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हमारा आख़िरी जवाब – कुतर्कों, कठदलीली, कूढ़मग़ज़ी और कुलकपरस्ती की पवनचक्की के पंखों में गोल-गोल घिसट रहे दोन किहोते दि ला पटना और “यथार्थवादी” बौड़म मण्डली

जैसे ही हम किसी भी प्रश्न पर उनकी मूर्खतापूर्ण अवस्थिति को इंगित कर आलोचना का प्रकाश उस पर डालते हैं वह मेंढक की तरह कुद्दियाँ मारकर अपनी अवस्थिति बदल लेते हैं! सबएटॉमिक कण का व्यवहार प्रेक्षण में ऐसा ही होता है। अगर उसका संवेग (momentum) पता चलता है तो अवस्थिति (position) नहीं पता चलती और अगर अवस्थिति पता चल जाती है तो संवेग पता नहीं चलता है। माटसाब की नज़र में अक्तूबर क्रान्ति में धनी किसान-कुलक वर्ग सहयोगी हैं भी और नहीं भी, ‘किसान बुर्जुआज़ी’ पूंजीपति वर्ग है भी और नहीं भी, समाजवादी समाज में श्रमशक्ति माल है भी और नहीं भी! उनकी अवस्थिति श्रोडिंगर की बिल्ली की तरह मृत भी है और जीवित भी है!

भूख और बीमारी से मरते लोगों के बीच राम मन्दिर के भूमि पूजन का प्रहसन

अगर यह मुद्दा है तो हर उस स्थान के इतिहास को पीछे जाकर देखा जाना चाहिए जहाँ आज कोई मन्दिर या मस्जिद है। उसी जगह पर न जाने उससे पहले कितने क़िस्म के धर्मस्थल रहे होंगे। आप किस-किसको तोड़ेंगे और किस-किसको बनायेंगे? इस मामले पर ज़रा-सा तार्किक विचार करते ही स्पष्ट हो जाता है कि यह कितना निरर्थक, पीछे ले जाने वाला और प्रतिक्रियावादी है। इतिहास को पीछे ले जाने वाली ताक़तें ही आज इसका इस्तेमाल कर रही हैं और जनता के पिछड़ेपन का और वर्ग चेतना के अभाव का लाभ उठाकर उसे इन मुद्दों से भरमा रही हैं। उनकी दिलचस्पी आज ग़रीब मेहनतकश आबादी के साथ हो रहे अन्याय के ख़िलाफ़ लड़ने में नहीं है जो वास्तव में इतिहास को आगे ले जाता। उनकी दिलचस्पी सुदूर अतीत में हुए किसी ऐसे अन्याय के ख़िलाफ़ लड़ने में है, जिसके बारे में दावे से कहा भी नहीं जा सकता है कि वह हुआ था भी या नहीं। साम्प्रदायिक फ़ासीवाद ऐसी ही एक ताक़त है जो आम भारतीय जनता के बीच तार्किक दृष्टि की कमी, वर्ग चेतना की कमी, वैज्ञानिकता की कमी का फ़ायदा उठाते हुए उसे धर्म के आधार पर बाँट देती है। पूँजीपति वर्ग के लिए यह एक बहुत बड़ी सेवा साबित होती है क्योंकि यह सर्वहारा वर्ग के भी एक बड़े हिस्से को एक ऐसे सवाल पर आपस में बाँट देता है जो वास्तव में उसके लिए कोई सवाल है ही नहीं।

षड्यंत्र सिद्धान्तों (कॉन्सपिरेसी थियरीज़) के पैदा होने और लोगों के बीच उनके फैलने का भौतिक आधार क्या है

