भारत के शोध संस्थानों का संकट

सनी

सरकार ने पिछले साल सी.एस.आई.आर. की प्रयोगशालाओं और इससे सम्बद्ध संस्थानों के वित्त में 50 प्रतिशत की कटौती की है। मानव संसाधन मंत्रलय ने इन संस्थानों को इस कटौती से पैदा हुई आर्थिक कमी की पूर्ति के लिए बाज़ार में मौजूद तमाम निजी कम्पनियों का दरवाजा खटखटाने के लिए कहा है। यानी पहले से ही संकटग्रस्त भारतीय शोध संस्थान को अब टाटा और बिड़ला की कम्पनियों की ‘आर एण्ड डी विभाग’ में तब्दील कर दिया जाएगा! यह कदम सी.एस.आई.आर. के वैज्ञानिकों ने देहरादून में आयोजित एक ‘चिन्तन शिविर’ में चिन्तन करने के बाद लिया है। वैज्ञानिकों को यह बोधि ज्ञान भी प्राप्त हुआ कि उन्हें सरकारी फण्ड की निर्भरता से हर सरकारी संस्थान को पूरी तरह मुक्ति पा लेने के लिए तैयार करना चाहिए। दूसरी तरफ़ इन्होंने देहरादून के निर्णय अनुसार ही अपने शोध को स्वच्छ भारत अभियान, मेक इन इन्डिया, स्किल इन्डिया आदि से जोड़ने की घोषणा की है। यानी कि एक तरफ़ शोध संस्थानों को बाज़ार से जोड़ा जाएगा वहीं दूसरी तरफ़ सरकार की प्रचार योजनाओं से जोड़ा जाएगा। विज्ञान कांग्रेस को पहले ही हिन्दुत्व के प्रचार के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है और अब “स्‍वतंत्र” शोध संस्थानों को भी सरकार अपनी प्रचार मशीनरी का हिस्सा बना रही है। साफ़ है कि यह विज्ञान व इतिहास के पुर्नपाठ (संघी पुर्नपाठ पढें) को आम जन में बैठाने का काम करने के लिए ही किया जा रहा है। दूसरी तरफ़ इन संस्थानों को बाज़ार के हाथों में सौंपकर इन्हें बड़ी इज़ारेदार कम्पनियों के तकनीक विकास व शोध के लिए इस्तेमाल में लाया जाएगा। यह वित्त कटौती सिर्फ आर्थिक तौर पर सरकार का वैज्ञानिक ‘फ्रण्ट’ से पीछे हटना नहीं दिखाता है बल्कि इस सरकार का आम तौर पर पब्लिक सेक्टर के शिक्षा संस्थानों के एक दौर में खड़े हुए ढाँचे को निजी सेक्टर के हाथों में हस्तान्तरण को ही दिखाता है। साथ ही इन्हें फासीवादी प्रचार तंत्र के अन्तर्गत काम में आने वाले तंत्र में तब्दील किया जा रहा है। भारत रत्न जीत चुके सी.एन. राव से लेकर तमाम वरिष्ठ वैज्ञानिकों ने भारत के शोध संस्थानों व उनमें हो रहे दोयम स्तर के शोध पर चिन्ता जताई है। भाजपा  सत्ता में आने के बाद से ही भारतीय शोध संस्थानों के बचे हुए ढाँचे को निजी हाथों में सौंपकर इन्हें बर्बाद करने में तुली है।

