Category Archives: दमनतंत्र

तूतीकोरिन क़त्लेआम- राज्य प्रायोजित हत्याकांड

जो बर्बरता 22 मई को तूतीकोरिन की सड़कों पर बरपी थी उसके तार सीधे इस देश की राज्यसत्ता पर काबिज रही दो मुख्य राजनीतिक पार्टियों से जुड़ें हैं। जैसा कि बेर्टोल्ट ब्रेष्ट ने कहा था कि बर्बरता बर्बरता से पैदा नहीं होती वह उन सौदों से पैदा होती है जो इस बर्बरता के बिना सम्भव नहीं होते। तूतीकोरिन के क़त्लेआम के बाद मोदी सरकार कांग्रेस पर तो कांग्रेस मोदी सरकार पर दोष मढ़ने में मशगूल हैं। लेकिन सच क्या है उसकी पड़ताल कोई भी तर्कसंगत व्यक्ति ठोस तथ्यों से कर सकता है। हाल ही में केंद्रीय बजट का जो सत्र समाप्त हुआ था उसमें अरुण जेटली ने बड़ी चालाकी से वित्त विधेयक 2018 में एक संशोधन पास करवाया था।

ओअक्साका शिक्षकों का संघर्ष: जुझारूपन और जन एकजुटता की मिसाल

नागरिक और शिक्षकों की मजबूत एकता का लम्बा इतिहास सत्ता के लिये बिना शक  चुनौती है। निजीकरण, नवउदारवाद और खुले बाज़ार की नीतियों को धड़ल्ले  से लागू करने के लिये इस एकता को समाप्त करना सत्ता की  प्राथमिक आवश्यकता थी क्योंेकि यह एकजुटता सत्ता  के शोषण और दमन के विरुद्ध मजबूत दीवार की तरह आज तक खड़ी रही है। सत्ता द्वारा नियोजित चौकसी की ठण्डी हिंसा राज्यों द्वारा प्रायोजित उग्र हिंसा के काल में बर्बरता को बहुत हद तक मान्य बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। लेकिन शिक्षकों और नागरिकों के बीच दरार पैदा करने की तमाम कोशिशों के बावजूद; मुख्य मीडिया और सोशल मीडिया पर बदनाम करने के धुआँधार अभियान के बावजूद; पूँजीवादी सत्ता द्वारा लोहे के हाथों से लागू नवउदारवाद और निजीकरण की नीतियाँ  शोषित जनता को साथ ले आती है।

कश्मीर: यह किसका लहू है कौन मरा!

भारतीय राज्यसत्ता द्वारा सारी कश्मीर की अवाम को आतंकी के रूप में दिखाने की कोशिश कश्मीरी जनता के संघर्ष को बदनाम करने और कश्मीर में भारतीय राज्यसत्ता के हर जुल्म को जायज ठहराने की घृणित चाल है। पिछले लगभग छ: दशकों से भी अधिक समय के दौरान भारतीय राज्यसत्ता द्वारा कश्मीरी जनता के दमन, उत्पीड़न और वायदाखि़लाफ़ी से उसकी आज़ादी की आकांक्षाएँ और प्रबल हुई हैं और साथ ही भारतीय राज्यसत्ता से उसका अलगाव भी बढ़ता रहा है। बहरहाल सैन्य दमन के बावजूद कश्मीरी जनता की स्वायत्तता और आत्मनिर्णय की माँग कभी भी दबायी नहीं जा सकती। मगर यह बात भी उतनी ही सच है कि पूँजीवाद के भीतर इस माँग के पूरा होने की सम्भावना नगण्य है। भारतीय शासक वर्ग अलग-अलग रणनीतियाँ अपनाते हुए कश्मीर पर अपने अधिकार को बनाये रखेगा। भारत और पाकिस्तान दोनों के शासक वर्ग अपने हितों को साधने के नज़रिये से कश्मीर को राष्ट्रीय शान का प्रश्न बनाए रखेंगे।

सत्ता के दमन की चपेट में – छत्तीसगढ़ की जनता!

