Category Archives: बहस

जन संगठन, विचारधारा और पहचान की राजनीति से सम्बन्धित प्रश्नों पर ‘दिशा’ और ‘बाप्सा’ के बीच चली बहस में ‘दिशा’ का जवाब

जन संगठन, विचारधारा और पहचान की राजनीति से सम्बन्धित प्रश्नों पर ‘दिशा’ और ‘बाप्सा’ के बीच चली बहस में ‘दिशा’ का जवाब प्रिय पाठको, हाल ही में जवाहरलाल नेहरू विश्‍वविद्यालय…

‘प्रतिबद्ध’ पत्रिका के सम्पादक द्वारा मार्क्सवादी सिद्धान्त और सोवियत इतिहास का संघवादी-संशोधनवादी विकृतिकरण

जब कोई व्यक्ति या समूह अपनी विजातीय कार्यदिशा को सही साबित करने के लिए इरादतन झूठ बोले, इतिहास के दस्तावेज़ों को ग़लत और मनमाने तरीक़े से उद्धृत करे, सिद्धान्तगत प्रश्नों और ऐतिहासिक तथ्यों को मिस्कोट और मिसरिप्रेज़ेन्ट करे तो निश्चित ही विचारधारात्मक-राजनीतिक पतन की फिसलन भरी डगर पर ऐसा व्यक्ति या समूह द्रुत गति से राजनीतिक निर्वाण प्राप्ति की ओर अग्रसर हो रहा होता है। यही हालत ‘प्रतिबद्ध’ के सम्पादक सुखविन्दर और ‘प्रतिबद्ध-ललकार’ ग्रुप की हो गयी है। क़ौमी और भाषाई सवाल पर बहस में पिट जाने पर (जिस बहस के अस्तित्व को यह महोदय शुरू से ही नकारते रहे हैं, लेकिन इस पर बाद में आयेंगे) सम्पादक महोदय घटिया क़िस्म के कपट और बेईमानी पर उतर आये हैं।

हमारा आख़िरी जवाब – कुतर्कों, कठदलीली, कूढ़मग़ज़ी और कुलकपरस्ती की पवनचक्की के पंखों में गोल-गोल घिसट रहे दोन किहोते दि ला पटना और “यथार्थवादी” बौड़म मण्डली

जैसे ही हम किसी भी प्रश्न पर उनकी मूर्खतापूर्ण अवस्थिति को इंगित कर आलोचना का प्रकाश उस पर डालते हैं वह मेंढक की तरह कुद्दियाँ मारकर अपनी अवस्थिति बदल लेते हैं! सबएटॉमिक कण का व्यवहार प्रेक्षण में ऐसा ही होता है। अगर उसका संवेग (momentum) पता चलता है तो अवस्थिति (position) नहीं पता चलती और अगर अवस्थिति पता चल जाती है तो संवेग पता नहीं चलता है। माटसाब की नज़र में अक्तूबर क्रान्ति में धनी किसान-कुलक वर्ग सहयोगी हैं भी और नहीं भी, ‘किसान बुर्जुआज़ी’ पूंजीपति वर्ग है भी और नहीं भी, समाजवादी समाज में श्रमशक्ति माल है भी और नहीं भी! उनकी अवस्थिति श्रोडिंगर की बिल्ली की तरह मृत भी है और जीवित भी है!

Ajay Sinha aka Don Quixote de la Patna’s Disastrous Encounter with Marx’s Theory of Ground Rent (and Marx’s Political Economy in General)

This magazine ‘The Truth’/’Yathaarth’ and the intellectual clowns gathered around it, are an intellectual hazard for the progressive-minded people, especially youth, interested in Marxism. There can be no greater disservice to Marxism, than distorting it, falsifying it and disseminating all kinds of ignorant and stupid ideas about it. This is precisely what this bunch of intellectual crooks and clowns is doing. Therefore, my final advice to all: Stay away from them. Maintain a safe distance. It would be good for the intellectual health and well-being of all persons.

परिशिष्‍ट – पटना के दोन किहोते ने ‘द ट्रूथ’ से ‘यथार्थ’ तक पहुंचने में अपना मानसिक सन्‍तुलन कैसे खोया?

