पूँजी की हवस और लुटते-कटते जंगल
पूँजी की हवस और लुटते-कटते जंगल अनन्त मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से लगभग 230 किलोमीटर उत्तर-पूर्व, बुन्देलखण्ड क्षेत्र के, छतरपुर ज़िले में स्थित है बक्सवाहा जंगल। बुन्देलखण्ड भारत का वह…
पूँजी की हवस और लुटते-कटते जंगल अनन्त मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से लगभग 230 किलोमीटर उत्तर-पूर्व, बुन्देलखण्ड क्षेत्र के, छतरपुर ज़िले में स्थित है बक्सवाहा जंगल। बुन्देलखण्ड भारत का वह…
जब पानी को सुगम और सर्वसुलभ ही न रहने दिया हो और उसे एक मुनाफ़ा देनेवाले उद्योग की शक्ल में बदल दिया हो तो क्रय शक्ति से कमजोर आम जन समुदाय के लिए उस तक पहुँच ही कठिन नहीं होगी बल्कि जल्दी ही यह उसके लिए एक विलासिता की सामग्री भी हो जायेगी, यह निश्चित है। पानी का एक मुनाफ़ेवाला कारोबार बनने के समय से ही पूरी दुनिया के कारोबारियों के बीच इस पर आधिपत्य के लिए भीषण प्रतिस्पर्धा जारी हो चुकी थी। लगभग 500 बिलियन डालर के इस वैश्विक बाज़ार के लिए यह होड़ बेशक अब और अधिक तीखी होने वाली है।
पूँजीवाद मानवजाति की एक ऐसी बीमारी है जो परजीवी की तरह न केवल मानवजाति को बल्कि पूरी प्रकृति को खाये जा रही है। और अगर यह यूँ ही जारी रहा तो जैसा कि रोजा लक्ज़मबर्ग ने कहा था कि समाजवाद न आने की कीमत मानवता को बर्बरता के तौर पर चुकानी पड़ेगी। लेकिन आज के सन्दर्भ में रोजा लक्ज़मबर्ग का यह कथन भी अधूरा प्रतीत होता है। आज हम निश्चित तौर पर दृढ़ता के साथ कह सकते हैं और न सिर्फ कह सकते हैं बल्कि हमें यह कहना ही चाहिए कि समाजवाद के न आने की कीमत हमको न केवल बर्बरता से बल्कि महाविनाश से चुकानी पड़ेगी।
इस तरह से यह साफ है कि ये सभी साम्राज्यवादी देश अपने साम्राज्यवादी हितों को लेकर बदहवास हो रहे हैं और कुछ भी करने को तैयार हैं। वैसे तो अमेरिका पर्यावरण को बचाने को लेकर और ग्लोबल वार्मिंग के मुद्दे को लेकर हमेशा ही नौटंकी करना रहता है लेकिन अपने साम्राज्यवादी हितों के लिए सबसे पहले पर्यावरण का शत्रु बन जाता है। वैसे भी प्राकृतिक संसाधनों के बँटवारे को लेकर हमेशा से ही साम्राज्यवादी देशों के बीच कुत्ता-घसीटी रही है। यही साम्राज्यवाद का चरित्र है। साम्राज्यवाद जो पूँजीवाद की चरम अवस्था है वह हमें बर्बादी के सिवा और कुछ नहीं दे सकता। जब इसे मानवता की ही कोई चिन्ता नहीं है तो फिर पर्यावरण की चिन्ता का ही क्या मतलब रह जाता है। इस व्यवस्था का एक-एक दिन हमारे ऊपर भयंकर श्राप की तरह है। पर्यावरण की चिन्ता भी वही व्यवस्था कर सकती है जिसके केन्द्र में मानव हो न कि मुनाफा।
