विश्वस्तरीय शिक्षा के नाम पर देशी-विदेशी पूँजीपति होंगे मालामाल और जनता पामाल
बेबी कुमारी
आर्थिक उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों को नंगे तौर पर लागू करने और देशी-विदेशी पूँजी की खुली लूट को कानूनी रूप देने की दिशा में और आगे बढ़ते हुए नरेन्द्र मोदी की सरकार उच्चतर शिक्षा को डब्ल्यू.टी.ओ.-गैट्स के अन्तर्गत शामिल किये जाने को सुनिश्चित करने की पूरी तैयारी में है। पूँजीपतियों के संगठनों फिक्की, नैसकॉम, एसोचैम और भारतीय अन्तरराष्ट्रीय आर्थिक सम्बन्ध शोध परिषद (आईसीआरईआर) से लेकर भारत सरकार के वाणिज्य मंत्रलय के साथ-साथ सरकार के भोंपू विद्वानों और अर्थशास्त्रियों ने इसे आज के समय की सबसे बड़ी ज़रूरत बताया है। इसके पीछे यह तर्क दिया जा रहा है कि भारत में उच्च शिक्षा की माँग बढ़ रही है और यहाँ से एक बड़ा तबका विदेशों में शिक्षा प्राप्त करने के लिए जा रहा है तो उस युवा आबादी को यहीं रोका जाये और उनके लिए विश्वस्तरीय शिक्षा की व्यवस्था यहीं की जाये। कहने की ज़रूरत नहीं कि देश की 85 फीसदी मेहनतकश अवाम के युवाओं की शिक्षा और रोज़गार का प्रश्न इन रिपोर्टों से सिरे से ग़ायब है। जो आबादी विदेशों में पढ़ने के लिए जाती है वह उच्च, उच्च मध्यम वर्ग और 1990 के बाद अस्तित्व में आये नवधनाढ्य वर्ग के युवाओं की आबादी है। इसके अलावा एक बड़ी आबादी ऐसे घरों के युवाओं की भी है जो शैक्षणिक वीज़ा लेकर विदेशों में काम के “बेहतर” अवसरों की तलाश में जाती है और वहाँ अपनी श्रमशक्ति अपेक्षाकृत सस्ती दरों पर विदेशी बाज़ारों में उपलब्ध कराती है। विदेश जाने वाले युवाओं की संख्या हालिया रिपोर्टों के अनुसार 2011 में 2,28,774 थी और 2012 में 1,90,055 रह गयी। संयुक्त राष्ट्र संघ की 2014 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 15-24 आयु वर्ग के युवाओं की कुल जनसंख्या 35,60,00000 है। दरअसल, भारत में उच्चतर शिक्षा में वृद्धि का यह जो हौवा खड़ा किया जा रहा है उसके पीछे सच्चाई यह है कि सरकार उच्चतर शिक्षा को ‘मेक इन इण्डिया’ के तहत विदेशी निवेशकों के लिए खोल देना चाहती है ताकि यहाँ बड़ी संख्या में आई.टी.आई. और पोलिटेक्निक जैसे तकनीकी शिक्षण संस्थान खोले जायें और प्रशिक्षित कमेरों की एक बड़ी फौज तैयार हो – जो आज विश्व पूँजीवाद की ज़रूरत है। फिक्की की 2014 की रिपोर्ट में कहा गया है कि सेवा क्षेत्रों में व्यापार बढ़ने के कारण और वैश्विक अर्थव्यवस्था में तकनीकी ज़रूरतों को ध्यान में रखते हुए कुशल एवं प्रशिक्षित मज़दूरों, अन्वेषकों तथा ‘नॉलेज वकर्स’ की ज़रूरत है। साफ है कि भारतीय पूँजीपति वर्ग पूँजी की वैश्विक प्रतिस्पर्धा में पीछे नहीं रहना चाहता।
इसलिए दिसम्बर माह की 15 से 18 तारीख तक नैरोबी, केन्या में डब्ल्यू.टी.ओ. की दसवीं मिनिस्ट्रियल कॉन्फ्रेंस में उच्चतर शिक्षा को पूरी तरह गैट्स के अधीन कर दिया जाएगा। हालाँकि शिक्षा के बाज़ारीकरण की प्रक्रिया 1986 की नयी शिक्षा नीति के साथ ही शुरू हो गयी थी लेकिन, 1990 में भारत सरकार ने वर्ल्ड बैंक द्वारा आयोजित ‘जोमतिएन कॉन्फ्रेंस’ में भागीदारी के बाद इसे और तेज़ कर दिया। पिछले दो दशकों में पीपीपी (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) के तहत प्राथमिक शिक्षा को पूरी तरह तबाह-ओ-बर्बाद करके निजी स्कूलों और गैर सरकारी संगठनों को सौंपने के बाद अब बारी उच्चतर शिक्षा की है। वैसे तो इस दिशा में 1998 में वाजपेयी सरकार ने ही शुरुआत कर दी थी, तब से लेकर आजतक सभी सरकारों ने इसे मज़बूती देने और आगे बढ़ाने का ही काम किया है। शिक्षा में पीपीपी मॉडल की शुरुआत का प्रस्ताव भाजपा के 1998 के चुनावी घोषणापत्र में शामिल था। काँग्रेस-नीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के दौरान कपिल सिब्बल ने जिस मुस्तैदी से “शाइनिंग इण्डिया” को चमकाया, नरेन्द्र मोदी उससे कहीं आगे बढ़कर “गुड गवर्नेंस” दे रहे हैं! भारत ने 1994 में हुए ‘उरुग्वे राउण्ड’ और 2001 में हुए ‘दोहा राउण्ड’ में शिक्षा को डब्ल्यू.टी.ओ.-गैट्स के अन्तर्गत लाने की बात नहीं की थी लेकिन, 2005 के अगस्त में मनमोहन सिंह की सरकार ने विभिन्न क्षेत्रों में व्यापार सम्बन्धी ‘ऑफर’(प्रस्ताव) सौंपा जिसमें शिक्षा, विशेषकर उच्चतर शिक्षा सेक्टर शामिल था।