निजी कम्पनियों पर आर्थिक निर्भरता शोध को पूरी तरह मुनाफे की हवस में पागल पूँजीपतियों के रहमोकरम पर छोड़ देगी। वैसे ये शोध संस्थान पहले भी “स्‍वतंत्र” नहीं थे क्योंकि हर स्वतंत्रता सापेक्ष होती है। भारत के शासक वर्ग ने शोध संस्थानों को उतनी ही स्वतंत्रता दी जितनी उसे ज़रूरत थी। आज़ादी के बाद 1950 से लेकर 1970 तक विज्ञान व तकनीकी संस्थानों का ढाँचा खड़ा हुआ जिसके तहत सी­.एस.आई.आर, डी.आर.डी.ओ., डी.ई.ए., आई.आई.टी. आदि का गठन किया गया जिनका मूल लक्ष्य भारत को विज्ञान व तकनीक के स्तर पर स्वतंत्र बनाना था। आज इसी ढाँचे को वित्त कटौती के जरिए निजी हाथों में सौंपा जा रहा है क्योंकि आज भारतीय पूँजीपति वर्ग को अपनी कम्पनियों में बेहतर मशीनें व वे तकनीकें चाहिए जो श्रम की उत्पादकता को और बढ़ा सकती हो। हालांकि पहले भी ये संस्थान थोड़ा-बहुत जनसुविधाओं के हित के लिए तो प्रमुखतः मुनाफे की सेवा के लिए ही थे। उस समय फिर भी एक हद तक विज्ञान का कोई सामाजिक सरोकार दिखता था, लेकिन भारतीय पूँजीवाद में पब्लिक सेक्टर उपक्रमों की यह मंज़िल पूँजीपति वर्ग ने सुनियोजित तौर पर अपनायी थी ताकि जनता के संसाधनों, मेहनत के बूते वह ढाँचा खड़ा किया जा सके, जिसका बाद में निजी पूँजीपति मुनाफ़ा पीटने के लिए इस्तेमाल कर सकें। प्रतीतिगत तौर पर, पब्लिक सेक्टर का वह दौर बेहतर नज़र आता है। परन्तु इस बात को ध्यान में रखकर कि ये दोनों ही पूँजीवाद की ही दो सरकार के रूप हैं। हमें अगर सही मायने में विज्ञान को मानवता की सेवा में लगाना है तो हमें इनके बरक्स एक वैकल्पिक व्यवस्था की बात करनी होगी। लेकिन इस निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले हमें यह स्पष्ट करना होगा कि क्यों मौजूदा व्यवस्था में शोध संस्थान मानवता की सेवा की जगह पूँजी की सेवा में लगे हैं और किस तरह यह विज्ञान के विकास में बाधा बनता है।

भारत के शोध संस्थानों में ‘संकट’

भारत में शोध की स्थिति को अगर एक शब्द में लिखने को कहा जाए तो इसे जर्जर कहा जा सकता है। भारत के शोध के बारे में प्रतिष्ठित शोध पत्रिका ‘नेचर’ में छपे लेख के अनुसार भारत का शोध “विज्ञान-केन्द्रित देशों के मुकाबले में कम साइटेशन (किसी शोध पर्चे को अन्य शोध पर्चों में जितनी बार उद्धृत किया जाता है) उत्पन्न करता है। इस मायने में यह चीन व ब्राजील से भी पीछे है। देश के आकार के अनुसार भारत के पास बेहद कम वैज्ञानिक हैं; भारत में जन्मे कई शोधकर्ता विदेश में बस जाते हैं तो बेहद कम विदेशी शोधकर्ता ही भारत आते हैं।” इसकी जर्जर स्थिति को व्याख्यायित करने के लिए हम कुछ आँकडें देख सकते हैं।

शोध पत्रिका ‘नेचर’ के अनुसार भारत में हर साल काफ़ी शोध पत्र व आलेख निकलते हैं। यह दुनिया में दूसरे नम्बर पर सबसे अधिक आलेख निकालता है। परन्तु इन शोध आलेखों का स्तर बेहद पिछड़ा हुआ है। किसी भी पर्चे के स्तर का सूचक उसकी साइटेशन संख्या होता है और भारत में छप रहे पर्चों का साइटेशन बेहद कम है। भारत में दस हज़ार की आबादी में केवल 4 शोधकर्ता हैं जिस मायने में भारत में चिले व केन्या से भी पीछे है। पर फिर भी भारत का यह शोध तंत्र दुनिया के विराटतम तंत्रों में शामिल है। भारत को विश्व में तीसरे पायदान पर सबसे अधिक शोधार्थियों को डिग्री मिलती हैं। एक शोधार्थी पर भारत में 171000 डॉलर खर्च किए जाते हैं जिस मायने में यह चीन के बराबर है। परन्तु फिर भी भारत के शोध का स्तर चीन से बेहद पिछड़ा हुआ है। यानी दिक्कत सिर्फ शोध में खर्च किए जा रहे पैसों की नहीं है। दिक्कत भारत के दोयम स्तर के शोध संस्थानों में है। यह इस बात से भी स्पष्ट हो जाता है कि भारत से जाने वाले शोधार्थी विदेशों में सापेक्षिक तौर पर अच्छा शोध कर रहे हैं। सापेक्षिक तौर पर इसलिए कि विदेश में भी शोध का स्तर भी फिलहाल बहुत उत्साहजनक नहीं है क्योंकि वैश्विक स्तर पर भी विज्ञान ‘संकट’ में है और भारत की शोध की संस्थाएँ भी इसी संकट में अपनी विशिष्टताओें के साथ पतन का शिकार हैं। पतन और संकट का मतलब यह नहीं कि विज्ञान थम गया है और किसी भी किस्म का विकास नहीं हो रहा है। विकास तो हो रहा है परन्तु वह बेहद बाधित है। इस संकट को समझने के लिए हम भारत के विज्ञान के उदाहरण को समझ लेते हैं जिससे कि इस संकट की आम परिघटना को समझा जा सके।

