फ़ासिस्टों ने किस तरह आपदा को अवसर में बदला!
अविनाश
लॉकडाउन के दौरान राष्ट्र के नाम सम्बोधन में मोदी ने “आपदा को अवसर” में बदलने का जुमला उछाला। हर जुमले की तरह इस जुमले की भी जाँच-पड़ताल की जाये तो पता चल जायेगा कि इस जुमले के तहत आपदा किसके लिए है और अवसर किसके लिए? या यह कि आपदा को अवसर में कौन बदल रहा है और किस तरह? किसी भी वर्ग विभाजित समाज में हर एक नारा किसी न किसी वर्ग के हितों को साधता है और इसलिए ‘आपदा को अवसर’ में बदलने का नारा भी इससे अछूता नहीं है। कुछ ही दिनों बाद ‘इण्डियन चैम्बर ऑफ़ कॉमर्स’ के एक विशेष कार्यक्रम को सम्बोधित करते हुए मोदी ने अपने फ़ासीवादी एजेण्डे को और साफ़-साफ़ शब्दों में रख दिया और कहा कि ‘पीपुल्स’, ‘प्लैनेट’ और ‘प्रॉफ़िट’ एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। मतलब साफ़ है कि कोरोना आपदा का इस्तेमाल, पूँजीपतियों के लिए ‘पीपुल्स’ यानि मज़दूरों के शोषण की खुली छुट देने, ‘प्लैनेट’ यानी पर्यावरण के दोहन को रोकने के लिए रहे-सहे क़ानूनों को भी किनारे लगाने, और पूँजीपतियों के मुनाफ़े की गिरती हुई दर को रोकने के अवसर के रूप में किया जायेगा। इसकी बानगी श्रम क़ानूनों को किनारे लगाये जाने, निजीकरण की रफ़्तार को लॉकडाउन के दौरान और तेज़ किए जाने आदि के रूप में देखी जा सकती है।
हर फ़ासीवादी निज़ाम जनता पर आने वाली हर आपदा को अपने फ़ासीवादी एजेण्डे को और अधिक विस्तार देने के अवसर के रूप में इस्तेमाल करता है। हिटलर और मुसोलिनी की ये भारतीय औलादें इस मामले में अपने बाप-दादाओं को भी काफ़ी पीछे छोड़ चुकी हैं। 2014 के बाद देश में सत्तासीन फ़ासीवादी ताकतें अपनी हर असफलता को बिकाऊ मीडिया के दलाल पत्रकारों और अपने आईटी सेल के भाड़े के टट्टुओं की मदद से आयोजन का रूप देकर एक तीर से कई निशाने साध रही हैं। एक तरफ़ तो इन आयोजनों से लोगों का ध्यान बदहाल अर्थव्यवस्था, भयावह बेरोज़गारी, जर्जर चिकित्सा तंत्र जैसे असली मुद्दों से भटकाया जा रहा है तो वही दूसरी तरफ इन फ़ासिस्ट आयोजनों से आरएसएस को अपने सामाजिक आधार को भी समय-समय पर परखने का मौक़ा मिल जाता है। कोरोना महामारी के संकटपूर्ण समय में जब पूँजीवादी व्यवस्था की नंगी सच्चाई खुल कर जनता के सामने आ गयी है, जब किसी भी सरकार की प्राथमिकता व्यापक पैमाने पर टेस्टिंग, क्वैरण्टाइन, ट्रीटमेण्ट, और कान्टैक्ट ट्रेसिंग की व्यवस्था कर जनता को इस संकट से निकालना होना चाहिए जैसा कि बहुत से पूँजीवादी देशों (न्यूजीलैण्ड, वियतनाम, दक्षिण कोरिया आदि। इन देशों का मॉडल कोई समाजवादी मॉडल नहीं था फिर भी ये देश व्यापक टेस्टिंग, क्वैरण्टाइन, ट्रीटमेण्ट और कान्टैक्ट ट्रेसिंग और साथ में पूर्ण या आंशिक लॉकडाउन कर काफ़ी हद तक इस