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विष्णु खरे : अपनी राह खुद बनाने वाला विद्रोही प्रयोगधर्मी कवि

9 फरवरी 1940 को छिंदवाड़ा (म.प्र.) में जन्मे विष्णु खरे ने मस्तिष्काघात के बाद विगत 19 सितम्बर, 2018 को दिल्ली में निधन से पहले एक लम्बा सर्जनात्मक और प्रयोग-संकुल जीवन बिताया, फिर भी वो लगातार इतना कुछ नया कर रहे थे कि सहज ही ये सोचने को जी चाहता है कि अभी उन्हें जाना नहीं था, अभी तो उन्हें काफी कुछ करना था। उनका सर्जनात्मक जीवन आधे सदी से भी अधिक लम्बा रहा। कविताएँ वे 1956 से, यानी 16 वर्ष की आयु से लिखने लगे थे। 1960 में टी.एस.एलियट की कविताओं का उनका अनुवाद ‘मरु प्रदेश और अन्य कविताएँ’ नाम से प्रकाशित हुआ।

कविता : कुण्डलाकार विचार / कात्यायनी

फिर क्यों कुछ करें?
क्यों लिखें कविता?
क्यों समय व्यर्थ करें
नया समाज बनाने की चिन्ता-तैयारी में?
क्यों करें नये-नये आविष्कार?
क्यों न जिएँ जीवन
जो मिला मात्र एक है, सीमित है।
सोचते रहें इन प्रश्नों पर भले ही,
पर चलो थोड़ा जी लें।

राष्ट्रवाद : एक ऐतिहासिक परिघटना का इतिहास और वर्तमान

उपनिवेशों-अर्द्धउपनिवेशों, में चाहे आज़ादी जितनी भी कम हो और जनवाद जितना भी सीमित हो, आज राष्ट्रवाद का नारा इन देशों में भी अपनी प्रगतिशीलता और प्रासंगिता पूरी तरह से खो चुका है। अब यह केवल जनता में अन्धराष्ट्रवादी लहर उभारने का हथकण्डा मात्र है। आज राष्ट्रवाद का मतलब ही है अन्धराष्ट्रवाद। चाहे जितना भी द्रविड़ प्राणायाम कर लिया जाये, आज राष्ट्रवाद के किसी प्रगतिशील संस्करण का निर्माण सम्भव नहीं है, और न ही जनता को इसकी कोई ज़रूरत है।

कविता : गुजरात-2002 / कात्यायनी

क्या हम कर रहे हैं आने वाले युद्ध समय की दृढ़निश्चयी तैयारी
क्या हम निर्णायक बन रहे हैं? क्या हम जा रहे हैं अपने लोगों के बीच
या हम वधस्थल के छज्जों पर बसन्तमालती की बेलें चढ़ा रहे हैं
या अपने अध्ययन कक्ष में बैठे हुए अकेले, भविष्य में आस्था का
उद्घोष कर रहे हैं और सुन्दर स्वप्न या कोई जादू रच रहे हैं

गाँधी: एक पुनर्मूल्‍यांकन

गाँधी एक विचारक के रूप में पंगु ”भारतीय” बुर्जुआ मानवतावाद के मूर्त रूप थे। वे बुर्जुआ वर्ग के सिद्धान्‍तकार और नीति-निर्माता थे। और इससे भी आगे, बुर्जुआ वर्ग के ‘मास्‍टर स्‍ट्रैटेजिस्‍ट’ और ‘मास्‍टर टैक्टीशियन’ के रूप में वे एक निहायत बेरहम व्‍यावहारवादी (प्रैग्‍मेटिस्‍ट) व्‍यक्ति थे, जो समय-समय पर अपनी उद्देश्‍य-पूर्ति के लिए अपनी सैद्धान्तिक निष्‍ठाओं-प्रतिबद्धताओं के विपरीत भी जा खड़े होता था।