भारत के शोध संस्थानों की ‘दिक्कत’ कहाँ है?

ग़ौरतलब है कि दिक्कत यहाँ की शोध व्यवस्था और पूरी संरचना में ही है। औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था के गर्भ से निकले भारतीय पूँजीवादी शैक्षणिक व शोध संस्थानों के ढाँचे पर लम्बी ब्रिटिश गुलामी के निशान थे और इसके बौनेपन के जीन्स इसी औपनिवेशिक संरचना में ढल कर बने थे। भारत की सम्पूर्ण शोध संस्थानों की संरचना का मुख्यतः 1950 से 1970 के दौर में खड़ी हुई। आज़ादी से पहले अंग्रेज़ों ने भारत में शोध संस्थानों को न के बराबर प्रोत्साहन दिया। सीवी रमन, साहा, बोस का विज्ञान इस भारत की मौजूदा शोध संरचना में नहीं बल्कि गुलामी के दौर में पैदा हुआ था। रमन, साहा, बोस के शोध को अपनी वैज्ञानिक क्षमताओं को ऊँचाइयों तक ले जाने का ईंधन प्रयोगशालाओं की पंगु हालत नहीं बल्कि आज़ादी के लिए किए संघर्ष से प्राप्त ऊर्जा थी। सी.वी. रमन का कहना कि “उनकी नकल मत करो” में इस आज़ादी के लिए किए संघर्ष से प्राप्त ऊर्जा का प्रतिबिम्बन है। आज़ादी के बाद खड़े किए शोध संस्थान में सभी तत्व अंग्रजी गुलामी के दौर में हासिल की गई नौकरशाही से सोखे गए थे। इन संस्थानों का मकसद पश्चिम में विकसीत किए गए वैज्ञानिक संधान को समझ कर उन्हें भारत के लिए लागू करना था। स्वतंत्र भारत के शोध का जो ढाँचा खड़ा हुआ उसने प्रतिभाओं का विकास नहीं किया बल्कि उन्हें क्लर्कियत की ट्रेनिंग देकर सबसे माहिर क्लर्क बना दिया। वैसे ये क्लर्क विदेशों में जाकर बेहतरीन वैज्ञानिक बने हैं। यह ग़ौर करने वाली बात है कि भारत के कुल शोधार्थी में 40 प्रतिशत विदेश में हैं। आज भारत के सबसे अधिक प्रतिभावान वैज्ञानिक अमरीका या यूरोप में चले जाते हैं जो कि इसी समस्या की अभिव्यक्ति है।

निश्चित तौर पर भारत में भी तमाम वैज्ञानिक हैं जो अभी भी बुनियादी शोध से जुड़े कामों में महारत रखते हैं परन्तु ये महज अपवाद हैं नियम नहीं। यह सुनने में अति लग सकता है परन्तु सच्चाई इससे भी ज्यादा बदसूरत है। हम भारत के शोध संस्थानों के गलियारों पर एक नज़र डालें तो यह बात स्पष्ट हो जाती है।