संकट से लड़ने में सफल रहे) ने भी किया लेकिन भारत में फ़ासीवादी सरकार ने इस संकट को भी अपने फ़ासीवादी प्रयोग का हिस्सा बना लिया और थाली-ताली बजवाकर, मोमबत्ती जलवाकर जनता का एक सामूहिक मनोवैज्ञानिक परीक्षण कर यह पता लगाने में एक हद तक सफल भी हो गयी कि जनता का कितना बड़ा हिस्सा और किस हद तक तर्क और विज्ञान को ताक पर रखकर आरएसएस के फ़ासीवादी प्रचार के दायरे में आ चुका है। दूसरी ग़ौर करने वाली बात यह है कि ये फ़ासीवादी अनुष्ठान तब आयोजित किये जा रहे थे जब सीएए, एनआरसी और एनपीआर जैसे विभाजनकारी और आरएसएस के फ़ासीवादी मंसूबे को अमली जामा पहनाने वाले काले क़ानूनों के ख़िलाफ़ देशभर में सैकड़ों जगहों पर शाहीनबाग़ की तर्ज़ पर महिलाओं ने मोर्चा सँभाल रखा था। इन बहादुर महिलाओं के क़दम से क़दम मिलते हुए पुरुष, छात्र, कर्मचारी, मज़दूर यानि देश का हर तबक़ा बड़ी तादाद में सड़कों पर था। सत्ता की शह पर फ़ासिस्ट गुण्डों द्वारा प्रदर्शन पर गोली चलवाने, अफ़वाह फैलाकर आन्दोलन को बदनाम करने, सुधीर चौधरी, दीपक चौरसिया, अर्णब गोस्वामी जैसे पट्टलचाट सत्ता के दलाल पत्रकारों द्वारा फैलाये जा रहे झूठ, हिन्दू-मुसलमान के नाम पर आन्दोलन को कमज़ोर करने की लाख कोशिशों के बावजूद जब आन्दोलनकारी महिलाएँ बहादुरी से इसका सामना करते हुए मैदान से पीछे नहीं हटी तब इन दरिन्दों ने उत्तर-पूर्वी दिल्ली दंगो का ख़ूनी खेल खेलना शुरू कर दिया जिसमें दिल्ली पुलिस भी इन दंगाइयों के कन्धे से कन्धा मिलाकर आगजनी और तोड़फोड़ में शामिल रही। दंगो में सरकारी रिपोर्ट के अनुसार 53 लोग मारे गये और सैकड़ों घायल हो गये। मस्जिदों में भगवा झण्डा लगाया गया, चुन-चुन के मुसलमानों की दुकानों को जलाया गया, घरों में आग लगायी गयी। इन सब घटनाओं के बाद भी आन्दोलन न सिर्फ़ मज़बूती से चलता रहा बल्कि सरकार को नाकों-चने चबाने पर मजबूर कर दिया। लेकिन कोरोना के आसन्न ख़तरे को देखते हुए इस आन्दोलन को फ़ौरी तौर पर स्थगित कर सांकेतिक रूप में चलाने का निर्णय लिया गया। जनसैलाब के उभार से घबराये फ़ासिस्ट अपनी बौखलाहट छुपा नहीं सके और कायरता का नमूना पेश करते हुए सांकेतिक आन्दोलनों को पुलिस प्रशासन से हटवा दिया। इससे सहज ही समझ जा सकता है कि 22 मार्च को आरएसएस के जनता कर्फ़्यू के प्रयोग के दौरान जो उन्मादी-उल्लासी भीड़ सड़कों पर उतर कर भारत माता की जय, वन्दे मातरम, जय श्री राम चिल्लाते हुए रैली निकाल रही थी, वो कोरोना महामारी से लड़ने वाले डॉक्टरों के लिए नहीं थी; बल्कि इसका असली निहितार्थ यह सन्देश देना था कि सीएए, एनआरसी और एनपीआर पर सरकार टस से मस नहीं हुई और आखिरकार आन्दोलन को पीछे लेने पर मजबूर होना पड़ा।
