादी” बौड़म मण्डली

जैसे ही हम किसी भी प्रश्न पर उनकी मूर्खतापूर्ण अवस्थिति को इंगित कर आलोचना का प्रकाश उस पर डालते हैं वह मेंढक की तरह कुद्दियाँ मारकर अपनी अवस्थिति बदल लेते हैं! सबएटॉमिक कण का व्यवहार प्रेक्षण में ऐसा ही होता है। अगर उसका संवेग (momentum) पता चलता है तो अवस्थिति (position) नहीं पता चलती और अगर अवस्थिति पता चल जाती है तो संवेग पता नहीं चलता है। माटसाब की नज़र में अक्तूबर क्रान्ति में धनी किसान-कुलक वर्ग सहयोगी हैं भी और नहीं भी, ‘किसान बुर्जुआज़ी’ पूंजीपति वर्ग है भी और नहीं भी, समाजवादी समाज में श्रमशक्ति माल है भी और नहीं भी! उनकी अवस्थिति श्रोडिंगर की बिल्ली की तरह मृत भी है और जीवित भी है!

परिशिष्‍ट – पटना के दोन किहोते ने ‘द ट्रूथ’ से ‘यथार्थ’ तक पहुंचने में अपना मानसिक सन्‍तुलन कैसे खोया?

पटना के दोन किहोते ने पहले धनी किसान आंदोलन की पूंछ पकड़ी। इस प्रयास को क्रान्तिकारी बताया। इसके लिए उन्‍होंने इजारेदार पूंजी के कृषि में प्रवेश को पूंजीवादी कृषि का दूसरा चरण बताया, जिसके पहले ”सामान्‍य पूंजीवादी खेती” नाम की कोई चीज़ हो रही थी! उनके अनुसार, इस प्रवेश के कारण लाभकारी मूल्‍य ‘नये अर्थ’ में एक क्रान्तिकारी मांग बन गई है। मौजूदा लेख में उन्‍होंने यह खुले तौर पर स्‍वीकार भी कर लिया है। इसके आधार पर वह धनी किसान आंदोलन में ”क्रान्तिकारी अन्‍तर्य’’ ढूंढ निकालते हैं। वह बताते हैं कि इस आंदोलन में ग़रीब किसानों का हिस्‍सा ही क्रान्तिकारी ‘अन्‍तर्य’ है और बाहरी खोल के रूप में धनी किसान मौजूद हैं! आगे वह यह भी बताते हैं कि धनी किसानों से लेकर मध्‍यम किसानों का एक बड़ा हिस्‍सा इजारेदार पूंजी के आने पर बर्बाद हो जाएगा और इन तबकों में ‘क्रान्तिकारी’ सम्‍भावनाएं हैं। वह आय-विश्‍लेषण करते हुए दावा करते हैं कि ‘अति अति धनी किसान’ के अलावा, धनी किसान व कुलक भी आज मित्र वर्ग हैं! हमने अपनी आलोचना में दिखलाया है कि यह ‘वर्ग’ का मार्क्‍सवादी विश्‍लेषण नहीं बल्कि समाजशास्‍त्रीय विश्‍लेषण है, जो उत्‍पादन सम्‍बन्‍धों को छोड़कर वितरण सम्‍बन्‍धों पर आधारित है। इसके आधार पर वह बताते हैं कि ‘उचित दाम’ की मांग किस प्रकार समाजवाद का आह्वान है। यहां वह सोवियत समाजवाद के इतिहास और समाजवादी संक्रमणकाल के आर्थिक नियमों और बुनियादी मार्क्‍सवादी राजनीतिक अर्थशास्‍त्र के साथ दुराचार करते हैं।

एक बातबदलू बौद्धिक बौने की बदहवास, बददिमाग़, बदज़ुबान बौखलाहट, बेवकूफियां और बड़बड़ाहट

मास्टरजी ने धनी किसान आंदोलन की पूंछ पकड़ने के लिए पहले जो (कु)तर्क दिए थे अब वे उनकी गले की फांस बन गए हैं, जो ना तो उनसे निगलते बन रहे हैं और न उगलते। यही कारण है कि अब उन (कु)तर्कों को सही साबित करने के लिए झूठ बोलने, अंतहीन कुतर्क करने, इतिहास का विकृतिकरण करने से लेकर गाली-गलौच और कुत्साप्रचार करने तक वे हर चाल अपना रहे हैं। केवल मार्क्सवादी विश्लेषण ही उनके लेख में दिखलाई नहीं देता है। हमारी सलाह होगी कि बदहवासी और बौखलाहट में इधर-उधर भागने और उछल-कूद मचाने से बेहतर है कि मास्टरजी ईमानदारी से नंगे शब्दों में धनी किसानों-कुलकों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता ज़ाहिर कर दें या ईमानदारी से अपने छात्रों के सामने अपनी प्रचण्ड मूर्खताओं पर अपनी आत्मालोचना पेश कर दें। ऐसा करने से उन्हें यक़ीनन कम तक़लीफ़ होगी!