भारत के क्लर्क-वैज्ञानिक

आज भारत के सबसे बड़े संस्थानों में अधिकतर वैज्ञानिक सिर्फ अपने उपकरणों के लिए बिल पास करवाने में, ट्रेन के किराए के लिए पैसा पाने के लिए, रिसर्च के सामान पाने के लिए अपने डिपार्टमेण्ट में व यूनिवर्सिटी में ही उलझे रहते हैं। इससे फुरसत मिलती है तो असिस्टेन्ट से एसोसिएट, एसोसिएट से प्रोफेसर और इसके बाद अकादमिक पद जैसे डीन, प्रॉक्टर, वार्डन या फिर वीसी पद हासिल करने में भी दिमाग का बड़ा हिस्सा खर्च होता है। वहीं शोध छात्र भी फोटोस्टेट के पन्नों का बिल पास कराने से लेकर पेन ड्राइव खरीदने व प्रोफेसर के बिल पास करवाने, किसी तरह से नामी शोध पत्रिका में शोध पत्र छपवाकर विदेश जाने की जुगत में या प्रोफेसर की दुआ लेकर कॉलेजों में लेक्चरर लगने के चक्कर में उलझे रहते हैं। इन कामों के बाद जो बड़ा हिस्सा प्रोफेसरों का समय खाता है वह शेयर मार्केट के भाव पर बात करना, नए फ्लैट की जगह व नई गाड़ियों के बारे में तय करने में जाता है। ग़ौर करने की बात है कि यह सिर्फ मेरठ के चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय का ही नहीं टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ फण्डामेंटल रिसर्च तक का भी यही हाल है।

आई.आई.टी. और आई.आई.एस.सी. के प्रोफेसरों के घरों में घुसते ही दरवाजों पर गणेश और शुभ लाभ आपका स्वागत करते हैं। निजी ज़िन्दगी में हर किस्म के कर्मकाण्ड करने वाले ये वैज्ञानिक अपनी प्रयोगशालाओं में अणु-परमाणु की संरचना में ब्रह्म को देखते हैं। कम्पयूटेशन की प्रयोगशलाओं में जहाँ दीवाली पर सर्वर पर टीका लगाया जाता हो तो सोचा जा सकता है कि रिसर्च में क्या गुल खिलाया जाता होगा! अधिकतर क्वाण्टम मैकेनिक्स व सापेक्षिकता सिद्धान्त के शोध पर्चों में मौजूदा समय के सबसे उन्नत शोध की महज़ प्रतिलिपि शोध होता है बस कुछ बुनियादी चर राशियाँ बदल दी जाती हैं और फिर ‘हिट एण्ड ट्रायल’ के जरिए ‘डाटा’ या समीकरण निकालकर नया पर्चा छापा जाता है। यह बात दीगर है कि शोध आलेख छपवाने में भी आपके ऊँचे पदों पर बैठे सम्पर्क काम आते हैं। वैज्ञानिक शोध का ढाँचा ही कुछ ऐसा है कि इसमें लगे हुए शोधार्थी से लेकर प्रोफेसर आदि सभी बस तिकड़मों और चापलूसी में माहिर होते हैं। हाँ, इसके अपवाद ज़रूर हैं पर ये आम नियम को ही सिद्ध करते हैं। संघर्ष की जगह समझौते के कारण मिली आज़ादी के बाद इस किस्म के ही चरित्र पैदा हो सकते थे और हुए भी।

भूमण्डलीकरण और नवउदारवाद के दौर में विज्ञान को पहले हमेशा से ज़्यादा पूँजी का गुलाम बना दिया गया है। ऐसे में आज यह हाल सिर्फ भारत का नहीं बल्कि लगभग हर देश का है। लाखों वैज्ञानिक अपनी प्रयोगशलाओं में क्लर्कियत में लगे हैं। दरअसल यह हिमखण्ड का ऊपर दिखाई दे रहा भाग है। वैज्ञानिकों की क्लर्कियत भारत व तमाम वैज्ञानिक संस्थानों के पहले से मौजूद ढाँचे में विकसित होती है। शोध के लिए किसी भी वैज्ञानिक को जो फण्ड चाहिए उसे वह सी.एस.आई.आर., यूजीसी, डीएसटी सरीखी संस्थाओं से प्राप्त करता है। इसमें भी गौर करने वाली बात है कि ऐसे प्रोजेक्ट मिलने में भ्रष्ट ढाँचे के भीतर वैज्ञानिकों के फ्सम्बन्ध” ही काम आते हैं। वैज्ञानिकों फाइनेंस विभाग में या बैंक के एक क्लर्क की तरह ऑफिस फाईलें सँभालते रहते हैं और बिल पास करने में सबसे सृजनात्मकता से काम करते हैं। पर इस क्लर्कियत का कारण क्या है? ऐसा क्या था जिस कारण स्विट्जरलैण्ड़ में काम करने वाला एक मामूली सा जर्मन क्लर्क दुनिया का महानतम वैज्ञानिक बन गया तो वहीं भारत के सबसे बेहतरीन वैज्ञानिक दिमाग क्‍लर्कों में तब्दील हो जाते हैं?