करोड़ों मेहनतकश जनता के ऊपर कहर बरपा कर रही कोरोना महामारी और भुखमरी की आपदा को राजनीतिक विरोधियों के दमन के अवसर के रूप में भुना रही फ़ासिस्ट मोदी सरकार
निजीकरण की भेंट चढ़ चुका जर्जर सरकारी चिकित्सा तंत्र, सरकार की हत्यारी लापरवाही और जनता के प्रति भयंकर ग़ैर-ज़िम्मेदाराना रवैये से दिन-ब-दिन विस्फोटक रुख़ अख़्तियार कर रहे कोरोना के संकट को झेल पाने में असमर्थ है। वहीं दूसरी ओर प्राइवेट अस्पताल इस संकट के समय में भी मुनाफ़ा बटोरने में लगे हुए हैं। कोरोना महामारी के दौरान शुरुआती दौर में मोदी सरकार की उदासीनता और बाद में बिना किसी पूर्वसूचना और तैयारी के अनियोजित तरीक़े से थोपे गये लॉकडाउन की वजह से करोड़ों मज़दूर अपनी जान जोख़िम में डालकर पैदल ही अपने घरों की ओर चल पड़ने के लिए मजबूर हो गये थे। मज़दूरों को फ़ासीवादी सरकार की हत्यारी निष्क्रियता ने सड़क हादसों, भूख और थकान का शिकार बनाकर हज़ारों प्रवासी मजदूरों को मौत के मुँह में धकेल दिया। योजनाविहीन और तानाशाहीपूर्ण तरीक़े से लागू किया गया लॉकडाउन मोदी सरकार के निकम्मेपन की वजह से पूरी तरह से फ़ेल हो चुका है। अब सरकारी संस्थाएँ भी मनाने को मजबूर हो गयी हैं कि देश ‘कम्युनिटी ट्रांसफ़र’ के स्टेज में पहुँच चुका है। लेख लिखे जाने तक कोविड-19 के मरीज़ों के मामले में भारत अमेरिका और ब्राज़ील के बाद तीसरे स्थान पर पहुँच चुका है। देश में सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़ कोविड-19 के मरीज़ों की संख्या 20 लाख पार कर गयी है तथा इससे मरने वालों की संख्या 50 हज़ार के पार पहुँच चुकी है। मोदी सरकार अपने इस नकारापन को छुपने के लिए तमाम प्रपंच करने में जुटी हुई है।
एक तरफ जब देश कोरोना महामारी के इस भयंकर दौर का सामना कर रहा है तब सुप्रीम कोर्ट द्वारा राज्य और केन्द्र सरकार को दिये गये निर्देश कि “जेल में भीड़ कम करने के लिए राज्य सरकारों को क़ैदियों को पैरोल पर या ज़मानत देकर छोड़ना चाहिए, इसमें वृद्ध और बीमार क़ैदियो को प्राथमिकता दी जाये” को धता बताते हुए फ़ासीवादी सरकार इस आपदा को सीएए, एनपीआर और एनआरसी विरोधी आन्दोलन में सक्रिय कार्यकर्ताओं, मानव अधिकार के लिए संघर्ष करने वाले कार्यकर्ताओं, कश्मीरी आवाम के पक्ष में मज़बूती से खड़े होने वाले अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ़ फ़र्ज़ी मुक़दमेबाज़ी कर जेल में डालने के मौक़े के रूप में भुना रही है। ‘नेशनल लीगल सर्विस अथॉरिटी’ की रिपोर्ट के मुताबिक़ लॉकडाउन के दौरान 16 मई तक 42,259 क़ैदियों को रिहा किया जा चुका था लेकिन हैरानी की बात यह है की इसमें से एक भी राजनीतिक क़ैदी नहीं थे। उल्टे कई गम्भीर बीमारियों से ग्रसित और 81 वर्षीय वरवर राव, 90 फ़ीसदी से ज़्यादा विकलांग दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर जी.