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भारत में नवउदारवाद की चौथाई सदी : पृष्ठभूमि और प्रभाव

नवउदारवाद के दौर में भारतीय अर्थव्यवस्था  शेयर बाज़ार में दुनिया भर के सट्टेबाज़ों की आवारा पूँजी और बैंकों के क्रेडिट के बुलबुले पर टिकी हुई एक जुआघर अर्थव्यवस्था में तब्दील हो चुकी है। ऐसी जुआघर अर्थव्यवस्था का प्रतिबिम्बन राजनीति और संस्कृति में झलकना लाज़िमी है। यह महज़ इत्तेफ़ाक नहीं है कि नवउदारवाद के पिछले 25 वर्ष भारत में हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिक फ़ासीवादी उभार के भी वर्ष रहे हैं। इस फ़ासीवादी उभार के प्रमुख सामाजिक आधार नवउदारवादी  नीतियों से उजड़े निम्न बुर्जुआ वर्ग और उदीयमान खुशहाल मध्य वर्ग रहे हैं। इस फ़ासीवादी उभार ने नवउदारवादी नीतियों को लागू करने से होने वाले सामाजिक असन्तोष व आक्रोश को धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ़ गुस्से के रूप में भटकाकर भारत के बुर्जुआ वर्ग का हितपोषण किया है।

कश्मीर: यह किसका लहू है कौन मरा!

भारतीय राज्यसत्ता द्वारा सारी कश्मीर की अवाम को आतंकी के रूप में दिखाने की कोशिश कश्मीरी जनता के संघर्ष को बदनाम करने और कश्मीर में भारतीय राज्यसत्ता के हर जुल्म को जायज ठहराने की घृणित चाल है। पिछले लगभग छ: दशकों से भी अधिक समय के दौरान भारतीय राज्यसत्ता द्वारा कश्मीरी जनता के दमन, उत्पीड़न और वायदाखि़लाफ़ी से उसकी आज़ादी की आकांक्षाएँ और प्रबल हुई हैं और साथ ही भारतीय राज्यसत्ता से उसका अलगाव भी बढ़ता रहा है। बहरहाल सैन्य दमन के बावजूद कश्मीरी जनता की स्वायत्तता और आत्मनिर्णय की माँग कभी भी दबायी नहीं जा सकती। मगर यह बात भी उतनी ही सच है कि पूँजीवाद के भीतर इस माँग के पूरा होने की सम्भावना नगण्य है। भारतीय शासक वर्ग अलग-अलग रणनीतियाँ अपनाते हुए कश्मीर पर अपने अधिकार को बनाये रखेगा। भारत और पाकिस्तान दोनों के शासक वर्ग अपने हितों को साधने के नज़रिये से कश्मीर को राष्ट्रीय शान का प्रश्न बनाए रखेंगे।

क्यों फल-फूल रहा है बांग्लादेश में इस्लामिक कट्टरपन्थ?

बांग्लादेश के इतिहास के वाकिफ़ लोग जानते हैं कि इस्लामिक कट्टरपन्थियों द्वारा बांग्लादेश में किया गया यह कोई पहला हमला नहीं था। इससे पहले भी वहाँ ऐसे हमले होते रहे हैं। हाल के वर्षों में बांग्लादेश के इस्लामिक कट्टरपन्थी सेक्युलर व नास्तिक लेखकों और ब्लॉगरों पर हमलों के लिये कुख़्यात रहे हैं। वे सेक्युलर लेखकों और ब्लॉगरों को इस्लाम का दुश्मन बताकर उन्हें मारते रहे हैं और आम मुसलमानों को उनके ख़िलाफ़ हिंसा के लिये उकसाते रहे हैं।

“स्त्री क्या चाहती है?” – सबसे पहले तो आज़ादी!

स्त्री क्या चाहती है? यह प्रश्न कई अवस्थितियों से, कई धरातलों पर पूछा जा सकता है और इसके उत्तर भी इतनी ही भिन्न‍ताएँ लिये हुए होंगे। स्त्री की चाहत समय और समाज की चौहद्दी का अतिक्रमण नहीं कर सकती। आज से सौ या पचास साल पहले की स्त्री की चाहत वही नहीं थी जो आज की स्त्री की है। सामाजिक विकास और सामाजिक चेतना के स्तरोन्नयन के साथ स्त्री चेतना भी उन्नत हुई है और उसकी इच्छाओं-कामनाओं-स्वप्नों के क्षितिज का विस्तार हुआ है।

सत्ता के दमन की चपेट में – छत्तीसगढ़ की जनता!

