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राष्ट्रीयता और भाषा के प्रश्न पर एक अहम बहस के चुनिन्दा दस्तावेज़

‘ललकार’ की ओर से राष्ट्रीयता और भाषा के प्रश्न पर और विशेष तौर पर पंजाबी भाषा, पंजाबी राष्ट्रीयता, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश के कतिपय अंगों के पंजाब का हिस्सा होने, हरियाणवी बोलियों, हिन्दी भाषा के इतिहास और चरित्र पर जो अवस्थितियाँ रखी जाती रही हैं, उन्हें हम भयंकर अस्मितावादी विचलन से ग्रस्त मानते हैं। यह अस्मितावादी विचलन एक अन्य बेहद अहम और आज देश में प्रमुख स्थान रखने वाले मुद्दे राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर पर भी प्रकट हुआ है, जिसमें कि ‘ललकार’ (और उसके सहयोगी अख़बार ‘मुक्तिमार्ग’) ने असम में नागरिकता रजिस्टर को घुमाफिराकर सही ठहराया है, या कम-से-कम असम में एनआरसी की माँग को वहाँ की राष्ट्रीयता के भारतीय राज्य द्वारा राष्ट्रीय दमन के कारण और प्रवासियों के आने के चलते वहाँ के संसाधनों पर अत्यधिक दबाव पड़ने का नतीजा बताया है। इस रूप में असम में एनआरसी की माँग को राष्ट्रीय भावनाओं और अपनी राष्ट्रीय संस्कृति, अस्मिता और भाषा की सुरक्षा की भावना की अभिव्यक्ति बताया है। यह पूरी अवस्थिति समूचे राष्ट्रीय प्रश्न पर एक मार्क्सवादी-लेनिनवादी क्रान्तिकारी अवस्थिति से मीलों दूर है और गम्भीर राष्ट्रवादी और भाषाई अस्मितावादी विचलन का शिकार है।

एनआरसी के ड्रैगन को समझिए! नाम में ही सब कुछ रखा है, लेकिन आपका नाम कहाँ है?

एनआरसी प्रक्रिया में हर भारतीय की नागरिकता सन्दिग्ध मान ली जायेगी, आपको लाइन लगाकर यह सिद्ध करना होगा कि आपका जन्म 1972 से पहले भारत में हुआ है और यहीं रहते थे, यदि उसके बाद हुआ है तो आपके माता-पिता/दादा-दादी का जन्म उस अवधि से पूर्व भारत में हुआ था और वह यहाँ रह रहे थे। जिसके लिए आपके पास ऐसा दस्तावेज़ होना चाहिए। जन्म पंजीकरण के क़ानून को लागू हुए अभी जुमा-जुमा आठ दिन हुए हैं लेकिन आपको एनआरसी के लिए दश्को पुराने अपने बुज़ुर्गों का जन्म प्रमाण चाहिए होगा।

कोरोना वायरस : नवउदारवादी भूमण्डलीकरण के दौर की महामारी

सरकारों की चौकसी और बेहतर सार्वज‍निक स्वास्थ्य व्यवस्था की बदौलत इस तरह के संक्रमण को महामारी में तब्दील होने से रोका जा सकता था। परन्तु नवउदारवादी भूमण्डलीकरण के मौजूदा दौर में दुनिया के तमाम मुल्क़ों में बेतहाशा निजीकरण के चलते सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था लचर हो चुकी है जिसकी वजह से इस बीमारी की रोकथाम उचित ढंग से नहीं हो सकी। तमाम देशों की सरकारों ने भी इस महामारी को फैलने से रोकने के लिए सही समय पर चौकसी नहीं दिखायी। साम्राज्यवादी लूट की बदौलत विलासिता के शिखर पर बैठे अमेरिका तक में कोरोना वायरस के परीक्षण के लिए किट और N95 फ़ेसमास्क पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हो सके जिसकी वजह से वहाँ इस बीमारी को फैलने से नहीं रोका जा सका।

राष्‍ट्रीय दमन क्‍या होता है? भाषा के प्रश्‍न का इससे क्‍या रिश्‍ता है? मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी अवस्थिति की एक संक्षिप्‍त प्रस्‍तुति