षड्यंत्र सिद्धान्तकारों की यह ख़ासियत होती है कि वे अपने षड्यंत्र सिद्धान्त को कभी ठोस प्रमाण पर परखने की ज़हमत नहीं उठाते हैं क्योंकि अपने स्वभाव से ही ये सिद्धान्त किसी भी प्रकार के प्रमाणन या सत्यापन के प्रति निरोधक क्षमता रखते हैं। मिसाल के तौर पर, ये बुरे, शक्तिशाली लोग, या कारपोरेशन या सरकारें, कोई सबूत नहीं छोड़ती हैं और लोगों को वह सोचने पर बाध्य कर देती हैं, जैसा कि वे चाहती हैं कि वे सोचें! नतीजतन, कोई ठोस और सुसंगत प्रमाण मांगना ही निषिद्ध है। नतीजतन, कुछ बिखरे तथ्यों और बातों को ये षड्यंत्र सिद्धान्तकार अपनी तरीके से एकत्र करते हैं, उनके बीच मनोगत तरीके से कुछ सम्बन्ध स्थापित करते हैं और बस एक षड्यंत्र सिद्धान्त तैयार हो जाता है। और ऐसे सिद्धान्तों की एक अस्पष्ट सी अपील होती है क्योंकि उसमें प्रमाणों, सम्बन्धों, आलोचनात्मक चिन्तन आदि पर आधारित किसी वास्तविक विश्लेषण की कोई आवश्यकता नहीं होती है, जोकि एक वर्ग समाज में हर परिघटना के पीछे काम करने वाले वर्गीय राजनीतिक ढाँचागत कारकों को अनावृत्त कर सकें।

फ़ासिस्टों ने किस तरह आपदा को अवसर में बदला!

भारत में फ़ासीवादी सरकार ने इस संकट को भी अपने फ़ासीवादी प्रयोग का हिस्सा बना लिया और थाली-ताली बजवाकर, मोमबत्ती जलवाकर जनता का एक सामूहिक मनोवैज्ञानिक परीक्षण कर यह पता लगाने में एक हद तक सफल भी हो गयी कि जनता का कितना बड़ा हिस्सा और किस हद तक तर्क और विज्ञान को ताक पर रखकर आरएसएस के फ़ासीवादी प्रचार के दायरे में आ चुका है। दूसरी ग़ौर करने वाली बात यह है कि ये फ़ासीवादी अनुष्ठान तब आयोजित किये जा रहे थे जब सीएए, एनआरसी और एनपीआर जैसे विभाजनकारी और आरएसएस के फ़ासीवादी मंसूबे को अमली जामा पहनाने वाले काले क़ानूनों के ख़िलाफ़ देशभर में सैकड़ों जगहों पर शाहीनबाग़ की तर्ज़ पर महिलाओं ने मोर्चा सँभाल रखा था। इन बहादुर महिलाओं के क़दम से क़दम मिलते हुए पुरुष, छात्र, कर्मचारी, मज़दूर यानि देश का हर तबक़ा बड़ी तादाद में सड़कों पर था। सत्ता की शह पर फ़ासिस्ट गुण्डों द्वारा प्रदर्शन पर गोली चलवाने, अफ़वाह फैलाकर आन्दोलन को बदनाम करने, सुधीर चौधरी, दीपक चौरसिया, अर्णब गोस्वामी जैसे पट्टलचाट सत्ता के दलाल पत्रकारों द्वारा फैलाये जा रहे झूठ, हिन्दू-मुसलमान के नाम पर आन्दोलन को कमज़ोर करने की लाख कोशिशों के बावजूद जब आन्दोलनकारी महिलाएँ बहादुरी से इसका सामना करते हुए मैदान से पीछे नहीं हटी तब इन दरिन्दों ने उत्तर-पूर्वी दिल्ली दंगो का ख़ूनी खेल खेलना शुरू कर दिया जिसमें दिल्ली पुलिस भी इन दंगाइयों के कन्धे से कन्धा मिलाकर आगजनी और तोड़फोड़ में शामिल रही।

धरती पर जीवन का उद्भव और उद्विकास (इवोल्यूशन)

