मारुति सुजुकी के मज़दूरों का संघर्ष और भारत के ‘‘नव-दार्शनिकों” के “अति-वामपन्थी” भ्रम और फन्तासियाँ
अभिनव
हाल के कुछ वर्षों में, हम भारत में मज़दूर वर्ग के जुझारू संघर्षों में ज़बर्दस्त उभार के साक्षी रहे हैं। 1980 के दशक के अन्त से भारतीय बुर्जुआ वर्ग द्वारा किए जा रहे सतत् अनौपचारिकीकरण और विशेष तौर पर 1991 में नरसिंह राव की सरकार द्वारा लागू की गयी नई आर्थिक नीतियों ने भारत के मज़दूर वर्ग को भूखा मरने की कगार पर धकेल दिया है और उनके जीवन को अकल्पनीय रूप से मुश्किल बना दिया है। 2007 की वैश्विक आर्थिक मन्दी की शुरुआत से इस प्रक्रिया में नये सिरे से तेज़ी आई है। सभी जगह, पूँजी की ताक़तें लाभ के उत्तरजीविता-योग्य स्तर को बनाये रखने की कोशिश में, लागत को कम करके और सार्वजनिक व्यय को ”तार्किक” बनाकर मज़दूर वर्ग को हाशिये पर धकेलने को बुरी तरह से आमादा हैं। सत्ताधारी वर्ग की इन तमाम कोशिशों के चलते मज़दूर वर्ग के धैर्य का प्याला अब छलक रहा है। और भारत के मज़दूर वर्ग के जुझारू संघर्षों के हालिया उभार में धीरज खोते जाने की यही प्रक्रिया सामने आयी है।
18 जुलाई की घटना से पहले और, एक अलग तरीके से, 18 जुलाई के बाद मारुति सुजुकी के मज़दूरों का संघर्ष दरअसल इसी प्रक्रिया का एक हिस्सा है। निस्सन्देह, विभिन्न कारणों से, मारुति सुजुकी के मज़दूरों के संघर्ष को मज़दूर वर्ग के मौजूदा जुझारूपन का एक प्रतिनिधि उदाहरण माना जा सकता है। जाहिर तौर पर, इनमें से एक कारण यह है कि मारुति सुज़ुकी भारत की अग्रणी कार निर्माता कम्पनी है जिसका मार्केट शेयर लगभग सभी श्रेणियों में सबसे ज़्यादा है। दूसरा, 1980 के दशक से भारत में और 1960 के दशक से समूची विश्व पूँजीवादी व्यवस्था में ऑटोमोबाइल सेक्टर का महत्व प्रश्नातीत है; जाहिरा तौर पर, इस सेक्टर में पूँजी संचय की प्रक्रिया में कोई भी उथल-पुथल या बाधा पूँजीवादी व्यवस्था के लिए ख़तरे की घण्टी के समान है। इसी वजह से हरियाणा सरकार, केन्द्र सरकार और सभी चुनावी पार्टियों के प्रतिनिधियों ने खुले, नंगे तरीके से और पूरी बेशर्मी के साथ कम्पनी का समर्थन किया। 18 जुलाई की घटना मारुति प्रबन्धन और सरकार, और यहाँ तक कि आम नागरिकों के लिए भी एक चौंकाने वाली घटना के रूप में सामने आयी। इस घटना के बाद कारपोरेट मीडिया बढ़-चढ़कर मज़दूरों को अपराधी ठहराने पर तुला हुआ था और राज्यसत्ता ने मज़दूरों के खि़लाफ भयावह दमनचक्र चला रखा था और मानेसर के इलाके में “आतंक का राज्य” कायम कर रखा था। घटना के तुरन्त बाद मारुति के करीब सौ मज़दूरों को गिरफ्तार कर लिया गया और बाद के दिनों में मज़दूरों की धरपकड़ की कार्रवाइयाँ जारी रहीं और कई अन्य मज़दूरों की गिरफ्तारियाँ हुईं। प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित जनवादी अधिकार संगठन ‘पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स’ की जाँच से अब यह तथ्य सामने आ चुका है कि गिरफ्तार मज़दूरों को हरियाणा पुलिस ने बर्बर यातनाएँ दी हैं। प्रबन्धन के पालतू बाउंसरों द्वारा हिंसा की शुरुआत के गम्भीर आरोपों के बावजूद अदालत ने नेतृत्वकारी मज़दूरों को पुलिस हिरासत में भेजने में ज़रा भी वक़्त ज़ाया नहीं किया, जबकि कानूनी तौर पर उचित यह होता कि अदालत इस पूरे मामले की उच्चस्तरीय जाँच का आदेश देती। ये सभी तथ्य स्पष्टतः दर्शाते हैं कि जैसे ही मज़दूर अपने अधिकारों के लिए लड़ना शुरू करते हैं, या पूँजी के हमलों का विरोध करना शुरू करते हैं वैसे ही बुर्जुआ राज्य अपने रहे-सहे ”लोकतान्त्रिक” मुखौटों को भी कचरा-पेटी में फेंक देता है, और इससे यह भी जाहिर होता है कि सबसे उदार बुर्जुआ राज्य भी अपने सार रूप में बुर्जुआ वर्ग की तानाशाही ही होता है। 21 अगस्त को, मानेसर संयंत्र को भारी पुलिस सुरक्षा के बीच चालू किया गया, लेकिन 500 मज़दूरों को निहायत गैरकानूनी ढंग से कम्पनी से निकाल दिया गया। कम्पनी और राज्य की एजेंसियों द्वारा मज़दूरों के उत्पीड़न की कार्रवाई, श्रम-कानूनों की, या किसी भी किस्म के कानून की, परवाह न करते हुए अभी तक जारी है। पूँजीवादी लोकतन्त्र के चारों खम्भे, यानी विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका, और मीडिया खुलेआम पूँजी के हितों की सुरक्षा कर रही हैं।
मारुति सुजुकी के मज़दूरों का संघर्ष निस्सन्देह हमारे समय का एक बेहद महत्वपूर्ण संघर्ष है। अपने संघर्ष में मज़दूरों ने शानदार साहस और एकजुटता का प्रदर्शन किया है। हो सकता है कि फिलहाल मज़दूर थोड़ा पस्तहिम्मती का शिकार हों और राज्यसत्ता की एजेंसियों के उत्पीड़न से बचने के लिए दर-दर भटक रहे हों। लेकिन वे बार-बार गिरकर खड़े हो रहे हैं, हार मानने को तैयार नहीं हैं और अपना संघर्ष जारी रखे हुए हैं। इसीलिए, उनके संघर्ष ने पूँजी की ताकतों में भय का संचार किया है। मानेसर प्लाण्ट को दोबारा चालू करने से पहले कम्पनी ने एक वक्तव्य में कहा कि मारुति सुजुकी धीरे-धीरे कम्पनी में ठेके की व्यवस्था को समाप्त करेगी, या बहुलांश मज़दूरों को स्थायी अनुबन्ध पर रखा जायेगा। कम्पनी ऐसा करे या न करे, यह बयान उसके भय को अवश्य दिखलाता है। ऐसा मज़दूर जुझारूपन, जो कि मारुति सुजुकी के मज़दूरों ने दिखाया है, वह कुचल दिया जाये तो भी लम्बे दौर में कुछ उपलब्धियाँ अवश्य हासिल करता है। मारुति सुजुकी के मज़दूरों के संघर्ष के इन सकारात्मक नतीजों के बावजूद, इसे एक रैडिकल और आलोचनात्मक दृष्टिकोण से समझना ज़रूरी है। मारुति सुजुकी मज़दूरों के संघर्ष का एक आलोचनात्मक मूल्यांकन आज इसलिए भी और ज़रूरी, बल्कि निहायत ज़रूरी और अत्यावश्यक कार्य हो जाता है, क्योंकि इस समय मज़दूर वर्ग की स्वतःस्फूर्तता का अनालोचनात्मक उत्सव मनाने की प्रवृत्तियाँ देखी जा रही है, और यह प्रवृत्ति क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन के कुछ हिस्सों के साथ-साथ विभिन्न प्रकार के राजनीतिक नौदौलतियों के बीच भी खास तौर पर प्रचलित है। जाहिर है कि कोई भी क्रान्तिकारी समूह या बुद्धिजीवी मज़दूर वर्ग के स्वतःस्फूत उभारों का स्वागत करेगा। यद्यपि, ऐसे किसी भी समूह या व्यक्ति की असली जिम्मेदारी ठीक इसी बिन्दु से शुरू होती है, और वह जिम्मेदारी है इस उभार या आन्दोलन के साथ एक आलोचनात्मक अन्तर्क्रिया का सम्बन्ध स्थापित करना, न कि मज़दूर वर्ग की स्वतःस्फूर्तता को ही उत्सव मनाने या अन्धभक्ति करने की विषयवस्तु बना देना। ऐसे उत्सवों के कारण भारत में क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन के विघटन और साथ ही साथ मज़दूर आन्दोलन में पसरी निराशा में निहित प्रतीत होते हैं। जैसा कि पहले जिक्र किया जा चुका है, मज़दूर आन्दोलन के हालिया उभारों के पहले सन्नाटे का एक लम्बा दौर था। और अब जबकि यह सन्नाटा टूट रहा है, तो समूहों और व्यक्तियों समेत पूरे क्रान्तिकारी वाम के दायरों में, बिना सोचे-समझे हर्षातिरेक के लक्षण दिखलायी पड़ रहे हैं।1 यह स्पष्टीकरण देना यहाँ इसलिए देना ज़रूरी था, क्योंकि कुछ लोग ऐसा समझ बैठे हैं कि हम स्वतःस्फूर्तता के विरोधी हैं; हम एक बार फिर से बता देना चाहते हैं कि हम स्वतःस्फूर्तता के नहीं, स्वतःस्फूर्ततावाद के विरोधी हैं, और इस मामले में हम यह दावा नहीं कर सकते कि हमने कुछ नया या कोई आविष्कार कर दिया है!