पटना के दोन किहोते ने पहले धनी किसान आंदोलन की पूंछ पकड़ी। इस प्रयास को क्रान्तिकारी बताया। इसके लिए उन्‍होंने इजारेदार पूंजी के कृषि में प्रवेश को पूंजीवादी कृषि का दूसरा चरण बताया, जिसके पहले ”सामान्‍य पूंजीवादी खेती” नाम की कोई चीज़ हो रही थी! उनके अनुसार, इस प्रवेश के कारण लाभकारी मूल्‍य ‘नये अर्थ’ में एक क्रान्तिकारी मांग बन गई है। मौजूदा लेख में उन्‍होंने यह खुले तौर पर स्‍वीकार भी कर लिया है। इसके आधार पर वह धनी किसान आंदोलन में ”क्रान्तिकारी अन्‍तर्य’’ ढूंढ निकालते हैं। वह बताते हैं कि इस आंदोलन में ग़रीब किसानों का हिस्‍सा ही क्रान्तिकारी ‘अन्‍तर्य’ है और बाहरी खोल के रूप में धनी किसान मौजूद हैं! आगे वह यह भी बताते हैं कि धनी किसानों से लेकर मध्‍यम किसानों का एक बड़ा हिस्‍सा इजारेदार पूंजी के आने पर बर्बाद हो जाएगा और इन तबकों में ‘क्रान्तिकारी’ सम्‍भावनाएं हैं। वह आय-विश्‍लेषण करते हुए दावा करते हैं कि ‘अति अति धनी किसान’ के अलावा, धनी किसान व कुलक भी आज मित्र वर्ग हैं! हमने अपनी आलोचना में दिखलाया है कि यह ‘वर्ग’ का मार्क्‍सवादी विश्‍लेषण नहीं बल्कि समाजशास्‍त्रीय विश्‍लेषण है, जो उत्‍पादन सम्‍बन्‍धों को छोड़कर वितरण सम्‍बन्‍धों पर आधारित है। इसके आधार पर वह बताते हैं कि ‘उचित दाम’ की मांग किस प्रकार समाजवाद का आह्वान है। यहां वह सोवियत समाजवाद के इतिहास और समाजवादी संक्रमणकाल के आर्थिक नियमों और बुनियादी मार्क्‍सवादी राजनीतिक अर्थशास्‍त्र के साथ दुराचार करते हैं।

एक बातबदलू बौद्धिक बौने की बदहवास, बददिमाग़, बदज़ुबान बौखलाहट, बेवकूफियां और बड़बड़ाहट

मास्टरजी ने धनी किसान आंदोलन की पूंछ पकड़ने के लिए पहले जो (कु)तर्क दिए थे अब वे उनकी गले की फांस बन गए हैं, जो ना तो उनसे निगलते बन रहे हैं और न उगलते। यही कारण है कि अब उन (कु)तर्कों को सही साबित करने के लिए झूठ बोलने, अंतहीन कुतर्क करने, इतिहास का विकृतिकरण करने से लेकर गाली-गलौच और कुत्साप्रचार करने तक वे हर चाल अपना रहे हैं। केवल मार्क्सवादी विश्लेषण ही उनके लेख में दिखलाई नहीं देता है। हमारी सलाह होगी कि बदहवासी और बौखलाहट में इधर-उधर भागने और उछल-कूद मचाने से बेहतर है कि मास्टरजी ईमानदारी से नंगे शब्दों में धनी किसानों-कुलकों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता ज़ाहिर कर दें या ईमानदारी से अपने छात्रों के सामने अपनी प्रचण्ड मूर्खताओं पर अपनी आत्मालोचना पेश कर दें। ऐसा करने से उन्हें यक़ीनन कम तक़लीफ़ होगी!

धनी किसान-कुलक आन्दोलन पर सवार हो आनन-फानन में सर्वहारा क्रान्ति कर देने को आतुर पटना के दोन किहोते की पवनचक्कियों से भीषण जंग