एन. साईंबाबा, सुधा भारद्वाज जैसे राजनीतिक कार्यकर्ताओं क़ी ज़मानत की याचिका को बार-बार खारिज़ कर दिया गया। इससे सरकार की मंशा बिल्कुल साफ़ हो जाती है कि अपराधियों को भले छोड़ देंगे लेकिन किसी भी हालत में राजनीतिक क़ैदियों को नहीं छोड़ा जायेगा। जो दिल्ली पुलिस जम्मू-कश्मीर के डीएसपी देविन्दर सिंह, जो दसियों सालों से आतंकियों की मदद कर रहा था और आतंकियों को हथियार सहित घर में छुपने और अपनी गाड़ी से दिल्ली पहुँचाते हुए रंगे हाथ पकड़ा गया था, के ख़िलाफ़ चार्जशीट तक दाख़िल नहीं कर पायी वही दिल्ली पुलिस सरकार के इशारों पर फ़ासीवादी सरकार के दमनकारी, विभाजनकारी, भेदभावपूर्ण नीतियों के ख़िलाफ़ सड़कों पर आवाज़ बुलन्द करने वाली हर आवाज़ को फ़र्ज़ी मुक़दमे लगाकर, पूछताछ के बहाने शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न कर दमन पर उतारू हो चुकी है। सीएए के ख़िलाफ़ सड़कों पर उतरी जनता के जज़्बे एकजुटता और जुझारूपन से बौखलायी मोदी सरकार भविष्य में आन्दोलन के फिर उठ खड़े होने की हर सम्भावना को ही मिटा देने पर आमादा है। कोरोना महामारी की वजह से देशभर में लॉकडाउन के दौरान, जब किसी भी तरह की क़ानूनी मदद की कोई गुंजाइश नहीं है तब फ़ासिस्ट सरकार यूएपीए, एनएसए, राजद्रोह आदि फ़र्ज़ी मुक़दमे लगाकर विरोध के हर स्वर का गला घोंटना चाहती है। इसी क्रम में सबसे पहले जामिया मिलिया इस्लामिया की शोध छात्रा और वहाँ चल रहे सीएए के ख़िलाफ़ आन्दोलन और जामिया कोऑर्डिनेशन कमेटी में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली मीरान हैदर को 2 अप्रैल को गिरफ़्तार किया गया और तब से गिरफ़्तारी का यह सिलसिला सीलमलपुर- ज़ाफ़राबाद आन्दोलन में नेतृत्वकारी भूमिका निभाने वाली गुलसिफ़ा, जामिया से एमफिल की छात्रा और जामिया कोऑर्डिनेशन कमेटी की प्रवक्ता और गिरफ़्तारी के समय गर्भवती सफ़ूरा जरगर, उमर ख़ालिद, पिंजरा तोड़ आन्दोलन से जुड़े और एन्टी सीएए प्रोटेस्ट में सक्रिय भूमिका निभाने वाली नताशा नरवाल, देवांगना कलिता से होते हुए अभी तक बदस्तूर जारी है। सफ़ूरा जरगर को 24 फ़रवरी को ज़ाफ़राबाद थाने में दर्ज उत्तर पूर्वी दिल्ली आरएसएस के उन्मादी गुण्डों द्वारा फैलायी गयी हिंसा के मामले में पूछताछ के लिए बुलाया गया और वहीं उनको गिरफ़्तार कर लिया गया। इस मामले में 13 अप्रैल को सफ़ूरा की ज़मानत मिल गयी, लेकिन तुरन्त दिल्ली पुलिस ने 6 मार्च को दायर की गयी हिंसा फैलाने के एक अन्य मामले में जिसमें सफूरा का नाम तक नहीं था और शुरुआती दौर में लगायी गयी सभी धाराएँ ज़मानती भी थी, में फ़र्ज़ी तरीके से एफ़आईआर में लिखे ‘अन्य’ वाले कॉलम में सफ़ूरा का नाम डाल दिया गया और 20 अप्रैल को एफ़आईआर की धाराओं