जुलाई 18 की घटना के तुरन्त बाद विभिन्न संगठनों ने देश के विभिन्न हिस्सों में संयुक्त विरोध-प्रदर्शन आयोजित किये। मज़दूरों के बयानों और अन्य साक्ष्यों से स्पष्ट था कि मारुति सुजुकी प्रबन्धन ने मज़दूरों को अपमानित किया था और उकसाया था। प्रबन्धन के भाड़े के गुण्डों ने उन पर हमला किया था और जवाबी कार्रवाई और अपना बचाव करने के लिए मज़दूरों ने हिंसा का सहारा लिया था। मज़दूरों के अनुसार, मारुति सुजुकी के एक अधिकारी की मौत उनके कारण नहीं हुई थी, बल्कि यह प्रबन्धन और उसके गुण्डों की साजिश थी। उन्होंने यह भी दावा किया कि प्रबन्धन के भाड़े के गुण्डों ने ही कम्पनी की सम्पत्ति को आग लगायी थी। यह स्पष्ट है कि इस घटना के पहले मज़दूर सामान्य ढंग से काम कर रहे थे और उत्पादन कर रहे थे, और किसी भी तरीके से यह समझ में नहीं आता कि अचानक उन्होंने हिंसात्मक कार्रवाई क्यों शुरू कर दी। सच्चाई यह है कि पहले की हड़तालों के विफल होने के बाद से ही प्रबन्धन मज़दूरों को अपमानित और प्रताड़ित कर रहा था। इन विफल रही हड़तालों को सीटू, एटक और एचएमएस जैसी एजेण्ट यूनियनें ही नहीं बल्कि तथाकथित “अति-वामपन्थी” संगठनों और कार्यकर्ताओं ने भी ”जीत” के रूप में प्रचारित किया था। मज़दूरों में जबरदस्त असन्तोष था और जुलाई 18 को प्रबन्धन के उकसावे पर यह असन्तोष विस्फोट के रूप में फूट पड़ा। दिलचस्प बात है कि, तथ्यों को पूरी तरह नजरन्दाज़ करते हुए दो प्रकार के लोग मज़दूरों की तरफ से सुनियोजित/सचेतन कार्रवाई की बात कर रहे हैं: एक तो स्वयं राज्य है और दूसरे हैं अतिआशावादी “अतिवामपन्थी” बुद्धिजीवी। राज्य इस झूठ का प्रचार कर रहा है कि कुछ मज़दूर सीपीआई (माओवादी) के सम्पर्क में थे और उन्होंने ही हिंसा की कार्रवाई को अंजाम दिया था; इस प्रचार के पीछे राज्य की मंशा जगजाहिर है। लेकिन, इन अतिशय प्रफुल्लित “अतिवामपन्थी” बुद्धिजीवियों की मंशा क्या है? यह समझने के लिए, हमें उनकी दलीलों पर विचार करना होगा और समझना होगा कि वे कहाँ से पैदा होकर आ रही हैं।
जैसा कि हमने पहले जिक्र किया है, इन बुद्धिजीवियों की एक प्रमुख दलील यह है कि मारुति का संघर्ष यह दिखलाता है कि मज़दूरों की चेतना हिरावल शक्तियों की चेतना से आगे निकल गयी है। मज़दूरों ने हिरावल के बिना सचेतन ढंग से खुद को संगठित किया है; और जो लोग मज़दूरों की कार्रवाई को स्वतःस्फूर्त और प्रतिक्रियात्मक कार्रवाई कह रहे हैं, वे ग़लत हैं; इन ‘‘नव-दार्शनिकों” की राय में ये शक्तियाँ स्वघोषित हिरावल हैं; ये बुद्धिजीवी दलील देते हैं कि मारुति में मज़दूरों की कार्रवाई दिखाती है कि स्वतःस्फूर्त, प्रतिक्रियात्मक कार्रवाई का दौर अब बीते ज़माने की चीज़ बन चुका है; मज़दूर अब आत्म-संगठन की अवस्था में पहुँच गये हैं और अब वे समझ चुके हैं कि मज़दूरी पर काम कराने की पूरी व्यवस्था को ही समाप्त कर देना होगा; अब, वे जान गये हैं कि वे ‘क्या करें’! इन ‘‘नव-दार्शनिकों” के जिन वक्तव्यों और भाषणों पर हमने ग़ौर किया है उसमें हमने कहीं भी उन्हें साफ-साफ हिरावल की ज़रूरत से ही इंकार करते नहीं देखा है। वे जो कह रहे हैं, कम से कम औपचारिक ढंग से, वह यह है कि इस मामले में हिरावल वर्ग की चेतना से पीछे रह गया है। हालाँकि, जब हम उनकी दलीलों को परत-दर-परत उघाड़ते हैं तो देखते हैं कि यह वास्तव में यह और कुछ नहीं बल्कि हिरावल की भूमिका को ख़ारिज करना है। इस उल्लासोन्माद की काई सीमा नहीं है और वे इस तथ्य से भावविभोर हैं कि मारुति सुजुकी के मज़दूरों ने नौकरशाह ट्रेड यूनियनों और प्रबन्धन द्वारा खींची सीमाओं का अतिक्रमण करके हिरावल की किसी भूमिका के बिना ही खुद को सचेतन ढंग से संगठित किया है। वे उन लोगों से बेहद ख़फा हैं जो हिरावल की भूमिका की याद दिला रहे हैं! इन बुद्धिजीवियों के अनुसार एक चीज़ जो उन्नत वर्ग चेतना और यहाँ तक कि मज़दूरों की राजनीतिक चेतना का प्रतीक है वह है स्थायी, ठेका, कैजुअल, अप्रेण्टिस और प्रशिक्षु मज़दूरों के बीच एकता की स्थापना (हालाँकि इस दावे की भी करीबी से पड़ताल किये जाने की ज़रूरत है)। वे चकित और अवाक् हैं! मज़दूर स्थायी, ठेका, कैजुअल आदि स्तरों के बीच एकता कैसे स्थापित कर सकते हैं!! उनके अनुसार यह दिखलाता है कि मज़दूर एक वर्ग के तौर पर राजनीतिक रूप से स्वतः संगठित हो सकते हैं, हिरावल के प्रयास के बिना, हालाँकि औपचारिक तौर पर वे हिरावल पार्टी के सिद्धान्त को चुनौती नहीं दे रहे हैं (ऐसा इस तथ्य के कारण भी हो सकता है कि इनमें से कई बुद्धिजीवी समूह खुद को भारत का नया सम्भावनासम्पन्न क्रान्तिकारी केन्द्र (निर्माणाधीन) समझते हैं, और अगर वे हिरावल की भूमिका को ही ख़ारिज कर देते हैं, तो उनके अपने अस्तित्व का औचित्य ही खतरे में पड़ जायेगा!)। लेकिन व्यवहार में, वे हिरावल के लेनिनवादी सिद्धान्त को खारिज कर रहे हैं। हाल ही में, कुछ लोगों ने यह भी सिद्ध करने का प्रयास किया है मज़दूर वर्ग के संगठन के पूरे सिद्धान्त की ही आलोचनात्मक समीक्षा किये जाने की ज़रूरत है। अपने इस प्रयास में उन्होंने मार्क्स के प्राधिकार और उनके युग में प्रभावी मज़दूर वर्ग के संगठन के सिद्धान्त का आवाहन किया है। ये लोग यह सिद्ध करने की मशक्कत कर रहे हैं कि पार्टी का लेनिनवादी सिद्धान्त वास्तव में मज़दूर वर्ग के संगठन के मार्क्सवादी सिद्धान्त विध्वंस है (हालाँकि ये लोग लेनिन और पार्टी के उनके सिद्धान्त का नाम भी नहीं लेते, लेकिन उनकी पूरी थीसिस में यह बात अन्तर्निहित है)। मैं कहूँगा कि यह प्रयास अपने अप्रोच में निहायत अनैतिहासिक है। मार्क्स और एंगेल्स का युग और उनके युग में सम्भावित मज़दूर क्रान्तियों की प्रकृति, उस समय की बुर्जुआ राज्यसत्ता और यूरोपीय मज़दूर वर्ग चेतना की प्रकृति लेनिन के युग से बेहद अलग थीं, और हमारे युग से तो और भी अलग हैं। यहाँ, हम मज़दूर वर्ग के संगठन की अवधारणा का एक अतिमूलकरण (एसेंशियलाइज़ेशन) देख सकते हैं। जैसे ही पूँजीवाद ने साम्राज्यवाद के युग में प्रवेश किया; जैसे ही सर्वहारा क्रान्तियों का केन्द्र पश्चिम से पूर्व की ओर स्थानान्तरित हुआ; यूरोप में मज़दूर क्रान्तियों के प्रथम प्रयास विफल हुए, और बुर्जुआ राज्य राजनीतिक समाज (राज्यसत्ता) और नागरिक समाज, दोनों में ही सुदृढ़ीकृत हुआ और जनसंख्या की भारी बहुसंख्या से कटी हुई ऊपर से थोपी एक शक्ति नहीं रह गया जिसका बेहद संकीर्ण सामाजिक आधार हो; वैसे ही पार्टी के एक नये सिद्धान्त की ज़रूरत पैदा हो गयी। पार्टी की प्रकृति को लेकर रूसी सामाजिक जनवादी पार्टी में चली बहसें इसी आवश्यकता की पहचान थीं। पार्टी का लेनिनवादी सिद्धान्त इसी ज़रूरत का सही जवाब था। अगर कोई इस पूरी प्रक्रिया के इतिहास को भूल जाये और बस सीधे ‘मार्क्स की ओर वापसी’ का नारा दे तो, जहाँ तक मौजूदा दौर में मज़दूर वर्ग के क्रान्तिकारी व्यवहार का प्रश्न है, वास्तव में यह नारा एक अनैतिहासिक और प्रतिगामी नारा बन जाता है।