Category Archives: भाषा और राष्‍ट्रीयता का सवाल

‘प्रतिबद्ध’ पत्रिका के सम्पादक द्वारा मार्क्सवादी सिद्धान्त और सोवियत इतिहास का संघवादी-संशोधनवादी विकृतिकरण

जब कोई व्यक्ति या समूह अपनी विजातीय कार्यदिशा को सही साबित करने के लिए इरादतन झूठ बोले, इतिहास के दस्तावेज़ों को ग़लत और मनमाने तरीक़े से उद्धृत करे, सिद्धान्तगत प्रश्नों और ऐतिहासिक तथ्यों को मिस्कोट और मिसरिप्रेज़ेन्ट करे तो निश्चित ही विचारधारात्मक-राजनीतिक पतन की फिसलन भरी डगर पर ऐसा व्यक्ति या समूह द्रुत गति से राजनीतिक निर्वाण प्राप्ति की ओर अग्रसर हो रहा होता है। यही हालत ‘प्रतिबद्ध’ के सम्पादक सुखविन्दर और ‘प्रतिबद्ध-ललकार’ ग्रुप की हो गयी है। क़ौमी और भाषाई सवाल पर बहस में पिट जाने पर (जिस बहस के अस्तित्व को यह महोदय शुरू से ही नकारते रहे हैं, लेकिन इस पर बाद में आयेंगे) सम्पादक महोदय घटिया क़िस्म के कपट और बेईमानी पर उतर आये हैं।

राष्ट्रीय प्रश्न पर ‘प्रतिबद्ध’ के सम्पादक सुखविन्दर का लेख: मार्क्सवाद और राष्ट्रीय प्रश्न पर चिन्तन के नाम पर बुण्डवादी राष्ट्रवाद, राष्ट्रीय कट्टरपन्थ और त्रॉत्स्कीपन्थ में पतन की त्रासद कहानी

उनका यह लेख न सिर्फ सिद्धान्‍त के क्षेत्र में भयंकर अज्ञान को दिखलाता है, बल्कि इतिहास के क्षेत्र में भी उतने ही भयंकर अज्ञान को प्रदर्शित करता है। राष्‍ट्रवाद, बुण्‍डवाद और त्रॉत्‍स्‍कीपंथ का यह भ्रमित और अज्ञानतापूर्ण मिश्रण कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन के तमाम जेनुइन कार्यकर्ताओं को भी भ्रमित करता है और इसीलिए हमने विस्‍तार से इसकी आलोचना की आवश्‍यकता महसूस की। बहुत-से पहलुओं पर और भी विस्‍तार से लिखने की आवश्‍यकता है, जिसे हम पंजाब के राष्‍ट्रीय प्रश्‍न और भारत में राष्‍ट्रीय प्रश्‍न पर लिखते हुए उठाएंगे। साथ ही, इतिहास के भी कई मसलों पर हमने यहां उतनी ही बात रखी है, जितनी कि ‘ललकार-प्रतिबद्ध’ ग्रुप द्वारा पेश बुण्‍डवादी, राष्‍ट्रवादी व त्रॉत्‍स्‍कीपंथी कार्यदिशा के खण्‍डन के लिए अनिवार्य थी। लेकिन राष्‍ट्रीय प्रश्‍न को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्‍य में समझने के लिए वे मुद्दे भी दिलचस्‍प हैं और उन पर भी हम भविष्‍य में लिखेंगे।

अक्‍तूबर क्रान्ति और रूसी साम्राज्‍य की दमित कौमों की मुक्ति के विषय में ट्रॉट-बुण्‍डवादियों के विचार: अपढ़पन का एक और नमूना

‘प्रतिबद्ध-ललकार’ के ट्रॉट-बुण्‍डवादी महोदय का यह दावा कि अक्‍तूबर क्रान्ति ने रूसी साम्राज्‍य की सभी दमित कौमों में सीधे समाजवादी क्रान्ति द्वारा कौमी आज़ादी के सवाल को हल किया, केवल यही दिखलाता है कि ‘प्रतिबद्ध’ के सम्‍पादक श्री ट्रॉट-बुण्‍डवादी ने न तो मार्क्‍सवाद-लेनिनवाद के मूलभूत सिद्धान्‍तों का ही ढंग से अध्‍ययन किया है, और न ही बोल्‍शेविक क्रान्ति, समाजवादी निर्माण और कौमी सवाल के हल होने की प्रक्रिया के पूरे इतिहास का कोई अध्‍ययन किया है।