इन दूरदर्शी चिन्तकों ने ‘‘समेकित’‘ विकास के अन्तर्गत पर्यावरण संरक्षण का एक नया फार्मूला विकसित किया है – पर्यावरण संरक्षण को व्यापार तथा पूँजी निवेश के एक व्यापक क्षेत्र में विकसित कर इसे मुनाफे के स्रोत में बदलना। इस प्रकार पारम्परिक विकास के उल्टा ये फार्मूला औद्योगिकीकरण और पर्यावरण संरक्षण के बीच समन्वय स्थापित करने का प्रयास करता दिखता है। इस नयी विचारधारा को ‘‘हरित’‘ नव-उदारवाद या ‘‘मुक्त’‘ बाज़ार पर्यावरणवाद का नाम दिया गया है। पर्यावरण संरक्षण का यह बाज़ार हल मूल्य के मानक और पूँजीवादी सम्पत्ति अधिकारों पर आधारित है। पिछले एक दशक में इसके तहत ‘‘ग्रीन’‘ तकनीकों तथा प्रमाणित उत्सर्जन कटौतियों (सर्टीफाइड एमिसन्स रिडक्सन्स – सीईआर्स) का एक व्यापक लाभदायी विश्व बाज़ार विकसित हुआ है। वास्तव में कई मामलों में तो यह ‘‘ग्रीन’‘ व्यापार इतना अधिक फायदेमन्द साबित हुआ है कि कई इकाइयों ने मुख्य धारा के व्यापार की अपेक्षा कार्बन व्यापार से कई गुना मुनाफा कमाने की बात स्वीकारी है। अतः इस तेज़ी से उभरते बाज़ार पर अपना एकाधिकार स्थापित करने के लिए विभिन्न देशों व विभिन्न निजी पूँजीपतियों के बीच होड़ ओर तेज़ हो गयी है। जिसे ग्रीन रेस का नाम दिया जा रहा है।
यह आज का सच है कि इस पूँजीवादी व्यवस्था ने, अपनी-अपनी आलीशान लक्ज़री गाड़ियों की गद्दीदार सीटों में मोटी-मोटी तोंदें लेकर धँसे धनपुशओं ने अधिक से अधिक मुनाफा पीटने की हवस में पृथ्वी के पर्यावरण को बेहिसाब क्षति पहुँचायी है और अभी भी पहुँचा रहे हैं। लेकिन इसके साथ ही यह भी सच है कि आज यह अहसास लोगों के दिलों में घर बना रहा है कि यह व्यवस्था आज लगभग समस्त मानव जाति के लिए एक बोझ बन चुकी है। आज यह व्यवस्था मानव जाति को कुछ भी सकारात्मक देने की अपनी शक्ति खो चुकी है। अब इसका स्थान इतिहास की कचरापेटी में ही है और इससे पहले कि पूँजीवाद पृथ्वी के पर्यावरण को मानवजाति के रहने लायक न छोड़े, यह व्यवस्था उखाड़ फेंकी जायेगी। मानव जाति ने इससे पहले भी अत्याचार और शोषण के अन्धकार में डूबी समाज व्यवस्थाओं को नष्ट किया है और प्रगति की ओर कदम बढ़ाये हैं।
पिछले दो दशकों के दौरान भारतीय पूँजीवाद का सबसे मानवद्रोही चेहरा उभरकर हमारे सामने आया है। उत्पादन के हर क्षेत्र में लागू की जा रही उदारीकरण-निजीकरण की नीतियाँ, एक तरफ मुनाफे और लूट की मार्जिन में अप्रत्याशित वृद्धि दरें हासिल करा रही हैं, वहीं दूसरी ओर आम जनजीवन से लेकर पर्यावरण के ऊपर सबसे भयंकर कहर बरपा करने का काम भी कर रही हैं। भारतीय खनन उद्योग इन नीतियों की सबसे सघन प्रयोग-भूमि बनकर उभरा है। यही कारण है कि कभी रेड्डी बन्धुओं के कारण, तो कभी सरकार द्वारा चलाये जा रहे ‘ऑपरेशन ग्रीन हण्ट’ के कारण खनन उद्योग लगातार चर्चा में रहा है।
पर्यावरण एक ऐसी व्यवस्था में ही बचाया जा सकता है जहाँ मनुष्य न तो पर्यावरण का स्वामी या व्यापारी होता है और न ही उसका गुलाम। पर्यावरण एक ऐसी व्यवस्था में ही बचाया जा सकता है जहाँ मुनाफ़ा केन्द्र न हो और मानव समाज पर्यावरण के साथ सामंजस्य और साहचर्य में रहता हो।