बाबाडम और माताडम: दिव्यता के नये कामुक और बाज़ारू अवतार
बाबा रम्बल-टम्बल
राधे माँ की जय हो! और ऐसे तमाम माताओं और बाबाओं की जय हो जिनके कामुक अवतारों ने तमाम भक्तों (व्यापारियों, दलालों, ठेकेदारों, थर्ड-ग्रेड बॉलीवुड स्टारों, टीवी कलाकारों, मन्त्रियों, अधिकारियों, इत्यादि) के लिए दिव्यता को पहले से भी ज़्यादा पहुँच के भीतर ला दिया है! क्या आप धार्मिक हैं? क्या आपको पाप-पुण्य, नर्क-स्वर्ग का भय है? क्या आप अपनी उपभोक्तावादी जीवन-शैली को नहीं छोड़ पाते हैं और साथ ही अपने धार्मिक भयों के कारण हमेशा अपराध-बोध में जकड़े रहते हैं? क्या आपको लगता है कि इहलोक में सादा जीवन परलोक में आपकी अच्छी नियति को सुनिश्चित करेगा? तो आप बेकार परेशान हैं! अब आपको किसी अपराध-बोध का तनिक भी बन्दी होने की आवश्यकता नहीं है। पहले ही कई बाबाओं और गुरुओं ने भारत के खाते-पीते, अघाये हुए, उपभोक्तावाद की पीप में नहाये हुए व्यापारिक और अन्य नवधनाढ्य वर्गों को इस अपराध-बोध से मुक्त करने की परियोजना पर काम करना शुरू कर दिया था। लुच्चई-लफ़ंगई के बेनाम बादशाह ओशो रजनीश ने यह कार्य कुछ दशकों पहले ही शुरू कर दिया था। सम्भोग को समाधि का रास्ता बताने वाले और भारतीय मध्यवर्ग के भक्तों के मन से यौन-कुण्ठा और यौनिक व कामुकता के विषयों पर अपराध-बोध को समाप्त करने का कार्य शुरू करने वाले, सौ मर्सिडीज़ के काफ़िले के साथ चलने वाले ओशो ने हिन्दू धर्म को भारत में पूँजीवाद के विकास के साथ सहभोग योग्य बनाने को लेकर काफ़ी मेहनत की थी। लेकिन अभी भी प्रतीकों व लक्षणों के स्तर पर हिन्दू धर्म के पुराने रूपों का असर मौजूद था। दूसरी बात यह कि ओशो का पंथ तमाम दिलचस्प कारणों से कुछ बदनाम हो गया और ‘शरीफ़’ टटपुँजियों को इसके द्वारा फैलाये गये व्याभिचार और ‘लिबर्टिनिज़्म’ से कुछ असुविधा होने लगी। इसके बाद, ओशो की ही तर्ज़ पर श्री श्री रविशंकर का ‘आर्ट ऑफ लिविंग’ शुरू हुआ लेकिन कुछ कम स्वच्छन्दतावाद और कुछ कम नंगई के साथ। लेकिन परियोजना वही है। धर्म के शुद्धतावादी रूपों और लगातार विकसित होते नंगे उपभोक्तावादी पूँजीवाद के बीच के विरोधाभास को कम करना। धन और समृद्धि के साथ जुड़े अपराध को ख़त्म करना धर्म के रक्षण और संरक्षण के लिए ज़रूरी था।
लेकिन 1990 के दशक के उत्तरार्द्ध और विशेष तौर पर 2000 के दशक में इस क्षेत्र में कुछ ऐसे ‘पाथब्रेकिंग’ प्रयोग हुए हैं जिन्होंने सभी प्रेक्षकों की आँखों को चुँधिया दिया है। दिव्यता का प्रकाश अब श्वेत नहीं बल्कि सुर्ख़ लाल हो गया है, एकदम राधे माँ के लिपस्टिक, नेल पेण्ट और मिनी स्कर्ट के समान! धर्म अब शेर, घोड़े, भैंस, गधे या चूहे पर नहीं सवार है। बाबा राम रहीम के समान वह किसी ‘बिग ब्वॉय बाइक’ पर सवार होकर आता है; ब्रेसलेट, टैटू, गॉगल्स और हैरेम पैण्ट्स पहने हुए!