यह प्रश्न मानवता के समक्ष आदिम काल से मौजूद है कि सितारों की दुनिया और हमारी दुनिया के बीच क्या सम्बन्ध है? धरती पर मौजूद पेड़-पौधों से लेकर नदी, पहाड़, जंगल ज़मीन का मनुष्य से क्या वास्ता है? मनुष्य अपने उद्भव पर आदिकाल से चिन्तन करता रहा है। आधुनिक काल में प्राकृतिक विज्ञान ने अपने विकासक्रम में इस सवाल पर तरह-तरह के धार्मिक मकड़जालों को हटाकर साफ़ कर दिया है। इतिहास में पहले सितारों और धरती पर भौतिक वस्तुओं की गतिकी के अध्ययन से साफ़ नज़र होने के बाद इन्सान ने जैव जगत और अपने उद्गम का वैज्ञानिक विश्लेषण किया। जीवन के रूपों के बदलाव को उद्विकास (इवोल्यूशन) कहते हैं और यह सवाल जीवन की उत्पत्ति से जुड़ा हुआ है। जीवाश्म, डीएनए और क्लैडिस्टिक्स के अध्ययन से जीवन के रूपों और उनके उद्विकास के नियमों को जाना गया है। 19वीं शताब्दी में जाकर ही उद्विकास और जीवन के उद्भव पर विज्ञान निर्णायक कदम उठा सका।

‘नयी शिक्षा नीति 2020’: लफ़्फ़ाज़ि‍यों की आड़ में शिक्षा को आमजन से दूर करने की परियोजना

नयी शिक्षा नीति 2020 लागू होने के बाद उच्च शिक्षा के हालात तो और भी बुरे होने वाले हैं। पहले से ही लागू सेमेस्टर सिस्टम, एफ़वाईयूपी, सीबीडीएस, यूजीसी की जगह एचईसीआई इत्यादि स्कीमें भारत की शिक्षा व्यवस्था को अमेरिकी पद्धति के अनुसार ढालने के प्रयास थे। अब विदेशी शिक्षा माफ़ि‍या देश में निवेश करके अपने कैम्पस खड़े कर सकेंगे और पहले से ही अनुकूल शिक्षा ढाँचे को सीधे तौर पर निगल सकेंगे। शिक्षा के मूलभूत ढाँचे की तो बात ही क्या करें यहाँ तो शिक्षकों का ही टोटा है। केन्द्रीय और राज्य विश्वविद्यालयों में क़रीब 70 हजार प्रोफ़ेसरों के पद ख़ाली हैं।

कृषि-सम्‍बन्‍धी तीन विधेयक : मेहनतकशों का नज़रिया

ग़रीब, निम्‍न मध्‍यम और मध्‍यम किसानों की बहुसंख्‍या की नियति पूँजीवादी व्‍यवस्‍था में तबाह होने की ही है। छोटे पैमाने के उत्‍पादन और इस समूचे वर्ग को बचाने का कोई भी वायदा या आश्‍वासन इन वर्गों को देना उनके साथ ग़द्दारी और विश्‍वासघात है और उन्‍हें राजनीतिक तौर पर धनी किसानों और कुलकों का पिछलग्‍गू बनाना है। तो फिर इनके बीच में हमें क्‍या करना चाहिए? जैसा कि लेनिन ने कहा था: सच बोलना चाहिए! सच बोलना ही क्रान्तिकारी होता है। हमें पूँजीवादी समाज में उन्‍हें उनकी इस अनिवार्य नियति के बारे में बताना चाहिए, उनकी सबसे अहम माँग यानी रोज़गार के हक़ की माँग के बारे में सचेत बनाना चाहिए और उन्‍हें बताना चाहिए कि उनका भविष्‍य समाजवादी खेती, यानी सहकारी, सामूहिक या राजकीय फार्मों की खेती की व्‍यवस्‍था में ही है। केवल ऐसी व्‍यवस्‍था ही उन्‍हें ग़रीबी, भुखमरी, असुरक्षा और अनिश्चितता से स्‍थायी तौर पर मुक्ति दिला सकती है। दूरगामी तौर पर, समाजवादी क्रान्ति ही हमारा लक्ष्‍य है। तात्‍कालिक तौर पर, रोज़गार गारण्‍टी की लड़ाई और खेत मज़दूरों के लिए सभी श्रम क़ानूनों की लड़ाई, और सभी कर्जों से मुक्ति की लड़ाई ही हमारी लड़ाई हो सकती है। केवल ऐसा कार्यक्रम ही गाँवों में वर्ग संघर्ष को आगे बढ़ाएगा और ग्रामीण सर्वहारा वर्ग और अर्द्धसर्वहारा वर्ग को एक स्‍वतंत्र राजनीतिक शक्ति के रूप में संगठित करेगा और समाजवादी क्रान्ति के लिए तैयार करेगा।