यह प्रश्‍न आज कुछ लोगों को बुरी तरह से भ्रमित कर रहा है। कुछ को लगता है कि यदि किसी राज्‍य के बहुसंख्‍यक भाषाई समुदाय की जनता की भाषा का दमन होता है तो वह अपने आप में राष्‍ट्रीय दमन और राष्‍ट्रीय आन्‍दोलन का मसला होता है। उन्‍हें यह भी लगता है कि असम और पूर्वोत्‍तर के राज्‍यों में एन.आर.सी. उचित है क्‍योंकि यह वहां की जनता की राष्‍ट्रीय दमन के विरुद्ध ”राष्‍ट्रीय भावनाओं की अभिव्‍यक्ति” है और इस रूप में सकारात्‍मक है। तमाम क्रान्तिकारी कम्‍युनिस्‍ट साथियों को यह बात सुनने में अजीब लग सकती है लेकिन यह सच है! वाकई वामपंथी दायरे में अस्मितावाद के शिकार कुछ लोग हैं, जो ऐसी बात कह रहे हैं। राष्‍ट्रीय प्रश्‍न पर ऐसे लोग बुरी तरह से दिग्‍भ्रमित हैं। इसलिए इस प्रश्‍न को समझना बेहद ज़रूरी है कि दमित राष्‍ट्रीयता किसे कहते हैं और राष्‍ट्रीय दमन का मतलब क्‍या होता है। इस प्रश्‍न पर लेनिन, स्‍तालिन और तुर्की के महान माओवादी चिन्‍तक इब्राहिम केपकाया ने शानदार काम किया है।

विचारधारा के पीछे अपनी कायरता को मत छिपाओ नवाज़ुद्दीन

बाज़ार के हाथों बिक चुके अभिनेताओं से यह उम्मीद नहीं की जा सकती है और न ही नवाज़ से यह उम्‍मीद रखी जा सकती है। नवाज़ सरीखा बॉलीवुड का कोई भी अभिनेता अपने कैरियर में ऊपर पहुँचने के लिए बहुत समझौते करता है। इसके लिए वह उन सभी सिद्धान्‍तों को बलि चढ़ाने से हिचकता नहीं है। किसी फासीवादी प्रयोजनमूलक फिल्म में काम करने को ”कला के लिए काम करना’ बताना लोगों की आँख में धूल झोंकना है।

कैथी कॉलवित्ज़ –एक उत्कृष्ट सर्वहारा कलाकार

कॉलवित्ज़, जो एक महान जर्मनप्रिंटमेकर व मूर्तिकार थीं, अपने समय के कलाकारों से अलग एक स्वतन्त्र और रैडिकल कलाकार के रूप में उभर कर आती है। उन्होंने शुरू से ही कलाकार होने के नाते समाज के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को समझा और अपनी पक्षधरता तय की। उनके चित्रों में हम शुरुआत से ही गरीब व शोषित लोगों को पाते हैं, एक ऐसे समाज का चेहरा देखते हैं जहाँ भूख है, गरीबी है, बदहाली है और संघर्ष है! उनकी कला ने जनता के अनन्त दुखों को आवाज़ देने का काम किया है। उनकी कलाकृतियों में ज़्यादातर मज़दूर तबके से आने वाले लोगों का चित्रण मिलता है। वह “सौंदर्यपसंद” कलाकारों से बिलकुल भिन्न थीं। प्रचलित सौंदर्यशास्त्र से अलग उनके लिए ख़ूबसूरती का अलग ही पैमाना था, उनमें बुर्जुआ या मध्य वर्ग के तौर-तरीकों व ज़िन्दगी के प्रति कोई आकर्षण नहींं महसूस होता।

कलाकार का सामाजिक दायित्व क्या है?

सच्चे कलाकार को जनता के दुखों को अपने कैनवास, सेल्यूलोईड या संगीत में उतार लाना होगा। इस कथन में ही यह निहित है कि मौजूदा बाज़ार पर चलने वाली व्यवस्था में एक कलाकार को अपनी कलाकृति को बाजारू माल नहीं बल्कि जनपक्षधर औज़ार बनाना होगा। आज जिस समाज में हम जी रहे हैं वह मानवद्रोही और कलाद्रोही है और नैसर्गिक तौर पर कोई भी कलाकार इस समाज की प्रभावी विचारधारा से ही निगमन करता है परंतु उसकी कला उसकी पूँजीवादी विचारधारा के नज़रिये के विरोध में रहती है। कला इसलिए ही एक आदमी द्वारा दूसरे आदमी के शोषण पर टिके मौजूदा समाज के खिलाफ़ विद्रोह के साथ ही संगति में रहती है। आज जब देश में फासीवादी सरकार जनता के हक अधिकारों को अपने बूटों तले कुचल रही है तो क्या इन मसलों पर कलाकारों द्वारा एक जनपक्षधर विरोध देश में उठता दिख रहा है? नहींं। हालाँकि कलाकार भी इन सभी मुद्दों से अलहदा नहींं हैं। इस सवाल पर थोड़ा विस्तार से बात करते हैं।

