पेरिस पर आतंकी हमला और “जवाबी कार्रवाई” में साम्राज्यवादियों द्वारा सीरिया में बेगुनाहों की हत्याः आदमखोर साम्राज्यवाद की कीमत चुकाती जनता

लता

पेरिस में 13 नवम्बर को हुए आतंकवादी हमले में 129 लोगों की जाने गयीं और कई लोग घायल हुए। बन्दूकधारी और आत्मघाती हमलावरों ने रेस्तराँ, ‘बताक्लान थियेटर’ और ‘एसतादो दे फ्रांस नेशनल स्टेडियम’ पर हमला किया। ‘बताक्लान थियेटर’ में ‘ईगल ऑफ डेथ मेटल’ का कार्यक्रम चल रहा था और ‘नेशनल स्टेडियम’ में जर्मनी और फ्रांस के बीच दोस्ताना मैच चल रहा था जिसमें फ्रांस राष्ट्रपति फॅान्स्वा ओलान्द भी उपस्थित थे। इन आत्मघाती विस्फोटों और अंधाधुंध गोलीबारी ने पेरिस की शाम को भय, अफ़रातफ़री और दहशत के माहौल में बदल दिया। आम बेगुनाह जनता की जान लेने वाले आतंकवादी हमलों की निन्दा और भर्त्सना जितनी भी की जाये उतनी कम है। इस घटना के कुछ ही पल बाद पूरे विश्व में ख़बर फैल गयी और सभी देश अपने-अपने तरीके से इस घटना की निन्दा करने लगे और फ्रांस के प्रति अपनी एकजुटता का संदेश भेजने लगे। दुनिया भर के लोगों के फ्रांस के झंडे के प्रति निकले इतने भावनात्मक उद्गार को देखकर एक बार यह जानने का मन तो करता है कि क्या कुछ देशों के लोगों की जानें ज़्यादा क़ीमती हैं? पूरे विश्व का बुर्जुआ मीडिया तो साम्राज्यवादी चश्मे से हमें इन घटनाओं को दिखाता है, उसकी ऐसी ही व्याख्या या विश्लेषण प्रस्तुत करता है लेकिन ‘सोशल मीडिया’ पर भी दुनिया भर के लोगों का यह पक्षपात स्पष्ट नज़र आता है। साल 2015 की शुरुआत में ही शार्ली एब्दो के कार्यालय पर हुए हमले और 12 लोगों के मारे जाने के बाद “यो सोई शार्ली” सब का हैश टैग बन गया था लेकिन तीन दिन पहले ही बोकोहरम द्वारा नाइज़ीरिया में 2,000 लोगों के मारे जाने पर कहीं कोई प्रतिक्रिया नज़र नहीं आयी। 3 अप्रैल 2015 को केन्या के कॉलेज में हुए आतंकवादी हमले में 147 लोगों की जानें गयीं, बड़ी संख्या में लोग घायल हुए लेकिन ये ख़बर विश्व स्तर की ख़बर बनना तो दूर ‘सोशल मीडिया’ पर भी अपनी जगह नहीं बना पायीं। ‘सोशल मीडिया’ निश्चिय ही पूर्णरूप से स्वतंत्र अस्तित्व नहीं रखता, यहाँ भी विचार निर्मित किये जाते हैं लेकिन बावजूद इसके जितनी संवेदना और मानवता इस सापेक्षिक रूप से सीमित ‘ओपेन स्पेस’ में कुछ घटनाओं के प्रति लोगों में दिखती है उतनी अन्य घटनाओं के लिए नहीं।