धनी किसान-कुलक आन्दोलन पर सवार हो आनन-फानन में सर्वहारा क्रान्ति कर देने को आतुर पटना के दोन किहोते की पवनचक्कियों से भीषण जंग

जहां तक ऐतिहासिक अर्थों में पूंजीवादी विकास के प्रगतिशील होने का प्रश्न है, तो निश्चित तौर पर वह ऐतिहासिक तौर पर प्रगतिशील ही होता है। पूंजीवादी उत्पादन सम्बन्धों के प्रमुख उत्पादन सम्बन्ध बन जाने के बाद भी उत्तरोत्तर पूंजीवादी विकास ऐतिहासिक तौर पर प्रगतिशील ही होता है क्योंकि इसका अर्थ होता है, उत्पादन व श्रम का और बड़े पैमाने पर समाजीकरण और समाजवाद की ज़मीन का तैयार होना। ऐसा कहने में हम कुछ नया भी नहीं कह रहे हैं, बल्कि केवल मार्क्स, एंगेल्स व लेनिन को ही दुहरा रहे हैं। क्या पीआरसी का लेखक यह कहना चाहता है कि ऐतिहासिक तौर पर पूंजीवादी सम्बन्धों का उत्तरोत्तर विकास प्रगतिशील नहीं है? तब फिर उसे लेनिन की आलोचना लिखने का कार्यभार भी अपने हाथों में ले ही लेना चाहिए! ऐसी सोच अन्तत: टुटपुंजिया आर्थिक रूमानीवाद और छोटी पूंजी के रक्षावाद की ओर ले जाती है।

कोविड-19 के षड्यंत्र सिद्धान्तों का संकीर्ण अनुभववाद और रहस्यवाद की परछाई

कोरोना महामारी (पैंडेमिक) के साथ इस वायरस के उत्पत्ति की फेक न्यूज़ महामारी(इंफोडेमिक) का भी विस्फोट बहुत तेज़ी से हुआ। लाखों लोग इस बीमारी की वजह से अपनी जान गंवा चुके हैं लेकिन कुछ लोग कोरोना वायरस और लॉकडाउन को षड्यंत्र बताते रहे। भारत में बीमारी पर मुनाफ़ा कमाने के लिए टीका बनाने वाली कम्पनियों में भी धींगामुश्ती चल रही है वहीं अभी तक हमारे कोविडियट्स यह नहीं तय कर पाए हैं कि कोरोनावायरस है क्या?

साम्राज्यवादी ताकतों की छाया में अज़रबैजान और आर्मेनिया का युद्ध

अज़रबैजान ने उन्नत युद्ध तकनीक, सेना और तुर्की समर्थित सीरियन लिबरेशन आर्मी के दम पर आर्मेनिया पर 27 सितम्बर को युद्ध थोप दिया। यह युद्ध कॉकेशिया के काले पहाडों के भूभाग नागोर्नो काराबाख के लिए था। युद्ध में 5000 से अधिक लोगों की जान गई और हजारों लोग विस्थापित हुए। युद्ध 6 हफ्ते बाद आर्मेनिया के हार स्वीकार करने पर ही थमा। दोनों देश ने रूस की मध्यस्थता में शान्ति प्रस्ताव स्वीकार किया।

धरती पर जीवन का उद्भव और उद्विकास (इवोल्यूशन)

यह प्रश्न मानवता के समक्ष आदिम काल से मौजूद है कि सितारों की दुनिया और हमारी दुनिया के बीच क्या सम्बन्ध है? धरती पर मौजूद पेड़-पौधों से लेकर नदी, पहाड़, जंगल ज़मीन का मनुष्य से क्या वास्ता है? मनुष्य अपने उद्भव पर आदिकाल से चिन्तन करता रहा है। आधुनिक काल में प्राकृतिक विज्ञान ने अपने विकासक्रम में इस सवाल पर तरह-तरह के धार्मिक मकड़जालों को हटाकर साफ़ कर दिया है। इतिहास में पहले सितारों और धरती पर भौतिक वस्तुओं की गतिकी के अध्ययन से साफ़ नज़र होने के बाद इन्सान ने जैव जगत और अपने उद्गम का वैज्ञानिक विश्लेषण किया। जीवन के रूपों के बदलाव को उद्विकास (इवोल्यूशन) कहते हैं और यह सवाल जीवन की उत्पत्ति से जुड़ा हुआ है। जीवाश्म, डीएनए और क्लैडिस्टिक्स के अध्ययन से जीवन के रूपों और उनके उद्विकास के नियमों को जाना गया है। 19वीं शताब्दी में जाकर ही उद्विकास और जीवन के उद्भव पर विज्ञान निर्णायक कदम उठा सका।