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प्रीति‍लता वादेदार :चटगाँव विद्रोह की अमर सेनानी

देश के लि‍ए मर मि‍टने का जज़्बा ही वो ताकत है जो वि‍भि‍न्न पृष्ठभूमि‍ के क्रान्ति‍कारि‍यों को एक दूसरे के प्रति, साथ ही जनता के प्रति अगाध वि‍श्वास और प्रेम से भरता है। आज की युवा पीढ़ी को भी अपने पूर्वजों और उनके क्रान्तिकारी जज़्बे के विषय में कुछ जानकारी तो होनी ही चाहिए।

खट्टर सरकार का एक साल-जनता का हाल बेहाल

खट्टर सरकार ने नये रोज़गार देना तो दूर उल्टे आशा वर्कर, रोडवेज़, बिजली विभाग आदि सरकारी विभागों में निजीकरण-ठेकाकरण की नीतियों के तहत छँटनी की तैयारी कर दी है। कर्मचारियों के रिटायरमेण्ट की उम्र 60 से 58 कर दी। सरकार ने अपने बजट में मनरेगा के तहत खर्च होने वाली राशि में भारी कटौती की है जो कि ग्रामीण मज़दूर आबादी के हितों पर सीधा हमला है। चुनाव के समय भाजपा द्वारा 12वीं पास नौजवानों को 6,000 रुपये और स्तानक नौजवानों को 9,000 रुपये बेरोज़गारी भात्ता देने का वादा किया गया था। लेकिन अब खट्टर सरकार की कथनी-करनी में ज़मीन-असमान का अन्तर आ चुका है। पिछले एक वर्ष में सरकार ने बेरोज़गारी भत्ते देने की कोई योजना नहीं बनायी जबकि हरियाणा में पढ़े-लिखे बेरोज़गार नौजवानों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ रही है। मौजूदा समय में रोज़गार कार्यालय में 8 लाख नौजवानों के नाम दर्ज हैं। हम सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि असल में बेरोज़गारों की संख्या इससे कहीं अधिक है। नौजवानों की अच्छी-खासी आबादी रोज़गार दफ्तर में अपना नाम दर्ज ही नहीं कराती है क्योंकि उसे अहसास है कि इससे उनकी स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आने वाला है। कौशल विकास योजना में भारी नौजवान आबादी को प्रशिक्षु बनाकर उसे सस्ते श्रम के रूप में देशी-विदेशी पूँजीपतियों के सामने परोसा जा रहा है। मोदी सरकार ‘अपरेण्टिस एक्ट 1961’ में बदलाव करके इसे प्रबन्धन के हितानुरूप ढाल रही है। असल में इस कानून के तहत काम करने वाली नौजवान आबादी को न तो न्यूनतम मज़दूरी मिलेगी, न स्थायी होने की सुविधा। खट्टर सरकार भी अधिक से अधिक विदेशी पूँजी निवेश को ललचाने के लिए नौजवान आबादी को चारे की तरह इस्तेमाल करना चाहती है।

दुनिया के सबसे बड़े और महँगे पूँजीवादी जनतन्त्र की तस्वीर!

गाँधी द्वारा उठाये गये इस सवाल की कसौटी पर जब हम आज के भारत की संसदीय शासन प्रणाली को कसते हैं तो पाते हैं कि ये औपनिवेशिक शासन से भी कई गुनी अधिक महँगी है। यह बात दीगर है कि जिस शासन-व्यवस्था के गाँधी पैरोकार थे, आज की सड़ी-गली व्यवस्था उसी की तार्किक परिणति है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट द्वारा जनहित याचिका के फैसले के बाद भी हमें समझने की ज़रूरत है कि पूँजीवादी संसदीय जनवाद अपनी इस ख़र्चीली धोखाधड़ी और लूटतन्त्र की प्रणाली में बदलाव नहीं लाने वाला है। असल में भारतीय राज्य व्यापक मेहनतकश जनता का राज्य नहीं बल्कि मुट्ठी भर पूँजीपतियों की तानाशाही वाला राज्य है। इसे स्पष्ट करने के लिए आँकड़ों का अम्बार लगाने की ज़रूरत नहीं है कि मौजूदा पूँजीवादी जनतन्त्र में जन तो कहीं नहीं है, बस एक बेहद ख़र्चीला तन्त्र और ढेर सारे तन्त्र-मन्त्र हैं! आम जनता के हिस्से में इसका ख़र्च उठाने के अलावा ग़रीबी, बेरोज़गारी, भुखमरी, अशिक्षा और कुपोषण ही आते हैं।

अमेरिकी ”जनतन्त्र” की एक और भयावह तस्वीर!