में आज़ाद भारत के सबसे काले क़ानूनों में से एक यूएपीए जोड़ दिया गया। पिछले साल यूएपीए क़ानून में संशोधन कर फ़ासीवादी सरकार अपने मंसूबों के मुताबिक़ इसे और ज़्यादा ख़तरनाक बना डाला है जिसके तहत बिना किसी सुबूतों या गवाहों के पुलिस को मनमाने तरीके से किसी को आतंकी घोषित कर गिरफ़्तार करने का अधिकार मिल गया है। इसी तरह नताशा और देवांगना को भी जमानत मिल जाने के एक ही दिन बाद एफ़आईआर संख्या 59/20 और 49/20 के आधार पर दंगो का षड्यंत्र रचने, लोगों को भड़काने और हिंसा फैलाने के आरोप में यूएपीए लगाकर जेल भेज दिया गया। इसी एफ़आईआर संख्या 59/20 और 49/20 के तहत उमर ख़ालिद, सफ़ूरा जरगर, मीरान हैदर समेत कई लोगों पर यूएपीए थोप दिया गया है। यूएपीए कानून में संशोधन के बाद से ही भारत की फ़ासिस्ट सत्ता पूरे देश में राजनीतिक कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों की गिरफ़्तारी की मुहिम छेड़ चुकी है। सुधीर धवले, आनन्द तेलतुम्बड़े, डॉ. कफ़ील, शोमा सेन, अरुण फ़रेरा, सुरेंद्र गाडलिंग जैसे लोगों पर यूएपीए लगाकर सलाख़ों के पीछे धकेला जा चुका है। इसी प्रकार दिल्ली दंगा के समय अवामी एकजुटता कायम करने के मद्देनज़र नौजवान भारत सभा, दिशा छात्र संगठन समेत कई अन्य मज़दूर संगठन संयुक्त रूप से पूरे दिल्ली में 16 दिवसीय जनसत्याग्रह पद यात्रा निकालकर लोगों से अमन की अपील कर रहे थे जो दिल्ली पुलिस को नागवार गुज़रा और पूछताछ के नाम पर नौभास के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष योगेश स्वामी, केन्द्रीय कमेटी के सदस्य विशाल, राकेश सहित अन्य नौभास से जुड़े कार्यकर्ताओं क्राइम ब्रांच की स्पेशल सेल बेहद ग़ैर-लोकतांत्रिक तरीक़े से परेशान करती रही। पूरे देशभर में सीएए के ख़िलाफ़ चल रहे आन्दोलन में नौभास के कार्यकर्ताओं ने बढ़चढ़कर हिस्सा लिया और इसलिए उत्तराखण्ड, उत्तरप्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र से लेकर दिल्ली तक में पुलिस के निशाने पर रहे। वहीं दूसरी तरफ़ दिल्ली दंगो का ख़ूनी खेल रचने वाले असली दंगाई कपिल मिश्रा, अनुराग ठाकुर, प्रवेश वर्मा, रागिनी तिवारी, अभय वर्मा जैसे अपराधी अभी भी खुलेआम घूम रहे है। इन दंगाइयों के भड़काऊ भाषणों का स्पष्ट प्रमाण होने के बावजूद दिल्ली पुलिस न तो इन्हें गिरफ़्तार करती है और ना ही पूछताछ की ज़हमत उठाती है। उल्टे भाजपा नेताओं के भड़काऊ भाषणों और दंगा फैलाने के लिए हाईकोर्ट के जज़ एस. मुरलीधरन ने जब एफ़आईआर दर्ज करने का आदेश दिया तब एफ़आईआर तो दूर उलटे जज साहब का ही तबादला हो गया। इलाहाबाद के रोशनबाग में चल रहे सीएए, एनआरसी और एनपीआर के ख़िलाफ़ प्रदर्शन का नेतृत्व कर रहे लोगों पर प्रशासन ने कई बार मुक़दमा दायर किया और जब 23 