यह अप्रत्याशित नहीं है कि आज विश्व पूँजीवाद के चौधरी विकासशील देशों के उच्चतर शिक्षा सेक्टर को मुनाफ़ा कमाने की नयी सम्भावना के तौर पर देख रहे हैं। दरअसल 2007 से जारी आर्थिक संकट और मन्दी के दौर में दुनिया भर के साम्राज्यवादी देश, कॉरपोरेट घराने और वित्तीय संस्थान लाभदायक निवेश के अवसर तलाश रहे हैं। आज पूरी दुनिया में ही उच्चतर शिक्षा को स्वास्थ्य सेवाओं के बाद दूसरे उभरते हुए उद्योग के रूप में माना जा रहा है। साम्राज्यवादी देश उस जगह पर अपनी पूँजी लगाने का ज़्यादा प्राथमिकता देते हैं जहाँ सामाजिक-आर्थिक स्थिरता हो यानी कम-से-कम यह स्थिरता सतह पर तो दिखती ही हो – जैसे कि चीन जैसे देश, लेकिन भारत जैसे तमाम विकासशील देशों में जहाँ ग़रीबी, भुखमरी और बदहाली की वजह से सामाजिक स्तर पर हमेशा उथल-पुथल जैसा माहौल रहता है; वहाँ की सरकारें यह सुनिश्चित कराने में लगी हुई हैं कि साम्राज्यवादी देश निश्चिन्त होकर निवेश करें और जनता के तमाम प्रतिरोधों को कुचलने की पूरी तैयारी सरकार करेगी। अफ्रीका, लातिन अमेरिका के देशों से लेकर श्रीलंका जैसे देश इसके उदाहरण हैं। भारत सरकार भी चीख-चीखकर यही जाप कर रही है!
डब्ल्यू टी ओ-गैट्सः साम्राज्यवाद की ज़रूरत
विश्व व्यापार संगठन(डब्ल्यू टी ओ) 1995 के ‘उरुग्वे राउंड’ के दौरान गैट (जेनरल एग्रीमेण्ट ऑन ट्रेड एण्ड टैरिफ्स) की जगह अस्तित्व में आया। यह तीन बहुपक्षीय समझौतों का एकीकृत ‘फोरम’ है। ये तीन बहुपक्षीय समझौते हैं-1. ‘जनरल एग्रीमेण्ट ऑन ट्रेड एण्ड टैरिफ्स’ (गैट-1994; वस्तुतः गैट-1947 का ही विस्तृत रूप है जो पिछले पाँच दशकों के वैश्विक व्यापार समझौतों का परिणाम था जिसमें कृषि में व्यापार सम्बन्धी समझौता शामिल है।); 2. ‘ट्रेड रिलेटेड आस्पेक्ट्स ऑफ़ इंटेलेक्चुअल प्रोपर्टी राइट्स’(ट्रिप्स); 3. ‘जनरल एग्रीमेण्ट ऑन ट्रेड इन सर्विसेज़’ (गैट्स)। डब्ल्यू.टी.ओ. का गठन विश्व स्तर पर व्यापार को अधिक आसान तथा सुगम बनाने के लिए किया गया था। यह अपने सदस्य देशों के आर्थिक मामलों में भी हस्तक्षेप कर सकता है। वर्तमान में भारत सहित इसके 160 सदस्य देश हैं। नवम्बर 2001 में सम्पन्न हुए ‘दोहा राउण्ड’ में वैश्विक व्यापार प्रणाली को और अधिक लचीला किया गया ताकि विकासशील देशों में व्यापार को बढ़ावा दिया जा सके। ‘गैट्स’ के अन्तर्गत 12 मुख्य सेवा क्षेत्रों को व्यापार के लिए शामिल किया गया है जिसके तहत 161 कार्यव्यापार सम्मिलित हैं। ये 12 मुख्य सेवा क्षेत्र हैं- व्यापार, संचार, निर्माण और सम्बन्धित इंजीनियरिंग, वितरण, शैक्षणिक, पर्यावरण सम्बन्धी, वित्तीय (जिसमें ‘बीमा’ और ‘बैंकिंग’ शामिल हैं), स्वास्थ्य, यात्रा और पर्यटन सम्बन्धी, पुनरुत्पादन सम्बन्धी, सांस्कृतिक और खेलकूद गतिविधियाँ, परिवहन और ‘अन्य’ सेवाएँ। हालाँकि ‘गैट्स’ के प्रावधानों में यह कहा गया है कि सदस्य देशों की सरकारों को चुनाव का अधिकार होगा! लेकिन यह सिर्फ एक भाषायी खिलवाड़ है क्योंकि अमेरिका, ‘यूरोपियन यूनियन’, कनाडा और जापान जैसे देशों द्वारा जो प्रस्ताव किये गये हैं तथा स्वयं ‘गैट्स’ के कुछ आधारभूत नियम ऐसे हैं जिनको मानना हर सदस्य देश के लिए बाध्यताकारी है। और भारत जैसे देशों के पूँजीपति वर्ग को इस पर कोई आपत्ति क्यों होगी, जब यह उनके मुनाफ़े में चार चाँद लगायेगा?