‘अच्छे दिनों’ की मृगतृष्णा

ऑक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार 2017 में देश के 1% लोग देश की 73% सम्पत्ति पर कब्जा करके बैठे हैं। अमित शाह के बेटे जय शाह की सम्पत्ति में 16000 गुना की वृद्धि हुई है, विजय माल्या और नीरव मोदी जो 9000 करोड़ और 11000 करोड़ रुपये लोन लेकर विदेश भाग गये। पनामा और पैराडाइज़ पेपर के खुलासे के बाद सरकार की नंगयी साफ तौर पर जगजाहिर हो गयी कि इनका मकसद काला धन लाना नहीं उसे सफ़ेद धन में तब्दील करना है। इस साल रिकॉर्ड ब्रेक करते हुए सरकार ने एनपीए के मातहत 1,44,093 करोड़ रुपये माफ़ कर दिया। एक तरफ धन्नासेठों-मालिकों के लिए पलकें बिछाकर काम किया जा रहा है वहीं दूसरी तरफ कश्मीर से तूतीकोरिन तक जनता के प्रतिरोध को डंडे और बन्दूक के दम पर दबाया जा रहा है। छात्र, नौजवान, मजदूर, किसान, दलित, महिलाएँ सब पर चौतरफा हमला किया जा रहा है। 2 करोड़ नौकरियाँ हर साल देने का वादा, नमामि गंगे में 7000 करोड़ रुपये खर्च किये जाने, 2019 तक सबको बिजली जैसे लोकलुभावन वायदों की हकीकत सबके सामने खुल रही है। अच्छे दिन आये पर धन्नासेठों के लिए, आम जनता की हालात बद से बदतर ही हुई है।

तमाशा-ए-सीबीआई

अपने फासीवादी एजेंडों को अमल में लाने की कोशिश में भाजपा विभिन्न सरकारी संस्थाओं के प्रमुख पदों पर लगातार अपने करीबी लोगों को बिठाती रही है फिर चाहे वो विश्वविद्यालय, एफ़टीआईआई हो या सीबीएफसी हो। राकेश अस्थाना को सीबीआई का विशेष निदेशक बनाना इसी श्रृंखला की एक कड़ी भर था। राकेश अस्थाना के इतिहास पर भी एक निगाह डालने की आवश्यकता है। वर्तमान प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी से राकेश अस्थाना की नजदीकियाँ दो दशक पुरानी हैं। नरेन्द्र मोदी जब गुजरात के प्रधानमन्त्री थे तब अस्थाना गुजरात के पुलिस महकमे में उच्च अधिकारी थे। उनकी गिनती नरेन्द्र मोदी के नजदीकी अधिकारियों में होती थी। 2002 में हुए गोधरा काण्ड को उन्होंने पूर्व नियोजित नहीं बल्कि ‘क्रिया की प्रतिक्रिया’ कहा था। जबकि 2009 में आयी जाँच रिपोर्ट में साबित हुआ है कि यह पूर्वनिर्धारित था। उनपर वित्तीय अनियमितता के आरोप भी लगे है। अभी हाल में एक रिटायर्ड पी.एस.आई. ने सूरत के पुलिस कमिश्नर रहे राकेश अस्थाना पर 2013-2015 के दौरान पुलिस वेलफेयर फण्ड के 20 करोड़ रुपये अवैध तरीके से भाजपा को चुनावी चन्दे के तौर पर देने का आरोप लगाया था।

जमाल ख़शोज़ी की मौत पर साम्राज्यवादियों के आँसू परन्तु यमन के नरसंहार पर चुप्पी!

सऊदी अरब के खुफिया एजेंटों ने सऊदी अरब मूल के अमरीकन पत्रकार जमाल ख़शोजी को तुर्की के सऊदी अरब के कॉन्सुलेट में मार दिया और उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दरिया में बहा दिया। इसपर पश्चिमी जगत की मुख्यधारा मीडिया हाय तौबा करने में लगा हुआ है। यह बात समझ लेनी होगी कि ख़शोजी कोई जनपक्षधर पत्रकार नहींं था। कुछ समय पहले तक वह सऊदी अरब की सत्ता के घोर प्रतिक्रियावादी विचारों का समर्थक था। अमरीका में रहते हुए उसने अमरीका के ‘प्रगतिशील’ विचारों का प्रचार करना शुरू किया और पश्चिमी देशों के सरीखे ‘जनवाद’ को सऊदी अरब में लागू करने की बात कह रहा था। वह सऊदी अरब की राजशाही को मध्यकालीन रिवाजों को त्यागने की नसीहत ‘वाशिंगटन पोस्ट’ के जरिये दे रहा था। हालाँकि उसे इसलिए मारा गया क्योंकि वह बहुत कुछ जानता था और सऊदी अरब की सत्ता का पिट्ठू न रहकर राजशाही की मन्द आलोचना कर रहा था। वह दरबार के अन्दर ना होते हुए भी दरबार के बारे में बहुत कुछ जानता था।