क्लर्कियत का खाका बुनने वाली मशीन

ऊपर प्रस्तुत तस्वीर में वे कारण नहीं उभरकर आये हैं जो कि इन परिस्थिति के पीछे काम कर रहे हैं। दरअसल संस्थानों के कॉरिडोर के अन्दर हो रही इस परिघटना को हमें डी.एस.टी. के मानदण्डों, सरकार की प्राथमिकता से, उद्योग की प्राथमिकता से जोड़कर समझना होगा। जब हम इस धरातल से इस समस्या को देखते हैं तो यह समझ आता है कि विज्ञान के फण्ड का आबंटन मुख्यतः हथियारों में, कंम्पयूटिंग के संसाधनों में होता है जिनका इस्तेमाल सर्विलेंस, डाटा एनालिसिस आदि में होता है। यानी उत्पादन शक्ति को तबाह करने के लिए ही मुख्यतः विज्ञान का प्रयोग किया जा रहा है। शोध समाज के लिए नहीं बल्कि मुनाफे की मशीनरी को चलाने के लिए हो रहे हैं। इस मुनाफे की मशीन की चाल पूँजी द्वारा संचालित होती है जो कि अन्त में विज्ञान को संचालित करती है। असल में वैज्ञानिकों को भी इस पूँजी के अंधी छछुन्दर की पूँछ पकड़कर ही शोध करना होता है। किसी भी शोध संस्थान के लैब पूरी तरह से खण्ड-खण्ड में बँटे हुए शोध आयोजित करते हैं। एक ही शोध संस्था में भौतिकी की एक शाखा के वैज्ञानिक दूसरी शाखा के बारे में समझ नहीं रखते हैं। प्रयोगशाला में काम करते हुए सहकार की जगह प्रतियोगिता की भावना काम करती है। प्रयोगशाला के शोधार्थियों को दूसरे शोधार्थी के शोध विषय का ज्ञान नहीं होता। एक शोध संस्थान में ही तमाम वैज्ञानिक एक दूसरे से प्रतियोगिता रखते हैं। इनका शोध एकांगी होता है क्योंकि आम तौर पर एक वैज्ञानिक को अपने शोध के विषय के उद्भव के बारे में कोई जानकारी तक नहीं होती है।

दर्शन, इतिहास व सामाजिक विज्ञान से कटे वैज्ञानिक ही इस संस्थान की बुनियाद होते हैं। एक संस्थान व दूसरे संस्थान के बीच बेहद सीमित बौद्धिक व्यवहार होता है व नीतियों का निर्धारण करने में किसी शोधार्थी की कोई भूमिका नहीं होती है। निर्धारक तत्व वित्त होता है जो कि शोध को तय करता है। यह सिर्फ भारत की नहीं बल्कि पूरी दुनिया के शोध संस्थानों की कहानी है, हालाँकि भारत की परिस्थिति में इस वैश्विक परिघटना में एक विशेषता भी है। भारत जैसे उत्तर औपनिवेशिक देश में जहाँ आजा़दी किसी क्रान्तिकारी आन्दोलन की गर्मी और उथल-पुथल के ज़रिये नहीं बल्कि औपनिवेशिक पूँजीपति वर्ग और भारतीय पूँजीपति वर्ग के बीच समझौता-दबाव-समझौता की प्रक्रिया से आयी, वहाँ भारतीय मानस की चेतना बेहद पिछड़ी रही जिसका प्रतिबिम्ब यहाँ की बौनी शोध संरचना में दिखता है। आज़ादी के बाद भारतीय पूँजीवाद साम्राज्यवाद के साथ भी चालाकी से समझौते-दबाव-समझौते की नीति पर काम करता रहा और अपनी स्वतंत्रता कायम रखते हुए इसने पब्लिक सेक्टर उद्योग व संरचनात्मक ढाँचा खड़ा किया। अगर उद्योग-निर्देशित विज्ञान व शोध की ही बात करें तो भी न तो भारत का पूँजीवाद अमरीकी या अन्य विकसित पूँजीवादी देशों की बराबरी कर सकता था और न ही इसका विज्ञान ही उतना विकसित हो सकता था। भारत के पूँजीपतियों ने इसका प्रयास ही नहीं किया है।