‘गैट्स’ और शिक्षा सहित अन्य सेवाक्षेत्रों में व्यापार सम्बन्धी नियम
डब्ल्यू.टी.ओ. के गठन से पूर्व सेवा क्षेत्रों में व्यापार सम्बन्धी कोई बहुपक्षीय समझौता मौजूद नहीं था क्योंकि तब सेवाओं को व्यापार से परे समझा जाता था। लेकिन, पूँजी हमेशा बाज़ार की तलाश में रहती है और बाज़ार ही उसके अस्तित्व की प्रमुख शर्त है। आज वित्तीय पूँजी के इस दौर में दुनिया भर के तमाम साम्राज्यवादी देशों और कॉरपोरेट घरानों को लाभदायक निवेश के लिए विकासशील देशों के सेवाक्षेत्रों में बाजार की ज़्यादा सम्भावना दिख रही है जिसे वे इन देशों के विकास में मदद करना बता रहे हैं दरअसल, यह लूट को महिमामण्डित करना है। जमैका, सियरा लियोन, कांगो और लिसोटो जैसे अफ्रीकी देशों ने उच्चतर शिक्षा में बिना शर्त व्यापार का क़रार किया है। जाहिर है अफ्रीका और दक्षिण एशिया के संसाधनों पर इनकी नज़र लम्बे समय से रही है।
‘गैट्स’ के अनुसार शिक्षा में व्यापार को कई उप क्षेत्रों में बाँटा गया है। एक है प्राथमिक शिक्षा (पूर्व प्राथमिक शिक्षा से लेकर प्राथमिक स्कूली शिक्षा)। दूसरा है सेकेण्डरी या माध्यमिक शिक्षा (सामान्य स्कूली शिक्षा; उच्च माध्यमिक शिक्षा जिसके अन्तर्गत विशेषीकृत स्कूली शिक्षा तथा सामान्य तकनीकी शिक्षा की व्यवस्था है। इसी के तहत एक और वर्गीकरण है जिसमें तकनीकी और व्यावसायिक माध्यमिक शिक्षा का प्रावधान है जो विश्वविद्यालय स्तर से नीचे की तकनीकी शिक्षा होगी)। एक अन्य है उच्चतर शिक्षा (तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा तथा सामान्य विश्वविद्यालयी डिग्री सम्बन्धी शिक्षा जो जाँच, प्रशिक्षण और शोध आधारित होगी)। ‘गैट्स’ के अन्तर्गत ‘वे सरकारी सेवाएँ जो पूर्णतया सरकार के नियंत्रण में हैं और जिनका न तो व्यवसायीकरण किया गया है, न ही उनमें किसी अन्य आपूर्तिकर्ता के लिए प्रतियोगिता के अवसर उपलब्ध हैं ‘गैट्स’ से बाहर रहेंगीं।’ भारत सहित अन्य विकासशील देशों में शिक्षा में निजी निवेश लागू है इसलिए इसे ‘गैट्स’ के अन्तर्गत शामिल किया गया है।
सेवाक्षेत्रों में व्यापार की चार प्रणालियाँ निर्धारित की गयीं हैं। उच्चतर शिक्षा के सन्दर्भ में ये निम्नलिखित हैं-
- 1. सीमा पार की आपूर्ति (क्रॉस बॉर्डर सप्लाई)- इसके अन्तर्गत छात्र (उपभोक्ता) और शिक्षक/संस्थान (आपूर्तिकर्ता) को अपने-अपने देश से बाहर जाने की ज़रूरत नहीं होगी। यह प्रणाली वस्तुतः पत्रचार शिक्षा की तरह होगी यानी वर्तमान परिदृश्य में ई-एजुकेशन। छात्र को सर्विस चार्ज का भुगतान करना होगा।
- 2. विदेशों में जाकर सर्विस प्राप्त करना (कंजम्पशन अब्रॉड)-इसके तहत छात्र को अपने देश से दूसरे देश के सप्लायर के पास जाना होगा।
- 3. व्यावसायिक उपस्थिति (कमर्शियल प्रेजेंस)- इसमें एक सदस्य देश के शिक्षण संस्थान दूसरे देशों में अपनी शाखाएँ स्थापित करेंगे। भारत में इसी प्रणाली के तहत विदेशी विश्वविद्यालयों और संस्थानों को न्यौता दिया जा रहा है।
- 4. शिक्षकों/प्रशिक्षकों का आदान-प्रदान (प्रेजेंस ऑफ़ नेचुरल पर्सन)-इस प्रणाली के तहत शिक्षकों अथवा प्रशिक्षकों का एक देश से दूसरे देश में अस्थायी तौर पर आदान-प्रदान किया जायेगा।