2 दरअसल, ऐसी सभी ”थीसीज़” पान्नेकोएक और मात्तिक जैसे काउंसिल कम्युनिस्टों और कॉर्नेलियस कास्तोरियादिस जैसे स्वच्छन्दतावादी समाजवादियों (लिबर्टैरियन सोशलिस्ट) के प्राधिकार का आवाहन करती हैं, न कि मार्क्स। मार्क्स की बात तो महज़ एक दिखावा और छल है। उनकी राजनीतिक नस्ल की सही पहचान पान्नेकोएक, मात्तिक, कास्तोरियादिस जैसों से होती है। लेकिन हम इस व्यापक मुद्दे पर यहाँ और विस्तार में नहीं जा सकते क्योंकि स्थान की कमी है और हम मूल मुद्दे पर वापस लौटना चाहेंगे।
अब, अगर हम इन ‘‘नव-दार्शनिकों” की मुख्य दलील का विस्तृत विश्लेषण करें, तो हम पायेंगे कि यह दलील दो तरीकों से बेहद अजीबोगरीब है। पहला, तथ्य उनके सिद्धान्त का समर्थन नहीं करते! जुलाई 18 की घटना बिल्कुल ठीक यही दर्शाती है कि प्रतिक्रियात्मक कार्रवाई का क्षण/अवस्था अभी गुज़री नहीं है! दिल्ली में विभिन्न वाम संगठनों द्वारा आयोजित अनेक कार्यक्रमों में मज़दूरों द्वारा दिए गये बयानों से स्पष्ट होता है कि मज़दूरों की कार्रवाई, वास्तव में, पूरी तरह प्रतिक्रियात्मक तौर पर ही की गयी थी।3 भारतीय सामाजिक संस्थान में हाल ही में आयोजित एक कार्यक्रम में नौकरी से निकाले गये कई मज़दूरों ने कहा कि वे प्रबन्धन की साजिश को समझ नहीं सके थे; केवल प्रबन्धन के पालतू गुण्डों की हिंसा की प्रतिक्रिया में ही उन्होंने हिंसा का सहारा लिया था; बेशक, उन्होंने हड़ताल के बाद से प्रबन्धन के लगातार जारी दुर्व्यवहार के बारे में भी बताया और यह भी कि इससे मज़दूरों के बीच रोष था और जुलाई 18 को जो हुआ वह लम्बे समय से मज़दूरों के भीतर पल रहे गुस्से का ही विस्फोट था। जब हम कहते हैं कि यह मज़दूरों की स्वतःस्फूर्त प्रतिक्रियात्मक कार्रवाई थी, तो इसका मतलब यह नहीं (और कैसे हो सकता है!!) कि मारुति सुजुकी के मज़दूर वर्ग सचेत नहीं हैं, कि वे राजनीतिक रूप से निरक्षर हैं, आदि। इसका सिर्फ यह मतलब है कि हमें तथ्यों का सम्मान करना चाहिए और अपने व्यक्तिगत विचारधारात्मक/राजनीतिक पूर्वाग्रहों के अनुरूप उन्हें तोड़-मरोड़कर नहीं पेश करना चाहिए। वर्ग सचेत मज़दूर भी स्वतःस्फूर्त, प्रतिक्रियात्मक कार्रवाई कर सकते हैं, और अतीत में करते रहे हैं। मज़दूरों ने जो किया सम्भवतः उस समय वहीं एकमात्र विकल्प था। जवाबी हमला करने के अलावा उनके पास कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा था।
भारत के ‘‘नव-दार्शनिकों” की मुख्य दलील जिस दूसरे तरीके से भ्रामक है उसका सम्बन्ध सिद्धान्त के प्रश्न से है। अभी भी इनमें से अधिकतर बुद्धिजीवी स्वयं को लेनिनवादी कहते हैं। हालाँकि, अगर हम मज़दूरों की कार्रवाई की बहुसंस्तरीय स्वतःस्फूर्तता और सचेतनता के प्रश्न पर लेनिन की अवस्थिति को देखें, तो हमें पता चलेगा कि ये बुद्धिजीवी किस प्रकार के ”लेनिनवाद” में आस्था रखते हैं:
“—और अगर हम ”स्वतःस्फूर्त तत्व” की बात करें, तो बेशक, सबसे पहले इस हड़ताल के आन्दोलन को ही स्वतःस्फूर्त मानना चाहिए। लेकिन स्वतःस्फूर्तता के कई प्रकार होते हैं। रूस में साठ और सत्तर के दशक में (और यहाँ तक कि उन्नीसवीं सदी के पहले अर्द्धांश में भी) हड़तालें हुईं, और उनमें मशीनों का स्वतःस्फूर्त तरीके से विनाश हुआ, आदि। इन ”विद्रोहों” की तुलना में, नब्बे के दशक की हड़तालों को भी ”सचेतन” कहा जा सकता है, और वे इस सीमा तक मज़दूर वर्ग के आन्दोलन द्वारा इस अवधि में हासिल उन्नति को चिन्हित करती हैं। यह दर्शाता है कि ”स्वतःस्फूर्त तत्व”, सारतः, भ्रूण रूपी चेतना के अलावा और कुछ नहीं है। यहाँ तक कि आदिम विद्रोह भी एक किस्म की चेतना के एक ख़ास स्तर तक जागृत होने की अभिव्यक्ति थे। उत्पीड़नकारी व्यवस्था के स्थायित्व के सिद्धान्त पर युगों-युगों से चली आ रही मज़दूरों की आस्था कमज़ोर पड़ने लगी थी और उन्होंने सामूहिक प्रतिरोध की ज़रूरत को महसूस करना, मैं यह नहीं कहूँगा कि समझना, शुरू कर दिया था और निश्चित तौर पर अधिकारियों के समक्ष दासवत समर्पण का परित्याग कर दिया था। लेकिन, फिर भी, इसकी प्रकृति संघर्ष की नहीं बल्कि निराशा और प्रतिशोध के फूट पड़ने की ही ज़्यादा थी। नब्बे के दशक की हड़तालों ने सचेतनता के कहीं अधिक चिन्ह दर्शाये; ठोस माँगें पेश की गयीं, हड़तालों का समय सावधानीपूर्वक तय किया गया था, अन्य जगहों के ज्ञात मामलों और घटनाओं पर विचार-विमर्श किया गया, आदि। विद्रोह सिर्फ उत्पीड़ित लोगों का प्रतिरोध थे, जबकि व्यवस्थित हड़तालें भ्रूण रूपी वर्ग संघर्ष का प्रतिनिधित्व करती थीं, लेकिन केवल भ्रूण रूप में ही। अपने आप में, ये हड़तालें सिर्फ ट्रेड यूनियनों का संघर्ष थीं, और तबतक सामाजिक जनवादी (यानी, कम्युनिस्ट-अनुवादक) संघर्ष नहीं बनी थीं। वे मज़दूरों और नियोक्ताओं के बीच उभरते अन्तरविरोधों का संकेत थीं; लेकिन मज़दूर पूरी आधुनिक राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था के साथ अपने हितों के असमाधेय अन्तरविरोध के प्रति सचेत नहीं थे, और न हो सकते थे, अर्थात, उनकी चेतना अभी सामाजिक-जनवादी चेतना नहीं थी। इस रूप में, नब्बे के दशक की हड़तालें, ”विद्रोहों” की तुलना में बहुत अधिक उन्नत होते हुए भी, पूरी तरह स्वतःस्फूर्त आन्दोलन ही थीं।” (लेनिन, 1977, पृ.113-114, अंग्रेज़ी संस्करण, अनुवाद हमारा)
साथ ही, काऊत्स्की भी, जब तक वे सही रास्ते पर थे, इस बारे में भी स्पष्ट थेः