हर साल कुल घरेलू उत्पाद का 1 प्रतिशत से भी कम ही उच्च शिक्षा पर खर्च किया जाना इसी का प्रतीक है। आज जो पब्लिक सेक्टर की पूरी संरचना खड़ी हुई है वह भ्रष्ट नौकरशाही के समानान्तर चलती है। पब्लिक सेक्टर में इस शोध के लिए वित्त का आबंटन तकनोशाही करती है। यह राज्यसत्ता का विशिष्ट अंग है जो संस्थानों में हो रहे शोध को व्यवस्था की सेवा में लगाता है। भारत में अब तक तमाम तकनोशाहों द्वारा विज्ञान का निर्देशन किया जाता था परन्तु उसे खत्म कर उसके निर्देशक के तौर पर पूँजी को बैठाया जा रहा है। सी.एस.आई.आर. और आई.आई.टी. की प्रयोगशालाएँ अब अम्बानी के रिलायंस के रिसर्च एंड डेवेलपमेण्ट विभाग का काम करने लगेंगी।

मार्क्स ने ‘पूँजी’ में विज्ञान की व्याख्या करते हुए कहा था कि पूँजीवाद के दौर में विज्ञान ऐसी उत्पादक शक्ति में तब्दील कर दिया जाता है जो श्रम से अलग हो जाती है व पूँजी की सेवा में झोंक दी जाती है। यह आज के दौर में विज्ञान का बेहद सटीक मूल्यांकन मालूम पड़ता है। ऊपर हम वैज्ञानिकों की द्वीपनुमा प्रयोगशालाओं की एक तस्वीर को उकेर चुके हैं जो मार्क्स के उक्त उद्धरण की रोशनी में देखने पर और अधिक साफ़ हो जाती है। इन “द्वीपों” की जड़ें आम जनता से कट चुकी है। जनता से अलगाव, उनके जीवन से अलगाव, उनके अनुभवों से अलगाव में क्लर्कों की मशीनरी में क्लर्क-वैज्ञानिक एक अमूर्तन ‘मृत’ विज्ञान पैदा करते हैं। ‘मृत विज्ञान’ विज्ञान की द्वंद्वात्मकता व समाज की ज़रूरतों के अनुसार नहीं वरन पूंजी की छछुन्दरी पूँछ पकड़कर चलता है। यह मानव द्वारा मानव के शोषण के लिए ही इस्तेमाल होता है। ‘मृत श्रम’ यानी पूंजी की सेवा में जुटा विज्ञान भी इसी अर्थ में ‘मृत’ होता है। इसके लिए एक उदाहरण देना माकूल होगा। भारत में कईं लोग बिना पढ़ाई किए पहले आसानी से पीएचडी डीग्री पा लेते थे तो लोग कहते थे कि ‘भई भारत का कुछ नहीं हो सकता है।’ लेकिन अभी एक अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिकों के धड़े को पकड़ा गया है जो कि पैसा लेकर किसी भी शोध पत्रिका मे किसी के भी नाम से शोध पत्र छपवाते थे। पत्रिका के साइटेशन के स्तर से ही काम के दाम तय किए जाते थे!