जाहिरा तौर पर अमेरिकी जेलों में कैदियों की बेतहाशा बढ़ती आबादी, विभिन्न किस्म के सामाजिक अपराधों में हो रही बढ़ोत्तरी, अमेरिकी न्याय व्यवस्था के अन्याय और उग्र होते नस्लवाद की परिघटना कोई अबूझ सामाजिक-मनोवज्ञैानिक पहेली नहीं है। हर घटना-परिघटना की तरह इसके भी सुनिश्चित कारण हैं क्योंकि अपराधों का भी एक राजनीतिक अर्थशास्त्र होता है। बढ़ते अपराधों का कारण आज अमेरिकी समाज के बुनियादी अन्तरविरोध में तलाशा जा सकता है। यह अन्तरविरोध है पूँजी की शक्तियों द्वारा श्रम की ताक़तों का शोषण और उत्पीड़न। जब तक कोई क्रान्तिकारी आन्दोलन दमित-शोषित आबादी को कोई विकल्प मुहैया नहीं कराता, तब तक इस आबादी का एक हिस्सा अपराध के रास्ते को पकड़ता है। शुरुआत विद्रोही भावना से होती है, लेकिन अन्त अमानवीकरण में होता है। विश्वव्यापी मन्दी ने इस अन्तरविरोध को और भी तीख़ा बना दिया है।

‘‘दबंग’’ से बदरंग होते मतदाता

मौजूदा निगम चुनाव में उम्मीदवारों को देखकर साफ़ पता चलता है कि वह किसी व्यवसाय में पैसा लगा रहे हैं। वैसे तो असलियत पहले भी यही थी पर इस पर पड़े बचे-खुचे भ्रम के परदे भी हर चुनाव के साथ उतर रहे हैं। इस निगम चुनाव में टिकट बँटवारे के समय जो घमासान मचा उसमें पैसे का बोल-बाला साफ तौर पर नज़र आया। यूँ तो चुनाव आयोग ने चुनावी खर्च की सीमा 4 लाख रुपये तय की थी लेकिन उम्मीदवारों ने चुनाव प्रचार से पहले ही 40 से 80 लाख रुपये तो टिकट पाने में ही ख़र्च कर दिये! बताने की ज़रूरत नहीं है कि ये तमाम धनपति ‘जन-सेवा’ के लिए यह भारी-भरकम निवेश नहीं कर रहे हैं, बल्कि ‘धन-मेवा’ पाने के लालच में पसीना बहा रहे हैं! जाहिरा तौर पर ये लोग जीतते ही अपनी रकम को दोगुना, तिगुना करने में लगेंगे न कि अपने इलाके के विकास पर ध्यान देंगे जिसका ताज़ा उदाहरण पिछले पाँच साल रहे निगम पार्षदों की सम्पत्ति को देखकर समझा जा सकता है! इसमें भाजपा के 26 पार्षद ऐसे हैं जो लखपति से करोड़पति हो गये!

किस बात का जश्न?

वास्तव में पिछले एक साल में देश की ग़रीब मेहनतकश जनता को क्या मिला है, यह सभी जानते हैं। खाद्य सामग्री की मुद्रास्फीति दर 17 प्रतिशत के करीब जा रही है, जिसका अर्थ है आम आदमी की थाली से एक-एक करके दाल, सब्ज़ी आदि का ग़ायब होता जाना। रोज़गार सृजन की दर नकारात्मक में चल रही है। कुल मुद्रास्फीति की दर भी जून के तीसरे सप्ताह में 10 प्रतिशत को पार कर गयी। यानी कि रोज़मर्रा की ज़रूरत का हर सामान महँगा हो जाएगा। इसकी सबसे भयंकर मार देश के मज़दूर वर्ग, ग़रीब किसानों, और आम मध्यवर्ग पर पड़ेगा।

दिल्ली मेट्रो रेल के कामगारों का अपनी कानूनी माँगों के लिए संघर्ष

हम सभी मेट्रो रेल को दिल्ली की शान समझते है। मीडिया से लेकर सरकार तक मेट्रो को दिल्ली की शान बताने का कोई मौका नहीं चूकते। मुख्यमंत्री शीला दीक्षित से लेकर प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह तक मेट्रो के कसीदे पढ़ते हुए, इसके कार्यकुशल प्रंबधन को उदाहरण के रूप में पेश करते हैं, तो दूसरी तरफ़ जगमगाती, चमकदार, उन्नत तक्नोलॉजी से लैस मेट्रो को देखकर कोई भी दिल्लीवासी फ़ूला नहीं समाता। लेकिन बहुत कम ही लोग जानते हैं कि इस उन्नत, आरामदेह और विश्व-स्तरीय परिवहन सेवा के निर्माण से लेकर उसे चलाने और जगमगाहट को कायम रखने वाले मजदूरों के जीवन में कैसा अन्धकार व्याप्त है। चाहे वे जान–जोखिम में डालकर निर्माण कार्य में दिनों-रात खटने वाले मजदूर हो, या स्टेशनों पर काम करने वाले गार्ड या सफ़ाईकर्मी, किसी को भी उनका जायज़ हक़ और सुविधाएँ नहीं मिलती।