ढहती अर्थव्‍यवस्‍था, बढ़ती बेरोज़गारी

बेतहाशा बढ़ रही बेरोज़गारी को लेकर देश की छात्र-युवा आबादी में सुलगता असन्‍तोष पिछली 5 सितम्‍बर और फिर 17 सितम्‍बर को देश के कई राज्‍यों में सड़कों पर प्रदर्शनों के रूप में रूप में फूट पड़ा। शहरों ही नहीं, गाँवों के इलाक़ों में भी जगह-जगह छात्रों-युवाओं ने थाली पीटकर अपना विरोध जताया और नरेन्‍द्र मोदी के कथित जन्‍मदिवस को ‘बेरोज़गारी दिवस’ के रूप में मनाया। यह सही है कि नौजवानों की एक भारी आबादी अब भी संघी प्रचार और गोदी मीडिया व भाजपा के आईटी सेल द्वारा उछाले जा रहे झूठे मुद्दों की गिरफ़्त में है, लेकिन आने वाले दिनों में बेरोज़गारी, महँगाई और सरकारी दमन की बिगड़ती स्थिति की मार उन पर भी पड़ने वाली है।

हिन्दू राष्ट्र में क्या होगा?

जैसे-जैसे देश में असन्तोष और ग़ुस्सा बढ़ेगा, लोगों का ध्यान भटकाने के लिए और उनकों बाँटने के लिए हिन्दुत्व के जुमले को और भी ज़्यादा उछाला जायेगा, हिन्दुओं और मुसलमानों को एक-दूसरे के शत्रु के रूप में पेश किया जायेगा, ताकि इन भयंकर स्थितियों के लिए जिम्मेदार पूँजीवादी व्यवस्था, पूँजीपति वर्ग और उसके सबसे प्रतिक्रियावादी हिस्से की नुमाइन्दगी करने वाली मोदी-शाह सरकार को जनता कठघरे में न खड़े। और यदि कोई इस सच्चाई को समझता है और मोदी सरकार का विरोध करता है, तो उसे ‘हिन्दू राष्ट्र’ का शत्रु करार दिया जायेगा, जेलों में डाला जायेगा, प्रताड़ित किया जायेगा, चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान। क्या देश में ठीक यही नहीं हो रहा है? सोचिए।

एनपीआर के ख़िलाफ़ देशव्यापी जनबहिष्कार है अगला क़दम!

यह समझना बहुत ज़रूरी है कि एक अच्छी-ख़ासी आम हिन्दू आबादी भी संघ परिवार के प्रचार के प्रभाव में है। उसे सीएए-एनआरसी-एनपीआर की सच्चाई नहीं पता है। वह भी बेरोज़गारी, महँगाई और पहुँच से दूर होती शिक्षा, चिकित्सा और आवास से परेशान है, नाराज़ है, असन्तुष्ट है। और यही नाराज़गी उसमें एक ग़ुस्से और प्रतिक्रिया को जन्म दे रही है। सही राजनीतिक शिक्षा और चेतना के साथ यह नाराज़गी सही शत्रु को पहचान सकती है और उसे निशाना बना सकती है, यानी कि मौजूदा फ़ासीवादी सत्ता और समूची पूँजीवादी व्यवस्था को। लेकिन राजनीतिक चेतना और शिक्षा की कमी के कारण फ़ासीवादी शक्तियाँ उनकी अन्धी प्रतिक्रिया को एक नकली दुश्मन, यानी मुसलमान और दलित, देने में कामयाब हो जाती हैं।