पूँजीवाद के तहत विज्ञान-पूंजी की सेवा में लगी उत्पादक शक्ति

इस सबको जानने के बाद एक सवाल पर बात करनी ज़रूरी लगती है कि क्या इसका कोई विकल्प है? इसके लिए हमें अपने ‘फोकस लेंस’ को और व्यापक करना होगा व इतिहास पर एक आलोचनात्मक निगाह डालनी होगी। इतिहास का मूल्यांकन करने का अर्थ है कि विज्ञान की आज की बेड़ियाँ जिन्हें हमने ऊपर व्याख्यायित किया है, इनका कारण इतिहास में छिपा हुआ है। हमें इतिहास के अलग-अलग दौरों में आर्थिक, राजनीतिक व सामाजिक बदलावों के कारण विज्ञान में हुए बदलावों का अध्ययन करना होगा। विज्ञान इतिहास के अलग-अलग मंज़िलों जैसे कि आदिम समाज, दास व्यवस्था, सामन्तवाद, विभिन्न प्राक्-पूँजीवादी सामाजिक संरचनाओं और पूँजीवाद तक विकसित होता हुआ आया और समाजवाद के लघुजीवी प्रयोगों में भी विज्ञान ने अद्भुत रफ्तार से तरक्की की। आज हम ऐसे दौर में जी रहे है जहाँ दुनिया भर में समाजवाद के प्रथम प्रयोग गिर गये हैं और पूँजीवाद ने साम्राज्यवादी भूमण्डलीकरण के अपने इस अभूतपूर्व रूप से मरणासन्न, सड़े और परजीवी दौर में दुनिया को युद्ध, तबाही और ग़रीबी में धकेल दिया। इतिहास की इस यात्रा में विज्ञान के विकास के मोटे तौर पर चार-पाँच दौर देखे सकते हैं। जे.डी. बर्नाल इन्हें इस तरह व्याख्यायित करते हैं- आरम्भिक सभ्यता का सृजन, यूनानी विज्ञान सम्बन्धी शोध, पुनर्जागरण का दौर, औद्योगिक क्रान्ति का दौर व 20वीं शताब्दी का दौर। ये सभी दौर समाज के उथल-पुथल या समाज के विकास के दौर थे। इस व्याख्या ने एशिया और अरब विश्व में विज्ञान के विकास के चरणों को नहीं समेटा और यह थोड़ा यूरोकेन्द्रित है, लेकिन बिना इस विषय के विस्तार में जाये हम यह कह सकते हैं कि समाज के आर्थिक संरचना में बदलाव के दौरों में और विकास के दौर में विज्ञान व तकनोलोजी में छलाँग लगाती रही है। विज्ञान व तकनोलोजी उत्पादन शक्ति का ही अभिन्न अंग है जिन्हें पूँजीवाद में मुनाफा पीटने के लिए ही लगा दिया जाता है। यही इसके ठहराव का कारण हैं। इसके ठहराव श्रम से विज्ञान के विभाजन में अभिव्यत्तफ़ होता है। यही वह उत्तिफ़ है जो मार्क्स ने विज्ञान के लिए दी थी- श्रम से कट कर विज्ञान पूँजी की सेवा में लगी उत्पादक शक्ति बन जाता है। मौजूदा दौर में उत्पादक शक्तियों के विकास का ठहराव ही विज्ञान व तकनीक का ठहराव है। यही वह बेड़ी है जो इसके विकास पर पड़ी हुई है। मौजूदा उत्पादन सम्बन्धों के क्रान्तिकारी रूपान्तरण के बिना इस बेड़ी को भी तोड़ा नहीं जा सकता है।

शोध की फण्ड कटौती महज इस बेड़ी के बदलते रूपों को दिखला रहा है। विज्ञान का पूँजी द्वारा खड़ा किया गया मशीनीकृत ढाँचा मुनाफा पैदा करने वाली एक उत्पादक शक्ति है। सामाजिक क्रान्ति द्वारा इसे भंग कर ही विज्ञान की बेड़ियों को मुक्‍त किया जा सकता है। तो क्या अब वैज्ञानिक इस क्रान्ति का इन्तज़ार करें? नहीं! उन्हें भी इस बदलाव की मुहिम का भागीदार बनना होगा। उन्हें पूँजीवादी राज्य द्वारा वैज्ञानिक संस्थाओं को जनता के बीच विभ्रम फैलाने के लिए उपयोग करने के खि‍लाफ सही वैज्ञानिक दृष्टिकोण को लोगों के बीच लेकर जाना होगा। यह काम अनियमित तरीके से नहीं हो सकता है बल्कि एक अभियान के रूप में शुरू कर ही हो सकता है। वैज्ञानिकों को सरल भाषा में छपने पाली पत्रिकाओं के जरिये व जनता के बीच विज्ञान के कार्यक्रमों आदि के जरिये करना होगा। जे.बी.एस. हाल्डेन से लेकर बर्नाल, ताकेतानी, सकाता, गुल्ड, लेविन्स सरीखे जनता के वैज्ञानिकों की विरासत हमारा पथ प्रदर्शित करती हुई खड़ी है। आज भारत के भी सच्चे वैज्ञानिकों को यह पक्ष चुनना होगा।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,नवम्‍बर 2015-फरवरी 2016

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