प्रधानमंत्री का प्राथमिक शिक्षा पर स्यापा

इसी से जुड़ा प्रश्न है कि बच्चे स्कूल क्यों छोड़ देते हैं ? असल में सामाजिक–आर्थिक व्यवस्था उन्हें स्कूल से बाहर छोड़ आती है । ऐसा नहीं है कि स्कूल छोड़ने वाले बच्चे अपने जीवन में शिक्षा के महत्व को समझते ही नहीं या उनके मां–बाप को शिक्षा से कोई जन्मजात बैर हो । ऐसे ख्याल कई बार खाते–पीते मध्यवर्गीय को खासा मनोरंजन और संतुष्टि देते हैं कि ये लोग तो पढ़ना और आगे बढ़ना ही नहीं चाहते । यह बात भुला दी जाती है कि इन बच्चों और उनके परिवारों के लिए ये व्यवस्था दो जून खाने और रोज कमाने के बीच ज्यादा फासला नहीं छोड़ती । अध्ययनों में भी सामने आया है कि वंचित तबकों के ज्यादातर बच्चे ग्यारह साल की उम्र तक स्कूल से बाहर चले जाते है यह उम्र का वह मोड़ होता है, जहां से एक रास्ता स्कूल की तरफ आगे जाता है और दूसरा परिवार का पेट भरने में हाथ बंटाने की तरफ । और ऐसे में ये बच्चे अगर अपना नाम लिखना भी सीख लेते है तो सरकारी आंकड़ों के हिसाब से ये साक्षर मान लिये जाते हैं ।

राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना – आखिर गारण्टी किसकी और कैसे?

बेरोज़गारों की एक रिज़र्व आर्मी की पूँजीवाद को हमेशा ही आवश्यकता रहती है जो रोज़गारशुदा मज़दूरों की मोलभाव की क्षमता को कम करने के लिए पूँजीपतियों द्वारा इस्तेमाल की जाती है। अगर बेरोज़गार मज़दूर न हों और श्रम आपूर्ति श्रम की माँग के बिल्कुल बराबर हो, तो पूँजीपति वर्ग मज़दूरों की हर माँग को मानने के लिए विवश होगा। इसलिए पूँजीपति वर्ग तकनोलॉजी को उन्नत करके, मज़दूरों का श्रमकाल बढ़ाकर एक हिस्से को छाँटकर बेरोज़गारों की जमात में शामिल करता रहता है। लेकिन जब बेरोज़गारी एक सीमा से आगे बढ़ जाती है और सामाजिक अशान्ति का कारण बनने लगती है और सम्पत्तिवानों के कलेजे में भय व्यापने लगता है तो सरकार के दूरदर्शी पहरेदार कुछ ऐसी योजनाओं के लॉलीपॉप जनता को थमाकर उनके गुस्से पर ठण्डे पानी का छिड़काव करते हैं। यह व्यवस्था की रक्षा के लिए आवश्यक होता है कि कुछ ऐसे ‘चेक्स एण्ड बैलेंसेज़’ का तंत्र हो जो व्यवस्था की दूरगामी रक्षा का काम करता हो। जब पूँजीपति वर्ग मुनाफ़े की हवस में अन्धा होकर जनता को लूटने लगे और सड़कों पर धकेलने लगे तो कुछ कल्याणकारी नीतियाँ लागू कर दी जाती हैं। संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार में ऐसे तमाम पहरेदार–चौकीदार बैठे हैं जो समझते हैं कि कब जनता को भरमाने के लिए कोई कल्याणकारी झुनझुना उनके हाथ में थमा देना है। रोज़गारी गारण्टी योजना, अन्त्योदय योजना आदि ऐसे ही कुछ कल्याणकारी झुनझुने हैं जिनसे होता तो कुछ भी नहीं है लेकिन शोर बहुत मचता है।

क्रान्तिकारी छात्र राजनीति से घबराये हुक़्मरान

अगर छात्रसंघ को ख़त्म किया जाता है तो यह एक फ़ासिस्ट और अलोकतांत्रिक कदम होगा। छात्र कहीं भी आवाज़ उठाएँगे तो उन्हें कुचला जाएगा और चुनावबाज पार्टियों के लग्गुओं-भग्गुओं का तो कुछ नहीं बिगड़ेगा, मगर कैम्पसों में एक मुर्दा शान्ति छा जाएगी। छात्रसंघ की गन्दी राजनीति का इलाज छात्रसंघ को ख़त्म करके करना वैसा ही है जैसे कि बीमार की बीमारी का इलाज करने की बजाय बीमार को ही ख़त्म कर दिया जाय। कोशिश यह होनी चाहिए कि कैम्पस में मौजूद क्रान्तिकारी ताकतें आगे बढ़कर छात्रसंघ की कमान अपने हाथ में ले लें।