ਮਾਰਕਸਵਾਦ ਅਤੇ ਕੌਮੀ ਸਵਾਲ ‘ਤੇ ਅਧਿਐਨ ਦੇ ਨਾਂ ‘ਤੇ ਬੁੰਦਵਾਦੀ ਕੌਮਵਾਦ, ਕੌਮੀ ਕੱਟੜਪੰਥ ਅਤੇ ਟਰਾਟਸਕੀਪੰਥ ‘ਚ ਨਿਘਾਰ ਦੀ ਮੰਦਭਾਗੀ ਕਹਾਣੀ

ਉਸਦਾ ਇਹ ਲੇਖ ਨਾ ਸਿਰਫ਼ ਸਿਧਾਂਤ ਦੇ ਖੇਤਰ ‘ਚ ਭਿਆਨਕ ਅਗਿਆਨ ਦੀ ਨੁਮਾਇਸ਼ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਸਗੋਂ ਇਤਿਹਾਸ ਦੇ ਖੇਤਰ ‘ਚ ਵੀ ਉੱਨੇ ਹੀ ਭਿਆਨਕ ਅਗਿਆਨ ਦੀ ਨੁਮਾਇਸ਼ ਕਰਦਾ ਹੈ। ਕੌਮਵਾਦ, ਬੁੰਦਵਾਦ ਅਤੇ ਟਰਾਟਸਕੀਪੰਥ ਦਾ ਇਹ ਭਰਮੀ ਅਤੇ ਅਗਿਆਨਤਾਪੂਰਨ ਰਲਾ ਕਮਿਊਨਿਸਟ ਲਹਿਰ ਦੇ ਬਹੁਤ ਸਾਰੇ ਜੇਨੁਇਨ ਕਾਰਕੁੰਨਾਂ ਨੂੰ ਵੀ ਉਲਝਾਉਂਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਇਸੇ ਕਰਕੇ ਅਸੀਂ ਤਫ਼ਸੀਲ ਨਾਲ ਇਸਦੀ ਅਲੋਚਨਾ ਦੀ ਲੋੜ ਮਹਿਸੂਸ ਕੀਤੀ। ਬਹੁਤ ਸਾਰੇ ਪੱਖਾਂ ਬਾਰੇ ਹੋਰ ਵੀ ਤਫ਼ਸੀਲ ਨਾਲ ਲਿਖਣ ਦੀ ਲੋੜ ਹੈ, ਜਿਸਨੂੰ ਅਸੀਂ ਪੰਜਾਬ ਦੇ ਕੌਮੀ ਸਵਾਲ ਅਤੇ ਭਾਰਤ ‘ਚ ਕੌਮੀ ਸਵਾਲ ਬਾਰੇ ਲਿਖਦੇ ਹੋਏ ਚੁੱਕਾਂਗੇ। ਇਸਦੇ ਨਾਲ ਹੀ, ਇਤਿਹਾਸ ਦੇ ਵੀ ਕਈ ਮਸਲਿਆਂ ਬਾਰੇ ਅਸੀਂ ਇੱਥੇ ਉੱਨੀ ਹੀ ਗੱਲ ਕੀਤੀ ਹੈ, ਜਿੰਨੀ ਕਿ ‘ਲਲਕਾਰ-ਪ੍ਰਤੀਬੱਧ’ ਗਰੁੱਪ ਵੱਲੋਂ ਪੇਸ਼ ਬੁੰਦਵਾਦੀ, ਕੌਮਵਾਦੀ ਅਤੇ ਟਰਾਟਸਕੀਪੰਥੀ ਲੀਹ ਦੀ ਕਾਟ ਲਈ ਲੋੜੀਂਦੀ ਸੀ। ਪਰ ਕੌਮੀ ਸਵਾਲ ਨੂੰ ਇਤਿਹਾਸਕ ਪਰਿਪੇਖ ‘ਚ ਸਮਝਣ ਲਈ ਉਹ ਮੁੱਦੇ ਵੀ ਦਿਲਚਸਪ ਹਨ ਅਤੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਬਾਰੇ ਵੀ ਅਸੀਂ ਆਉਣ ਵਾਲੇ ਸਮੇਂ ‘ਚ ਲਿਖਾਂਗੇ।

