कुपोषण और भुखमरी से दम तोड़ता भारत का बचपन
‘‘उभरती अर्थव्यवस्था’’ की उजड़ती जनता
शिवानी
हमारे देश का कारपोरेट मीडिया और सरकार के अन्य भोंपू समय-समय पर हमें याद दिलाते रहते हैं कि हमारा मुल्क ‘‘उभरती अर्थव्यवस्था’’ है; यह 2020 तक महाशक्ति बन जाएगा; हमारे मुल्क के अमीरों की अमीरी पर पश्चिमी देशों के अमीर भी रश्क करते हैं; हमारी (?) कम्पनियाँ विदेशों में अधिग्रहण कर ही हैं; हमारी (?) सेना के पास कितने उन्नत हथियार हैं; हमारे देश के शहर कितने वैश्विक हो गये हैं; ‘इण्डिया इंक.’ कितनी तरक्की कर रहा है, वगैरह-वगैरह, ताकि हम अपनी आँखों से सड़कों पर रोज़ जिस भारत को देखते हैं वह दृष्टिओझल हो जाए। यह ‘‘उभरती अर्थव्यवस्था’’ की उजड़ती जनता की तस्वीर है। भूख से दम तोड़ते बच्चे, चन्द रुपयों के लिए बिकती औरतें, कुपोषण की मार खाए कमज़ोर, पीले पड़ चुके बच्चे! पूँजीपतियों के हितों के अनुरूप आम राय बनाने के लिए काम करने वाला पूँजीवादी मीडिया भारत की चाहे कितनी भी चमकती तस्वीर हमारे सामने पेश कर ले, वस्तुगत सच्चाई कभी पीछा नहीं छोड़ती। और हमारे देश की तमाम कुरूप सच्चाइयों में से शायद कुरूपतम सच्चाई हाल ही में एक रिपोर्ट के जरिये हमारे सामने आयी।
‘आह्वान’ के पिछले अंक (मार्च-अप्रैल 2010) में हमने ‘विकास के रथ के नीचे भूख से दम तोड़ते बच्चे’ नामक लेख में मध्य प्रदेश में मौजूद कुपोषण की गम्भीर स्थिति के बारे में लिखा था। लेख में हमने इस बात की तरफ भी इशारा किया था कि यह स्थिति अकेले मध्यप्रदेश की कहानी नहीं है, बल्कि पूरे देश में कमोबेश यही स्थिति मौजूद है।
यूनिसेफ (संयुक्त राष्ट्र बाल कोष) के वर्ष 2009 के एक ताजा आकलन के मुताबिक पूरी दुनिया में सबसे अधिक कुपोषण के शिकार बच्चे भारत में हैं। इतना ही नहीं, संयुक्त राष्ट्र के मानव विकास सूचकांक में भारत का स्थान 182 देशों में 134वाँ है। एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार वैश्विक भूख सूचकांक में भारत का स्थान 119 देशों में 94वाँ है। एक ऐसे देश के लिए यह शर्म से डूब मरने वाली बात है जो प्राकृतिक एवं मानव संसाधन की अकूल सम्पदा का धनी है। ख़ैर, स्वयं प्रधानमंत्री महोदय इसे स्वीकारने में पीछे नहीं रहे। हाल ही में एक बयान में उन्होंने इसे ‘राष्ट्र के लिए शर्मनाक’ बताया। लेकिन आदरणीय प्रधानमंत्री जी शायद यह भूल गये हैं कि महज स्वीकारोक्ति किसी समस्या का समाधान नहीं होती। या फिर शिक्षा, स्वास्थ्य और बाल अधिकारों को अपनी सरकार की प्राथमिकता बता देने मात्र से भी कुछ नहीं होता।