‘गैट्स’ समझौते के अन्तर्गत एक सदस्य देश दूसरे सदस्य देशों से यह ‘अनुरोध’(रिक्वेस्ट) कर सकता है कि वे अपना निवेश उसके यहाँ करें। यह स्वाभाविक है कि सदस्य देशों में आपस में इस तरह के ‘अनुरोध’ किये जायेंगे। इस प्रकार एक देश जिसने ‘अनुरोध’ स्वीकार किया है वह अपना बाज़ार स्थापित करने का ‘प्रारम्भिक प्रस्ताव’(इनिशियल ऑफ़र) रखेगा। इसके बाद ‘सेवा क्षेत्रों में व्यापार के लिए गठित परिषद्’ इसे अन्तिम रूप देगा। यानी किसी एक देश द्वारा गैट्स के सूचीबद्ध सेवाक्षेत्रों में से कुछ या सभी में पारस्परिक मोलभाव के बाद ‘प्रारंभिक प्रस्ताव’ ही ‘प्रतिबद्धता’(कमिटमेण्ट) बन जायेंगे। इसमें एक देश द्वारा व्यापार प्रणाली और सेवाक्षेत्र चुनने का अधिकार शामिल है। लेकिन एक बार किसी देश द्वारा चुना गया सेवाक्षेत्र ‘अनुरोध’ और ‘प्रस्ताव’ की मंज़िल से गुज़रकर ‘प्रतिबद्धता’ की मंजिल में पहुँच जाता है तो उसके ऊपर गैट्स का अनुच्छेद 19 लागू हो जायेगा जिसके अन्तर्गत सदस्य देशों पर यह दबाव बनेगा कि वे क्रमशः अपने बाज़ार को मुक्त कर दें। ‘गैट्स’ के अन्तर्गत कई ऐसे प्रावधान हैं जो सदस्य देशों द्वारा मानना बाध्यताकारी है। यहाँ सभी के बारे में विस्तृत चर्चा नहीं की जा सकती इसलिए हम कुछ मुख्य प्रावधानों की चर्चा करेंगे। इन पर चर्चा करने का हमारा मकसद उस झूठ का पर्दाफाश करना है जिसमें ‘गैट्स’ समझौते को काफी प्रगतिशील और दुनिया भर के विकासशील देशों के लिए तारणहार के रूप में प्रचारित किया जा रहा है जबकि सच्चाई इसके विपरीत है। भारत में भी गैट्स के आधारभूत नियमों को लागू करने की ज़मीन लगातार तैयार की गयी है, इस पर हम आगे बात करेंगे।
फिलहाल, गैट्स के अन्तर्गत कुछ ऐसे ‘सामान्य कर्तव्यों’ का निर्धारण किया गया है जो हर सदस्य देश मानने के लिए बाध्य होगा जैसे-‘सबसे पसन्दीदा राष्ट्र’ (एम.एफ.एन.- मोस्ट फेवर्ड नेशन) का प्रावधान और ‘राष्ट्रीय प्रबन्ध’(नेशनल ट्रीटमेण्ट) का प्रावधान।
एम.एफ.एन. के तहत प्रत्येक सदस्य देश अन्य सभी सदस्य देशों को अपना ‘सबसे पसन्दीदा राष्ट्र’ समझेगा यानी किसी तरह का कोई भेदभाव नहीं करेगा। यानी व्यापार में सभी के साथ साझा करना होगा। अगर कोई सदस्य देश किसी ‘सर्विस सेक्टर’ में एक अफ्रीकी देश को अपने यहाँ निवेश करने का ऑफर देता है तो वह अमेरिका और ‘यूरोपियन यूनियन’ को नज़रअन्दाज नहीं कर सकता।
‘नेशनल ट्रीटमेण्ट’ के तहत सदस्य देशों द्वारा विदेशी निवेशकों को देशी निवेशकों के बराबर अवसर देने होंगे। कहने का मतलब यह कि अगर उस देश की सरकार अपने देशी पूँजीपति को टैक्स छूट, पानी, बिजली और ज़मीन मुफ्त मुहैया कराती है तो उसे विदेशी निवेशकों को भी यह सबकुछ देना होगा। इसी प्रकार अगर सरकार किसी संस्थान को अपनी मदद से चलाती है तो गैट्स के इस नियम के अनुसार वह भी प्राइवेट ही समझा जायेगा और सरकार वही सुविधाएँ विदेशी संस्थानों को देने के लिए बाध्य होगी। यानी सरकार के पास किसी संस्थान विशेष को सहायता देने का अधिकार नहीं रह जायेगा। दरअसल, ये दोनों प्रावधान सदस्य देशों में व्यापार सम्बन्धी छूट को कानूनी मान्यता देने और तमाम अवरोधों को हटाने के लिए हैं।
‘घरेलू विनियमन’ (डोमेस्टिक रेगुलेशन) सम्बन्धी प्रावधान के अन्तर्गत सदस्य देशों के विनियमन को व्यापार के अनुकूल बनाया जायेगा। गैट्स की काउंसिल द्वारा एक कमिटी का गठन किया गया है जो सदस्य देशों की व्यापार नीतियों पर निगरानी रखती है और रिपोर्ट बनाती है। गैट्स का वैधानिक तंत्र ‘व्यापार नीति निरीक्षण तंत्र’(टीपीआरएम) विभिन्न देशों की व्यापार नीतियों की वार्षिक समीक्षा करता है और ‘सुधार’ के “सुझाव” देता है। भारत में यह टीपीआरएम लगातार मानव संसाधन विकास मंत्रलय के सचिव से मिलता रहा है और शिक्षा नीति में “सुधार” की सुध लेता रहा है। कपिल सिब्बल ने उन सुझावों पर अमल करने में जो कसर बाकी रख छोड़ी थी उसे मौजूदा सरकार में स्मृति ईरानी पूरा करने में तत्पर हैं!