भगतसिंह के लिए एक गद्यात्मक सम्बोध-गीति

भारत की एक स्त्री, एक स्त्री कवि, सचमुच तुम्हे याद करना चाहती है भगतसिंह,
एक मशक्कती ज़िन्दगी की तमाम जद्दोजहद और
उम्मीदों और नाउम्मीदियों के बीच,
अपने अन्दर की गीली मिट्टी से आँसुओं, ख़ून और
पसीने के रसायनों को अलगाती हुई,
जन्मशताब्दी समारोहों के घृणित पाखण्डी अनुष्ठानों के बीच,
सम्बोध-गीति के अतिशय गद्यात्मक हो जाने का जोखिम उठाते हुए

गाज़ा में इज़रायल की हार और आगे की सम्भावनाएँ

किसी हद तक फ़िलिस्तीनी जनता का भविष्य समूचे अरब क्षेत्र में जन मुक्ति संघर्ष के आगे बढ़ने के भविष्य के साथ भी जुड़ा है। आने वाले दिनों में अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतियोगिता के नये दौर के गति पकड़ने का भी इस पर अनुकूल सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। मुक्ति की मंज़िल अभी दूर है, पर इतना सिद्ध हो चुका है कि असीम सामरिक शक्ति के बूते भी एक छोटे से देश की जनता को ग़ुलाम बनाकर रख पाना मुमकिन नहीं। जनता अजेय होती है। आने वाले दिनों में भी फ़िलिस्तीन में ज़ायनवादी ज़ुल्म और अँधेरगर्दी जारी रहेगी, लेकिन इतना तय है कि हर अत्याचार का जवाब फ़िलिस्तीनी जनता ज़्यादा से ज़्यादा जुझारू प्रतिरोध द्वारा देगी। ज़ायनवादियों को आने वाले दिनों में कुछ महत्त्वपूर्ण रियायतें देने के लिए भी मजबूर होना पड़ सकता है। और देर से ही सही, फ़िलिस्तीनी जन जब निर्णायक विजय की मंज़िल के करीब होंगे तो उनके तमाम अरब बन्धु भी तब मुक्ति संघर्ष के पथ पर आगे क़दम बढ़ा चुके रहेंगे।

‘लव जेहाद’ के शोर के पीछे की सच्चाई

यदि पूरे देश के आँकड़े जुटाये जायें तो वैवाहिक जीवन में स्त्रियों की प्रताड़ना एवं अलगाव तथा प्रेम में धोखा देने की लाखों घटनाएँ मिलेंगी। इनमें से उन अन्तर-धार्मिक प्रेम विवाहों और प्रेम प्रसंगों को छाँट लिया जाये जिनमें पति/प्रेमी मुस्लिम हों और पत्नी/प्रेमिका हिन्दू। विवाद की गर्मी में पत्नी/प्रेमिका की ओर से स्वयं या किसी प्रेरणा-सुझाव के वशीभूत होकर कोई भी आरोप लगाया जा सकता है, जिसमें धर्मान्तरण का आरोप भी शामिल हो सकता है। हो सकता है कुछ मामलों में धर्मान्तरण के दबाव का आरोप सच भी हो, लेकिन मात्र इस आधार पर यह भयंकर नतीजा कत्तई नहीं निकाला जा सकता कि संगठित तरीक़े से कुछ मुस्लिम संगठन मुस्लिम युवाओं को तैयार करके हिन्दू युवतियों को बहला-फुसलाकर प्रेमजाल में फँसाने की मुहिम चला रहे हैं।

यह आर्तनाद नहीं, एक धधकती हुई पुकार है!

जागो मृतात्माओ!
बर्बर कभी भी तुम्हारे दरवाज़े पर दस्तक दे सकते हैं।
कायरो! सावधान!!
भागकर अपने घर पहुँचो और देखो
तुम्हारी बेटी कॉलेज से लौट तो आयी है सलामत,
बीवी घर में महफूज़ तो है।
बहन के घर फ़ोन लगाकर उसकी भी खोज-ख़बर ले लो!
कहीं कोई औरत कम तो नहीं हो गयी है
तुम्हारे घर और कुनबे की?

ज़ियनवादी नरसंहार, फिलिस्तीनी जनता का महाकाव्यात्मक प्रतिरोध और आज की दुनिया

फिलिस्तीन ने एक अलाव जला रखा है, जिसकी आग बुझने वाली नहीं है। समय के साथ, इसे जंगल की आग बनकर पूरे अरब जगत में फैलना ही है।