ज्ञात हो कि गत जून 1, 2010 को संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार के दूसरे कार्यकाल के एक वर्ष पूरा होने के उपलक्ष्य में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ‘‘जनता के नाम जारी रिपोर्ट 2009-10’‘ नाम से अपनी सरकार के कामकाज की एक रिपोर्ट पेश की थी। उक्त रिपोर्ट में प्रधानमंत्री ने शिक्षा, स्वास्थ्य और बाल अधिकारों के प्रति अपनी सरकार की प्रतिबद्धता को रेखांकित किया था। इस प्रतिबद्धता को रेखांकित करने के अलावा इस रिपोर्ट में वास्तविक कुछ भी नहीं था, सिवाय यह बताने के लिए किस-किस काम के लिए सरकार ने कितना पैसा आबण्टित किया। अब यह तो बच्चा-बच्चा जानता है कि बड़ी-बड़ी योजना राशियाँ भ्रष्टाचारियों की तोंद और तिजोरी में भर जाती हैं। और यह राशियाँ उन रकमों के सामने बौनी लगने लगती हैं, जो कारपोरेट जगत के इजारेदार पूँजीपतियों को सरकार देती है। इसी सरकार के वित्तमंत्री महोदय 11 लाख करोड़ रुपये के बजट में से 5 लाख करोड़ रुपये कारपोरेट जगत को तमाम छूटों और रियायतों की शक़्ल में देते हैं। वहीं दूसरी ओर, आम आदमी के हितों और ‘सर्वसमावेशी विकास’ का राग अलापने वाली यही सरकार कुल बजट में केवल 31,036 करोड़ की राशि स्कूली शिक्षा के लिए आबण्टित करती है। इसके अलावा स्वास्थ्य ओर परिवार कल्याण के लिए मात्रा रुपये 22,300 करोड़ का प्रावधान किया जाता है। इसी से साफ हो जाता है कि यह सरकार बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कितनी चिन्तित और प्रतिबद्ध है! स्वास्थ्य और खाद्य सुरक्षा के नाम पर मिलने वाली ख़ैरात और उसमें भी भ्रष्टाचार के कारण देश में कुपोषण की स्थिति भयावह हदों तक पहुँच गयी है। यूनीसेफ की ऊपर उल्लिखित रिपोर्ट के आँकड़ों पर एक नज़र ही दिल दहला देती है।
भूख और बीमारी से दम तोड़ता बचपन
भारत में 5 साल से कम उम्र के 42 प्रतिशत बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। हर साल देश में पाँच साल से कम उम्र के लगभग 20 लाख बच्चों की मौत हो जाती है। इनमें से लगभग 10 लाख मौतों का कारण कुपोषण और भूख है। हाल ही में जारी रिपोर्टों के अनुसार अकेले महाराष्ट्र में-जो देश के सबसे समृद्ध राज्यों में से एक है-कुपोषण के कारण हर साल 45,000 बच्चों की मौत होती है। कुपोषण और भुखमरी के कारण मानव विकास के मामले में भारत सब-सहारा के देशों से भी काफी पीछे है। पाकिस्तान, बांग्लादेश और नाइजीरिया जैसे पिछड़े देशों में कुल मिलाकर कुपोषण से 15 फीसदी बच्चे प्रभावित हैं। विकासशील देशों में पाँच साल से कम आयु के लगभग 19,50,00,000 बच्चे ‘‘स्टण्टिंग’‘ यानी कि बाधित विकास (आयु के अनुसार कद में कमी) का शिकार हैं। इनमें से लगभग 6,10,00,000 बच्चे भारत में हैं। विकासशील देशों में पाँच साल से कम आयु के लगभग 7,10,00,000 बच्चे ‘‘वेस्टिंग’‘ यानी कि क्षरित विकास (कद के अनुसार वजन में कमी) का शिकार हैं। इनमें से करीब 2,50,00,000 बच्चे भारत में हैं। विकासशील देशों में पाँच साल से कम उम्र के लगभग 12,90,00,000 बच्चे ‘‘अण्डरवेट’‘ यानी कम वजन के (आयु के अनुसार वजन में कमी-यह ‘‘स्टन्टिंग’‘ और ‘‘वेस्टिंग’‘ का संयुक्त माप होता है) हैं। इनमें से लगभग 5,40,00,000 भारत में हैं। 2005-06 में पाँच साल से कम उम्र के 43 प्रतिशत भारतीय बच्चे कम वजन के थे और 48 प्रतिशत बच्चों का विकास बाधित था। भारत के मुकाबले चीन में इस आयु वर्ग में केवल 7 प्रतिशत बच्चे कम वजन के थे और 11 प्रतिशत बच्चों का विकास बाधित था। अफ्रीकी देशों में भी बच्चों में कुपोषण का स्तर भारत से काफी कम है। पाँच साल से कम उम्र के 21 प्रतिशत अफ्रीकी बच्चे कम वजन के हैं और 36 प्रतिशत बच्चों का विकास बाधित है।