13 नवम्बर की शाम पेरिस में हुए हमले के अगले दिन ‘इस्लामिक स्टेट’ ने इस हमले की ज़िम्मेदारी ली। फ्रांस के राष्ट्रपति ओलान्द ने घोषणा की कि फ्फ्रांस युद्ध में शामिल है” और बिना विलम्ब ‘इस्लामिक स्टेट’ को समाप्त करने का प्रण कई-कई बार दुहराया गया-कहा गया कि सीरिया में चल रही साझा बमबारी में फ्रांस की क्षमता तीन गुना बढ़ायी जायेगी। सीरिया पर पहले से चल रही बमबारी को तीव्र कर फ्रांस ने उसे और भी विनाशकारी बना दिया। इस साझा बमबारी में अभी कुछ दिनों पहले रूस भी शामिल हुआ है। 7 नवम्बर को इस्लामिक स्टेट द्वारा रूस के चार्टर जेट के गिराये जाने और इस हदसे में 224 लोगों के मारे जाने के बाद पुतिन के मुँह से भी यही बात सुनने को मिली थी कि सीरिया पर बमबारी को और सघन किया जायेगा। राका, अलेप्पो, मोसुल, फ़ाजुलाह वे प्रमुख शहर हैं जिनपर बमबारी चल रही है। ये सघनरूप से आबाद क्षेत्र हैं व इन पर हवाई बमबारी किस हद तक किसी आतंकवादी संगठन को नष्ट करने के लिए कारगर होती है यह दीगर बात है लेकिन इस बमबारी में मारी जाने वाली आबादी में बहुत ज़्यादा संख्या आम नागरिकों की है जिसमें बड़ी संख्या में बच्चे और महिलाएँ शामिल हैं।

अभी इस्लामिक स्टेट के अतंकवादियों से ज़मीन पर उतर कर सामना करने के लिए किसी भी साम्राज्यवादी ताकत ने पहल नहीं दिखायी है। उन्हें पता है जब भी सैन्य ताकतों को ज़मीन पर उतारा गया है भारी नुकसान का सामना करना पड़ा है। इसलिए पिछले चार-पाँच सालों से साम्राज्यवादियों ने सभी परेशानियों का एक ही समाधान निकाल लिया है, हवाई हमले! अभी सीरिया पर चल रहे साझा हवाई हमले के दौरान नागरिकों की ज़िन्दगी के प्रति घोर तिरस्कार दिखाया जा रहा है, शायद साम्राज्यवादी ताकतों के लिए मध्यपूर्व की जनता और आतंकवादियों में कोई फ़र्क नहीं है। राका, अलेप्पो, इसके आस-पास के शहर, मोसुल, फ़ालुजाह आदि शहर – पश्चिमी मीडिया चाहे इन्हें जितना भी ‘इस्लामिक स्टेट’ के कब्ज़े वाला क्षेत्र दिखाये, वास्तव में ये सभी नागरिक क्षेत्र हैं, सघनरूप से आबाद हैं जहाँ बमबारी में मरने वालों में आम नागरिकों की संख्या बहुत ज़्यादा है। यह बमबारी ही पिछले कुछ सालों में इस क्षेत्र से बढ़े प्रवासन की मुख्य वजह है। यहाँ बमों की वर्षा में जीवन इतना जोख़िमभरा, दूभर और असुरक्षित है कि लोग सुरक्षित जगह की तलाश में बेहद ख़तरनाक समुद्री रास्ता तय करने को भी तैयार हैं या कहें मज़बूर हैं। यूरोप जाने के लिए यहाँ के लोग अपना सबकुछ बेच कर तस्करों को महंगी कीमत अदा कर अपने गन्तव्य तक पहुँचने की कोशिश कर रहे हैं। इस जोख़िम भरे रास्ते पर हर साल हज़ारों लोग अपनी जान से हाथ धो बैठते हैं। नन्हें आयलान की तस्वीर अभी भी हमारी आँखों के सामने से जाती नहीं! मध्यपूर्व में साम्राज्यवादी ताकतों की घृणित राजनीति यहाँ के हज़ारो-हज़ार लोगों की जान ले चुकी है, लाखों ज़िन्दगियों को तबाह कर चुकी है, लोगों को उनकी जगह-ज़मीन से उजाड़ चुकी है, क्या यह अतंकवाद नहीं है? या इसके लिए किसी अलग शब्द को इज़ाद करने की आवश्यकता है।

