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फ़ेक न्यूज़: डिजिटल माध्यमों से समाज की रग़ों में घुलता नफ़रत का ज़हर

इंटरनेट, सोशल मीडिया और व्हाट्सएप के ज़रिये समाज में झूठी ख़बरों को फैलाने की यह परिघटना, जिसे फ़ेक न्यूज़ के नाम से जाना जाता है, दुनिया भर में भयावह रूप अख़्तियार करती जा रही है। अमेरिका में पि‍छले राष्ट्रपति चुनावों में ट्रम्प के अभियानकर्ताओं ने फ़ेक न्यूज़ का जमकर इस्तेमाल करते हुए अप्रवासियों, मुस्लिमों और लातिन लोगों व अश्वेतों के ख़िलाफ़ नफ़रत का माहौल बनाया जिसने ट्रम्प की जीत में अहम भूमिका निभायी। इसी तरह से यूरोप के तमाम देशों में भी अप्रवासियों के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाने में फ़ेक न्यूज़ का जमकर इस्तेेमाल किया जा रहा है। ब्रिटेन में यूरोपीय संघ से अलग होने के लिए हुए जनमतसंग्रह के दौरान भी फ़ेक न्यूज़ का धड़ल्ले से इस्तेमाल किया गया। लेकिन भारत में फ़ेक न्यूज़ की परिघटना जिस क़दर फैल रही है उसकी मिसाल दुनिया में शायद ही किसी और देश में देखने को मिले। इसकी वजह यह है कि भारत में अधिकांश फ़ेक न्यूज़ संघ जैसे काडर आधारित फ़ासिस्ट संगठन के द्वारा संगठित तरीके से फैलाया जा रहा है जिसकी पहुँच देश के कोने-कोने तक है।

‘आज़ादी कूच’ के सन्दर्भ में – एक सम्भावना-सम्पन्न आन्दोलन के अन्तरविरोध और भविष्य का प्रश्न

हमारी इस कॉमरेडाना आलोचना का मकसद है इस आन्दोलन के सक्षम और युवा नेतृत्व के समक्ष कुछ ज़रूरी सवालों को उठाना जिनका जवाब भविष्य में इसे देना होगा। आज समूचा जाति-उन्मूलन आन्दोलन और साथ ही हम जैसे क्रान्तिकारी संगठन व व्यक्ति जिग्नेश मेवानी की अगुवाई में चल रहे इस आन्दोलन को उम्मीद, अधीरता और अकुलाहट के साथ देख रहे हैं। किसी भी किस्म का विचारधारात्मक समझौता, वैचारिक स्पष्टवादिता की कमी और विचारधारा और विज्ञान की कीमत पर रणकौशल और कूटनीति करने की हमेशा भारी कीमत चुकानी पड़ती है, चाहे इसका नतीजा तत्काल सामने न आये, तो भी।

देश में बढ़ती असमानता और नरेंद्र मोदी का नग्न प्रहसन

जिस समय दावोस में मोदी पूँजीपतियों, रसोइयों और बॉलीवुड के भाड़ों को लेकर भारत में निवेश करने व विकसित देश से तक्नोलॉजी के लिए चिरौरी-मिन्नतें कर रहा था, ऑक्सफेम ने विश्व स्तर पर असामनता की एक रिपोर्ट प्रकाशित की। इस रिपोर्ट ने आँकड़ों के जरिये यह प्रदर्शित किया कि ग़रीब आबादी को आँसुओं के समन्दर में धकेलकर ऐयाशी की मीनारों में अमीरजादों की जमात बैठी है। यह रिपोर्ट भले पूँजीवाद की पैरवी करती है और थॉमस पिकेटी सरीखे उदारवादी लेखक के उपदेशों को पेश करती है। यानी कल्याणकारी राज्य को स्थापित कर असामनता को कम करने की पैरवी करती है। परन्तु सवाल भले या बुरे पूँजीवाद का नहीं बल्कि पूँजीवाद का है। इस असमानता को ख़त्म करने के लिए पूँजीवाद को ख़त्म करना होगा।

फासीवाद को मात देने का रास्ता इंक़लाब से होकर जाता है चुनावी राजनीति से नहीं!