तालिका-1
तीन वर्ष से कम आयु के भारतीय बच्चों की पोषण-सम्बन्धी स्थिति
शहरी ग्रामीण कुल
बाधित विकास 37 47 45
क्षरित विकास 19 24 23
कम वज़न के 30 44 40
स्रोतः राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण – III (2006)
तालिका-2
पाँच वर्ष की आयु से कम कुल कुपोषित बच्चों में विकासशील देशों का हिस्सा
देश हिस्सा (प्रतिशत में)
भारत 42
पाकिस्तान 5
बांग्लादेश 5
अन्य विकासशील देश 43
इन आँकड़ों को पेश करने के पीछे की मंशा आँकड़ेबाजी कतई नहीं है। यह सभी आँकड़े उस घिनौनी सच्चाई को उजागर करते हैं जिन्हें इस व्यवस्था के हिमायती आर्थिक विकास के खोखले दावों की धुन्ध पैदा करके छिपाने की कोशिश करते रहे हैं। पूँजीवादी व्यवस्था में आर्थिक विकास का केवल एक अर्थ है-मासूम बच्चों का बाधित शारीरिक-मानसिक विकास!
तमाम वैज्ञानिक शोध इस बात की पुष्टि करते हैं कि कुपोषण के शिकार बच्चों के जिन्दा रहने की सम्भावना काफी कम होती है। स्वस्थ बच्चों की तुलना में कुपोषित बच्चों के मरने की सम्भावना नौ-गुना अधिक होती है। और यदि ये बच्चे बड़े होने तक जीवित रह भी जाते हैं, तो भी उस समय तक ये कई बीमारियों का शिकार हो चुके होते हैं। पूरे देश में यदि कुपोषण की स्थिति पर एक निगाह डालें तो हम पायेंगे कि कुपोषित बच्चों की संख्या शहरों की तुलना में गाँवों में अधिक है। 2005-06 में जहां शहरी इलाको में 36 प्रतिशत बच्चे कुपोषित थे, वहीं गाँवों में यह आँकड़ा 49 प्रतिशत था। यदि अलग-अलग राज्यों की बात करें तो पूर्वोत्तर राज्यों में बाकी देश के मुकाबले स्थिति थोड़ी बेहतर है। सिक्किम और मणिपुर में जहाँ पाँच साल से कम उम्र के 22 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं, वहीं झारखण्ड और मध्यप्रदेश में यह आँकड़ा क्रमशः 57 और 60 प्रतिशत है। नीचे हम देश के कई राज्यों में मौजूद कुपोषण की स्थिति पर एक सरसरी निगाह डालेंगे।
मध्यप्रदेश – शिवराज सिंह चौहान के ‘‘एकात्म मानवतावाद’‘ का असली चेहरा
आप देश की 10 पत्रिकाएँ उठाएँ तो उसमें से 8 में आपको मध्यप्रदेश सरकार की विकासोन्मुखी और गरीब-परवर नीतियों का प्रचार मिल जाएगा। इन प्रचारों के नीचे दीनदयाल उपाध्याय की तस्वीर छपी होती है और उसके नीचे लिखा होता है- ‘‘मध्यप्रदेश सरकार प. दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानवतावाद के सिद्धान्त पर काम करती है’‘। नीचे हम जो आँकड़े पेश करने जा रहे हैं उससे तो लगता है कि एकात्म मानवतावाद का अर्थ है—सिर्फ एक व्यक्ति के लिए मानवतावाद-श्री शिवराज सिंह चौहान!