”हमारे कई संशोधनवादी आलोचकों का विश्वास है कि मार्क्स ने दावा किया था कि आर्थिक विकास और वर्ग संघर्ष न सिर्फ समाजवादी उत्पादन की स्थितियाँ, बल्कि, प्रत्यक्ष तौर पर, इसकी अपरिहार्यता की चेतना भी निर्मित करते हैं। और इन आलोचकों का दावा है कि इंग्लैण्ड, सबसे उन्नत पूँजीवादी देश, किसी अन्य देश की अपेक्षा इस चेतना से सबसे दूर है। मसौदे के आधार पर, यह माना जा सकता है कि यह कथित परम्परागत मार्क्सवादी दृष्टि, जिसका इस प्रकार स्वतः ही खण्डन हो जाता है, पर उस समिति की साझा सहमति थी जिसने आस्ट्रियाई कार्यक्रम का मसौदा तैयार किया था। मसौदा कार्यक्रम में कहा गया हैः ‘पूँजीवादी विकास सर्वहारा की संख्या में जितनी अधिक वृद्धि करता है, उतना ही अधिक सर्वहारा पूँजीवाद के खि़लाफ लड़ने को बाध्य होता है और उतना ही योग्य बनता जाता है। सर्वहारा समाजवाद की सम्भावना और उसकी ज़रूरत के प्रति सचेत हो जाता है।’ इस सम्बन्ध में ऐसा लगता है कि समाजवादी चेतना सर्वहारा वर्ग संघर्ष का एक अपरिहार्य और सीधा परिणाम है। लेकिन यह निहायत गलत है। बेशक, एक सिद्धान्त के तौर पर समाजवाद की जड़ें आधुनिक आर्थिक सम्बन्धों में हैं जैसे कि सर्वहारा के वर्ग संघर्ष जड़ें, और, सर्वहारा के वर्ग संघर्ष की तरह ही यह पूँजीवाद-जनित आम ग़रीबी और विपदा के खिलाफ संघर्ष से उभरता है। लेकिन समाजवाद और वर्ग संघर्ष साथ-साथ विकसित होते हैं न कि एक-दूसरे के कारण जन्म लेते हैं; दोनों अलग-अलग स्थितियों के तहत उत्पन्न होते हैं। आधुनिक समाजवादी चेतना केवल गहन वैज्ञानिक ज्ञान के आधार पर उत्पन्न हो सकती है। वास्तव में, आधुनिक अर्थशास्त्र का विज्ञान समाजवादी उत्पादन की उतनी ही ज़रूरी शर्त है जितनी कि कह लीजिए आधुनिक तकनीक, और सर्वहारा इन दोनों में से किसी का निर्माण नहीं कर सकता, चाहे वह ऐसा करने की उसकी कितनी भी इच्छा क्यों न हो; दोनों आधुनिक सामाजिक प्रक्रिया से उत्पन्न होते हैं। विज्ञान का वाहक सर्वहारा नहीं, बल्कि बुर्जुआ बौद्धिक वर्ग हैः इसी संस्तर के अलग-अलग लोगों के दिमाग़ में आधुनिक समाजवाद उत्पन्न हुआ, और उन्हीं लोगों ने इसे बौद्धिक रूप से अपेक्षाकृत उन्नत सर्वहाराओं तक पहुँचाया जो, जहाँ स्थितियाँ इसके अनुकूल होती हैं, सर्वहारा वर्ग संघर्ष में इसका समावेश करते हैं। इस प्रकार, सर्वहारा के वर्ग संघर्ष में समाजवादी चेतना बाहर से लायी जाती है [von Aussen Hineingetragenes] न कि यह इसके भीतर से स्वतःस्फूर्त ढंग से [urwüchsig] पैदा होती है। तदनुरूप, पुराना हैनफेल्ड कार्यक्रम काफी सटीक ढंग से कहता है कि सामाजिक-जनवाद का काम सर्वहारा को उसकी स्थिति की चेतना और उसके कार्यभार की चेतना से भरना (शब्दशः सन्तृप्त कर देना) है। इसकी कोई आवश्यकता नहीं होती अगर चेतना वर्ग संघर्ष से स्वतः उत्पन्न हो जाती। नये मसौदे में यह प्रस्ताव पुराने मसौदे से उठा लिया गया है, और इसे उपरोक्त प्रस्ताव में जोड़ दिया गया है। लेकिन इससे विचारों की शृंखला पूरी तरह टूट गयी—” (वही, पृ.120-121, लेनिन द्वारा उद्धृत)
‘क्या करें?’ में लेनिन ने काऊत्स्की के इस कथन के साथ एक स्पष्टीकरण जोड़ा हैः
”बेशक, इसका यह अर्थ नहीं कि ऐसी विचारधारा निर्मित करने में मज़दूरों की कोई भूमिका नहीं है। हालाँकि, वे इसमें मज़दूर के तौर पर नहीं, बल्कि समाजवादी सिद्धान्तकारों के तौर पर, प्रूधों और वाइटलिंगों के रूप में, भागीदारी करते हैं; दूसरे शब्दों में, वे केवल तभी भाग लेते हैं और उसी हद तक भाग लेते हैं जब और जिस हद तक वे अपने युग का ज्ञान हासिल करने और उसे विकसित करने के कमोबेश योग्य हो जाते हैं। लेकिन मज़दूर इस कार्य में और अधिक सफल हों इसके लिए सामान्य तौर पर मज़दूरों की चेतना के स्तर को बढ़ाने के हरसम्भव प्रयास किये जाने चाहिए; यह ज़रूरी है कि मज़दूर खुद को ”मज़दूर साहित्य” की कृत्रिम सीमाओं में बाँधकर न रखें बल्कि वे सामान्य साहित्य में उत्तरोत्तर महारत हासिल करते जायेँ। ”खुद को बाँधकर न रखें” की बजाये “उन्हें बाँधकर न रखा जाये” कहना और भी उचित होगा, क्योंकि मज़दूर खुद पढ़ने की चाहत रखते हैं और वह सब पढ़ते हैं जो बौद्धिक तबके के लिए लिखा जाता है, और केवल कुछ (बुरे) बुद्धिजीवी ही ऐसा मानते हैं कि फैक्टरी की दशाओं के बारे में कुछेक चीजें बता देना और पहले से ज्ञात चीज़ों का ही बार-बार दुहराते जाना ”मज़दूरों के लिए” पर्याप्त है।” (वही, 121, फुटनोट में)
मारुति सुजुकी के संघर्ष के दौरान मज़दूरों ने चाहे जो भी किया हो (उदाहरण के लिए, एक अतिआशावादी बुद्धिजीवी बताते हैं कि किस तरह आम मज़दूरों ने मारुति सुजुकी प्लाण्ट में ट्रेड यूनियन नेतृत्व को पलट दिया था; कैसे ट्रेड यूनियन नेतृत्व पर चौकसी रखने के लिए उन्होंने आपस में शॉप फ्लोर स्तर पर तालमेल कायम किया था, आदि, आदि), चाहे उन्होंने ट्रेड यूनियन नौकरशाही का कितना भी विरोध किया हो, और 18 जुलाई को तथा अपने संघर्ष के दौरान वे चाहे कितने भी संगठित रहे हों; यह किसी भी तरह से उनकी राजनीतिक और विचारधारात्मक स्वायत्तता को प्रमाणित नहीं करता। मज़दूरों के संघर्ष के दौरान व्यावहारिक स्वायत्तता की ऐसी मात्र और ऐसे रूप कोई नयी चीज़ नहीं है जिसे लेकर ये बुद्धिजीवी इतने प्रफुल्लित हैं, और अपने आप में यह किसी भी तरह से यह नहीं दर्शाता कि अब हिरावल की कोई ज़रूरत नहीं रह गयी है, और/या कि हिरावल वर्ग की चेतना से पीछे रह गया है। मज़दूर आन्दोलन की सर्जनात्मकता, व्यावहारिक स्वायत्तता, भाईचारे, और जुझारूपन का स्तर चाहे जो भी रहा हो, मज़दूर आन्दोलन में विचारधारा और राजनीति का प्रश्न हमेशा कम्युनिस्ट ताक़तों के सचेतन प्रयास से आता है; यह मान लेना कि एक जुझारू मज़दूर आन्दोलन/ट्रेड यूनियन आन्दोलन वैचारिक रूप से स्वतः क्रान्तिकारी बन जायेगा कल्पनालोक में विचरण करने के समान है; जो इस बुनियादी चीज को नहीं समझते, वास्तव में वे मार्क्स के अलगाव के सिद्धान्त, लेनिन के हिरावल पार्टी के सिद्धान्त और हिरावलपन्थ और हिरावल पार्टी के लेनिनवादी सिद्धान्त को रत्ती भर भी नहीं समझते। ‘क्या करें?’ में लेनिन लिखते हैं:
”चूंकि स्वतन्त्र, ख़ुद आम मज़दूरों द्वारा अपने आन्दोलन की प्रक्रिया के दौरान विकसित विचारधारा का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता, इसलिए केवल ये रास्ते ही रह जाते हैं – या तो बुर्जुआ विचारधारा को चुना जाये या समाजवादी विचारधारा को। बीच का कोई रास्ता नहीं है (क्योंकि मानवजाति ने कोई ‘‘तीसरी” विचारधारा पैदा नहीं की है, और इसके अलावा जो समाज वर्ग विरोधों के कारण बँटा हुआ है, उसमें कोई ग़ैर वर्गीय या वर्गेतर विचारधारा कभी हो नहीं सकती)। इसलिए, समाजवादी विचारधारा के महत्व को किसी भी तरह कम करके आँकने, उससे ज़रा भी मुँह मोड़ने का मतलब बुर्जुआ विचारधारा को मज़बूत करना होता है। स्वयंस्फूर्तता की बहुत चर्चा हो रही है, लेकिन मज़दूर आन्दोलन के स्वयंस्फूर्त विकास का परिणाम यह होता है कि यह आन्दोलन बुर्जुआ विचारधारा के अधीन हो जाता है, उसका विकास क्रीडो के कार्यक्रम के अनुसार ही होने लगता है, क्योंकि स्वयंस्फूर्त मज़दूर आन्दोलन ट्रेड-यूनियनवाद होता है, जर्मन भाषा में कहें तो वह NurGewerkschaftlerei होता है, और ट्रेड-यूनियनवाद का मतलब मज़दूरों को विचारधारा के मामले में बुर्जुआ विचारधारा का दास बनाकर रखना होता है। इसलिए हमारा कार्यभार, सामाजिक-जनवादियों का कार्यभार है स्वयंस्फूर्ततावाद के खिलाफ लड़ना, मज़दूर वर्ग के आन्दोलन के उस स्वयंस्फूर्त, ट्रेड-यूनियनवादी रुझान को, जो उसे बुर्जुआ वर्ग के साये में ले जाता है, मोड़ना और और उसे क्रान्तिकारी सामाजिक-जनवाद के नेतृत्व में लाना।” (वही, पृ. 121-122, अनुवाद हमारा)