‘सलवा जुडूम’, ‘ऑपरेशन ग्रीन हण्ट’ यह सब उन अलग-अलग हथकण्डों के नाम है जिनकी आड़ में माओवादियों का खात्मा करने की बात कहते हुए सुनियोजित तरीके से आदिवासियों को उनके गाँवों से विस्थापित कर अपने ही देश में शरणार्थियों की तरह शिविरों में भर दिया गया है। ‘आई.डी.पी. कैम्प’ (‘इण्टरनली डिसप्लेस्ड पीपल कैम्प’) यातना शिविरों से अलग नहीं हैं। ऐसा इसीलिए किया जाता है ताकि बेरोक-टोक खनन का काम किया जा सके।

कश्मीरी जनता का मौजूदा दमन: देश कागज़ पर बना नक्शा नहीं होता

“देशभक्त” और “राष्ट्रवादी” भारतीय मध्यवर्ग को कश्मीर भारत के ताज के रूप में तो चाहिए किन्तु कश्मीरी जनता के प्रति उसे कोई हमदर्दी नहीं है। गुमनाम कब्रें, बलात्कृत औरतें, मरते हुए लोग भारतीय मध्यवर्ग को दिखायी नहीं देते जैसे उनकी आँखों पर पहाड़ी टट्टू की तरह से पट्टा बन्धा हो। देश कागज़ पर बना कोई नक्शा नहीं होता, यदि वहाँ के नागरिकों के जीवन की कोई कीमत नहीं है तो ऐसे देश की बात करने का कोई अर्थ नहीं है।

छपते-छपतेः जवाहर लाल नेहरू केन्द्रीय विश्वविद्यालय के प्रगतिशील छात्रों पर मोदी सरकार का हमला

पत्रिका के प्रेस में जाते-जाते यह ख़बर मिली है कि जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया है। जेएनयू में हाल ही में कुछ लोगों ने ‘ए कण्ट्री विद आउट ए पोस्ट ऑफिस’ नामक कार्यक्रम किया था। इसमें कुछ अराजकतावादी व रैडिकल इस्लामिस्ट तत्वों ने भारत-विरोधी नारेबाज़ी की। कन्हैया कुमार मौके पर पहुँचकर इस प्रकार की नारेबाज़ी और मारपीट की सम्भावना को रोकने का प्रयास कर रहे थे। लेकिन एबीवीपी की आँखों की किरकिरी होने के नाते, उन पर फ़र्ज़ी आरोप लगाकर उन्हें जेल में डाल दिया गया है, जबकि इस कार्यक्रम के प्रमुख आयोजकों को अभी तक पुलिस नहीं पकड़ सकी है। इसी से पता चलता है कि यहाँ अराजकतावादी तत्वों की बेहूदा कार्रवाइयों के बहाने जेएनयू के तमाम प्रगतिशील संगठनों को निशाना बनाया जा रहा है। यही कारण है कि मुख्य अभियुक्तों को पुलिस पकड़ नहीं सकी है। अगले अंक में हम इस पूरे घटनाक्रम पर विस्तार से लिखेंगे।

हरियाणा पुलिस का दलित विरोधी चेहरा एक बार फिर बेनकाब

दलित उत्पीड़न के मामलों का समाज के सभी जातियों के इंसाफ़पसन्द लोगों को एकजुट होकर संगठित विरोध करना चाहिए। अन्य जातियों की ग़रीब आबादी को यह बात समझनी होगी की ग़रीब मेहनतकश दलितों, गरीब किसानों, खेतिहर मज़दूरों और समाज के तमाम ग़रीब तबके की एकजुटता के बल पर ही तमाम तरह के अन्याय की मुख़ालफ़त की जा सकती है। उन्होंने अपनी बात में कहा सवर्ण और मंझोली जातियों की गरीब-मेहनतकश आबादी को श्ह बात समझनी होगी कि यदि हम समाज के एक तबके को दबाकर रखेंगे, उसका उत्पीड़न करेंगे तो स्वयं भी व्यवस्था द्वारा दबाये जाने और उत्पीड़न किये जाने के लिए अभिशप्त होंगे।

एफ.टी.आई.आई. के छात्रों का संघर्ष: लड़ाई अभी जारी है!

