फ़ासीवादियों और ज़ायनवादियों की प्रगाढ़ एकता!
फ़ासीवादियों और ज़ायनवादियों की प्रगाढ़ एकता! भारत जब से इज़रायल ने गज़ा में बमबारी करते हुए इस सदी के बर्बरतम नरसंहार को शुरू किया है, तब से आज तक दुनिया…
फ़ासीवादियों और ज़ायनवादियों की प्रगाढ़ एकता! भारत जब से इज़रायल ने गज़ा में बमबारी करते हुए इस सदी के बर्बरतम नरसंहार को शुरू किया है, तब से आज तक दुनिया…
“अगर हमें ज़िन्दा रहना है तो हमें हत्या करनी होगी, हत्या करनी होगी और हत्या करनी होगी। .. अगर हम हत्या नहीं करते हैं तो हम अस्तित्वमान नहीं रह सकते.. एकतरफ़ा विलगाव से ‘शान्ति’ की कोई गारण्टी नहीं मिलेगी- यह एक ज़ायनवादी- यहूदी राज्य की गारण्टी देता है जिसमें बहुसंख्या यहूदियों की होगी।” – अरनोन सोफ्फ़र, इज़रायली प्रोफ़ेसर
आज यह समझना बहुत ज़रूरी है कि इंसाफ़ और आज़ादी के लिए फ़िलिस्तीन का संघर्ष अकेले उनका संघर्ष नहीं है। यह पूरी दुनिया में नस्लवाद और साम्राज्यवादी दबंगई के विरुद्ध शानदार लड़ाई का एक प्रतीक है। पूरी दुनिया का इंसाफ़पसन्द अवाम उनके पक्ष में बार-बार लाखों की तादाद में सड़कों पर उतरता रहा है। साम्राज्यवादी ताकतों के अलावा भारत के संघी फ़ासिस्टों का झूठा और जहरीला प्रचार फ़िलिस्तीन के संघर्ष की बहुत ही उल्टी तस्वीर पेश करता है। जनता के इस ऐतिहासिक संघर्ष को आतंकवाद का रूप दे देता है। एक बड़ी आबादी फ़िलिस्तीन के संघर्ष को या तो जानती नहीं या फिर साम्राज्यवादी और संघियों के जहरीले प्रचार को जानती है। इसलिए फ़िलिस्तीन के संघर्ष की सच्चाई को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझने की ज़रूरत है।
अज़रबैजान ने उन्नत युद्ध तकनीक, सेना और तुर्की समर्थित सीरियन लिबरेशन आर्मी के दम पर आर्मेनिया पर 27 सितम्बर को युद्ध थोप दिया। यह युद्ध कॉकेशिया के काले पहाडों के भूभाग नागोर्नो काराबाख के लिए था। युद्ध में 5000 से अधिक लोगों की जान गई और हजारों लोग विस्थापित हुए। युद्ध 6 हफ्ते बाद आर्मेनिया के हार स्वीकार करने पर ही थमा। दोनों देश ने रूस की मध्यस्थता में शान्ति प्रस्ताव स्वीकार किया।
सऊदी अरब के खुफिया एजेंटों ने सऊदी अरब मूल के अमरीकन पत्रकार जमाल ख़शोजी को तुर्की के सऊदी अरब के कॉन्सुलेट में मार दिया और उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दरिया में बहा दिया। इसपर पश्चिमी जगत की मुख्यधारा मीडिया हाय तौबा करने में लगा हुआ है। यह बात समझ लेनी होगी कि ख़शोजी कोई जनपक्षधर पत्रकार नहींं था। कुछ समय पहले तक वह सऊदी अरब की सत्ता के घोर प्रतिक्रियावादी विचारों का समर्थक था। अमरीका में रहते हुए उसने अमरीका के ‘प्रगतिशील’ विचारों का प्रचार करना शुरू किया और पश्चिमी देशों के सरीखे ‘जनवाद’ को सऊदी अरब में लागू करने की बात कह रहा था। वह सऊदी अरब की राजशाही को मध्यकालीन रिवाजों को त्यागने की नसीहत ‘वाशिंगटन पोस्ट’ के जरिये दे रहा था। हालाँकि उसे इसलिए मारा गया क्योंकि वह बहुत कुछ जानता था और सऊदी अरब की सत्ता का पिट्ठू न रहकर राजशाही की मन्द आलोचना कर रहा था। वह दरबार के अन्दर ना होते हुए भी दरबार के बारे में बहुत कुछ जानता था।