मार्च को कोरोना के मद्देनजर सबकी सहमति से आन्दोलन को वापस लिया गया तभी से प्रशासन कार्यकर्ताओं की गिरफ़्तारी में लग गया है। पिछले दिनों इलाहाबाद के आन्दोलन में सक्रिय भूमिका निभाने वाले उमर ख़ालिद और फ़ज़ल ख़ान को गिऱफ़्तार कर प्रशासन द्वारा ‘कस्टोडियल टॉर्चर’ किया गया और फ़ज़ल ख़ान के ऊपर देशद्रोह की धारा लगा दी गयी। दो महीने से ज़्यादा समय तक जेल में रहने के बाद उन्हें ज़मानत मिल सकी। आन्दोलन में सक्रिय दिशा छात्र संगठन के अमित सहित दर्जनों लोगों पर ‘पैण्डेमिक एक्ट’ और धारा 144 के तहत फ़र्ज़ी मुक़दमा दायर किया गया है।
इन सब गिरफ़्तारियों का ध्यान से विश्लेषण करने पर ख़तरनाक फ़ासीवादी ट्रेंड सामने आता है वह यह कि 1. अचानक बिना किसी पूर्व सूचना और वारण्ट के गिरफ़्तार किया जाना; 2. एक के बाद दूसरे मामले में फँसाकर जेल में क़ैद करने की पहले से ही स्पष्ट और विस्तृत तैयारी; 3. पुराने एफ़आईआरों में ‘अन्य’ के अंतर्गत नये-नये नामों को जोड़ते जाना। जाफ़राबाद मेट्रो स्टेशन के बाहर हुई हिंसा के बाद दर्ज की गयी एफ़आईआर की कॉपी में कहीं भी नताशा का नाम नहीं था, लेकिन पहली बार ज़मानत मिलने के अगले दिन ही एफ़आईआर में ‘अन्य’ की जगह नताशा का नाम डाल उनपर यूएपीए के तहत मुक़दमा दर्ज कर जेल भेज दिया गया। असल में ‘अन्य’ फ़ासीवादी राज्यसत्ता के लिए एक महत्वपूर्ण संवैधानिक हथियार का काम कर रहा है। जिस कॉलम में बाद कभी भी किसी का नाम जोड़ा जा सकता है जो घटनास्थल पर मौजूद हो या न हो। ‘वह मौज़ूद नहीं था’ यह साबित करना उसका काम है। अगर उसे किसी मामले में ज़मानत मिल भी गयी तो भी सत्ता के पास तुरन्त दूसरी रिपोर्ट तैयार कर उसे जेल में डालने का साधन तैयार है और सबसे बड़ी बात यह है कि यह सब गड़बड़ घोटाला पूरी तरह संवैधानिक है। मतलब साफ़ है कि संवैधानिक और क़ानूनी दायरे में ही फ़ासिस्टों के लिए इतने लूपहोल मौजूद है कि उनको किसी संविधान को ख़त्म करने की ज़रूरत ही नहीं है।
श्रम कानूनों को ख़त्म करने पर तुली मोदी सरकार
कोरोना महामारी की वजह से काम-धन्धा ठप्प पड़ जाने और मज़दूरों से रोज़गार छिन जाने के बाद देश के करोड़ों मेहनतकशों के सामने जीविका का संकट पैदा हो गया है। 20 लाख करोड़ के पैकेज, सबको राशन देने की मोदी की हवा-हवाई घोषणाओं की पोल-पट्टी खुल चुकी है। और अब पूँजीपतियों के मुनाफ़े की हवस को पूरा करने के लिए मज़दूरों को वापस फ़ैक्ट्रियों में धकेला जा रहा हैं। देशी-विदेशी पूँजी के मुनाफ़े के लिए मजदूरों के सामने सरकार द्वारा केवल दो विकल्प छोड़े गये हैं या तो भूख से मौत या कोरोना से मौत। और ऐसे समय में मोदी सरकार बेशर्मी से ‘आत्मनिर्भर’ बनने का पाठ पढ़ा रही है। इस कठिन समय में केन्द्र और राज्य सरकारें मिलकर