12 जून 2015 को शुरू हुआ पुणे के फिल्म एण्ड टेलीविजन इंस्टिट्यूट ऑफ इण्डिया (भारत फिल्म और टेलीविजन संस्थान) के छात्रों का संघर्ष 139 दिन लम्बी चली हड़ताल के ख़त्म होने के बावजूद आज भी जारी है। 139 दिनों तक चली इस हड़ताल के दौरान देश भर के छात्रों, कलाकारों, बुद्धिजीवियों, फिल्मकारों, मज़दूर कार्यकर्ताओं और आम जनता ने खुलकर एफ.टी.आई.आई. के छात्रों की हड़ताल का समर्थन किया। 24 फिल्मकारों ने अपने राष्ट्रीय पुरस्कार वापिस किये जिनमें एफ.टी.आई.आई. के पूर्व अध्यक्ष सईद अख़्तर मिर्ज़ा, ‘जाने भी दो यारो’ फिल्म बनाने वाले कुंदन शाह, संजय काक आदि जैसे फिल्मकार शामिल थे। बार-बार सरकार के सामने अपनी माँगों को रखने और उनसे उन्हें संज्ञान में लेते हुए उनकी सुनवाई करने की अपीलों के बावजूद भी मोदी की फ़ासीवादी सरकार ने अभिव्यक्ति की आज़ादी को कुचलते हुए इस पूरे मामले पर चुप्पी साधे रखी। नरेन्द्र दाभोलकर, गोविन्द पानसरे और कलबुर्गी जैसे बुद्धिजीवियों की हत्या, दादरी में अख़लाक की हत्या, देश में बढ़ रहे फासीवादी आक्रमण और संघी गुण्डों की मनमर्ज़ी की पृष्ठभूमि में एफ.टी.आई.आई.के छात्रों के संघर्ष को संघ के भगवाकरण और हिन्दुत्व के मुद्दे से अलग करके नहीं देखा जा सकता है। एफ.टी.आई.आई. की स्वायत्तता पर हमला देश के शिक्षण संस्थानों और कला के केन्द्रों के भगवाकरण के फ़ासीवादी एजेण्डे का ही हिस्सा है। गजेन्द्र चौहान, अनघा घैसास, राहुल सोलपुरकर, नरेन्द्र पाठक, शैलेश गुप्ता जैसे लोगों की एफ.टी.आई.आई. सोसाइटी में नियुक्ति की खबर के बाद 12 जून को शुरू हुई हड़ताल ने देश के सभी छात्रों को भगवाकरण की इस मुहिम के ख़िलाफ़ एकजुट कर दिया।

कुछ अहम सवाल जिनका जवाब जाति उन्मूलन की ऐतिहासिक परियोजना को आगे बढ़ाने के लिए अनिवार्य है

अभी हमारी चर्चा का मूल विषय है एक निहायत ज़हीन, संजीदा, इंसाफ़पसन्द नौजवान की असमय मौत और उसके नतीजे के तौर पर हमारे सामने उपस्थित कुछ यक्षप्रश्न जिनका उत्तर दिये बग़ैर हम जाति के उन्मूलन की ऐतिहासिक परियोजना में ज़रा भी आगे बढ़ने की उम्मीद नहीं कर सकते हैं। कार्ल सागान जैसा वैज्ञानिक बनने की आकांक्षा रखने वाले रोहित ने आत्महत्या क्यों की? तारों की दुनिया, अन्तरिक्ष और प्रकृति से बेपनाह मुहब्बत करने वाले इस नौजवान ने जीवन की बजाय मृत्यु का आलिंगन क्यों किया? वह युवा जो इंसानों से प्यार करता था, वह इस कदर अवसाद में क्यों चला गया? वह युवा जो न्याय और समानता की लड़ाई में अगुवा कतारों में रहा करता था और जिसकी क्षमताओं की ताईद उसके विरोधी भी किया करते थे, वह अचानक इस लड़ाई और लड़ाई के अपने हमसफ़रों को इस तरह छोड़कर क्यों चला गया? इन सवालों की पहले ही तमाम क्रान्तिकारी कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों और छात्र-युवा साथियों ने अपनी तरह से जवाब देने का प्रयास किया है। हम कोई बात दुहराना नहीं चाहते हैं और इसलिए हम इस मसले पर जो कुछ सोचते हैं, उसके कुछ अलग पहलुओं को सामने रखना चाहेंगे।