ऐसे अनगिनत उद्धरण यहाँ प्रस्तुत किये जा सकते हैं, लेकिन अब हम कुछ अन्य बिन्दुओं की चर्चा करेंगे।
वास्तव में ‘‘नव-दार्शनिकों” की दलीलों में कुछ भी नया नहीं है। यह 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध और 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध से ही मज़दूर आन्दोलन में मौजूद पुरानी कठमुल्ला प्रवृत्तियों और विजातीय रुझानों का दुहराव है। बुनियादी तौर पर वे गैर-पार्टी क्रान्तिवाद की विभिन्न किस्मों का एक अजीबोग़रीब मिश्रण हैं। बोल्शेविक क्रान्ति और बोल्शेविक पार्टी की पुनर्समीक्षा से पहले (हालाँकि, पॉल लेवी ने हमें यह भरोसा दिलाने का पूरा प्रयास किया है कि रोज़ा लक्ज़ेमबर्ग लेनिन की प्रतिस्थापनवाद का एक रैडिकल विकल्प प्रदान करती हैं), रोज़ा लक्ज़ेमबर्ग मानती थीं कि बोल्शेविक राजनीतिक हिरावलपन्थ का शिकार हैं, और राजनीतिक हिरावलपन्थ वर्ग की स्वतःस्फूर्त कार्रवाई का स्थान नहीं ले सकता। हालाँकि, आगे चलकर उन्होंने अपनी भूल स्वीकार की। ग्यॉर्गी लूकाच ने ‘इतिहास और वर्ग चेतना’ में रोज़ा लक्ज़ेमबर्ग की भूल के बारे में लिखा है और वर्तमान समय में इसपर ध्यान देना बेहद ज़रूरी है। लूकाच कहते हैं कि बोल्शेविक पार्टी और रूसी क्रान्ति के प्रति रोज़ा का रुख़ यहाँ ”क्रान्ति की स्वतःस्फूर्त, तात्विक शक्तियों के, सबसे अधिक उस वर्ग के जिसे इतिहास ने क्रान्ति का नेतृत्व करने का जिम्मा सौंपा था, अतिरेकपूर्ण मूल्यांकन से निर्धारित हुआ था” (ग्यॉर्गी लूकाच 1923: पृ. 279)। इसके अलावा, “(लक्ज़ेमबर्ग) बोल्शेविकों द्वारा मज़दूरों के आन्दोलन में क्रान्ति की स्पिरिट की गारण्टी के तौर पर संगठन के प्रश्न को केन्द्रीय भूमिका प्रदान करने को अतिरंजित समझती हैं। वे इसके उलट विचार रखती हैं कि वास्तविक क्रान्तिकारी स्पिरिट सिर्फ और सिर्फ जनता की तात्विक स्वतःस्फूर्तता में खोजी और पायी जा सकती है” (वही, पृ. 284)। इसके बाद, लूकाच एक बहुमूल्य टिप्पणी करते हैं: ”किसी आन्दोलन की स्वतःस्फूर्तता—विशुद्ध आर्थिक नियमों द्वारा इसके निर्धारण की सिर्फ एक सचेतन, जन-मनोवैज्ञानिक अभिव्यक्ति है—ऐसे उभार उतने ही स्वतःस्फूर्त ढंग से ठण्डे भी पड़ जाते हैं, ज्यों ही उनके तात्कालिक लक्ष्य हासिल हो जाते हैं या हासिल होने योग्य महसूस होते हैं वैसे ही उनका क्षरण हो जाता है” (वही, पृ. 307)। इसलिए, ”जरूरी है कि—स्वतःस्फूर्तता और सचेत नियन्त्रण के बीच अन्तरक्रिया हो—कम्युनिस्ट पार्टियों के गठन में जो चीज़ अनूठी थी वह थी स्वतःस्फूर्त कार्रवाई और सचेत, सैद्धान्तिक दूरदर्शिता के बीच नया सम्बन्ध, यह बुर्जुआ वर्ग की सिर्फ ‘चिन्तनशील,’ कार्यरूप में परकीकृत (reified) चेतना की विशुद्ध पोस्ट फेस्टम संरचना पर स्थायी आक्रमण और धीरे-धीरे उसका लुप्त होना था” (वही, पृ. 317)। यही वह मुकाम है जहाँ नेतृत्व प्रदान करने और जनान्दोलनों को दिशा देने में क्रान्तिकारी पार्टी संगठन की भूमिका के बारे में लेनिन की अवधारणा ऐतिहासिक रूप से महत्त्वपूर्ण हो गयी। और यहीं, लेनिन अपने सर्वोत्तम हेगेलीय रूप में नज़र आते हैं। अपनी ‘फेनोमेनोलॉजी’ की प्रस्तावना में, हेगेल तात्कालिकता के सिद्धान्तकारों के विरुद्ध तर्क करते हैं जो चेतना और अवधारणात्मक ज्ञान के महत्व को नहीं समझते; उस चीज़ के लिए हेगेल के पास तिरस्कार के अतिरिक्त और कुछ नहीं था जिसे वे सिद्धान्तरहित, स्वतःस्फूर्त विचार कहते थे, और जिसका समर्थन तात्कालिकता के सिद्धान्तकारों द्वारा किया जा रहा था। उनकी राय में, तात्कालिक चेतना को महिमामण्डित करने वाला सिद्धान्त जल्दी ही अस्थिरता और ओछेपन का शिकार बन जाता है। अगर हम रूसी मज़दूर वर्ग के आन्दोलन में अर्थवादी प्रवश्त्ति के खि़लाफ लेनिन की दलीलों का विश्लेषण करें तो यहाँ हम साम्यताओं को स्पष्टतः देख सकते हैं; वे सिर्फ एक निष्क्रिय मनोभाव के परकीकरण और गैरआलोचनात्मक प्रशंसा के विरुद्ध मज़दूर वर्ग और इसके सबसे उन्नत तबकों की एक सक्रिय समझदारी के पक्ष में थे।
दरअसल, इन ‘‘नव-दार्शनिकों” के उपदेश न केवल रोज़ा लक्ज़ेम्बर्ग की पुरानी अवस्थिति की दरिद्र पुनर्प्रस्तुति है, बल्कि मारियो ट्रॉण्टी, अन्तोनियो नेग्री, जॉन हैलोवे, आदि के स्वायत्ततावादी/स्वतःस्फूर्ततावादी सिद्धान्तों और इन सिद्धान्तकारों से जुड़ी सांगठनिक प्रवृत्तियों, जैसे कि इतालवी ऑपराइज़्मो, डच, जर्मन और फ्रेंच ऑटोनोम आन्दोलन और साथ ही अमेरिकी त्रात्स्कीपंथी आन्दोलन की जॉनसन-फॉरेस्ट रुझान, का एक विचित्र रूप से हास्यास्पद मिश्रण है। इस सभी प्रवृत्तियों की एक साझा थीम है खुले तौर पर या घुमाफिराकर हिरावल की आवश्यकता का नकार और गैर-पार्टी क्रान्तिवाद। उपरोक्त में से अधिकतर प्रवृत्तियाँ अब स्पष्टतः अराजकतावादी हो गयी हैं। भारत के नये वर्तमान ‘‘नव-दार्शनिकों” के सैद्धान्तिकीकरण का एक अन्य स्रोत पॉल मात्तिक का काउंसिल कम्युनिज़्म है जिसकी जड़ें वास्तव में पान्नेकोएक आदि के डच ”वामपंथी” कम्युनिज्म में है, जिसकी लेनिन ने खिल्ली उड़ायी थी। ज्ञात हो कि यह पान्नेकोएक वही हैं, जिनका दूसरा नाम हॉर्नर था, जिनके खिलाफ लेनिन ने ‘”वामपंथी” कम्युनिज़्मः एक बचकाना मर्ज में लिखा था। इन सभी स्रोतों ने मार्क्स की प्रसिद्ध उक्ति ‘मज़दूर वर्ग की मुक्ति मज़दूर वर्ग के अपने हाथों से’ को शब्दशः, अपने-अपने ख़ास अन्दाज में, ग्रहण कर लिया है! ये संगठन और इनके चिन्तक हमें विश्वास दिलाना चाहते हैं कि लेनिन ने एक हिरावलपन्थवादी प्रवृत्ति की शुरुआत की जिसकी अपरिहार्य परिणति प्रतिस्थापनावाद में होती है। लेनिन से पहले, अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन में ऐसी प्रवृत्ति नहीं थी। हालाँकि, यह दावा भी निराधार है और अनावश्यक रूप से और अन्यायपूर्ण ढंग से सारा ”दोष” लेनिन पर थोप देता है! मार्क्स संगठन और सचेत केन्द्रीय नेतृत्व की ज़रूरत को समझते थे, हालाँकि पार्टी सिद्धान्त का पूर्णरूपेण विकास बोल्शेविकों द्वारा लेनिन के सक्षम नेतृत्व में किया गया। अगर 20वीं सदी के पहले दशक में रूसी सामाजिक जनवादी आन्दोलन में संगठन के सवाल पर चली बहसें देखें, तो स्वतःस्फूर्तता और संगठन के सवाल पर लेनिन का पक्ष स्पष्ट हो जायेगा।