भारत में उच्चतर शिक्षाः पहले से ही तैयार की जा रही थी गैट्स की ज़मीन
आज दुनिया भर में भारत की उच्चतर शिक्षा व्यवस्था को लेकर खासा गुल गपाड़ा मचाया जा रहा है। ऐसा कहा जा रहा है कि भारत उच्चतर शिक्षा में दाखिले के तौर पर दुनिया भर में चीन और अमेरिका के बाद तीसरे तथा उच्चतर शिक्षा संस्थानों की संख्या के तौर पर पहले स्थान पर है। मानव संसाधन आयोग की 2014 की रिपोर्ट के अनुसार 2012-13 में उच्चतर शिक्षा में 18-23 आयु वर्ग के युवाओं की संख्या 14,08,02,000 है। और सकल नामांकन अनुपात (जीईआर-ग्रॉस इनरोलमेंट रेशियो) 21.1 प्रतिशत हो गया है। जबकि सच्चाई यह है कि अभी भी उच्चतर शिक्षा योग्य आबादी का 12.4 प्रतिशत हिस्सा ही शिक्षा प्राप्त कर रहा है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय और फिक्की नामांकन की दर को बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रहे हैं।
दरअसल, आज जो नामांकन दर बढ़ी है वह 2008 तक महज 7 प्रतिशत ही थी। यह तो कहा जा रहा है कि देश में उच्चतर शिक्षा की माँग बढ़ी है लेकिन यह नहीं बताया जा रहा है कि जिस अनुपात में यहाँ निजी शिक्षा संस्थानों की संख्या बढ़ी है उसी अनुपात में इन संस्थानों में दाखिले बढ़े हैं। प्राइवेट या निजी संस्थानों में दाखिले का प्रतिशत बढ़ने के तीन प्रमुख कारण हैं-पहला तो यह कि सरकार द्वारा लगातार यह प्रचार किया जा रहा है कि परम्परागत शिक्षा से तो कोई रोज़गार नहीं मिलने वाला इसलिए तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा ज़रूरी है। दूसरा, सरकारी शिक्षा संस्थानों के अवरचनागत स्तर में लगातार गिरावट आ रही है। इसलिए निजी शिक्षा संस्थानों में ऊँची फीस देकर भी परम्परागत शिक्षा की जगह व्यावसायिक और तकनीकी शिक्षा को छात्रों द्वारा प्राथमिकता दी जा रही है। तीसरे, छात्रों के लिए लोन स्कीम लागू की गयी है हालाँकि इससे वित्तीय पूँजीपतियों को ही फायदा पहुँच रहा है और यह भी तथ्य है कि लोन लेनेवाली आबादी खाते-पीते सम्पन्न घरों की ही है मतलब लोन लेने वाली आम घरों की आबादी कम ही है।
एक आँकड़े के मुताबिक 2007-2012 के बीच निजी शिक्षा संस्थानों में नामांकन दोगुने से अधिक हो गये। निजी शिक्षा संस्थानों में कुल नामांकन 58.9 प्रतिशत, प्रान्तीय विश्वविद्यालयों में 38.5 प्रतिशत और केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में 2.6 प्रतिशत हुए। इस दौरान कुल शिक्षा संस्थान 46,430 थे जिनमें 29, 662 निजी शिक्षा संस्थान थे यानी निजी शिक्षा संस्थानों की संख्या में 63-88 प्रतिशत की वृद्धि हुई। इस दौरान कुल 13, 399 डिग्री और डिप्लोमा प्रदान करनेवाले संस्थानों में से 11,399 प्राइवेट संस्थान थे। बारहवीं पंचवर्षीय योजना (2012-2017) के अन्तर्गत यह अनुमान लगाया गया है कि 2017 तक निजी शिक्षण संस्थानों में नामांकन 1 करोड़ 27 लाख से बढ़कर 1 करोड़ 85 लाख हो जायेंगे। इसलिए इस योजना के अन्तर्गत निजी शिक्षण संस्थानों को बढ़ावा दिया जा रहा है ताकि 2020 तक सरकार द्वारा निर्धारित 30 प्रतिशत सकल नामांकन अनुपात के लक्ष्य को पाया जा सके। स्पष्ट है कि उच्चतर शिक्षा का बाजार बनाया जा रहा है ताकि विदेशी निवेशकों को आकर्षित किया जा सके। भारत सरकार के वाणिज्य मंत्रलय की एफडीआई पर फैक्ट शीट के अनुसार अप्रैल 2000 से जुलाई 2014 तक भारत के शिक्षा सेक्टर में 4,961.8 करोड़ रुपये का विदेशी निवेश हुआ है।
