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मौजूदा दौर के किसान आन्दोलन : इनकी प्रमुख माँगें किनके हितों का प्रतिनिधित्व करती हैं?

ग़रीब किसानों के असल हित आज पूरी तरह से मज़दूरों-मेहनतकशों के हितों के साथ जुड़े हुए हैं। एक ऐसी समाज व्यवस्था ही उन्हें उनके दुखों से छुटकारा दिला सकती है जिसमें उत्पादन के साधनों पर मेहनतकशों का नियन्त्रण हो तथा उत्पादन समाज की ज़रूरतों को ध्यान में रखकर हो न कि निजी मुनाफ़े को केन्द्र में रखकर। छोटा लगने वाला कोई भी रास्ता मंजिल तक पहुँचने की दूरी को और भी बढ़ा सकता है। यह बात हम तथ्यों के माध्यम से स्पष्ट कर आये हैं कि लाभकारी मूल्य बढ़ाने और लागत मूल्य घटाने की माँगें असल में ग़रीब किसान आबादी की सही-सही आर्थिक-राजनीतिक माँगें हो ही नहीं सकती। थोड़ी सी बातचीत के बाद ग़रीब किसान इस बात को अपने सहज बोध से समझ भी लेते हैं कि प्रत्येक फसल के साथ उन्हें दो-चार हज़ार रुपये ज़्यादा मिल भी जायेंगे तो इससे स्थिति में कोई गुणात्मक फर्क नहीं पड़ने वाला बल्कि महँगाई बढ़ाकर ब्याज समेत इन्हीं की जेब से ये पैसे वापस निकाल लिए जायेंगें।

जाति प्रश्न, मार्क्सवाद और डॉ. अम्बेडकर की राजनीतिक विरासत – सुधीर धवले को एक जवाब

जाति के प्रश्न को समझना और उसके हल का रास्ता निकालना भारत में इंक़लाब का एक बुनियादी सवाल है। लेकिन इसके लिए विचारधारात्माक स्पष्टपता और दृढ़ता की आवश्यकता है, न कि सुधीर धवले-ब्राण्ड विचारधारात्मक सारसंग्रहवाद, अवसरवाद और तुष्टिकरण की। लेनिन के शब्दों में, ‘दो स्टूलों पर एक साथ बैठने का प्रयास करने के चक्कर में उसके बीच में गिर पड़ना’ न सिर्फ अवांछनीय है, बल्कि मूर्खता भी है और इससे न सिर्फ अब तक कुछ हासिल नहीं हुआ है, बल्कि नुकसान ही हुआ है।

साथी नितिन नहीं रहे… साथी नितिन को लाल सलाम

11 मई की भोर में दिल का दौरा पड़ने से नौजवान भारत सभा की राष्ट्रीय केन्द्रीय परिषद के सदस्य और दिल्ली  में आंगनबाड़ी स्त्री मज़दूरों के बीच संगठनकर्ता के तौर पर काम कर रहे साथी नितिन का आकस्मिक निधन हो गया। वह मात्र 30 वर्ष के थे। पिछले कुछ दिनों से उनकी तबीयत ख़राब चल रही थी और परीक्षणों में कोलेस्ट्रॉल के बढ़ने की रपट सामने आयी थी। आज भोर में उन्होंने सीने में तेज़ दर्द की शिकायत की जिसके बाद उनके परिवार वालों ने उन्हें एण्टैसिड दी क्योंंकि वे दर्द का असली कारण नहीं समझ पाये। वास्तव में, दर्द दिल का दौरा पड़ने से हो रहा था। उन्हें समय पर अस्पतताल नहीं ले जाया जा सका जिसके कारण अन्तत: भोर में 5:30 पर उनके दिल की धड़कन बन्द  हो गयी और पिछले 10 वर्षों से युवाओं और मज़दूरों के हक़ों के लिये निरंतर संघर्ष करने वाला और शहीदेआज़म भगतसिंह के आदर्शों को यथार्थ में बदलने के लिये जीने वाला यह शानदार युवा साथी हमारा साथ छोड़ गया। नितिन की मौत युवा आन्दो लन और मज़दूर आन्दोलन की क्षति है और उनके जाने से खाली हुई जगह को लम्बे  समय तक नहीं भरा जा सकेगा।