‘‘नव-दार्शनिकों” के रुख़ के साथ एक तीसरी समस्या भी जुड़ी हुई है। उन्हें वे चीज़ें भी दिखाई नहीं दे रहीं जिन्हें कि कोई अन्धा आदमी भी देख सकता है। 2011 के पहले दौर में, मारुति सुजुकी मज़दूरों का संघर्ष ट्रेड यूनियनवादी राजनीति का बन्दी बना रह गया था, बावजूद इसके कि इसने केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के ट्रेड यूनियनवाद को ख़ारिज किया था। हालाँकि, केन्द्रीय ट्रेडयूनियन नौकरशाही का स्थान एक नयी ट्रेडयूनियन नौकरशाही ने ले लिया। यही कारण था कि एम.एस.ई.यू. अप्रासंगिक होकर ख़त्म हो गयी और नयी यूनियन एम.एस.डब्ल्यू.यू. अस्तित्व में आयी। एक दिन की भूख हड़ताल व दूसरे दिन धरने के साथ 7-8 नवम्बर को मारुति सुजुकी मज़दूरों के संघर्ष का एक नया दौर शुरू हुआ है। अभी यह कहना जल्दबाज़ी कहलायेगी कि अब यह संघर्ष कारखाने की चौहद्दियों को तोड़ देगा और गुड़गाँव-मानेसर-धारूहेड़ा-बावल ऑटोमोबाइल औद्योगिक पट्टी के मज़दूरों के बीच राजनीतिक वर्ग एकता स्थापित करने की ओर आगे बढ़ेगा; कि यह अर्थवाद और ट्रेडयूनियनवाद से पूर्णतः निजात पा लेगा। लेकिन, इतना तो तय हैः एम.एस.डब्ल्यू.यू. के उदय ने कई “अति-वामपंथी” संगठनों और व्यक्तियों द्वारा हर उस चीज़ के जल्दबाज़ और अनालोचनात्मक तौर पर उत्सव मनाने और उसका महिमा-मण्डन करने की, जो कि एम.एस.ई.यू. कर रहा था, शुद्ध आधारहीनता को प्रदर्शित कर दिया है। इन ”चिन्तकों” को मारुति सुजुकी मज़दूर आन्दोलन के इस नये ट्रेडयूनियनवाद की असफलताएँ नज़र ही नहीं आती। मज़दूरों ने मानेसर के ऑटोमोबाइल बेल्ट में फैक्टरियों की चौहद्दियों का अतिक्रमण करते हुए मज़दूरों के बीच वर्ग एकता कायम करने का एक बहुमूल्य अवसर खो दिया, जो कि, अगर वास्तविकता में तब्दील किया गया होता, तो राज्य के लिए एक संकट की स्थिति उत्पन्न कर सकता था। लेकिन ट्रेड यूनियन नौकरशाही (शुरू में, केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों की, और बाद में, एम.एस.ई.यू. की) और आर्थिक तर्क (पेक्युनियरी लॉजिक) के प्रभाव में मज़दूरों ने केवल अपने प्लाण्ट पर ही ध्यान देना बेहतर समझा। परिणामस्वरूप, मारुति सुजुकी के मज़दूरों और पूरे मानेसर बेल्ट की अन्य ऑटोमोबाइल फैक्टरियों के मज़दूरों की समस्याएँ एकसमान होने के बावजूद, सभी फैक्टरियों के मज़दूरों के बीच एकता कायम करने के लिए कोई गम्भीर प्रयास नहीं किये गये। इसलिए, कुछेक संयुक्त रैलियों में अन्य फैक्टरियों की यूनियनों की भागीदारी के अलावा, मज़दूर आन्दोलन मारुति सुजुकी प्लाण्ट तक ही सिमटा रह गया। एम.एस.ई.यू. का नेतृत्व उनके संघर्ष के लिए एक ठोस कार्ययोजना तय करने और गुड़गाँव-मानेसर बेल्ट की फैक्टरियों में इन्हीं दशाओं में काम करने वाले लाखों-लाख मज़दूरों का सक्रिय रूप से आह्वान करने के सुझाव की उपेक्षा करता रहा, जो कि वहाँ सक्रिय एक संगठन ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ दे रहा था। जिस समय यह ग़लती की जा रही थी, उस दौरान वहाँ अनेक तथाकथित “अतिवामपन्थी” प्रवृत्तियाँ (जो माकपा से अधिक वामपन्थी हैं!) मौजूद थीं और ”मज़दूरों के आत्मसंगठन के क्षण” का आनन्द ले रही थीं; जो लोग नेतृत्व का ध्यान इस तथ्य की ओर खींचने का प्रयास कर रहे थे कि फैक्टरी की सीमाओं से बँधे रहकर आन्दोलन प्रबन्धन के साथ-साथ राज्य से निपट पाने में समर्थ नहीं हो पायेगा, उन्हें शिक्षाशास्त्रवादी कहा जा रहा था; कुछ अतिआशावादी संगठनों और बुद्धिजीवियों ने उनपर मज़दूरों को हतोत्साहित करने का भी आरोप लगाया; जबकि कुछ दूसरों ने दलील दी कि ये लोग (जो इलाकाई वर्ग एकजुटता की ज़रूरत की ओर ध्यान खींचने का प्रयास कर रहे थे) मारुति सुजुकी मज़दूरों के संघर्ष के साथ सिर्फ सहानुभूति रखते हैं, जबकि, वे स्वयं उस संघर्ष का हिस्सा हैं! जो लोग आन्दोलन को फैक्टरी की सीमा से बाहर और पूरे गुड़गाँव-मानेसर बेल्ट में फैलाने का आग्रह कर रहे थे उनपर तरह-तरह के आरोप लगाये गये। “आशावादियों” और ‘‘नव-दार्शनिकों” द्वारा पेश की जा रही अधिकतर दलीलें वास्तव में मज़दूर वर्ग के आन्दोलन में मौजूद उपरोक्त राजनीतिक प्रवृत्तियों का मिश्रण भर थीं।
कुछ गिने-चुने लोगों को ही मारुति सुजुकी मज़दूर आन्दोलन के विकास और जिस रास्ते पर वह आगे बढ़ रहा था उसके आलोचनात्मक विश्लेषण में दिलचस्पी थी। ख़ास तौर पर, ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ सक्रिय रूप से इस दृष्टि का प्रचार कर रहा था कि आन्दोलन को चरणबद्ध ढंग से संचालित करने के लिए एक ठोस कार्यक्रम होना चाहिए और आन्दोलन को गुड़गाँव-मानेसर के पूरे ऑटोमोबाइल बेल्ट में विस्तारित किया जाना चाहिए। दस्ता के कार्यकर्ता एम.एस.ई.यू. के नेतृत्व को बार-बार बताते रहे कि उनकी लड़ाई प्रबन्धन के कुछ भ्रष्ट अधिकारियों और स्थानीय श्रम विभाग से नहीं थी, जैसा कि कई मज़दूर सोचते थे। उनकी लड़ाई सुज़ुकी कम्पनी, हरियाणा सरकार और केन्द्रीय सरकार तथा नवउदारवादी नीतियों से है। जापानी कम्पनियाँ दुनियाभर में अपनी फासीवादी प्रबन्धन तकनीकों के लिए कुख्यात हैं और मज़दूरों को कुचलने के लिए वे किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार रहती हैं। हरियाणा को विदेशी निवेश की पसन्दीदा जगह बनाने के लिए, राज्य सरकार ने हमेशा ही अपना नंगा मज़दूर-विरोधी चेहरा दिखाया है, चाहे वह 2006 में होण्डा मज़दूरों की हड़ताल रही हो या अन्य हालिया मज़दूर संघर्ष। भारत सरकार जिन आर्थिक नीतियों को थोप रही है वह मज़दूरों के अतिशोषण के बिना लागू ही नहीं की जा सकती हैं। मज़दूरों को इस तथ्य से भी अवगत कराया जाना चाहिए कि पूरी दुनिया के पैमाने पर मज़दूरों के अधिकारों, जिसमें यूनियन बनाने का अधिकार भी शामिल है, पर हमले किये जा रहे हैं। इसलिए मारुति सुजुकी के मज़दूरों पर इस हमले का मुकाबला केवल मज़दूरों की व्यापक वर्ग एकता और संघर्ष को सुनियोजित और संगठित ढंग से चलाकर ही किया जा सकता है।4