जैसा कि हमने पहले भी कहा है कि 1986 से ही शिक्षा के निजीकरण की प्रक्रिया शुरू हो गयी थी, तब से लेकर आजतक विश्व बैंक से समझौते, शिक्षा संस्थानों में लगातार फीस वृद्धि (जिसके ख़िलाफ़ जादवपुर विश्वविद्यालय से लेकर हिमाचल और पॉण्डिचेरी के छात्र लम्बे समय तक संघर्षरत रहे), अकादमिक संस्थानों की स्वायत्तता का हनन, निजी भागीदारी को प्रोत्साहन, 100 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (2007 से लागू), स्ववित्तपोषित कोर्सों को बढ़ावा, अमेरिकी शिक्षण प्रणाली (सेमेस्टर और क्रेडिट सिस्टम) तथा उच्चतर शिक्षा में ‘लोन स्कीम’ की शुरुआत आदि ऐसी परिघटनाएँ हैं जिन्होंने उच्च शिक्षा का व्यवसायीकरण किया है।
1998 में वाजपेयी सरकार के मानव संसाधन मंत्री मुरली मनोहर जोशी ने यूनेस्को द्वारा पेरिस में आयोजित उच्चतर शिक्षा पर आधारित कॉन्फ्रेंस में कहा था, ‘संसाधन जुटाने के लिए बड़े प्रयास किये जाने की ज़रूरत है और जबकि सरकार उच्चतर शिक्षा के प्रति प्रतिबद्ध है तो यह ज़्यादा ज़रूरी हो जाता है कि उच्चतर शिक्षा के संस्थान अपने संसाधनों को जुटाने की दिशा में स्वयं प्रयास करें जो फीस वृद्धि, निजी भागीदारी, परामर्श और अन्य गतिविधियों के द्वारा राजस्व इकठ्ठा करके किया जा सकता है।’ निजीकरण को वैध ठहराते हुए उन्होंने कहा कि, ‘यह सिर्फ न्यायोचित ही नहीं बल्कि वांछनीय भी है कि सरकारी खर्चे के बोझ को कम करने करने के लिए निजी स्रोतों से धन जुटाया जाये।’ तत्कालीन सरकार ने अपने चुनावी घोषणापत्र में शामिल पीपीपी मॉडल को उच्चतर शिक्षा में लागू किया। तब से काँग्रेस-नीत संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन ने इसे और आगे बढ़ाया तथा लगातार उच्चतर शिक्षा से अपने हाथ खींचे। आज सरकार सकल घरेलू उत्पाद का महज 0.37 प्रतिशत ही उच्चतर शिक्षा पर खर्च कर रही है; उसमें भी मौजूदा सरकार ने वर्तमान बजट में उच्चतर शिक्षा में 8 प्रतिशत की कटौती की है और इतना होने के बाद भी मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी का कहना है, “सरकार उच्चतर शिक्षा पर ज़्यादा खर्च करती है।” कहने का मतलब यह कि शिक्षण संस्थानों को पूर्णतया स्ववित्तपोषित बनाये जाने पर ज़ोर दिया जा रहा है। अभी हाल ही में एनआईटी (राष्ट्रीय तकनीकी संस्थान) की कौंसिल में फ़ीस वृद्धि को प्रस्तावित कर दिया गया है जिसके तहत देश के 31 एनआईटी संस्थानों में फीस 70,000 से बढ़ाकर 2,00,000 प्रति वर्ष कर दी गयी है। मानव संसाधन विकास मंत्रलय का कहना है, “सरकार सिर्फ लैब, उपकरण और शोध में निवेश करेगी तथा संस्थान को संचालित करने का खर्च छात्रों को खुद वहन करना होगा। संचालन के अन्तर्गत शिक्षकों का वेतन और संस्थानों के रखरखाव शामिल हैं।”
इतना ही नहीं उच्चतर शिक्षा के विभिन्न क्षेत्रों के अकादमिक शिक्षा निकायों जैसे यूजीसी (विश्वविद्यालय अनुदान आयोग), एआईसीटीई (अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद्), एमसीआई (भारतीय चिकित्सा परिषद्), एनसीटीई (राष्ट्रीय शिक्षक प्रशिक्षण परिषद्), बीसीआई(भारतीय विधि परिषद्) आदि की स्वायत्तता को समाप्त करने की दिशा में भी कदम उठाये गये। स्वतंत्र नियामक प्राधिकार (आईआरए) का गठन करने के प्रस्ताव रखे गये। जिस प्रकार अन्य सेवा क्षेत्रों यथा ऊर्जा, बीमा आदि में स्वतंत्र नियामक प्राधिकार लागू किये गये हैं उसी प्रकार उच्चतर शिक्षा में भी इस तरह के नियामक स्थापित करने की सिफारिश नवम्बर 2006 में राष्ट्रीय ज्ञान आयोग के अध्यक्ष सैम