पूरे देश में मध्यप्रदेश को कुपोषण और उससे होने वाली मौतों के मामले में नम्बर वन राज्य होने का गौरव प्राप्त है। राज्य के 60 प्रतिशत बच्चे कुपोषण से पीड़ित है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-3 (एन.एफ.एच.एस.-3) और नमूना पंजीकरण प्रणाली 2008 की रिपोर्टों के अनुसार 2008-09 में मध्यप्रदेश में जन्म के समय शिशु मृत्युदर प्रति 1000 शिशुओं पर 70 थी जो कि पूरे देश में सबसे अधिक थी। 2005-06 से 2009-10 तक के समय में राज्य भर में कुपोषण के कारण 6 लाख से ज़्यादा बच्चों की मृत्यु हो चुकी है। यही नहीं, एन.एफ.एच.एस.-3 के अनुसार राज्य में 82 प्रतिशत बच्चे एनीमिया (खून की कमी) से पीड़ित है। आदिवासी इलाको में स्थिति और भी गम्भीर है। आदिवासियों में जन्म के समय शिशु मृत्युदर प्रति 1000 पर 95-6 है, वहीं पाँच साल से कम उम्र के बच्चों में मृत्यु दर प्रति 1000 पर 140-4 है। तो यह है मध्य प्रदेश सरकार द्वारा दीनदयाल उपाध्याय के ‘एकात्म मानवतावाद’ के सिद्धान्त के व्यावहारिक प्रयोग के फल!
झारखण्ड: सत्ता-लोलुप शिबू सोरेन के राज का घिनौना सच
सत्ता-लोलुप शिबू सोरेन और बेदम भाजपा की कुर्सी की उठा-पठक के बाद झारखण्ड में राष्ट्रपति शासन लागू हो गया है। लेकिन ये दोनों अपने झारखण्ड में अपने शासन के दौरान एक अद्भुत विरासत छोड़ गये। भुखमरी और कुपोषण की विरासत! एन.एफ.एच.एस.-2 के अनुसार झारखण्ड में जन्म के समय शिशु मृत्यु दर प्रति 1000 पर 70 है। राज्य में तीन साल से कम उम्र के लगभग 54.4 प्रतिशत बच्चे कम वजन के है। तीन साल से कम उम्र के लगभग दस लाख से ज़्यादा बच्चे कुपोषित हैं। हर साल पैदा होने वाले 7,13,088 शिशुओं में से 49,916 अपने पहले जन्मदिन तक भी जीवित नहीं रह पाते हैं। देश की लगभग 70 फीसदी खून की कमी से पीड़ित महिलाएँ और बच्चे बिहार और झारखण्ड में हैं। मार्च 2009 में संयुक्त राष्ट्र विश्व खाद्य कार्यक्रम और एम.एस. स्वामीनाथन शोध प्रतिष्ठान द्वारा जारी की गई संयुक्त रिपोर्ट ‘’ग्रामीण भारत में खाद्यान्न असुरक्षा की स्थिति’‘ के अनुसार देश के भुखमरी से ग्रस्त राज्यों की सूची में झारखण्ड का स्थान इस समय सबसे ऊपर है। इस दौड़ में झारखण्ड ने उड़ीसा को भी पछाड़ दिया है। इसी रिपोर्ट के अनुसार झारखण्ड में दो-तिहाई ग्रामीण परिवारों को साफ पीने का पानी भी मयस्सर नहीं है। लगता है कि राज्य की मौजूदा स्थिति से पूर्व मुख्यमंत्री शिबु सोरेन संतुष्ट नहीं थे। शायद इसीलिए तमाम राजनीतिक दाँव-पेंचों का इस्तेमाल करके फिर से सत्ता हथियाने में लगे हुए थे। बची-खुची कसर पूरी करना चाहते होंगे!