लेकिन उस समय, अधिकतर “अति”-वामपन्थी समूह संघर्ष छिड़ने से उत्पन्न हर्षोन्माद में डूब-उतरा रहे थे। आन्दोलन की किसी भी चीज़ के बारे में आलोचनात्मक रवैया रखने वालों को जमकर निन्दा की जाती थी। सोनू गुज्जर और शिव कुमार जैसे एम.एस.ई.यू. के नेताओं का भारत में मज़दूर वर्ग के संघर्ष के नये पथप्रदर्शकों के रूप में यशगान किया जा रहा था। हड़ताल के असफल होने, और यूनियन के पूरे नेतृत्व के प्रबन्धन द्वारा ख़रीद लिये जाने और आन्दोलन की पीठ में छुरा घोंपने के बाद, मज़दूर बहुत हतोत्साहित और परेशान थे। हालाँकि, दिलचस्प बात है कि, ”वाम” समूहों और बुद्धिजीवियों का हर्षोन्माद फिर भी जारी रहा! वे अब भी मज़दूरों की स्वतःस्फूर्तता और इस तथ्य का जश्न मना रहे थे कि मज़दूरों ने केन्द्रीय ट्रेड यूनियनवाद को नकार दिया था, हालाँकि उन्हें यह नहीं दिख रहा था कि नये ट्रेड यूनियनवाद ने भी कोई नया विकल्प नहीं पेश किया था। एक बार फिर, जब 18 जुलाई की घटना हुई, तो उन्हीं संगठनों और उन्हीं बुद्धिजीवियों ने एक बार फिर इसका परकीकरण किया और इसका गैरआलोचनात्मक गुणगान किया। इसे भारत में मज़दूर वर्ग के आन्दोलन के पुनर्जागरण, भारत के मज़दूरों को राह दिखाने वाली एक नयी शुरुआत के रूप में प्रचारित किया जा रहा था। यह त्रासद है, बल्कि कहना चाहिए कि विडम्बनापूर्ण है कि मारुति सुजुकी प्लाण्ट के मज़दूरों की एक असंगठित, अनियोजित और जवाबी कार्रवाई, जिसमें कि महीनों से पल रहा मज़दूरों का गुस्सा और असन्तोष फूट पड़ा था, को भारतीय क्रान्तिकारी आन्दोलन की भावी राह दिखाने वाली घटना के तौर पर पेश किया जा रहा है। यूँ तो कोई भी क्रान्तिकारी व्यक्ति या समूह मारुति सुजुकी के फासीवादी प्रबन्धन और राज्य और केन्द्र सरकारों के खि़लाफ मज़दूरों के अधिकारों की हिफाज़त करेगा, लेकिन ऐसा अनावश्यक और निराधार यशगान और मज़दूर वर्ग की स्वतःस्फूर्त कार्रवाई का ऐसा गैरआलोचनात्मक उत्सव मज़दूर वर्ग के आन्दोलन को भी नुकसान ही पहुँचायेगा।
ऐसा लगता है कि इस प्रकार का हर्षातिरेक क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन में व्याप्त पराजयबोध से उत्पन्न हुआ है। मज़दूर वर्ग के आन्दोलन में लम्बे समय से मौजूद शान्ति और ठहराव के दौर ने क्रान्तिकारी शक्तियों और बुद्धिजीवियों को निराशा और कुण्ठा से भर दिया है। हालाँकि, पिछले 7-8 सालों से इस ठहराव के टूटने के साथ, वाम समूहों और बुद्धिजीवियो में यह प्रवृत्ति आ गयी है कि कहीं भी मज़दूरों के संघर्ष की ख़बर सुनते ही वे खुशी से चीखने लग जाते हैं। विश्वविद्यालयों के लोग ‘संघर्ष पर्यटन’ पर निकल पड़ते हैं, तथाकथित “अति-वामपन्थी” समूह और ‘‘नवदार्शनिक” अलथूसर के शब्दों में ”सैद्धान्तिक वृत्ति” में चले जाते हैं और मज़दूर वर्ग की स्वतःस्फूर्तता और हिरावल के अप्रासंगिक हो जाने के बारे में सैद्धान्तिकीकरण और चिन्तन करने लगते हैं। यह इन बुद्धिजीवियों में गहरे पैठा पराजयबोध और निराशावाद ही है जो उन्हें ऐसे निष्कर्षों तक पहुँचाता है। इनमें से ज़्यादातर ने लम्बे समय से मज़दूर आन्दोलन के बारे में कुछ देखा-सुना ही नहीं है (भागीदारी करना तो दूर की बात है!); अब जबकि मज़दूर सड़कों पर उतर रहे हैं, अब जबकि उनका धैर्य जवाब दे चुका है और वे संघर्ष कर रहे हैं; तो ये ‘‘नवदार्शनिक” भाव-विभोर हो उठे हैं! मज़दूरों सड़कों पर उतर रहे हैं, जुझारूपन और हिंसा पर उतारू हो जा रहे हैं, यह तथ्य उन्हें चकित कर देता है! और अचानक ही वे आलोचनात्मकता, ऐतिहासिकीकरण (historicization) के उपयोग, और उन सभी दूसरी चीज़ों के बारे में भूल जाते हैं जिनके बारे में वे इस पूरे दौर में खुद सबसे ज़्यादा बातें करते रहे हैं और शिक्षाएँ देते रहे हैं; उनसे भी ज़्यादा जो मारुति सुजुकी आन्दोलन के आलोचनात्मक मूल्यांकन की बात करते रहे हैं। इनमें से कुछ बुद्धिजीवियों पर बेदियू, नेग्री, हार्ट आदि जैसे उत्तर-मार्क्सवादी चिन्तकों का काफी प्रभाव है, जो कि खुद यही काम कर रहे हैं: हिरावल की ज़रूरत को ख़ारिज कर रहे हैं और गैर-पार्टी क्रान्तिवाद का उपदेश दे रहे हैं। अचानक ही, इन उत्तर-मार्क्सवादी और स्वायत्ततावादी मार्क्सवादी सिद्धान्तकारों के भारतीय अनुगामियों के भी इलहाम का वक्त आ गया और उन्हें यह ”दिव्य-ज्ञान” प्राप्त हुआ हैः मज़दूर वर्ग हिरावल से आगे निकल गया है; हिरावल पीछे छूट गया है; मज़दूर वर्ग की स्वतःस्फूर्तता जिन्दाबाद; ”मज़दूर वर्ग के हाथों मज़दूर वर्ग की मुक्ति”! ऐसे सिद्धान्त पश्चिम बंगाल के कुछ अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी समूहों द्वारा भी प्रचारित किये जा रहे हैं, जो यह दावा करते हैं कि मज़दूर संघर्ष और प्रतिरोध के नये रूप और रणनीतियाँ स्वयं ही निकाल लेंगे; इसमें हिरावल की कोई भूमिका नहीं होगी! इनका कहना है कि पार्टी से इतर मज़दूर वर्ग का एक ”जन राजनीतिक केन्द्र” बनाना होगा (यानी, एक्सेलरोद की वही लाइन जिसकी लेनिन ने यह दलील देते हुए सख़्त आलोचना की थी कि मज़दूर वर्ग का केवल एक ही राजनीतिक केन्द्र हो सकता है, और वह है पार्टी, और इस पार्टी का चरित्र एक जन (मास) पार्टी का कतई नहीं हो सकता) इस तरह एक ख़ास प्रवृत्ति उभरकर आयी है जो अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद, स्वायत्ततावाद, ट्रॉण्टी-ब्राण्ड का इतालवी ऑपराइस्मो, अराजकतावाद, काउंसिल कम्युनिज़्म, आदि का निहायत ही बचकाना मिश्रण है। ये नाना प्रकार की असम्बद्ध राजनीतिक प्रवृत्तियाँ एकजुट होकर ग़ैरपार्टी क्रान्तिवाद की प्रवृत्ति में एकाकार हो गयी हैं।