पित्रेदा ने तथा 2008 में यशपाल कमिटी ने की। सैम पित्रेदा ने उच्चतर शिक्षा में स्वतंत्र नियामक गठित करने की बात की और यशपाल कमिटी ने एक ऐसे स्वतंत्र नियामक को स्थापित करने का सुझाव दिया जो उच्चतर शिक्षा के क्षेत्र में एक केंद्रीकृत शक्ति हो। दरअसल आईआरए का गठन गैट्स के अन्तर्गत ‘सहायक प्रतिबद्धताओं’ के अन्तर्गत आता है और यह सरकार के हस्तक्षेप से परे होगा। यशपाल कमिटी की सिफारिश को ध्यान में रखते हुए दिसम्बर 2011 में संसद में एक बिल लाया गया जो ‘राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा और शोध आयोग’ (एनसीएचईआर) को स्थापित करने से सम्बन्धित था। हालाँकि यह बिल पास न हो सका लेकिन, एनसीएचआर के एक ऐसे स्वतंत्र नियामक के रूप में प्रस्तावित है जिसके अन्तर्गत उच्चतर शिक्षा का हर क्षेत्र आता है और यह एक केन्द्रीकृत शक्ति के रूप में काम करेगा और यह उच्चतर शिक्षा में राज्यों द्वारा निर्णय लेने की स्वायत्तता छीन लेगा। यह जनता और सरकार के प्रति जवाबदेह नहीं होगा। दरअसल इस तरह के नियामकों की स्थापना का उद्देश्य देशी और विदेशी पूँजी की नंगी लूट को संस्थाबद्ध करना है।
इन सबके पीछे उद्देश्य साफ है, आज भारत सहित दुनिया भर के पूँजीपतियों को एक बड़ी प्रशिक्षित मज़दूर आबादी की ज़रूरत है। मौजूदा सरकार के ‘मेक इन इण्डिया’, ‘सीखकर कमा रहे हैं हम’, ‘आईआईटी नहीं आईटीआई चाहिए’ आदि नारों के पीछे यही मकसद है कि प्रशिक्षित और कुशल मज़दूरों की फौज खड़ी की जाये। उच्चतर शिक्षा को लेकर अप्रैल 2000 में अम्बानी-बिड़ला रिपोर्ट प्रस्तुत की गयी जिसमें उच्चतर शिक्षा को मुनाफ़ा कमाने के सबसे बड़े सेक्टर के रूप में इंगित किया गया और स्पष्ट रूप से कहा गया, “उच्चतर शिक्षा का ऐसा होना चाहिए जो अनुकूलनीय और प्रतिस्पर्धी मज़दूरों को पैदा कर सके जो द्रुत गति से नये कौशलों को सीखकर अन्वेषण कर सकें।” इस रिपोर्ट में मूल्य आधारित शिक्षा की बात की गयी और कहा गया कि प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर ही छात्रों को वर्ग और क्षमता के आधार पर वर्गीकृत कर दिया जाना चाहिए और आगे की शिक्षा इसी वर्गीकरण के आधार पर होनी चाहिए। यानी स्कूली शिक्षा के ही दौरान यह तय कर दिया जाना चाहिए कि जिसकी औकात हो उच्चतर शिक्षा खरीदने की वही संस्थानों में पहुँच सकता है और जो नहीं खरीद सकते उनके लिए तकनीकी शिक्षा की वकालत की गयी। यानी उनके लिए आईटीआई और पोलिटेक्निक। जो उनमें भी न पहुँच सकें वे दसवीं या बारहवीं के बाद देश की कुशल-अर्द्धकुशल मज़दूर आबादी में शामिल हो जायें। हालाँकि अब तो स्कूल स्तर पर भी तकनीकी और व्यवसायिक शिक्षा का प्रावधान किया जा रहा है। इसमें यह भी कहा गया कि सरकार को उच्चतर शिक्षा में निवेश कम करके प्राथमिक शिक्षा में करना चाहिए इससे सामाजिक विषमता कम होगी। सरकार पहले से ही उच्चतर शिक्षा में कम निवेश करती है अब और कम निवेश का सीधा मतलब है कि उच्चतर शिक्षा एक खास वर्ग मात्र का ही विशेषाधिकार बन जाये। 2006 में एसोचैम तथा आईसीआरआईईआर (इण्डियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इकोनॉमिक रिलेशन) के संयुक्त सेमिनार में एसोचैम ने ‘मार्केटिंग ब्राण्ड इण्डिया एजुकेशन मिशन’ के तहत पीपीपी को और तेज करने, विदेशी पूँजी के निवेश को बढ़ावा देने और ऑक्सफोर्ड बिजनेस स्कूल जैसे विश्व स्तरीय संस्थान स्थापित करने तथा ‘विश्वविद्यालयों के लिए सेज़’ के निर्माण करने को प्रस्तावित किया गया जिसके तहत उच्चतर शिक्षा को व्यवसायीकृत करने के लिए विश्वविद्यालयों को पुनर्गठित करने की बात की गयी है। 2007 में फिक्की के सचिव ने कहा कि, ‘दूरगामी तौर पर अमेरिका के साथ हमारी आर्थिक साझेदारी कौशल और मानव संसाधनों के आदान-प्रदान से ही होगी।’ अमेरिकी शिक्षण प्रणाली की तर्ज़ पर ही यहाँ भी कम्युनिटी कॉलेजों को स्थापित किया जा रहा है। इन कम्युनिटी कॉलेजों में कौशल आधारित शिक्षा दी जायेगी।