इण्टरनेट की बुरी लत

एक इण्टरनेट छुड़ाओ केन्द्र में इलाज़ करा रहा 21 वर्षीय नौजवान बताता है कि: “मैं महसूस करता हूँ कि यह तकनीक मेरी ज़िन्दगी में बहुत खुशियाँ लेकर आयी है और कोई भी काम मुझे इतना उत्तेजित नहीं करता और आराम नहीं देता जितना कि यह तकनीक देती है। जब मैं उदास होता हूँ तो मैं खुद को अकेला करने और दुबारा खुश होने के लिये इस तकनीक का इस्तेमाल करता हूँ। जो नौजवान वर्ग ‘नये’ जैसे प्यारे शब्द को जिन्दा रखता है, जिनके पास नये कल के सपने, नये संकल्प, नयी इच्छाएँ, नया प्यार और नये विश्वास होते हैं वही नौजवान आज बेगानगी और अकेलेपन से दुखी होकर आभासी यथार्थ की राहों पर चल रहे हैं जिसका अन्त अत्यन्त बेगानगी में होता है।

ओअक्साका शिक्षकों का संघर्ष: जुझारूपन और जन एकजुटता की मिसाल

नागरिक और शिक्षकों की मजबूत एकता का लम्बा इतिहास सत्ता के लिये बिना शक  चुनौती है। निजीकरण, नवउदारवाद और खुले बाज़ार की नीतियों को धड़ल्ले  से लागू करने के लिये इस एकता को समाप्त करना सत्ता की  प्राथमिक आवश्यकता थी क्योंेकि यह एकजुटता सत्ता  के शोषण और दमन के विरुद्ध मजबूत दीवार की तरह आज तक खड़ी रही है। सत्ता द्वारा नियोजित चौकसी की ठण्डी हिंसा राज्यों द्वारा प्रायोजित उग्र हिंसा के काल में बर्बरता को बहुत हद तक मान्य बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। लेकिन शिक्षकों और नागरिकों के बीच दरार पैदा करने की तमाम कोशिशों के बावजूद; मुख्य मीडिया और सोशल मीडिया पर बदनाम करने के धुआँधार अभियान के बावजूद; पूँजीवादी सत्ता द्वारा लोहे के हाथों से लागू नवउदारवाद और निजीकरण की नीतियाँ  शोषित जनता को साथ ले आती है।

चिलकोट रिपोर्ट: च्यूँटी तक नहीं काटती

क्या किसी भी देश को एक दूसरे सम्प्रभु देश पर जबरन हमला करने का अधिकार सिर्फ इस बात से प्राप्त हो जाता है कि फलाँ देश के पास जानलेवा हथियार है। इस आधार पर तो सबसे पहले हमला अमेरिका और ब्रिटेन पर होना चाहिए, क्योंकि उनके पास रासायनिक ही नहीं बल्कि उससे भी कई गुना खतरनाक परमाणु और अन्य किस्म के हथियार हैं। दरसल इस तर्क का मकसद अमेरिकी-आंग्ल साम्राज्यवाद के एक विचलन को प्रस्तुत करने का प्रयास करते हुए (जो दरअसल साम्राज्यवाद के तर्क को ही पुष्ट करता है और उसकी स्वाभाविक चेतस तार्किकता का अंग है) अरब देशों में दशकों से जारी उनके इस साम्राज्यवादी मुहिम को सवालों से परे करना है।

फिदेल कास्त्रो: जनमुक्ति के संघर्षों को समर्पित एक युयुत्सु जीवन

क्यूबा और फिदेल अमेरिकी साम्राज्यवाद के लिये हमेशा चुनौती बने रहे। अमेरिका ने क्यूबा पर कई आर्थिक प्रतिबन्ध लगाये और फिदेल की हत्या की भी कोशिश की गयी लेकिन हर बार उन्हें निराशा ही हाथ लगी। उन्होंने हमेशा अमेरिकी साम्राज्यवाद की इच्छा के विरुद्ध काम किया। क्यूबा ने दक्षिण अफ्रीकी देशों अंगोला और नामिबिया में रंगभेद की नीति अपनाने वाली ताकतों के ख़िलाफ़ अपनी सैन्य शक्ति की मदद भेजी। यही वे तमाम कारण हैं कि आज जब फिदेल हमारे बीच नहीं हैं तो साम्राज्यवाद का भोंपू मीडिया उन्हें क्रूर तानाशाह और ‘दोन किहोते’ की संज्ञा दे रहा है। लेकिन जबतक दुनिया भर में मानवमुक्ति के सपने देखे जाते रहेंगे और लोग लड़ते रहेंगे; अपनी कई सैद्धान्तिक और मानवीय कमजोरियों के बावजूद फिदेल कास्त्रो जीवन्तता, बहादुरी, निर्भीकता और जनमुक्ति के संघर्षों के समर्पण के लिये याद किये जाते रहेंगे!