इस साझा बमबारी को इस्लामिक स्टेट के बढ़े ख़तरे के मद्देनज़र साम्राज्यवाद की प्रतिक्रिया के रूप में साम्राज्यवादी राष्ट्राध्यक्ष अभिव्यक्त करते हैं लेकिन इस बात पर भी गौर किया जाना चाहिए कि अलकायदा और तालिबान की तरह से इस्लामिक स्टेट और बोकोहरम भी इन्हीं साम्राज्यवादी देशों की पैदाइश हैं। हम ‘आह्वान’ के पिछले अंकों में तालिबान, अलकायदा, ‘इस्लामिक स्टेट’ और ‘बोकोहरम’ के अस्तित्व और उसके विकास के बारे में लिखते रहे हैं। मध्यपूर्व में रणकौशलात्मक माल (स्ट्रैटजिक कमोडिटी) के रूप में तेल की प्राप्ति के बाद यह क्षेत्र साम्राज्यवाद के हितों का केन्द्र बन गया है। तेल के अकूत स्रोत पर कब्ज़ा बनाने के लिए साम्राज्यवादी देशों की आपसी खींचातानी, इज़रायल जैसे छद्म राष्ट्र का खड़ा होना, तालिबान का अस्तित्व में आना, गृहयुद्धों का भड़कना, शिया-सुन्नी की पन्थीय संकीर्णता में उभार, कुर्द नृजातीय आबादी में अलगाववादी भावनाओं को हवा देना आदि चीज़ें इस क्षेत्र की भू-राजनीति का हिस्सा बन गयी हैं। इस क्षेत्र पर अपना कब्ज़ा जमाने और उसे कायम रखने के लिए साम्राज्यवादी ताकतों विशेषकर अमेरिका ने बेहद योजनाबद्ध तरीके से कट्टरपन्थी संगठनों को जन्म दिया और उनका पालन-पोषण किया। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद साम्यवाद यानी ‘कम्युनिज़्म’ के बढ़ते ख़तरे और अखिल अरब राष्ट्रवाद को कमजोर करने के लिए साम्राज्यवादी ताकतों ने इस्लामिक दक्षिणपन्थियों के साथ गठजोड़ बनाया। अल-कायदा, तालिबान और ओसामा बिन लादेन अफ़गानिस्तान में अमेरिका द्वारा तैयार किये गये भस्मासुर थे जो आगे बढ़ कर अपने आका को ही भस्म करने को अमादा हो गये। इसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए इस्लामिक स्टेट अस्तित्व में आया। एडवर्ड स्नोडेन के खुलासे के बाद अब यह बात पोशीदा नहीं है कि इस्लामिक स्टेट को अमेरिका, ब्रिटेन और इज़राइल ने बनाया और उसे वित्त और सैन्य समर्थन दिया। स्नोडेन ने यह उजागर किया है कि अमेरिका की ‘एन.एस.ए.’ (नेशनल सिक्युरिटी एजेन्सी), ब्रिटेन की खुफिया ऐजेन्सी ‘एम.आइ.6’ और इज़राइल के ‘मोसाद’ ने ‘इस्लामिक स्टेट ऑफ सीरिया और इराक’ के भविष्य का रास्ता निर्धारित किया है।