सहिष्णुता के विरुद्ध और असहिष्णुता के पक्ष में

आज हमारे सामने जो तमाम समस्याएँ हैं, उन्हें असहिष्णुता की समस्या के तौर पर पेश किया जाता है। असमानता, अन्याय और शोषण-उत्पीड़न की समस्याओं को भी सहिष्णुता और असहिष्णुता की छद्म ‘बाइनरी’ में विचारधारात्मक तौर पर अपचयित व विनियोजित किया जाता है। इस तर्क के अनुसार, इन तमाम समस्याओं का समाधान मुक्तिकामी राजनीति नहीं है, बल्कि सहिष्णुता है। यह पूरी तर्क प्रणाली वास्तव में उत्तरआधुनिक पूँजीवाद के बहुसंस्कृतिवाद की तर्क प्रणाली है। इसे ज़िज़ेक ने ठीक ही नाम दिया है-राजनीति का संस्कृतिकरण (culturelization of politics)। सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक अन्तरविरोधों का सांस्कृतिक अन्तर (difference) के रूप में नैसर्गिकीकरण और सारभूतीकरण कर दिया जाता है। वे विभिन्न “जीवन पद्धतियों” और “संस्कृतियों” के अन्तर के तौर पर पेश किये जाते हैं। ये ऐसे अन्तर हैं जिन्हें दूर नहीं किया जा सकता है, जिन पर विजय नहीं पायी जा सकती है। ऐसे में आपके पास, ऐसा प्रतीत होता है, दो ही विकल्प बचते हैं- इन अन्तरों को ‘टॉलरेट’ किया जाय या न ‘टॉलरेट’ किया जाय! और अगर हम अधिक करीबी से देखें तो हम पाते हैं कि ये वास्तव में दो विकल्प हैं ही नहीं! ये एक ही विकल्प है। इस प्रकार की कोई भी सहिष्णुता एक पत्ता टूटने से असहिष्णुता में तब्दील हो सकती है। एक बुत के टूटने या गाय के मरने से सहिष्णु के असहिष्णु बनते देर नहीं लगती है। ऐसी सहिष्णुता बेहद नाजुक सन्तुलन पर टिकी होती है। क्या आज पूरे यूरोप में बहुसंस्कृतिवाद का संकट और हमारे देश में साम्प्रदायिक फासीवाद का उभार इसी नाजुक सन्तुलन के अस्थिर हो जाने के चिन्ह नहीं हैं? हमें इस छद्म युग्म को ही नकारना होगा। वॉल्टर बेंजामिन से कुछ शब्द उधार लेकर बात करें तो राजनीति के इस संस्कृतिकरण या सौन्दर्यीकरण का जवाब हमें संस्कृति और सौन्दर्य के राजनीतिकरण से देना चाहिए;एक ऐसी राजनीति से देना चाहिए जो मानव-मुक्ति की राजनीति हो। ऐसी राजनीति किसी भी सूरत में ‘सहिष्णु’ नहीं हो सकती है; वह संघर्ष के ज़रिये अन्तरविरोधों के समाधान की राजनीति ही हो सकती है; ऐसी राजनीति ‘सहिष्णुता’ के नाम पर पार्थक्यपूर्ण असम्पृक्तता (segregative disengagement) की राजनीति नहीं होगी, बल्कि बेहद उथल-पुथल भरे, अन्तरविरोधों और टकरावों से भरी सम्पृक्तता की राजनीति ही हो सकती है। ऐसी राजनीति ‘डिसइंगेज’ करके ‘टॉलरेट’ करने की वकालत नहीं कर सकती, बल्कि ‘इंगेजिंग इण्टॉलरेंस’ (फासीवादी ‘डिसइंगेज्ड इण्टॉलरेंस’ के बरक्स) की राजनीति होगी।