बचे-खुचे श्रम क़ानूनों को ख़त्म करने पर तुली हुई हैं। उत्तर प्रदेश ने सरकार तमाम श्रम क़ानूनों, जिसमें कार्यस्थिति से लेकर न्यूनतम मज़दूरी तक के क़ानून शामिल हैं, को तीन साल के लिए स्थगित कर दिया है। काम के घण्टे को भी आठ से बढ़ाकर बारह कर दिया गया था लेकिन भारी जनदबाव के बाद हाईकोर्ट के दख़ल से योगी सरकार का यह फ़ासीवादी मंसूबा पूरा नहीं हो पाया। इसी तर्ज़ पर हरियाणा की खट्टर सरकार ने भी श्रम क़ानूनों को 1,000 दिन के लिए स्थगित कर दिया है। गुज़रात, मध्यप्रदेश, त्रिपुरा, राजस्थान सहित कई राज्यों में अध्यादेश लाकर श्रम क़ानूनों में मज़दूर-विरोधी बदलाव कर दिये गये है जिसका परिणाम कभी विशाखापट्टनम, कभी विहग, कभी गुजरात के भरूच तो कभी ग़ाज़ियाबाद में हुई भयंकर औद्योगिक घटनाओं के रूप में सामने आता है। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि ये देश में होने वाली हज़ारों घटनाओं में से चन्द घटनाएँ हैं, जिसे मीडिया भी नहीं छिपा पाता है। ऐसी भयानक घटनाओं के लिए जितना ज़िम्मेदार फ़ैक्ट्री प्रबंधन है उतनी ही यह मज़दूर-विरोधी सरकारें हैं।
लॉकडाउन में सार्वजनिक उपक्रमों के अन्धाधुन्ध निजीकरण की मुहिम
कोविड़-19 की वजह से जब देश में सभी तरह की गतिविधियों पर रोक लगा दी गयी थी उस समय मोदी सरकार पूँजीपतियों के हितों को साधने में लगी थी। ‘देश नहीं बिकने दूँगा’ का जुमला फेकने वाली मोदी सरकार की गिद्ध निगाहें कोयला कम्पनियों, रेलवे, बीएसएनएल, एमटीएनएल जैसी बड़ी सार्वजनिक कम्पनियों पर लगी थीं। दूसरी बार सत्ता पर काबिज़ होते ही मोदी सरकार ने ‘100 दिन एक्शन प्लान’ के तहत रेलवे को निजी हाथों में सौपने का मंसूबा जता दिया था। 1 जुलाई को रेलवे बोर्ड ने 109 मार्गों पर चलने वाली 151 गाड़ियों का परिचालन निजी हाथों में देने का टेण्डर जारी कर दिया। रेलवे के निजीकरण के इस मॉडल में इनफ्रास्ट्रक्चर जैसे ट्रैक, सिगनल्स, ट्रेन ऑपरेशन तो अभी भी सार्वजनिक रहेगा लेकिन ट्रेन (ड्राईवर/गार्ड को छोड़कर) निजी होंगी। इस धूर्तता को सरकार नये-नये लच्छेदार शब्दों (पब्लिक-प्राइवेट-पार्टनरशिप) में पिरोकर परोस रही है। पब्लिक-प्राइवेट-पार्टनरशिप का मतलब साफ़ है कि पब्लिक के ख़ून-पसीने के पैसे से प्राइवेट कम्पनियाँ मुनाफ़ा बटोरेंगी और अगर कभी घाटा होने लगा तो अपनी पूँजी (जो कि न के बराबर लगी हुयी है) निकालकर चल देंगी। इसी तरह सरकार एमटीएनएल और बीएसएनएल की 37,500 करोड़ की ज़मीन और बिल्डिंगें बेचने जा रही है। सरकारी नीतियों की वजह से पहले से बर्बादी के कगार पर खड़ी दोनों कम्पनियों को सरकार अब आख़िरी धक्का देने के मूड में है। अब तक किसी भी तरह इन्फ्रास्ट्रक्चर के दम पर ये कम्पनियाँ बाज़ार में खड़ी थीं लेकिन अब मोदी