फासीवाद को चुनाव से नहीं हराया जा सकता है। फासीवाद का जन्म इसी संसदीय गणतंत्र के खोल के भीतर से हुआ है, समय को वापस कर इसे वापस इस खोल में नहीं डाला जा सकता है। इसे जीव विज्ञान के उदाहरण से समझा जा सकता है। कुकुन में से निकले नुकसानदायक कीट को पैरों के नीचे कुचल कर ही ख़त्म किया जा सकता है। परन्तु भारत के तमाम वामपन्थी बुद्धिजीवी वक्त को उलट कर नेहरु काल के ‘समाजवाद’ को लाना चाहते हैं। यह बात 2004 और 2009 के चुनाव से साफ़ हो चुकी है जब यही सारे वामपन्थी विचारक लोग फासीवाद की हार का जश्न मना रहे थे तब इनकी सोच के विपरीत  भाजपा 2014 में ज्यादा वोटों के साथ सत्ता पर पहुँची। हमें यह समझना होगा कि फासीवाद निम्न मध्य वर्ग का आन्दोलन है जिसे काडर आधारित फासीवादी पार्टी नेतृत्व देती है। इसे क्रान्तिकारी पार्टी के नेतृत्व में संगठित काडर आधारित मजदूर आन्दोलन ही परास्त कर सकता है। हमें फासीवाद से लड़ने में इस सबक को बिलकुल याद रखना होगा।

मौजूदा दौर के किसान आन्दोलन : इनकी प्रमुख माँगें किनके हितों का प्रतिनिधित्व करती हैं?

ग़रीब किसानों के असल हित आज पूरी तरह से मज़दूरों-मेहनतकशों के हितों के साथ जुड़े हुए हैं। एक ऐसी समाज व्यवस्था ही उन्हें उनके दुखों से छुटकारा दिला सकती है जिसमें उत्पादन के साधनों पर मेहनतकशों का नियन्त्रण हो तथा उत्पादन समाज की ज़रूरतों को ध्यान में रखकर हो न कि निजी मुनाफ़े को केन्द्र में रखकर। छोटा लगने वाला कोई भी रास्ता मंजिल तक पहुँचने की दूरी को और भी बढ़ा सकता है। यह बात हम तथ्यों के माध्यम से स्पष्ट कर आये हैं कि लाभकारी मूल्य बढ़ाने और लागत मूल्य घटाने की माँगें असल में ग़रीब किसान आबादी की सही-सही आर्थिक-राजनीतिक माँगें हो ही नहीं सकती। थोड़ी सी बातचीत के बाद ग़रीब किसान इस बात को अपने सहज बोध से समझ भी लेते हैं कि प्रत्येक फसल के साथ उन्हें दो-चार हज़ार रुपये ज़्यादा मिल भी जायेंगे तो इससे स्थिति में कोई गुणात्मक फर्क नहीं पड़ने वाला बल्कि महँगाई बढ़ाकर ब्याज समेत इन्हीं की जेब से ये पैसे वापस निकाल लिए जायेंगें।

जाति प्रश्न, मार्क्सवाद और डॉ. अम्बेडकर की राजनीतिक विरासत – सुधीर धवले को एक जवाब

जाति के प्रश्न को समझना और उसके हल का रास्ता निकालना भारत में इंक़लाब का एक बुनियादी सवाल है। लेकिन इसके लिए विचारधारात्माक स्पष्टपता और दृढ़ता की आवश्यकता है, न कि सुधीर धवले-ब्राण्ड विचारधारात्मक सारसंग्रहवाद, अवसरवाद और तुष्टिकरण की। लेनिन के शब्दों में, ‘दो स्टूलों पर एक साथ बैठने का प्रयास करने के चक्कर में उसके बीच में गिर पड़ना’ न सिर्फ अवांछनीय है, बल्कि मूर्खता भी है और इससे न सिर्फ अब तक कुछ हासिल नहीं हुआ है, बल्कि नुकसान ही हुआ है।