ISIS-originsआईएस मध्यपूर्व में ज़ायनवादी अस्तित्व को क़ायम रखने के लिए ब्रिटिश उपनिवेशवादियों की पुरानी योजना “हॉर्नेट्स नेस्ट” (बर्रे का छत्ता) का हिस्सा है। मोसाद ने अल-बगदादी को एक साल का सघन सैन्य प्रशिक्षण उपलब्ध कराया। अल-बगदादी अमेरिकी सरकार का बेहद उच्च स्तर का कैदी था। उसे 2009 में ओबामा के शासन काल में रिहा किया गया। नव-रूढ़िवादी सेनेट जॉन मैकेन और लिंडसे ग्राहम के समर्थन पर ओबामा ने सीरिया में सुन्नी जेहादियों को करोड़ों डॉलर की सहायता दी। हज़ारों ऐसे व्यक्ति जिन्हें इस दौरान अमेरिकी सहायता प्राप्त हुई आज वे इस्लामिक स्टेट के लड़ाके हैं। यहाँ तक कि इस्लामिक स्टेट ने अपने कई लड़ाकों के साथ जॉन मैकेन की तस्वीर इण्टरनेट पर साझा भी की है। वहीं इज़राइल ने सीरिया में इस्लामिक स्टेट के हमलों के दौरान सीरिया के सैन्य संसाधनों और ठिकानों पर हमला कर आईएस की परोक्ष रूप से मदद की है। इज़राइल के प्रधानमंत्री बेन्जमिन नेतनयाहू ने शिया-सुन्नी के बीच चल रहे गृहयुद्ध को भड़काने में सहर्ष मदद की है और उनके अनुसार यह पन्थीय संकीर्णता इज़राइल के भविष्य के लिए फायदे का सौदा है। अमेरिका और ब्रिटेन ने इस्लामिक स्टेट के दहशतगर्द गिरोहों को टोयोटा ट्रक दिये हैं। जब आईएस की फौज सीरिया इराक़ की सीमा से गुज़र रही थी तो देख कर ऐसा लग रहा था मानो टोयोटा ट्रक का कोई विज्ञापन हो। इसके अलावा ढेरों तथ्य “दी इन्टरसेप्ट” और एडवर्ड स्नोडेन के ब्लॉग पर उपलब्ध हैं जो आईएस के निर्माण में अमेरिका, ब्रिटेन और इज़राइल की साज़िशों का खुलासा करते हैं।

इस्लामिक स्टेट वह नया प्रतीक बन गया है जिसके इर्द-गिर्द दुनिया भर के इस्लामी कट्टरपन्थियों को आकृष्ट किया जा रहा है। मोसाद द्वारा प्राप्त सैन्य प्रशिक्षण और ब्रिटेन और अमेरिका द्वारा हासिल हथियारों और पैसों के अलावा इस्लामिक स्टेट की बढ़ती ताक़त का एक अन्य प्रमुख कारण सद्दाम हुसैन की बाथ पार्टी से जुड़े सेना के जनरलों एवं नौकरशाहों के साथ उसका गठबन्धन भी रहा है। 2003 में अमेरिकी हमले के बाद विबाथीकरण (डीबाथिफिकेशन) की मुहिम चलायी गयी थी। बड़ी संख्या में बाथ पार्टी के जनरल और नौकरशाह बेरोज़गार होकर वस्तुतः सड़कों पर आ गये। सैन्य अधिकारियों ने ‘मिलिटरी काउंसिल’ नाम से एक संगठन बनाया जो इस वक़्त आईएस के लड़ाकों का रणनीतिक मार्गदर्शन कर रहा है। आईएस के दूसरे सहयोगी नक़्शबन्दी आन्दोलन से जुड़े लड़ाके हैं जिनका नेतृत्व सद्दाम हुसैन की सरकार में उपराष्ट्रपति एवं पूर्व बाथ पार्टी का सदस्य इज्ज़त अल-दौरी कर रहा है। आईएस की गुरिल्ला फौज में इराक़ और अरब जगत के इस्लामिक कट्टरपन्थियों के अतिरिक्त चेचन्या, पाकिस्तान एवं यूरोपीय देशों के इस्लामिक कट्टरपन्थी लड़ाके हैं और भारत से भी आईएस की फौज में कुछ नौजवान शामिल हुए बताये गये हैं।