हरियाणा: समृद्धि की इमारत के तलघर की सच्चाई
हरियाणा देश के उन चन्द राज्यों में से एक है जो अपने आर्थिक विकास की कहानी को लेकर लगातार सुर्खियों में बना रहता है। दिलचस्प बात यह है कि कुपोषण की कहानी में भी इसकी भूमिका कहीं से भी सहायक की नहीं लगती। हरियाणा में 6-35 महीने के आयुवर्ग के लगभग 82.3 फीसदी बच्चे खून की कमी का शिकार हैं। एन.एफ.एच.एस.-3 के अनुसार राज्य में तीन साल से कम उम्र के 43.3 प्रतिशत बच्चों का शारीरिक विकास बाधित है और एक साल से कम उम्र के 38.2 प्रतिशत बच्चे कम वजन के हैं। यह उस राज्य के बच्चों की स्थिति है जो तथाकथित बीमारू राज्यों (बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश) या उड़ीसा, झारखण्ड और छत्तीसगढ़ जैसे ग़रीब राज्यों में शामिल नहीं है और अपनी समृद्धि के लिए जाना जाता है, जहाँ प्रति व्यक्ति औसत आय काफी अधिक है। कृषि विकास दर भी तुलनात्मक रूप से ज़्यादा है और प्रति व्यक्ति अनाज की उपलब्धता भी अधिक है। आर्थिक विकास के सभी दावे कितने भ्रामक और खोखले हैं इसी से साफ हो जाता है। निश्चित रूप से हरियाणा के कुलकों और फार्मरों के लिए तो विकास की हर नेमत है और प्रति व्यक्ति आय के अधिक होने का एक कारण उनकी आसमान छूती आमदनी भी है। लेकिन उनकी समृद्धि की इमारत के तलघर में दलित, खेतिहर मज़दूरों और आम मेहनतकशों की भारी आबादी है जो भुखमरी और कुपोषण के चक्के तले पिस रही है। ये आँकड़े उसी आबादी की जीवन-स्थितियों की एक तस्वीर पेश करते हैं।
महाराष्ट्र – कांग्रेस के आर्थिक विकास के बुलबुले की हकीकत
कांग्रेस-शासित राज्यों में से महाराष्ट्र दूसरा राज्य है जहाँ कुपोषण और भूख की मौजूदा गम्भीर स्थिति वहाँ के आर्थिक विकास की कहानी पर सवालिया निशान खड़ा करती है। महाराष्ट्र में हर साल होने वाली बच्चों की मौतों में से 50 से 56 प्रतिशत, यानी लगभग 45,000 बच्चों की मौत का कारण कुपोषण है। असली मौतों की संख्या इससे कहीं ज़्यादा हो सकती है क्योंकि कुपोषण और उससे होने वाली मौतों के सही आँकड़े जुटा पाना ही एक बहुत बड़ी समस्या है। अव्वलन तो सरकारी अस्पताल ज़्यादातर मामलों को दर्ज ही नहीं करते। दूसरे, महाराष्ट्र के जो आदिवासी इलाके कुपोषण से सबसे बुरी तरह से प्रभावित हैं, वहाँ कुपोषण और उससे होने वाली बीमारियाँ इतनी आम हैं कि लोग बच्चों को अस्पताल ले जाने की ज़रूरत ही नहीं नहीं समझते। केवल वही मामले अस्पताल पहुँच पाते हैं या स्वास्थ्य अधिकारी की जानकारी में आते हैं जो बहुत गम्भीर हों। इन इलाको में बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएँ तक उपलब्ध नहीं हैं। मुख्यमन्त्री चव्हाण महोदय के विकास की मलाई मुम्बई की दलाल स्ट्रीट के दलालों और कारपोरेट घरानों के मालिकों के पेट भरने में ही ख़त्म हो जाती है। राज्य की ग़रीब जनता तक विकास की छाजन भी नहीं पहुँचती।
पूर्वोत्तर राज्य – परिधि पर धकेल दिया गया बचपन