साथी नितिन नहीं रहे… साथी नितिन को लाल सलाम

11 मई की भोर में दिल का दौरा पड़ने से नौजवान भारत सभा की राष्ट्रीय केन्द्रीय परिषद के सदस्य और दिल्ली  में आंगनबाड़ी स्त्री मज़दूरों के बीच संगठनकर्ता के तौर पर काम कर रहे साथी नितिन का आकस्मिक निधन हो गया। वह मात्र 30 वर्ष के थे। पिछले कुछ दिनों से उनकी तबीयत ख़राब चल रही थी और परीक्षणों में कोलेस्ट्रॉल के बढ़ने की रपट सामने आयी थी। आज भोर में उन्होंने सीने में तेज़ दर्द की शिकायत की जिसके बाद उनके परिवार वालों ने उन्हें एण्टैसिड दी क्योंंकि वे दर्द का असली कारण नहीं समझ पाये। वास्तव में, दर्द दिल का दौरा पड़ने से हो रहा था। उन्हें समय पर अस्पतताल नहीं ले जाया जा सका जिसके कारण अन्तत: भोर में 5:30 पर उनके दिल की धड़कन बन्द  हो गयी और पिछले 10 वर्षों से युवाओं और मज़दूरों के हक़ों के लिये निरंतर संघर्ष करने वाला और शहीदेआज़म भगतसिंह के आदर्शों को यथार्थ में बदलने के लिये जीने वाला यह शानदार युवा साथी हमारा साथ छोड़ गया। नितिन की मौत युवा आन्दो लन और मज़दूर आन्दोलन की क्षति है और उनके जाने से खाली हुई जगह को लम्बे  समय तक नहीं भरा जा सकेगा।

इण्टरनेट की बुरी लत

एक इण्टरनेट छुड़ाओ केन्द्र में इलाज़ करा रहा 21 वर्षीय नौजवान बताता है कि: “मैं महसूस करता हूँ कि यह तकनीक मेरी ज़िन्दगी में बहुत खुशियाँ लेकर आयी है और कोई भी काम मुझे इतना उत्तेजित नहीं करता और आराम नहीं देता जितना कि यह तकनीक देती है। जब मैं उदास होता हूँ तो मैं खुद को अकेला करने और दुबारा खुश होने के लिये इस तकनीक का इस्तेमाल करता हूँ। जो नौजवान वर्ग ‘नये’ जैसे प्यारे शब्द को जिन्दा रखता है, जिनके पास नये कल के सपने, नये संकल्प, नयी इच्छाएँ, नया प्यार और नये विश्वास होते हैं वही नौजवान आज बेगानगी और अकेलेपन से दुखी होकर आभासी यथार्थ की राहों पर चल रहे हैं जिसका अन्त अत्यन्त बेगानगी में होता है।

ओअक्साका शिक्षकों का संघर्ष: जुझारूपन और जन एकजुटता की मिसाल

नागरिक और शिक्षकों की मजबूत एकता का लम्बा इतिहास सत्ता के लिये बिना शक  चुनौती है। निजीकरण, नवउदारवाद और खुले बाज़ार की नीतियों को धड़ल्ले  से लागू करने के लिये इस एकता को समाप्त करना सत्ता की  प्राथमिक आवश्यकता थी क्योंेकि यह एकजुटता सत्ता  के शोषण और दमन के विरुद्ध मजबूत दीवार की तरह आज तक खड़ी रही है। सत्ता द्वारा नियोजित चौकसी की ठण्डी हिंसा राज्यों द्वारा प्रायोजित उग्र हिंसा के काल में बर्बरता को बहुत हद तक मान्य बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। लेकिन शिक्षकों और नागरिकों के बीच दरार पैदा करने की तमाम कोशिशों के बावजूद; मुख्य मीडिया और सोशल मीडिया पर बदनाम करने के धुआँधार अभियान के बावजूद; पूँजीवादी सत्ता द्वारा लोहे के हाथों से लागू नवउदारवाद और निजीकरण की नीतियाँ  शोषित जनता को साथ ले आती है।

चिलकोट रिपोर्ट: च्यूँटी तक नहीं काटती

क्या किसी भी देश को एक दूसरे सम्प्रभु देश पर जबरन हमला करने का अधिकार सिर्फ इस बात से प्राप्त हो जाता है कि फलाँ देश के पास जानलेवा हथियार है। इस आधार पर तो सबसे पहले हमला अमेरिका और ब्रिटेन पर होना चाहिए, क्योंकि उनके पास रासायनिक ही नहीं बल्कि उससे भी कई गुना खतरनाक परमाणु और अन्य किस्म के हथियार हैं। दरसल इस तर्क का मकसद अमेरिकी-आंग्ल साम्राज्यवाद के एक विचलन को प्रस्तुत करने का प्रयास करते हुए (जो दरअसल साम्राज्यवाद के तर्क को ही पुष्ट करता है और उसकी स्वाभाविक चेतस तार्किकता का अंग है) अरब देशों में दशकों से जारी उनके इस साम्राज्यवादी मुहिम को सवालों से परे करना है।