‘सलवा जुडूम’, ‘ऑपरेशन ग्रीन हण्ट’ यह सब उन अलग-अलग हथकण्डों के नाम है जिनकी आड़ में माओवादियों का खात्मा करने की बात कहते हुए सुनियोजित तरीके से आदिवासियों को उनके गाँवों से विस्थापित कर अपने ही देश में शरणार्थियों की तरह शिविरों में भर दिया गया है। ‘आई.डी.पी. कैम्प’ (‘इण्टरनली डिसप्लेस्ड पीपल कैम्प’) यातना शिविरों से अलग नहीं हैं। ऐसा इसीलिए किया जाता है ताकि बेरोक-टोक खनन का काम किया जा सके।

बिपिन चन्द्र की पुस्तक पर भगवा हमला : भगतसिंह बनाम क्रान्तिकारी आतंकवाद

एक तरफ़ जहाँ संघ तृणमूल स्तर पर अपने प्रचार तथा कार्रवाइयों के ज़रिये जनता को अपने पक्ष में करने में लगा हुआ है, वहीं दूसरी तरफ़ शिक्षा के भगवाकरण के ज़रिये वह पूरे देश में चेतना को कुन्द करके समाज की मेधा को अपने नियंत्रण में करने की कोशिश कर रहा है। यही नहीं वह मिथ्या और झूठ को सामान्य ज्ञान के रूप में स्थापित कर अपने नापाक इरादों की पूर्ति को सुगम बना रहा है। संघ के इन नापाक इरादों को विफल करने के लिए, आज देश की तमाम प्रगतिशील और क्रान्तिकारी ताक़तों का यह दायित्व बनता है कि वे शिक्षा के भगवाकरण की मुहिम का पुरज़ोर विरोध करें और अपनी समझ को लेकर जनता के बीच जाएँ और संघी फ़ासिस्टों के नापाक मंसूबों के ख़िलाफ़ जनान्दोलनों को तेज़ करें।

जुमले बनाम रोज़गार और विकास की स्थिति

रोज़गार की हालत तो यह हो चुकी है कि साधारण विश्वविद्यालय-कॉलेजों से पढ़ने वालों को तो रोज़गार की मन्दी में अपनी औकात पहले से ही पता थी, लेकिन अब तो आज तक ‘सौभाग्य’ के सातवें आसमान पर बैठे आईआईटी-आईआईएम वालों को भी बेरोज़गारी की आशंका सताने लगी है और इन्हें भी अब धरने-नारे की ज़रूरत महसूस होने लगी है क्योंकि मोदी जी के प्रिय ‘स्टार्टअप’ वाले उन्हें धोखा देने लगे हैं! ‘फ्लिपकार्ट’, ‘एल एण्ड टी इन्फोटेक’ जैसी कम्पनियों ने हज़ारों छात्रों को जो नौकरी के ऑफर दिये थे वे कागज के टुकड़े मात्र रह गये हैं क्योंकि अब उन्हें ‘ज्वाइन’ नहीं कराया जा रहा है!

जल संकट : वित्तीय पूँजी की जकड़बन्दी का नतीजा

जब पानी को सुगम और सर्वसुलभ ही न रहने दिया हो और उसे एक मुनाफ़ा देनेवाले उद्योग की शक्ल में बदल दिया हो तो क्रय शक्ति से कमजोर आम जन समुदाय के लिए उस तक पहुँच ही कठिन नहीं होगी बल्कि जल्दी ही यह उसके लिए एक विलासिता की सामग्री भी हो जायेगी, यह निश्चित है। पानी का एक मुनाफ़ेवाला कारोबार बनने के समय से ही पूरी दुनिया के कारोबारियों के बीच इस पर आधिपत्य के लिए भीषण प्रतिस्पर्धा जारी हो चुकी थी। लगभग 500 बिलियन डालर के इस वैश्विक बाज़ार के लिए यह होड़ बेशक अब और अधिक तीखी होने वाली है।

लोकप्रियता और यथार्थवाद / बेर्टोल्ट ब्रेष्ट (1938)

अगर हम एक ज़िन्दा और जुझारू साहित्य की आशा रखते हैं जो कि यथार्थ से पूर्णतया संलग्न हो और जिसमें यथार्थ की पकड़ हो- एक सच्चा लोकप्रिय साहित्य- तो हमें यथार्थ की द्रुत गति के साथ हमकदम होना चाहिए। महान मेहनतकश जनता पहले से ही इस राह पर है। उसके दुश्मनों की कारगुजारियाँ और क्रूरता इसका सबूत हैं।

फासीवादी हमले के विरुद्ध ‘जेएनयू’ में चले आन्दोलन से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण सवाल

कोई भी आन्दोलन जब व्यक्ति केन्द्रित होता है या ‘से‍क्टेरियन’ राजनीति का शिकार होता है तो अपनी तमाम उर्वर सम्भावनाओं के बावजूद वह सत्ता के विरुद्ध राजनीतिक प्रतिरोध के तौर पर प्रभावी होने की क्षमता खो बैठता है। वह आन्दोलन किसी धूमके‍तु की तरह आकाश में बस चमक कर रह जाता है। कुछ लोगों या संगठनों के नाम अखबारों और टीवी चैनलों की सुर्खियाँ बनते हैं और फ़िर वे इन्हें अपने-अपने फायदे के अनुसार भुनाते हैं। व्यापक राजनीति‍ के साथ यह धोखाधड़ी और मौकापरस्ती इतिहास के इस कठिन दौर में जब फासीवाद इस कदर समाज पर छा रहा है और पूरी दुनिया में प्रतिक्रियावाद और कट्टरपन्थ का दौर है, बेहद महँगा साबित होने जा रहा है।