पूरे विश्व का बुर्जुआ मीडिया इस्लामिक स्टेट को मानवता के लिए सबसे बड़ा ख़तरा बना कर प्रस्तुत कर रहा है। इस तरह आतंकवाद के नाम पर मध्यपूर्व में साम्राज्यवाद की घृणित राजनीति पर पर्दा डाला जा रहा है। हालाँकि इस्लामिक स्टेट का भविष्य भी अपने बड़े भाइयों (तालिबान, अलकायदा) से भिन्न नहीं होगा। ऐसे दहशतगर्द गिरोह को जन्म देने के बाद साम्राज्यवादी ताकतें अपना काम पूरा हो जाने पर इन्हें अपने आप ठिकाने लगा देती हैं। इस्लामिक स्टेट को भी ठिकाने लगाने की शुरुआत हो चुकी है। लेकिन कई बार अपने सामाजिक आधार के बल पर ये ताकतें पलट कर अपने आका पर वार करने लग जाती हैं। अपने आकाओं से स्वतंत्र हो ये गिरोह उनके लिए भस्मासुर बन जातें हैं। ऐसी सूरत में अपने आकाओं का कुछ नुकसान भी कर जाते हैं। साम्राज्यवादी देशों समेत दुनिया के अन्य देशों की जनता इनके हमलों का शिकार होती है। लेकिन आतंकवादी हमला होने की सूरत में साम्राज्यवादी देशों को एक मौका मिल जाता है कि वे अपनी जनता को और विश्व भर की जनता को यह दिखला सकें कि वे आंतकवाद के विरुद्ध समझौताविहीन संघर्ष करने के लिए कमर कसे हुए हैं। जनता के बीच उग्रराष्ट्रवादी भावनाओं को भड़का कर फिर से मध्यपूर्व में सैन्य हस्तक्षेप के लिए उनसे सहमति लेते हैं।

साम्राज्यवादी ताकतों ने दहशतगर्द कट्टरपन्थी संगठनों को पैदा कर और उनका पालन-पोषण कर आतंकवाद की ज़मीन तैयार की है और पूरे विश्व में एक विशेष धर्म-इस्लाम के ख़िलाफ़ लोगों में भय पैदा किया है। यह ‘इस्लामोफोबिया’ आज लगभग विश्व के सभी हिस्सों में मौजूद है।

बहरहाल फ्रांस पर ही अपने विषय को पुनःकेन्द्रित करते हैं। शार्ली ऐब्दो के कार्यालय पर हमले के बाद पेरिस की सड़कों पर निकली अभिव्यक्ति की आज़ादी की रैली क्या वाकई आज़ाद अभिव्यक्ति के लिए थी? फ्रांस के दार्शनिक इमान्युअल टोड के अनुसार यह रैली एक ढकोसला थी जो पूर्ण रूप से राजनीतिक भावनाओं- मूल आबादीवाद, अन्धराष्ट्रवाद और मुस्लिम विरोधी भावना-से प्रेरित थी जिसका अभिव्यक्ति की आज़ादी से कुछ भी लेना देना नहीं था। फ्रांस में पूरी आबादी का मात्र 6 से 7 प्रतिशत हिस्सा मुस्लिम है लेकिन फ्रांस की जेलों में कैद कुल लोगों में 70 प्रतिशत मुसलमान हैं। 13 नवम्बर को हुए हमले और ऐसे किसी भी हमले के बाद इस्लाम मानने वाले लोगों के बीच यह भय एक बार फिर जाग उठता है कि उन्हें अब धार्मिक पहचान के आधार पर निशाना बनाया जायेगा। पिछली बार की तरह ही इस बार भी हमला करने वाले सभी आतंकवादी फ्रांस के ही नागरिक थे। इस्लामिक स्टेट में भी काफ़ी बड़ी संख्या में फ्रांस से भर्ती हो रही है। ऐसे लोगों को तैयार करने के पीछे फ्रांस के उत्तर औपनिवेशिक प्रवासन के दौरान आये प्रवासियों और विशेषकर मुसलमान प्रवासियों के साथ किया जाने वाला दोयम दर्जे का व्यवहार है और 9/11 के बाद यूरोप और अमेरिका को अपनी गिरफ्ऱत में लेने वाला ‘इस्लामोफोबिया’ भी इसका एक बड़ा कारक है। मुसलमानों के प्रति दोयम दर्जे का व्यवहार और ‘इस्लामोफोबिया’ की ओर इंगित करने का तात्पर्य फ्रांस की मध्यपूर्व सम्बन्धी नीतियों को कम करके देखना कत्तई नहीं है बल्कि नौजवानों के इस्लामिक स्टेट जैसे दहशतगर्द गिरोहों की ओर आकर्षित होने के विभिन्न कारणों की पड़ताल है। फ्रांस की मध्यपूर्व के प्रति नीतियाँ, साझा हमलों में हिस्सा लेना भी निश्चय ही यहाँ आतंकवाद के पैर पसारे जाने का एक बड़ा कारक है।

