Category Archives: आर्थिक संकट

भारत में महिला श्रमबल भागीदारी दर में चिन्ताजनक गिराव

किसी समाज में काम करने वाली कुल आबादी में महिलाओं की भागीदारी उसके विकास का सूचक होता है। पूँजीवादी विकास और मुद्रा अर्थव्यवस्था के पदार्पण के साथ ही महिलाओं को अपने घरों की चौहद्दी को पार करने के लिए उत्प्रेरण मिलना शुरू होता है और वे ज़्यादा से ज़्यादा संख्या में श्रमबल में भागीदारी करती हैं। मुनाफ़ा कमाने की सनक में डूबे पूँजीपति वर्ग के भी यह हित में होता है कि ज़्यादा से ज़्यादा महिलाएँ श्रमबल का हिस्सा बनें ताकि मज़दूर वर्ग की तादाद बढ़ने से उसकी मज़दूरी बढ़ाने के लिए मोलभाव करने की ताक़त कम हो।

भूख और बीमारी से मरते लोगों के बीच राम मन्दिर के भूमि पूजन का प्रहसन

अगर यह मुद्दा है तो हर उस स्थान के इतिहास को पीछे जाकर देखा जाना चाहिए जहाँ आज कोई मन्दिर या मस्जिद है। उसी जगह पर न जाने उससे पहले कितने क़िस्म के धर्मस्थल रहे होंगे। आप किस-किसको तोड़ेंगे और किस-किसको बनायेंगे? इस मामले पर ज़रा-सा तार्किक विचार करते ही स्पष्ट हो जाता है कि यह कितना निरर्थक, पीछे ले जाने वाला और प्रतिक्रियावादी है। इतिहास को पीछे ले जाने वाली ताक़तें ही आज इसका इस्तेमाल कर रही हैं और जनता के पिछड़ेपन का और वर्ग चेतना के अभाव का लाभ उठाकर उसे इन मुद्दों से भरमा रही हैं। उनकी दिलचस्पी आज ग़रीब मेहनतकश आबादी के साथ हो रहे अन्याय के ख़िलाफ़ लड़ने में नहीं है जो वास्तव में इतिहास को आगे ले जाता। उनकी दिलचस्पी सुदूर अतीत में हुए किसी ऐसे अन्याय के ख़िलाफ़ लड़ने में है, जिसके बारे में दावे से कहा भी नहीं जा सकता है कि वह हुआ था भी या नहीं। साम्प्रदायिक फ़ासीवाद ऐसी ही एक ताक़त है जो आम भारतीय जनता के बीच तार्किक दृष्टि की कमी, वर्ग चेतना की कमी, वैज्ञानिकता की कमी का फ़ायदा उठाते हुए उसे धर्म के आधार पर बाँट देती है। पूँजीपति वर्ग के लिए यह एक बहुत बड़ी सेवा साबित होती है क्योंकि यह सर्वहारा वर्ग के भी एक बड़े हिस्से को एक ऐसे सवाल पर आपस में बाँट देता है जो वास्तव में उसके लिए कोई सवाल है ही नहीं।

ढहती अर्थव्‍यवस्‍था, बढ़ती बेरोज़गारी

बेतहाशा बढ़ रही बेरोज़गारी को लेकर देश की छात्र-युवा आबादी में सुलगता असन्‍तोष पिछली 5 सितम्‍बर और फिर 17 सितम्‍बर को देश के कई राज्‍यों में सड़कों पर प्रदर्शनों के रूप में रूप में फूट पड़ा। शहरों ही नहीं, गाँवों के इलाक़ों में भी जगह-जगह छात्रों-युवाओं ने थाली पीटकर अपना विरोध जताया और नरेन्‍द्र मोदी के कथित जन्‍मदिवस को ‘बेरोज़गारी दिवस’ के रूप में मनाया। यह सही है कि नौजवानों की एक भारी आबादी अब भी संघी प्रचार और गोदी मीडिया व भाजपा के आईटी सेल द्वारा उछाले जा रहे झूठे मुद्दों की गिरफ़्त में है, लेकिन आने वाले दिनों में बेरोज़गारी, महँगाई और सरकारी दमन की बिगड़ती स्थिति की मार उन पर भी पड़ने वाली है।

हिन्दू राष्ट्र में क्या होगा?