दुनिया को जनतंत्र और मानवता का पाठ पढ़ाने वाला अमरिका सीरिया में भी वही युद्ध-अपराध दोहरा रहा है जो उसने 1990 में इराक में किया था, जिसमें पाँच लाख बच्चे सिर्फ भूख से मर गए थे। एक रिपोर्ट के अनुसार इराक़ पर लगे प्रतिबंधों की वजह से 5,76,000 बच्चे मर गए थे। इज़राइल की हिफ़ा यूनिवर्सिटी के इराक़ मामलों के विशेषज्ञ अमितज़्यार बरम के अनुसार 1991 से 1997 के बीच 5 लाख इराक़ी कुपोषण, बचाव योग्य बीमारियों, दवाओं की कमी और प्रतिबन्धों की वजह से पैदा हुए अन्य कारणों के कारण मारे गए थे। इनमें से अधिकतर बूढ़े और बच्चे थे।
क्या किसी भी देश को एक दूसरे सम्प्रभु देश पर जबरन हमला करने का अधिकार सिर्फ इस बात से प्राप्त हो जाता है कि फलाँ देश के पास जानलेवा हथियार है। इस आधार पर तो सबसे पहले हमला अमेरिका और ब्रिटेन पर होना चाहिए, क्योंकि उनके पास रासायनिक ही नहीं बल्कि उससे भी कई गुना खतरनाक परमाणु और अन्य किस्म के हथियार हैं। दरसल इस तर्क का मकसद अमेरिकी-आंग्ल साम्राज्यवाद के एक विचलन को प्रस्तुत करने का प्रयास करते हुए (जो दरअसल साम्राज्यवाद के तर्क को ही पुष्ट करता है और उसकी स्वाभाविक चेतस तार्किकता का अंग है) अरब देशों में दशकों से जारी उनके इस साम्राज्यवादी मुहिम को सवालों से परे करना है।
उपनिवेशों-अर्द्धउपनिवेशों, में चाहे आज़ादी जितनी भी कम हो और जनवाद जितना भी सीमित हो, आज राष्ट्रवाद का नारा इन देशों में भी अपनी प्रगतिशीलता और प्रासंगिता पूरी तरह से खो चुका है। अब यह केवल जनता में अन्धराष्ट्रवादी लहर उभारने का हथकण्डा मात्र है। आज राष्ट्रवाद का मतलब ही है अन्धराष्ट्रवाद। चाहे जितना भी द्रविड़ प्राणायाम कर लिया जाये, आज राष्ट्रवाद के किसी प्रगतिशील संस्करण का निर्माण सम्भव नहीं है, और न ही जनता को इसकी कोई ज़रूरत है।
ग़ौरतलब है कि 2007 के संकट के बाद से तमाम यूरोपीय देशों में जनता का सभी प्रमुख चुनावी पार्टियों पर से भरोसा उठता जा रहा है। स्पेन में दोनों प्रमुख पार्टियों के लिए समर्थन 50 प्रतिशत से नीचे गिर चुका है; सिरिज़ा की नौटंकी सामने आने के बाद ऐसे ही हालात यूनान में भी पैदा हो रहे हैं; बाकी यूरोपीय देशों में से भी तमाम देशों में ऐसे ही हालात पैदा हो रहे हैं। ऐसे में, दक्षिणपन्थी पार्टियाँ जनता के गुस्से को पूँजीवादी लूट और साम्राज्यवाद पर से हटाकर शरणार्थियों और प्रवासियों पर डालने का प्रयास कर रही हैं।
हमारा मकसद इस चुनाव के ज़रिये मौजूदा दौर को समझना है और अमरीका के राजनीतिक पटल पर मौजूद ताकतों का मूल्यांकन करना है। चुनाव के परिणामों में जाये बिना हम अपनी बात आगे जारी रखते हैं। यह मूल्यांकन इसलिए भी ज़रूरी है कि इस चुनाव में डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा फैलाये जा रहे नस्लवाद, मुस्लिम विरोध, शरणार्थियों के ख़िलाफ़ नस्लीय व धार्मिक द्वेष से लेकर अमरीका को फिर से महान बनाने के नारों को ज़बरदस्त समर्थन मिल रहा है। ट्रम्प के चुनावी प्रचार को अमरीका के टुटपुंजिया वर्ग और श्वेत वाईट कॅालर मज़दूरों के एक हिस्से ने ज़बरदस्त भावना के साथ फैलाया है।