कहने का मतलब यह कि उच्चतर शिक्षा को अमेरिकी शिक्षा व्यवस्था की तर्ज़ पर ढाला जा रहा है ताकि विदेशी निवेशकों को आकर्षित किया जा सके। साफ है कि एक व्यापक आबादी की पहुँच से उच्च शिक्षा को दूर किया जा रहा है। गरीब और निम्नमध्यवर्गीय आबादी के लिए लोन की स्कीम का राग सरकार अलाप रही है। क्या हुआ अगर तुम्हारे पास फीस देने के लिए पैसा नहीं है तो हम तुम्हें ज़ीरो प्रतिशत ब्याज़ दर पर लोन देंगे, नौकरी के बाद चुका देना! यह बस कहने के लिए होता है कि ब्याज दर ज़ीरो है, असलियत में जब तक आपके पास अचल सम्पत्ति गारण्टी नहीं होगी लोन नहीं मिलेगा। अब वित्तीय पूँजीपति को अपना भी मुनाफ़ा देखना होता है। दूसरे, जब आज 2 प्रतिशत की दर से नौकरियाँ कम हो रही हैं तो नौकरी की कोई गारण्टी नहीं। फिर लोन चुकाने के लिए स्वाभाविक तौर पर दूसरे रास्ते तलाशे जायेंगे जो सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर पतनशीलता का कारण बनेंगे। एक सर्वे के अनुसार अमेरिका और यूरोप के कुछ देशों में औसतन ग्रैजुएट जब नौकरी की तलाश में निकलते हैं तो उनके ऊपर दस हजार पाउण्ड से भी ज़्यादा का कर्ज़ होता है जो पढ़ाई के दौरान लोन के रूप में लिया गया होता है। एक रिपोर्ट के अनुसार, इस कर्ज़ को चुकाने के लिए छात्र शुक्राणु और अंडज तक बेचते हैं। अमेरिका के क्लिनिकों में इसकी विशेष व्यवस्था होती है ताकि सन्तानहीन दम्पत्तियों को इसका लाभ मिल सके। इसके लिए प्रदाताओं (डोनर) को 2,400 से 10,300 डॉलर तक दिये जाते हैं।
यह है अमेरिका का सामाजिक-आर्थिक मॉडल जिसके लिए हमारे देश के पूँजीपति और उनकी मैनेजिंग कमेटी सरकारें आतुर हैं। संघ तो हमेशा ही अमेरिका-भक्त रहा है। नरेन्द्र मोदी तो इस भक्ति में इक्कीस ही ठहरता है!
तात्पर्य यह कि सरकारों की आर्थिक नीतियाँ देशी-विदेशी पूँजी की सेवा करने के लिए ही बनायी जाती रही हैं, चाहे वो किसी भी चुनावबाज पार्टी की सरकार हो। हाँ, मौजूदा सरकार ने सबको पीछे छोड़ते हुए श्रम कानूनों में बदलाव, विदेशी निवेश को बढ़ावा देने आदि जैसे जनविरोधी कदम उठाये हैं। दरअसल देश की पूँजीपतियों की जमात ने इस सरकार का समर्थन ही इसलिए किया है कि वह पूँजी की नंगई को डण्डे के बल पर स्थापित कर सके। आज शिक्षा को ‘गैट्स’ के अधीन किया जा रहा है, अन्य सेवा क्षेत्रों को भी किया जायेगा। पूँजीवादी व्यवस्था में शिक्षा भी माल होती है। आज ज़्यादा ज़रूरी हो गया है कि जनता के बीच इस बात को लेकर जाया जाये कि शिक्षा हमारा बुनियादी हक़ है और अपने बुनियादी हक़ों के लिए लड़ते हुए उस लड़ाई को व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई में बदल देना होगा क्योंकि एक मानव-केन्द्रित व्यवस्था ही इस मुनाफ़ाखोर व्यवस्था का विकल्प हो सकती है। सिर्फ विश्वविद्यालयी सेमिनार और टोकन प्रदर्शनों से कुछ नहीं होनेवाला।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,नवम्बर 2015-फरवरी 2016
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