जैसे-जैसे देश में असन्तोष और ग़ुस्सा बढ़ेगा, लोगों का ध्यान भटकाने के लिए और उनकों बाँटने के लिए हिन्दुत्व के जुमले को और भी ज़्यादा उछाला जायेगा, हिन्दुओं और मुसलमानों को एक-दूसरे के शत्रु के रूप में पेश किया जायेगा, ताकि इन भयंकर स्थितियों के लिए जिम्मेदार पूँजीवादी व्यवस्था, पूँजीपति वर्ग और उसके सबसे प्रतिक्रियावादी हिस्से की नुमाइन्दगी करने वाली मोदी-शाह सरकार को जनता कठघरे में न खड़े। और यदि कोई इस सच्चाई को समझता है और मोदी सरकार का विरोध करता है, तो उसे ‘हिन्दू राष्ट्र’ का शत्रु करार दिया जायेगा, जेलों में डाला जायेगा, प्रताड़ित किया जायेगा, चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान। क्या देश में ठीक यही नहीं हो रहा है? सोचिए।

ब्राजील में फासिस्ट बोलसोनारो की जीत, विश्व स्तर पर नया फासिस्ट उभार और आने वाले समय की चुनौतियाँ

ब्राजील के राष्ट्रपति चुनाव में फासिस्ट बोलसोनारो की जीत ने स्पष्ट कर दिया है कि संकटग्रस्त बुर्जुआ वर्ग ने अपनी रक्षा के लिए कुत्तेु की जंज़ीर को ढीला छोड़ दिया है। दैत्य-दुर्ग के पिछवाड़े सम्‍भावित तूफान से आतंकित अमेरिकी साम्राज्यवाद भी इस फासिस्ट की पीठ पर खड़ा है। एक दिलचस्प जानकारी यह भी है कि जायर बोलसोनारो इतालवी-जर्मन मूल का ब्राजीली नागरिक है। उसका नाना हिटलर की नात्सी सेना में सिपाही था। ब्राजील में बोलसोनारो का सत्तारूढ़ होना अपने-आप में इस सच्चाई को साबित करता है कि तथा‍कथित समाजवाद का जो नया सामाजिक जनवादी मॉडल लातिन अमेरिका के कई देशों में गत क़रीब दो दशकों के दौरान स्थापित हुआ था (जिसके हमारे देश के संसदीय जड़वामन वामपन्थी भी खूब मुरीद हो गये थे), वह सामाजिक जनवादी गुलाबी लहर (‘पिंक टाइड’) भी अब उतार पर है।

यूरोप में यूनानी त्रासदी के बाद इतालवी कामदी!

इटली के इतिहस को कामदी के मोड़ पर लाकर खड़ा करने वाले इस आन्दोलन का स्थापक एक कॉमेडियन बेप्पे ग्रिल्लो था। इस आन्दोलन ने सत्ता और भ्रष्ट नेताओं के खिलाफ अपशब्द नामक विरोध दिवस मनाये। यह आन्दोलन मुख्यतः भ्रष्टाचार, किफायतसारी और संकट के कारण बढ़ती बेरोज़गारी व गरीबी के खिलाफ था व इसमें नेताओं की ईमानदारी की बात कही गयी। इस आन्दोलन ने एक तरफ यूरोपियन यूनियन से अलग होने की बात कही तो दूसरी ओर सम्प्रभु कर्ज को मिटा देने की बात भी की। भारत में अन्ना हजारे आन्दोलन भी कुछ ऐसा ही था। ‘इण्डिया अगेंस्ट करप्शन” के उत्पाद के तौर पर केजरीवाल की सरकार बनी तो हजारे ने इस सरकार से खुद को अलग कर लिया है वहीं बेप्पे ग्रिल्लो भी इस आन्दोलन से व पार्टी से अलग हो चुका है।

तेल की बढ़ती कीमतें : वैश्विक आर्थिक संकट और मोदी सरकार की पूँजीपरस्त नीतियों का नतीजा