इन्हीं नीतियों में से एक है फ्रांस द्वारा इज़राइल को दिया जाने वाला खुला समर्थन। फ्रांस वह पहला देश है जिसने फ़िलिस्तीन के समर्थन में होने वाले प्रदर्शनों पर प्रतिबन्ध लगा दिया है। इस प्रतिबन्ध के बावजूद जनता सड़कों पर उतरती है और उन्हें पुलिस के अत्याचारों को झेलना पड़ता है। कुछ दिनों पहले फिलिस्तीन पर चल रहे इज़राइल के हमले, वहाँ की ज़मीन पर अवैध कब्जे और मासूम बच्चों की मौत के ख़िलाफ़ शान्तिपूर्ण विरोध और बी.डी.एस. (बाईकॉट, डाइवेस्टमेंट और सैंक्शन) का समर्थन कर रहे 12 कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया। इतना ही नहीं फ्रांस के उच्चतम न्यायालय ने बी.डी.एस. का समर्थन कर रहे इन 12 कार्यकताओं के ख़िलाफ आपराधिक सज़ा को सही ठहराया। इन कार्यकर्ताओं के ख़िलाफ भेदभाव प्रतिरोध क़ानून लगाया गया। इनका दोष इतना था कि ये टी-शर्ट पहन कर जिस पर बी.डी.एस. और ये लोग “लांग लिव पैलेस्टाइन, बायकॉट इज़रायल!” लिखा था, शान्तिपूर्वक तरीके से ‘सुपरमार्केट’ में लोगों के बीच अपना परचा बाँट रहे थे। परचे में लिखा थाः ‘इजराइल के उत्पादों को खरीदने का अर्थ होगा गाज़ा में अपराधों को वैध करार देना!’ इस अपराध के लिए उनपर मुकदमा चला और उन्हें 50,000 डॉलर जुर्माना भरना पड़ा। इस सज़ा ने बी.डी.एस. को अन्तरनिहित रूप से भेदभावपूर्ण बताया। यह घटना फ्रांस का इज़राइल को खुला समर्थन नहीं तो और क्या दर्शाती है? यदि रूस, ईरान या सूडान के प्रति बहिष्कार का कोई आन्दोलन हो तो वह फ्रांस में मान्य है लेकिन इज़रायल के ख़िलाफ कोई भी आवाज़ भेदभावपूर्ण करार दे दी जाती है जिसकी तुलना यहूदी-विरोध से की जाती है।

फ्रांस में पिछले कुछ समय से दक्षिणपन्थी उभार के मद्देनज़र ‘इस्लामोफोबिया’ और प्रवासियों (जिनमें मुख्यतः मध्यपूर्व और अफ्रीकी देशों के मुसलमान होते हैं) के ख़िलाफ़ नफ़रत दक्षिणपन्थियों की राजनीति के मुख्य मुद्दे हैं जो आम मुसलमान और अतंकवादी में कोई भेद नहीं करते। ‘सभ्यताओं के युद्ध’ की काल्पनिक अवधारणा को मानने वाली यह दक्षिणपन्थी राजनीति लोगों के बीच फूट डालने के अपने लक्ष्य में किस कदर सफल हो रही है इसका अन्दाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि इस बार चुनावों में नेशनल फ्रण्ट को 26 सीटें मिली हैं। इस तरह की अलगाववादी राजनीति समाज के एक हिस्से के प्रति दोयम दर्जे का व्यवहार करती है।

ये कुछ महत्वपूर्ण पहलू हैं जो आज फ्रांस की राजनीति को गहरे प्रभावित कर रहे हैं और वहाँ की जनता से इन विषयों पर गम्भीर चिंतन की माँग कर रहे हैं।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,नवम्‍बर 2015-फरवरी 2016

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