भारत में जहाँ हिन्दू बहुदेववाद, मूर्ति पूजा आदि का प्रचलन सदियों से है, वहाँ किसी इंसान को ही देवता के रूप में स्थापित कर देना कोई नयी चीज़ नहीं है। लेकिन किस प्रकार की नयी दिव्यता स्थापित होती है, यह कोई ‘रैण्डम’ चीज़ नहीं है। हर दौर में पैदा की जाने वाली दिव्यता के रूपों पर उस दौर के सामाजिक-आर्थिक और साथ ही राजनीतिक व सांस्कृतिक परिवर्तनों और प्रक्रियाओं की छाया साफ़ तौर पर देखी जा सकती है। अलग-अलग दौरों ने साईं बाबा, ओशो, ‘आर्ट ऑफ़ लिविंग’, आसाराम बापू, आदि को पैदा किया था। आज के दौर के तमाम बाबाओं व माताओं के उदय में भी हम आज के भारतीय पूँजीवादी समाज के प्रतिबिम्बन को देख सकते हैं।
नयी आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद से भारतीय समाज की संरचना में कई अहम परिवर्तन हुए। जहाँ एक ओर सर्वहाराकरण की अद्वितीय गति से मज़दूर आबादी के आकार में ज़बर्दस्त बढ़ोत्तरी हुई, वहीं उतनी गति से तो नहीं मगर निरपेक्ष तौर पर देखें तो एक खाते-पीते उच्च मध्य वर्ग के आकार में भी अभूतपूर्व वृद्धि हुई। यह खाता-पीता मध्य वर्ग पिछले लगभग ढाई दशकों में भारतीय पूँजीवादी व्यवस्था के नये और मज़बूत सामाजिक अवलम्ब के तौर पर पैदा हुआ है और इसकी तादाद 30-35 करोड़ से कम नहीं है। पूँजीवादी व्यवस्था ने इसे वित्त पूँजी द्वारा पोषित ऋण-समर्थित बूम द्वारा ज़िन्दगी की हर नेमत दी हैः घर, गाड़ी, तमाम उपभोक्ता सामग्रियाँ। भारतीय उच्च मध्य वर्ग के लिए इस उपभोक्तावादी क्रान्ति के सम्पन्न होने का अर्थ था कई मायने में एक नयी बाज़ारू पूँजीवादी जीवन-शैली का उदय। सामान पहले भी इंसान से ज़्यादा अहम थे, लेकिन पब्लिक-सेक्टर पूँजीवाद के दौर में पूँजीवादी समाज की सच्चाई को कोई खुलकर बोलता नहीं था। अब इस सच्चाई को फिल्मों, प्रचार, म्यूज़िक वीडियो, तक में खुलकर और नंगे तौर पर बोला जा रहा है। इस नये परिवर्तन के साथ देश में संस्थाबद्ध धर्म के कुछ अन्तरविरोध पैदा होने लाज़िमी थे। आर्थिक आधार में होने वाले परिमाणात्मक मगर महत्वपूर्ण परिवर्तनों को अधिरचना के तमाम क्षेत्रों में अभिव्यक्त होना ही था और धर्म इनमें से ही एक क्षेत्र है। आज जिस प्रकार के बाबाओं और माताओं के उदय को हम देख रहे हैं वह भारत के नये उच्च व उच्च मध्यवर्ग की दिव्यता की माँग को पूरा करते हैं। निश्चित तौर पर, इन नये रूपों के उदय से तमाम अखाड़ों के सन्यासियों को कुछ असुविधा हो रही है। मगर ये नये बाबा और माता बड़े पैमाने पर खाए-पिये-अघाये उच्च व उच्च मध्यवर्ग को आकर्षित कर रहे हैं। इन वर्गों में भी सबसे ज़्यादा व्यापारिक वर्ग, प्रॉपर्टी डीलर, थर्ड ग्रेड सिने सितारे, टीवी कलाकार, मन्त्री, दल्ले आदि प्रमुखता के साथ देखे जा सकते हैं। लेकिन इसके अलावा भी उच्च मध्यवर्ग के तमाम लोग राधे माँ की दिव्यता के लाल प्रकाश में नहाते देखे जा सकते हैं।
नवउदारवादी और भूमण्डलीकरण के दौर के पूँजीवाद ने जिन बाबाओं और माताओं को पैदा किया है उनमें सबका ही अलग से विशिष्ट अध्ययन किया जा सकता है, मगर राधे माँ इसमें विशेष तौर पर ध्यानाकर्षित करती है। राधे माँ अपने भक्तों की माँगों को लेकर काफ़ी उदार हैं और उन्हें बिना कहे समझ लेती हैं। वे अपने धनी धन्धेबाज़ भक्तों को तो विशेष तौर-तरीकों से आशीर्वाद देती हैं! उनमें से एक भक्तों की गोद में चढ़ जाना, उन पर ‘लैप डांस’ करना, चुम्बन लेना भी शामिल है! राधे माँ अपने भक्तों को एक बेहद इहलौकिक विकल्प मुहैया कराती हैं और बताती हैं कि दिव्यता को हमेशा पारलौकिक रूपों, कपड़ों या रंग में सराबोर होने की आवश्यकता नहीं है! राधे माँ का बुनियादी सन्देश यह है कि दिव्यता के पीछे का बैकग्राउण्ड म्यूज़िक का हमेशा भजन होना आवश्यक नहीं है; उसके पीछे मन्त्रोच्चार होने की आवश्यकता नहीं है; जहाँ तमाम बाबा व माता अपने भक्तों और अपने बीच एक किस्म के पदानुक्रम को बनाये रखते हैं और दिव्यता के सुदूर होने का अहसास पैदा करते हैं, वहीं राधे माँ के बेहद निकटवर्ती दिव्यता का विकल्प प्रस्तुत करती है! वह परलोक, भक्ति, दिव्यता और खाऊ-पियू उपभोक्तावाद के बीच का अन्तरविरोध समाप्त कर देती हैं। यह आज के नग्न उपभोक्तावादी उच्च मध्यवर्ग को भाता है।