ਅਕਤੂਬਰ ਇਨਕਲਾਬ ਅਤੇ ਰੂਸੀ ਸਾਮਰਾਜ ਦੀਆਂ ਪਸਿੱਤੀਆਂ ਕੌਮਾਂ ਦੀ ਮੁਕਤੀ ਦੇ ਸੰਬੰਧ ‘ਚ ਟ੍ਰਾਟ-ਬੁੰਦਵਾਦੀਆਂ ਦੇ ਵਿਚਾਰ: ਅਨਪੜ੍ਹਤਾ ਦਾ ਇੱਕ ਹੋਰ ਨਮੂਨਾ

‘ਪ੍ਰਤੀਬੱਧ-ਲਲਕਾਰ’ ਦੇ ਟ੍ਰਾਟ-ਬੁੰਦਵਾਦੀ ਸ੍ਰੀਮਾਨ ਦਾ ਇਹ ਦਾਅਵਾ ਕਿ ਅਕਤੂਬਰ ਇਨਕਲਾਬ ਨੇ ਰੂਸੀ ਸਾਮਰਾਜ ਦੀਆਂ ਸਾਰੀਆਂ ਪਸਿੱਤੀਆਂ ਕੌਮਾਂ ‘ਚ ਸਿੱਧਾ ਸਮਾਜਵਾਦੀ ਇਨਕਲਾਬ ਰਾਹੀਂ ਕੌਮੀ ਅਜਾਦੀ ਦੇ ਸਵਾਲ ਨੂੰ ਹੱਲ ਕੀਤਾ, ਬੱਸ ਇਹੀ ਸਿੱਦ ਕਰਦਾ ਹੈ ਕਿ ‘ਪ੍ਰਤੀਬੱਧ’ ਦੇ ਸੰਪਾਦਕ ਸ੍ਰੀ ਟ੍ਰਾਟ-ਬੁੰਦਵਾਦੀ ਨੇ ਨਾ ਤਾਂ ਮਾਰਕਸਵਾਦ-ਲੈਨਿਨਵਾਦ ਦੇ ਬੁਨਿਆਦੀ ਸਿਧਾਂਤਾਂ ਦਾ ਹੀ ਢੰਗ ਨਾਲ ਅਧਿਐਨ ਕੀਤਾ ਹੈ ਅਤੇ ਨਾ ਹੀ ਬਾਲਸ਼ੈਵਿਕ ਇਨਕਲਾਬ, ਸਮਾਜਵਾਦੀ ਉਸਾਰੀ ਅਤੇ ਕੌਮੀ ਸਵਾਲ ਦੇ ਹੱਲ ਹੋਣ ਦੀ ਪ੍ਰਕਿਰਿਆ ਦੇ ਪੂਰੇ ਇਤਿਹਾਸ ਦਾ ਕੋਈ ਅਧਿਐਨ ਕੀਤਾ ਹੈ।

‘ਪ੍ਰਤੀਬੱਧ-ਲਲਕਾਰ’ ਦੇ ਟ੍ਰਾਟ-ਬੁੰਦਵਾਦੀਆਂ ਦੀ ਪੁਰਾਤੱਤਵੀ ਖੁਦਾਈ ਅਤੇ ਬਹਿਸ ਚੋਂ ਭੱਜਣ ਦੀ ਇੱਕ ਹੋਰ ਅਸਫਲ ਕੋਸ਼ਿਸ਼