चीन का आगामी ऋण संकट वैश्विक अर्थव्यवस्था में एक तीखा मोड़

सभी अर्थशास्त्री यह अनुमान लगा रहे हैं कि यह ऋण संकट आने वाले समय में दो रुख ले सकता है –या तो अमेरिकी तर्ज़ पर बैंकों के बड़े स्तर पर दिवालिया होने की ओर बढ़ सकता है और या फिर जापानी तर्ज़ पर चीन लम्बे समय के लिये बेहद कम आर्थिक वृद्धि दर का शिकार हो सकता है। और यह दोनों ही सूरतेहाल चीनी अर्थव्यवस्था के लिये और पूरे वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिये भयानक है। हड़बड़ाहट में बुर्जुआ अर्थशास्त्री चीन पर अब इलज़ाम लगा रहे हैं कि उसने अपने ऋण को कंट्रोल में क्यों नहीं रखा, क्यों इस की मात्रा इतनी बढ़ने दी। दरअसल यह संकट के समय आपस में तीखे हो रहे पूँजीवादी अन्तर्विरोधों का ही इज़हार हो रहा है।

फासीवादी दमन: तय करो तुम किस ओर हो!

फासीवाद ने आज चुनावी मोर्चे पर जीत ज़मीनी कार्यवाइयों के जरिये हासिल की है। आज फासीवाद को महज कोर्ट कचहरी और संसदीय जनवाद के जरिये परास्त नहीं किया जा सकता है। भारत में इस फासीवादी आन्दोलन ने इन बुर्जुआ उपक्रमों के अनुरूप अपने को ढाला है और आज का फासीवाद संसदीय और कानूनी ठप्पा लेकर काम कर रहा है। गुजरात के बाद उत्तर प्रदेश दंगों की नयी प्रयोग भूमि बन गया है जहाँ राजकीय ढाँचे को उलट-पलट कर बन्द और ब्रेक की नीति पर इसे फासीवादी एजेण्डे के अनुरूप ढलने को बोला जा रहा है। सड़कों पर भगवा गुण्डों का आतंक, गौ रक्षा, राजपूत सेना या एण्टी रोमियो दल के रूप में खुले आम क़त्ल, मारपीट और आगजनी कर सकती है। मीडिया आज योगी के सफलता के गुर, मोदी का हनुमान और 16 घण्टे काम करने वाले नेता के रूप में पेश करने में जुटी हुई है। वहीं योगी अब सामान्यतया कोई भी साम्प्रदायिक बयान देने से बच  रहा है और मोदी की रणनीति को लागू करते हुए “तिलक” और “टोपी” दोनों के विकास की बात कर रहा है। इस विकास का फल पिछले तीन साल के मोदी सरकार के कार्यकाल में हम देख चुके हैं।

जल्लिकुट्टी आन्दोलन: लूट की अर्थनीति और दोगलेपन की राजनीति का विरोध

यह आन्दोलन महज जल्लिकुट्टी पर रोक हटाने की माँग को लेकर नहीं था बल्कि इसके मूल में मौजूदा पूँजी केन्द्रित राजनीतिक-आर्थिक संस्थाओं और जनविरोधी नीतियों के विरुद्ध अरसे से पीड़ित जनसमुदाय का खदबदाता असन्तोष था। अन्यथा आन्दोलन में वे लोग शामिल नहीं होते जिनका इस खेल से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं था,  इन आयोजनों में कभी उनकी न कोई भागीदारी रही और न ही वे इसके नियमित दर्शक ही रहे। पोंगल के दो दिनों बाद मदुराई जिले के अलंगनल्लूर गाँव में जो जल्लिकुट्टी के हर साल खूब धूम धड़ाके के आयोजन के लिये प्रसिद्ध है, वहाँ सबसे पहले विरोध की शुरुआत हुई और शीघ्र ही यह पूरे मदुराई, कोयम्बटूर, तिरुचिरापल्ली, सालेम, चेन्नई आदि जगहों पर फैल गया, लगभग समूचे राज्य को इसने आन्दोलित कर दिया। विरोध प्रदर्शन का मुख्य केन्द्र बना चेन्नई का मरीना तट । गौरतलब है कि आन्दोलन की मुख्य शक्ति थे आम छात्र-युवा, जिसमेंं आयीटी समेत हर क्षेत्र के छात्र और युवा भी शामिल थे, मेहनतकश वर्ग और स्त्रियाँ। साथ ही बैंककर्मी-बीमाकर्मी जैसे संगठित क्षेत्र से आनेवाली आबादी जो पिछले लम्बे समय से किसी सामाजिक-राजनीतिक प्रतिरोध आन्दोलन से अलग थलग रही है, वह भी इस आन्दोलन की हिस्सा बनी।