सरकार उनसे उनका आख़िरी सहारा भी छीनने में लग गयी है। और इस बिक्री का सीधा फ़ायदा जिओ जैसी कम्पनियों को होगा। लॉकडाउन के बीच 18 जून को भाजपा सरकार ने 41 कोल ब्लॉक के वाणिज्यिक खनन यानी निजी कम्पनियों को खनन की अनुमति दे दी। अब इस फैसले के बाद निजी कम्पनियाँ निकाले गये कोयले का किसी भी रूप में (एक्सपोर्ट, अपनी ऊर्जा कंपनी के लिए या देशी बाज़ार में बिक्री के लिए) इस्तेमाल करने के लिए आज़ाद हैं। 2014 में सत्ता पाने के बाद से ही कोयला सेक्टर मोदी सरकार के निशाने पर रहा है। 2015 में कोल माइन्स एक्ट (स्पेशल प्रोविज़न) के जरिये कोयला खनन में निजी कम्पनियों का रास्ता साफ़ करने के बाद 2018 में कोकिंग कोल माइन्स एक्ट 1972 और कोल माइन्स एक्ट 1973 को भंग कर मोदी सरकार द्वारा प्राइवेट खिलाड़ियों को निकाले गये कोयले का 25 फ़ीसदी बेचने की भी छूट दे दी गयी थी। कोयला खनन में 100% एफ़डीआई पहले से ही लागू है यानी खनन के क्षेत्र में देशी-विदेशी पूँजी को मज़दूरों की मेहनत लूटने की खुली छूट दे दी गयी है। इस आपदा को भाजपा ने विधायकों की ख़रीद-फ़रोख्त के लिए धन जुटाने के अवसर के रूप में भी जमकर इस्तेमाल किया है। नेशनल रिलीफ़ फ़ण्ड होने के बावजूद कोरोना से लड़ने के नाम पर पीएम केयर्स फ़ण्ड बनाया गया है। इस नये फ़ण्ड में करोड़ों लोगों ने पैसे दिये, साथ ही पब्लिक सेक्टर की 38 कम्पनियों ने भी कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी के तहत 2,018 करोड़ रुपये दिये। अब पूँजीवादी व्यवस्था के तीसरे “मजबूत स्तम्भ” (जनता के लिए नहीं पूँजीपतियों के लिए) ने पीएम केयर्स फ़ण्ड का हिसाब देने की किसी भी बाध्यता से मुक्त कर दिया है।
इसी तरह जनता पर मोदी सरकार की आपराधिक लापरवाही के कारण जनता पर टूट पड़ी इस आपदा को सरकार नौकरियों को ख़त्म करने, पाठ्यक्रम में बदलाव कर आरएसएस का पाठ्यक्रम लागू करने, नयी शिक्षा नीति के ज़रिए प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक के दरवाज़े देशी-विदेशी पूँजी के लिए खोलने और देश के प्राकृतिक संसाधनों को देशी-विदेश्ाी लुटेरों के हवाले करनेके अवसर के रूप में जमकर इस्तेमाल कर रही है। स्पष्ट है कि कोविड-19 की आपदा भाजपा और संघ परिवार के लिए अपने फ़ासिस्ट एजेण्डे को आगे बढ़ाने का अवसर है। लेकिन इतना ज़रूर है फ़ासिस्टों ने जितने नंगे तरीक़े से इस आपदा को अवसर में बदलने की कोशिश की उससे इनका फ़ासीवादी चाल-चेहरा-चरित्र और भी उजागर हुआ है। यह जनता के लिए सबक़ लेने और इस फ़ासीवादी निज़ाम को ध्वस्त करने के लिए अपनी तैयारियाँ तेज़ करने का भी अवसर है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,जुलाई-अक्टूबर 2020
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