ਤਾਂ ਇਹ ਹੈ ਸਾਡੇ ਕੌਮਵਾਦੀ ਸੱਜਣਾਂ ਦੀ ਸ਼ਰਮਨਾਕ ਅਤੇ ਉਲਝਣ-ਭਰੀ ਹਾਲਤ! ਇੱਕ ਪਾਸੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਮੌਜੂਦਾ ਬਹਿਸ ਚੋਂ ਭੱਜਣਾ ਹੈ ਅਤੇ ਇਸ ਲਈ ਬਹਿਸ ਨਾ ਕਰਨ ਦੇ ਪੰਜਾਹ ਬਹਾਨੇ ਬਣਾ ਰਹੇ ਹਨ! ਦੂਜੇ ਪਾਸੇ, ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਆਪਣੇ ਖਿੰਡਦੇ ਕੁਨਬੇ ਨੂੰ ਬਚਾਉਣ ਲਈ ਸਾਡੇ ‘ਤੇ ਚਿੱਕੜ ਉਛਾਲੀ ਵੀ ਕਰਨਾ ਹੈ! ਪਰ ਅਸੀਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਪੋਜੀਸ਼ਨ ਦੀ ਜੋ ਅਲੋਚਨਾ ਪੇਸ਼ ਕੀਤੀ ਹੈ, ਉਸਦਾ ਇਨ੍ਹਾਂ ਤੋਂ ਕੋਈ ਜਵਾਬ ਦਿੰਦੇ ਨਹੀਂ ਬਣ ਰਿਹਾ! ਇਸ ਲਈ ਭੋਲੇ ਪੰਛੀ ਮਿਹਨਤ ਕਰਕੇ ਦਸ ਸਾਲ ਪੁਰਾਣੀਆਂ, ਗਿਆਰਾਂ ਸਾਲ ਪੁਰਾਣੀਆਂ, ਇੱਥੋਂ ਤੱਕ ਕਿ ਵੀਹ ਸਾਲ ਪੁਰਾਣੀਆਂ ‘ਆਹ੍ਵਾਨ’, ‘ਬਿਗੁਲ’ ਅਤੇ ‘ਦਾਇਤਵਬੋਧ’ ਦੀਆਂ ਕਾਪੀਆਂ ਖੰਘਾਲ ਰਹੇ ਨੇ ਕਿ ਕਿਤੇ ਕੋਈ ਗੜਬੜੀ, ਕੋਈ ਅਸੰਤੁਲਨ, ਕੋਈ ਗ਼ਲਤੀ ਮਿਲ ਜਾਵੇ, ਜਿਸ ‘ਤੇ ਰੌਲ਼ਾ ਪਾ ਕੇ ਅੱਜ ਜਾਰੀ ਬਹਿਸ ਚੋਂ ਭੱਜਿਆ ਜਾ ਸਕੇ। ਪਰ ਬੇਚਾਰੇ ਉਹ ਵੀ ਨਹੀਂ ਕਰ ਪਾ ਰਹੇ ਹਨ ਅਤੇ ਅਜਿਹਾ ਕਰਨ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ‘ਚ ਵਾਰ-ਵਾਰ ਆਪਣੀ ਹੀ ਮੂਰਖਤਾ ਉਜਾਗਰ ਕਰਦੇ ਜਾ ਰਹੇ ਹਨ! ਬੇਚਾਰਿਆਂ ਨੂੰ ਚੰਗੀ ਮੱਤ ਮਿਲੇ ਅਤੇ ਬੌਧਿਕ ਤੌਰ ‘ਤੇ ਊਲ-ਜਲੂਲ, ਤਿੱਤਰ-ਬਿੱਤਰ ਅਤੇ ਸ਼ਰਮਨਾਕ ਸਥਿਤੀ ਤੋਂ ਛੁਟਕਾਰਾ ਮਿਲੇ!

मार्क्सवाद और राष्ट्रीय प्रश्न पर चिंतन के नाम पर बुण्‍डवादी राष्ट्रवाद, राष्ट्रीय कट्टरपंथ और त्रॉत्स्कीपंथ में पतन की त्रासद कहानी

उनका यह लेख न सिर्फ सिद्धान्‍त के क्षेत्र में भयंकर अज्ञान को दिखलाता है, बल्कि इतिहास के क्षेत्र में भी उतने ही भयंकर अज्ञान को प्रदर्शित करता है। राष्‍ट्रवाद, बुण्‍डवाद और त्रॉत्‍स्‍कीपंथ का यह भ्रमित और अज्ञानतापूर्ण मिश्रण कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन के तमाम जेनुइन कार्यकर्ताओं को भी भ्रमित करता है और इसीलिए हमने विस्‍तार से इसकी आलोचना की आवश्‍यकता महसूस की। बहुत-से पहलुओं पर और भी विस्‍तार से लिखने की आवश्‍यकता है, जिसे हम पंजाब के राष्‍ट्रीय प्रश्‍न और भारत में राष्‍ट्रीय प्रश्‍न पर लिखते हुए उठाएंगे। साथ ही, इतिहास के भी कई मसलों पर हमने यहां उतनी ही बात रखी है, जितनी कि ‘ललकार-प्रतिबद्ध’ ग्रुप द्वारा पेश बुण्‍डवादी, राष्‍ट्रवादी व त्रॉत्‍स्‍कीपंथी कार्यदिशा के खण्‍डन के लिए अनिवार्य थी। लेकिन राष्‍ट्रीय प्रश्‍न को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्‍य में समझने के लिए वे मुद्दे भी दिलचस्‍प हैं और उन पर भी हम भविष्‍य में लिखेंगे।