जहां तक ऐतिहासिक अर्थों में पूंजीवादी विकास के प्रगतिशील होने का प्रश्न है, तो निश्चित तौर पर वह ऐतिहासिक तौर पर प्रगतिशील ही होता है। पूंजीवादी उत्पादन सम्बन्धों के प्रमुख उत्पादन सम्बन्ध बन जाने के बाद भी उत्तरोत्तर पूंजीवादी विकास ऐतिहासिक तौर पर प्रगतिशील ही होता है क्योंकि इसका अर्थ होता है, उत्पादन व श्रम का और बड़े पैमाने पर समाजीकरण और समाजवाद की ज़मीन का तैयार होना। ऐसा कहने में हम कुछ नया भी नहीं कह रहे हैं, बल्कि केवल मार्क्स, एंगेल्स व लेनिन को ही दुहरा रहे हैं। क्या पीआरसी का लेखक यह कहना चाहता है कि ऐतिहासिक तौर पर पूंजीवादी सम्बन्धों का उत्तरोत्तर विकास प्रगतिशील नहीं है? तब फिर उसे लेनिन की आलोचना लिखने का कार्यभार भी अपने हाथों में ले ही लेना चाहिए! ऐसी सोच अन्तत: टुटपुंजिया आर्थिक रूमानीवाद और छोटी पूंजी के रक्षावाद की ओर ले जाती है।

मौजूदा धनी किसान आन्‍दोलन और कृषि प्रश्‍न पर कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में मौजूद अज्ञानतापूर्ण और अवसरवादी लोकरंजकतावाद के एक दरिद्र संस्‍करण की समालोचना

कुतर्क की आड़ में पीआरसी सीपीआई (एमएल) की मज़दूर वर्ग-विरोधी अवस्थिति छिप नहीं सकी है! सच यह है कि पीआरसी सीपीआई (एमएल) का नेतृत्‍व मौजूदा धनी किसान-कुलक आन्‍दोलन की गोद में बैठने की ख़ातिर तरह-तरह के राजनीतिक द्रविड़ प्राणायाम कर रहा है, तथ्‍यों को तोड़-मरोड़ रहा है, गोलमोल बातें कर रहा है, समाजवाद के सिद्धान्‍त और इतिहास का विकृतिकरण कर रहा है और अवसरवादी लोकरंजकतावाद में बह रहा है। लेकिन इस क़वायद के बावजूद, वह कोई सुसंगत तर्क नहीं पेश कर पा रहा है और लाभकारी मूल्‍य के सवाल पर गोलमोल अवस्थिति अपनाने और उसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली से जोड़ने से लेकर “सामान्‍य पूँजीवादी खेती” और “कॉरपोरेट पूँजीवादी खेती” की छद्म श्रेणियाँ बनाकर मार्क्‍सवाद-लेनिनवाद का विकृतिकरण करने तक, सोवियत समाजवाद के बारे में झूठ बोलने और “उचित दाम” का भ्रामक नारा उठाने से लेकर तमाम झूठों और मूर्खताओं का अम्‍बार लगा रहा है।

कोविड-19 के षड्यंत्र सिद्धान्तों का संकीर्ण अनुभववाद और रहस्यवाद की परछाई

कोरोना महामारी (पैंडेमिक) के साथ इस वायरस के उत्पत्ति की फेक न्यूज़ महामारी(इंफोडेमिक) का भी विस्फोट बहुत तेज़ी से हुआ। लाखों लोग इस बीमारी की वजह से अपनी जान गंवा चुके हैं लेकिन कुछ लोग कोरोना वायरस और लॉकडाउन को षड्यंत्र बताते रहे। भारत में बीमारी पर मुनाफ़ा कमाने के लिए टीका बनाने वाली कम्पनियों में भी धींगामुश्ती चल रही है वहीं अभी तक हमारे कोविडियट्स यह नहीं तय कर पाए हैं कि कोरोनावायरस है क्या?

मौजूदा किसान आन्दोलन में भागीदारी को लेकर ग्राम पंचायतों और जातीय पंचायतों का ग़ैर-जनवादी रवैया

अपनी आर्थिक माँगों के लिए विरोध करना हरेक नागरिक, संगठन और यूनियन का जनवादी हक़ है। बेशक लोगों के जनवादी हक़ों को कुचलने के सत्ता के हर प्रयास का विरोध भी किया जाना चाहिए। इसी प्रकार किसी मुद्दे पर असहमति रखना और विरोध न करना भी हरेक नागरिक और समूह का जनवादी हक़ है। इस हक़ को कुचलने के भी हरेक प्रयास को अस्वीकार किया जाना चाहिए और इसके लिए दबाव बनाने के हर प्रयत्न का विरोध किया जाना चाहिए।