बाबाडम और माताडम के बाज़ार का भी एक राजनीतिक अर्थशास्त्र है। वहाँ भी किसी भी अन्य पूँजीवादी बाज़ार के समान प्रतिस्पर्द्धा है। ऐसे में एक नये उपभोक्ता आधार को पैदा करने नयी माँग को समझने को अनिवार्य बना देता है। राधे माँ और इसी प्रकार के नये बाज़ारू बाबाओं और माताओं का उदय इसी माँग की आपूर्ति है। लेकिन इस बाज़ार में भी, ठीक पूँजीवादी समाज के ही समान स्त्रियों की स्थिति अधीनस्थ है और राधे माँ की परिघटना इस बात को ही सिद्ध करती है। स्त्रियों की दिव्य शक्ति का स्रोत हर-हमेशा उसके कुमारी (वर्जिन) होने में निहित होता है मिसाल के तौर पर दुर्गा या काली। किसी पुरुष देवता की पत्नियाँ हर-हमेशा शान्त और निर्मल भाव-मुद्रा में चुपचाप खड़ी या बैठी रहती हैं! एक दौर में सन्तोषी माँ का कल्ट भी पैदा हुआ था और इस पर आयी हिन्दी फिल्म ने इसे काफ़ी बढ़ावा दिया था। लेकिन सन्तोषी माँ का काम घर के झगड़े और कलह निपटाने तक ही सीमित था। उदारीकरण से पहले के दौर में इस प्रकार की देवियों के कल्ट ही निर्मित किये जा सकते थे और जो माताएँ पैदा होती थीं, उनकी धार्मिक वैधता भी इन्हीं कल्टों से निकलती थी। लेकिन उदारीकरण के बाद के दौर में औरतों का मालकरण व वस्तुकरण भी बड़े पैमाने पर हुआ है और इसके अंग के तौर पर ही उनका एक पूँजीवादी समाजीकरण भी हुआ है। इस दौर में शक्ति पंथ की कुमारी देवियों की प्रासंगिकता माताडम के धन्धे में बढ़ना स्वाभाविक है। यह सच है कि राधे माँ स्वयं शादीशुदा है, लेकिन प्रतीकात्मक और लक्षणात्मक स्तर पर उसके तमाम प्रोजेक्टेड रूप उसी इमेजरी को उभारते हैं जो कि एक कुमारी देवी की यौनिक-कामुक व शारीरिक शक्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं। लेकिन हूबहू उसी रूप में नहीं जिस रूप में प्राचीन हिन्दू धर्म में होता है। इसका एक नया आधुनिक नवउदारवादी अवतार हमें राधे माँ के तौर पर दिखता है। इण्टरनेट पर लाल मिनी ड्रेस और लाल कैप में राधे माँ की जो तस्वीरें फैल गयीं थीं, उनमें राधे माँ का जो रूप है वह एक डॉमिनेट्रिक्स जैसा है। ज़ाहिर है यह रूप और साथ ही एक आधुनिक ड्रेस में बॉलीवुड के गानों पर नृत्य करते हुए एक बाग़ में उछल-कूद मचाना नवउदारवादी युग के उच्च मध्यवर्ग की पतित फैंसीज़ द्वारा प्रस्तुत माँगों की आपूर्ति करता है।
कुल मिलाकर, राधे माँ की परिघटना नवउदारवादी पूँजीवाद के दौर में भारत में बाबाडम और माताडम के पूरे धन्धे में आने वाले संरचनात्मक परिवर्तनों को प्रतिबिम्बित करता है। यह केवल यह दिखलाता है कि धर्म का पूरा धन्धा भी अपने सामाजिक-आर्थिक परिवेश के अनुसार बदलता रहता है और राधे माँ नयी आर्थिक नीतियों के बाद के दौर में अस्तित्व में आये नवउदारवादी पूँजीवाद के परिपक्व होने की पैदावार है। यह इस दौर के सबसे घिनौने, पतित, उपभोक्तावादी और नवउदारवादी पूँजीवाद के सामाजिक अवलम्ब की भूमिका निभाने वाले उच्च मध्यवर्ग की “दिव्यता” की विशिष्ट माँग की आपूर्ति है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-अक्टूबर 2015
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