राष्ट्रीयता और भाषा के प्रश्न पर एक अहम बहस के चुनिन्दा दस्तावेज़

‘ललकार’ की ओर से राष्ट्रीयता और भाषा के प्रश्न पर और विशेष तौर पर पंजाबी भाषा, पंजाबी राष्ट्रीयता, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश के कतिपय अंगों के पंजाब का हिस्सा होने, हरियाणवी बोलियों, हिन्दी भाषा के इतिहास और चरित्र पर जो अवस्थितियाँ रखी जाती रही हैं, उन्हें हम भयंकर अस्मितावादी विचलन से ग्रस्त मानते हैं। यह अस्मितावादी विचलन एक अन्य बेहद अहम और आज देश में प्रमुख स्थान रखने वाले मुद्दे राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर पर भी प्रकट हुआ है, जिसमें कि ‘ललकार’ (और उसके सहयोगी अख़बार ‘मुक्तिमार्ग’) ने असम में नागरिकता रजिस्टर को घुमाफिराकर सही ठहराया है, या कम-से-कम असम में एनआरसी की माँग को वहाँ की राष्ट्रीयता के भारतीय राज्य द्वारा राष्ट्रीय दमन के कारण और प्रवासियों के आने के चलते वहाँ के संसाधनों पर अत्यधिक दबाव पड़ने का नतीजा बताया है। इस रूप में असम में एनआरसी की माँग को राष्ट्रीय भावनाओं और अपनी राष्ट्रीय संस्कृति, अस्मिता और भाषा की सुरक्षा की भावना की अभिव्यक्ति बताया है। यह पूरी अवस्थिति समूचे राष्ट्रीय प्रश्न पर एक मार्क्सवादी-लेनिनवादी क्रान्तिकारी अवस्थिति से मीलों दूर है और गम्भीर राष्ट्रवादी और भाषाई अस्मितावादी विचलन का शिकार है।

असम में एनआरसी पर ‘ललकार’ के भाषाई व राष्ट्रीय अस्मितावाद के शिकार साथियों की ग़लत अवस्थिति पर ‘आह्वान’ की ओर से 14 दिसम्बर 2019 को डाली गयी टिप्पणी

इस फ़र्क़ को समझने में कई प्रबुद्ध और प्रगतिशील लोगों से भी ग़लती हो रही है। मगर हैरत की बात तो यह है कि अपने को वाम क्रान्तिकारी कहने वाले कुछ लोग भी न सिर्फ़ असम में हो रहे कैब के विरोध के पीछे की राजनीति को समझ नहीं रहे बल्कि भाषाई अस्मितावाद और अन्धराष्ट्रवाद के अपने चश्मे से देखकर उसकी भी घोर अनर्थकारी व्याख्या पेश कर रहे हैं। वैसे, इसमें ज़्यादा हैरत की बात भी नहीं है। पिछले डेढ़ वर्षों के दौरान इनका भाषाई अस्मितावाद और राष्ट्रवादी भटकाव जिस दिशा में बढ़ता रहा है उसे यहीं तक जाना था। दूसरे, ये भी वाम आन्दोलन के अनेक हलक़ों में व्याप्त इस बीमारी से बुरी तरह ग्रस्त हैं जिसके चलते लोग इतिहास, राजनीति, भाषा, संस्कृति आदि की अधकचरी जानकारी लिये हुए हर बात पर ज्ञान बघारते रहते हैं, बिना यह समझे कि इसकी दूरगामी परिणतियाँ कितनी भयंकर होंगी।

भाषाई अस्मितावादियों के हवाई दावे और भाषा-बोली को लेकर बचकानी, हठीली नासमझियाँ

असल बात यह है कि लाख प्रयासों के बावजूद ये हिन्दी पट्टी की सभी बोलियों के अस्मितावादियों को एकजुट नहीं कर पा रहे हैं। ये प्रयास भी करें तो उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में इनकी लाइन की बात कोई नहीं सुनने वाला, हालाँकि अपने जैसे ही कुछ अस्मितावादी इन्हें ज़रूर मिल जायेंगे। उस वैज्ञानिक बात को जनता व्यावहारिक तौर पर समझती है, जिसे सैद्धान्तिक तौर पर इनका अस्मितावादी मन समझ नहीं पा रहा है।