देश के सात पूर्वोत्तर राज्यों में सबसे अधिक कुपोषित बच्चों की संख्या असम में है। पिछले साल जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, असम में 6,59,355 बच्चे अपेक्षाकृत कम तीव्रता से कुपोषित (ग्रेड 1 और 2 का कुपोषण) और 1,869 बच्चे अधिक तीव्रता से कुपोषित थे (ग्रेड 3 और 4 का कुपोषण)। मणिपुर में आई.सी.डी.एस. (समेकित बाल विकास सेवाएँ) योजना के तहत जाँचे गए 1,90,815 बच्चों में 25,935 अपेक्षाकृत कम तीव्रता से कुपोषित थे और 453 गम्भीर रूप से कुपोषित थे। मेघालय में यही आँकड़े, कम तीव्रता से कुपोषित बच्चों के लिए 70,566 थे और गम्भीर रूप से कुपोषित बच्चों की संख्या 272 थी। त्रिपुरा में 75,381 बच्चे अपेक्षाकृत कम तीव्रता से कुपोषित पाये गये और 621 गम्भीर रूप से। नगालैण्ड और मिजोरम के लिए यही आँकड़े क्रमशः 11,613 और 144 और 30,751 और 121 थे। असम में तीन साल से कम उम्र के बच्चों में कुपोषण का स्तर 33 प्रतिशत (एन.एफ.एच.एस.-2) से बढ़कर 40 प्रतिशत (एन.एफ.एच.एस.-3) हो गया है। यदि शिशु मृत्यु दर की बात करें तो पूरे देश में असम का स्थान चौथा है। हर रोज लगभग 132 शिशुओं की मृत्यु होती है। पाँच साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर भी काफी चिन्ताजनक है। ऐसे 169 बच्चों की मृत्यु प्रतिदिन होती है।
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देश का सत्ता वर्ग आम जनसमुदाय की आँखों में धूल झोंकने के लिए तरह-तरह की ‘‘कल्याणकारी’‘ योजनाएँ बनाता रहा है। हालाँकि उसे लागू कम किया जाता है और उसका ढिंढोरा ज़्यादा पीटा जाता है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली, समेकित बाल विकास योजना, रोज़गार गारण्टी योजना, फलाँ गाँधी रोज़गार योजना, फलाँ गाँधी आवास योजना, जैसी सैकड़ों योजनाएँ किताबों और फाइलों में सड़ रही हैं। लेकिन ये शायद कम थीं, कि हमारे देश की संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार एक नयी योजना ला रही है-खाद्यान्न सुरक्षा योजना। इस योजना के प्रस्ताव को पढ़कर ऐसा लगता है कि यह खाद्यान्न सुरक्षा योजना कम और खाद्यान्न असुरक्षा योजना अधिक है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि ग़रीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों को 35 किलोग्राम अनाज रियायती दरों पर मुहैया कराया जाय और इसके लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली को मज़बूत किया जाय। लेकिन इस नये अधिनियम के मसौदे से पता चलता है कि यह सीमा सरकार ने 35 किलोग्राम से घटाकर 25 किलोग्राम करने का मंसूबा बाँध रखा है। इसके अतिरिक्त, सार्वजनिक वितरण प्रणाली के स्थान पर कूपन व्यवस्था लागू करके इस अनाज के वितरण में भ्रष्टाचार को और बढ़ावा देने की साजिश भी की जा रही है। जाहिर है, अगर यह योजना अपने मौजूदा स्वरूप में लागू हो गयी तो जो नाममात्र की खाद्यान्न सुरक्षा मौजूद है वह भी जाती रहेगी। सरकार यह सारा काम इसलिए कर रही है कि खाद्यान्न वितरण का रहा-सहा नियमन (रेग्युलेशन) भी समाप्त हो जाए। इसके