मोदी और इसके भक्तों के मुँह से ये अक्सर सुनने को मिलता है कि पेट्रोल और डीजल की कीमतें देशहित में बढ़ायी जा रही हैं और आप इस वृद्धि की शिकायत न करें और देश के लिए थोड़ी कुर्बानी करें। ये पैसा वापस देश के “विकास” के लिए ही खर्च होता है , मूलभूत अवरचना का निर्माण हो रहा है जो कि मोदीजी से पहले कभी नहीं हुआ! 1200 वर्षो की गुलामी के बाद अब पहली बार पिछले 4 वर्षो से देश फिर से विश्व विजयी और जगत गुरु बनने की ओर अग्रसर है। यहाँ पहली बार गाँव में बिजली पहुँच रही है, सड़क बन रही है, पुल का निर्माण हो रहा है, आपके बच्चों के लिए शिक्षा का इन्तज़ाम किया जा रहा है, स्वास्थ्य पर खर्च किया जा रहा है।

नवउदारवादी आर्थिक नीतियों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और उनका प्रभाव

यह बात बेहद गौर करने लायक है कि आज देश की तमाम चुनावी पार्टियाँ उदारीकरण-निजीकरण और वैश्वीकरण की जनविरोधी नीतियों को लागू करने की हिमायती हैं। कांग्रेस, भाजपा समेत क्षेत्रीय पार्टियाँ हों या फ़िर सीपीआई, सीपीएम सरीखी नामधारी मार्क्सवादी पार्टियाँ ही क्यों न हों, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इन नीतियों को बढ़ावा देती रही हैं। विरोध की नौटंकी केवल विपक्ष में बैठकर ही की जाती है। उदाहरण के लिए भाजपा और वामपन्थी पार्टियों की बात की जाये तो स्थिति साफ़ हो जाती है। भाजपा और संघ परिवार से जुड़ा स्वदेशी जागरण मंच एक तरफ़ छोटी पूँजी को रिझाने के मकसद से व अपने पुश्तैनी वोट बैंक को साथ रखने की मजबूरियों के चलते विदेशी निवेश का कड़ा विरोधी रहा है वहीं भाजपा सत्ता में आते ही तुरन्त पलटी मारने में माहिर है।

‘भगतसिंह राष्ट्रीय रोज़गार गारण्टी कानून’ बनवाने के लिए जन-संगठनों ने फूँका संघर्ष का बिगुल

हालिया अख़बारी ख़बरों के हवाले से यह बात सामने आयी है कि केन्द्र में बैठी भाजपा नीत राजग सरकार पाँच साल से खाली पड़े पदों को समाप्त करने की ठान चुकी है। कहाँ तो चुनाव से पहले करोड़ों रोज़गार देने के ढोल बजाये जा रहे थे कहाँ अब खाली पदों पर काबिल युवाओं को नियुक्त करने की बजाय पदों को ही समाप्त करने के लिए कमर कस ली गयी है। देश के प्रधानमन्त्री से लेकर सरकार के आला मन्त्रीगण बहकी-बहकी बातें कर रहे हैं। कहा जा रहा है कि ‘शाम तक 200 रुपये के पकोड़े बेचना भी काफ़ी बेहतर रोज़गार है’ और इसके लिए भी सरकार बहादुर अपनी पीठ थपथपा रही है!

चीन का आगामी ऋण संकट वैश्विक अर्थव्यवस्था में एक तीखा मोड़

सभी अर्थशास्त्री यह अनुमान लगा रहे हैं कि यह ऋण संकट आने वाले समय में दो रुख ले सकता है –या तो अमेरिकी तर्ज़ पर बैंकों के बड़े स्तर पर दिवालिया होने की ओर बढ़ सकता है और या फिर जापानी तर्ज़ पर चीन लम्बे समय के लिये बेहद कम आर्थिक वृद्धि दर का शिकार हो सकता है। और यह दोनों ही सूरतेहाल चीनी अर्थव्यवस्था के लिये और पूरे वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिये भयानक है। हड़बड़ाहट में बुर्जुआ अर्थशास्त्री चीन पर अब इलज़ाम लगा रहे हैं कि उसने अपने ऋण को कंट्रोल में क्यों नहीं रखा, क्यों इस की मात्रा इतनी बढ़ने दी। दरअसल यह संकट के समय आपस में तीखे हो रहे पूँजीवादी अन्तर्विरोधों का ही इज़हार हो रहा है।