वर्तमान समय में यह क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन के लिए चिन्ता का विषय है कि क्रान्तिकारी बुद्धिजीवियों और विद्यार्थियों के एक ख़ास हिस्से में यह प्रवृत्ति जिसे लेनिन ने ”वाम”-पन्थी बचकानापन कहा था, फैशनेबल हो रही है। इन सिद्धान्तकारों के मतों का खण्डन करना और उनके सिद्धान्तों का सतहीपन उजागर करना बेहद ज़रूरी काम बन गया है। हिरावल की भूमिका को ख़ारिज करना मज़दूर वर्ग को किसी भी अभिकरण (एजेंसी) से रिक्त कर देना है। पार्टी को वर्ग के खि़लाफ खड़ा करने की प्रवृत्ति खतरनाक है। जो लोग इस भ्रम का प्रचार करते हैं वे हिरावल पार्टी की प्रकृति को भूल जाते हैं। लेनिन के शब्दों में कहें तो कम्युनिस्ट पार्टी सर्वहारा वर्ग का उन्नत दस्ता होती है; यह वर्ग के सबसे उन्नत तत्वों को समाहित करती है; यह ”सर्वहारा की विश्वदृष्टि का साकार रूप होती है”। हम यहाँ वर्ग, पार्टी और राज्य और उनके आपसी सम्बन्धों से जुड़े प्रश्नों की चर्चा में नहीं जायेंगे। लेकिन इतना तय हैः मज़दूर वर्ग के आन्दोलन का ठहराव टूट रहा है; हम एक संक्रमण काल से गुज़र रहे हैं; पूँजीवादी व्यवस्था एक बन्द गली के अन्तिम छोर तक पहुँच चुकी है; पूरी दुनिया के पैमाने पर मज़दूर वर्ग आजीविका और बेहतर जीवन के अपने अधिकारों के लिए स्वतःस्फूर्त ढंग से सड़कों पर उतरने लगा है; लेकिन यही वह समय है जब हमें हिरावल, एक क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी, की ज़रूरत पर बार-बार ज़ोर देना चाहिए, बार-बार दोहराना चाहिए; वर्तमान समय में भारत में मज़दूर वर्ग की कोई क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी नहीं है, इस तथ्य से हमें यह निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिए कि अब हिरावल की ज़रूरत ही नहीं रह गयी है और वर्ग अपनी मुक्ति खुद ही हासिल कर लेगा। अतीत में ऐसे अराजकतावाद और अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद ने आन्दोलन को सिर्फ नुकसान ही पहुँचाया है। मज़दूर वर्ग के बढ़ते जुझारूपन और वर्ग अन्तरविरोधों के तीखे होते जाने से यह और भी ज़रूरी हो गया है कि रैडिकल क्रान्तिकारी बुद्धिजीवी और विद्यार्थी जितनी जल्दी सम्भव हो एक क्रान्तिकारी मज़दूर वर्गीय पार्टी के निर्माण की ओर आगे बढ़ें। आज के वक्त में क्रान्तिकारी बुद्धिजीवियों की पूरी ऊर्जा ऐसी एक क्रान्तिकारी पार्टी के निर्माण की दिशा में लगायी जानी चाहिए। वरना, समाजवाद की वेला बीत जायेगी, ‘‘नव-दार्शनिक” अपनी प्रलोभनकारी सैद्धान्तिक जुगाली ही करते रह जायेंगे और इतिहास हमारी सज़ा मुकर्रर करेगा वह होगी फासीवाद!
(अंग्रेज़ी से अनुवादः जयपुष्प)
टिप्पणियाँ:
1.http://radicalnotes.com/2012/09/12/maruti-a-momentin-workers-self-organisation-in-india/
http://www.youtube.com/watch?v=o-3ep0Blktg&list=UUEk7o7hG_qWicGFpvlCKFvg&index=11&feature=plcp (ये ऐसी समझदारी के केवल कुछ उदाहरण हैं। लेकिन ऐसे संगठन भी हैं, जो मोटे तौर पर यही समझदारी रखते हैं। चूँकि उन्होंने अपने दृष्टिकोण को लिखित तौर पर या वीडियो साक्षात्कारों में कहीं पेश नहीं किया है, और उन्हें केवल वामपंथी संगठनों और व्यक्तियों की बैठकों या मारुति सुजुकी मज़दूर संघर्ष पर होने वाले व्याख्यानों/परिचर्चाओं में रखा है, इसलिए उन पर टिप्पणी करना उचित नहीं होगा।)
2. http://radicalnotes.com/2012/11/21/on-theorganisational-question-of-the-working-class/
3. http://www.youtube.com/watch?v=VETJktQwZho&list=UUEk7o7hG_qWicGFpvlCKFvg&index=7&feature=plcp
4. हाल ही में, जब मारुति सुजुकी मज़दूरों के आन्दोलन ने एम.एस.डब्ल्यू.यू. के नेतृत्व में एक नये दौर में प्रवेश किया, तो ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ ने एक चार पृष्ठ का पर्चा जारी किया और ‘मज़दूर बिगुल’ अखबार ने एक लम्बा सम्पादकीय लेख प्रकाशित किया, जिसमें गुड़गाँव-मानेसर-धारूहेड़ा-बावल की समूची औद्योगिक पट्टी के समस्त मज़दूरों की गोलबन्दी करने और समूचे क्षेत्र के मज़दूरों के बीच वर्ग एकजुटता कायम करने का आह्वान किया गया। जब 7-8 नवम्बर की भूख हड़ताल और रैली का आयोजन हुआ तो मज़दूरों को पता चला कि मारुति सुजुकी के गुड़गाँव संयंत्र के मज़दूर भी उनके समर्थन में आना चाहते थे, लेकिन कारखाने के यूनियन नेतृत्व के चलते वे नहीं आ पाये। उसी प्रकार, अन्य कारखानों में भी मारुति सुजुकी के मज़दूरों के संघर्ष के प्रति हमदर्दी की लहर है। लेकिन, तमाम केन्द्रीय ट्रेड यूनियन संघ (जिन्होंने मारुति सुजुकी संघर्ष के जुबानी समर्थन के लिए एक समिति बना रखी है) इस बात को सुनिश्चित करते हैं कि वे एम.एस.डब्ल्यू.यू. के प्रदर्शनों आदि में कोई एक-दो सदस्य भेजकर मारुति सुजुकी आन्दोलन को जुबानी समर्थन देते रहें, लेकिन वे अपने प्रभाव वाले कारखानों के मज़दूरों को इस आन्दोलन के खुले और प्रत्यक्ष समर्थन में नहीं आने देते। मारुति सुजुकी के संघर्षरत मज़दूर भी धीरे-धीरे इस असलियत को समझ रहे हैं।
सन्दर्भ सूचीः
Althusser, L 1971, Lenin and Philosophy and Other Essays (London: New Left Books)
Badiou, A 2010, The Idea of Communism in Douzinas and Zizek (ed.) The Idea of Communism (London: Verso)
Douzinas, C and S Zizek 2010, The Idea of Communism (London: Verso)
Hardt, M and A Negri 2000 Empire (Harvard University Press)
Hardt, M and A Negri 2004 Multitude: War and Democracy in the Age of Empire (New York: Penguin Press)
Hardt, M and A Negri 2009 Commonwealth (Belknap Press of Harvard University Press)
Hegel, GWF 1994, Phenomenology of Spirit: Selections, (Pennsylvania State University Press)
Lenin, VI 1977, Selected Works (in 3 volumes) Volume I, ‘What is to be done?’ (Moscow: Progress Publishers)
Lukacs, Gyorgy 1971, History and Class Consciousness: Studies in Marxist Dialectics, from the sections “Critical Observations on Rosa Luxemburg’s ‘Critique of the Russian Revolution'” and “Toward a Methodology of the Problem of Organisation”, (London: Merlin Press)
Luxemburg, R 1970, The Russian Revolution in Rosa Luxemburg Speaks ed. by Mary-Alice Waters (New York: Pathfinder Press)
Mattick, P 1978, Anti-Bolshevik Communism (London: Merlin Press)
Pannekoek, A 2003, Lenin as Philosopher, Revised Edition (Marquette University Press)
Sinha, A 2010, New Forms and Strategies of the Working Class Movement and Resistance in the Era of Globalization, paper presented at the Second Arvind Memorial Seminar, Gorakhpur, 2010, 26-28 July. This paper is available at the blog Red Polemique (http://redpolemique.wordpress.com/2012/02/02/new-forms-and-strategies-of-theworking-class-movement-and-resistance-in-theera-of-globalization/)
यह पेपर हिन्दी में भी उपलब्ध है। आप इसे इस लिंक पर पढ़ सकते हैं: http://arvindtrust.org/?p=358
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-दिसम्बर 2012
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