साथ ही खाद्यान्न व्यापार में वायदा व्यापार और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को मंजूरी देकर सरकार ने देश के अनाज को कारपोरेटों के गोदामों और शेयर मार्केट के दल्लों के पेट में पहुँचाने का भी पूरा प्रबन्ध कर दिया है। ऐसे में हमारे देश के फ्मासूम’‘ , फ्मानवतावादी’‘ और ‘‘मजबूर’‘ प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह देश के ग़रीबों की बदहाली, भूख और ग़रीबी पर कितने ही घड़ियाली आँसू बहा लें, यह बात साफ समझ में आ जाती है कि उनकी मासूमियत और मानवतावाद टाटा-बिड़ला-अम्बानी के लिए है और मजबूरी जनता के लिए।
कहने की ज़रूरत नहीं कि ऊपर बताए गए आँकड़े हर संवेदनशील व्यक्ति की अन्तरात्मा को झकझोर देने के लिए काफी हैं। यह सच्चाई उस देश की है जो 2020 तक दुनिया की महाशक्ति बनने का दम भर रहा है और जिस देश का अमीर दुनिया की हर सुख-सुविधा से लैस है और विलासिता के कीचड़ में डूब-उतरा रहा है। रिचर्ड ब्रैंसन नामक एक अमेरिकी पूँजीपति ने भारत के दौरे पर कहा था कि भारत जैसी ग़रीबी भी अमेरिका के पास नहीं है और भारत जैसी अमीरी भी अमेरिका के पास नहीं है। यह कथन ही बता देता है कि ‘इण्डिया इंक.’ की शानो-शौक़त और शोहरत के पीछे करोड़ों-करोड़ दम तोड़ते बच्चे हैं जिनपर पूँजीवादी व्यवस्था और मीडिया लगातार पर्दे डालने की कोशिश करता है। पूँजीवादी व्यवस्था के अन्तरविरोधों के कारण जो अधूरी तस्वीर हमारे सामने आती है, वह भी दिल दहला देने वाली है। यह सोचने की बात है कि अगर 63 वर्ष की आज़ादी के बाद, समस्त प्राकृतिक सम्पदाओं से लैस एक देश अपने बच्चों को एक स्वस्थ और सुन्दर बचपन तक नहीं दे पाता है, तो गड़बड़ी निश्चित तौर पर उस व्यवस्था में है जिसके तहत हम जी रहे हैं। यह चाहे कितनी भी घिसी-पिटी बात लगे, लेकिन सच है!-एक मुनाफा-केन्द्रित व्यवस्था अपने देश के लोगों को यही नायाब तोहफे दे सकती है! जिस व्यवस्था में आदमी की जान के ऊपर धनपशुओं और कफनखसोटों का मुनाफा हो, उसमें हम और क्या उम्मीद कर सकते हैं। यह पूरी भयावह तस्वीर किसी के लिए कुछ देर की सनसनी हो सकती है-महज़ एक ख़बर। लेकिन सच्चे नौजवानों के लिए यह इस मुर्दाखोर और बच्चों की लाशों पर रोटियाँ सेंकने वाली व्यवस्था के खि़लाफ बग़ावत का बिगुल फूँक देने के हज़ारों कारणों में से एक है। क्या अब एक ऐसी व्यवस्था को इतिहास की कचरापेटी में पहुँचा देने का वक़्त नहीं आ गया है जो आम मेहनतकश आबादी और उनके मासूम बच्चों के शरीर से खून का आखि़री कतरा तक निचोड़ लेने के लिए आमादा है? सिर्फ़ इसलिए ताकि अमीरज़ादों की तिजोरियों और तोंदों को मोटा किया जा सके? क्या बरबादी के छह दशक कम हैं बग़ावत और इंक़लाब का रास्ता अख्तियार करने का फैसला लेने के लिए? इतिहास इन्तज़ार कर रहा है हमारे फैसले का, और आने वाली पुश्तें भी, जो अभी पैदा नहीं हुई हैं।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2010
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