विवेकहीनता का मौजूदा दौर और इसके विरोध के मायने
अरविन्द
पिछले दिनों तमाम साहित्यकारों, कलाकारों, फ़िल्मकारों के बाद कई इतिहासकार और वैज्ञानिक भी साम्प्रदायिक फासीवादी ताकतों के कुकृत्यों तथा केन्द्र व राज्य सरकारों के द्वारा इनके मूक समर्थन के खि़लाफ़ अपना विरोध दर्ज़ कराने हेतु उठ खड़े हुए। उक्त रचनाकारों और बुद्धिजीवियों के कलाकर्म और रचनाकर्म पर हमारी सहमति या असहमति हो सकती है किन्तु सत्ता-व्यवस्था और फासीवादी प्रवृत्तियों का इनका विरोध निश्चय ही काबिले-तारीफ़ है। कांग्रेस और अन्य क्षेत्रीय दल भी गाहे-बगाहे साम्प्रदायिकता का कार्ड खेलते रहे हैं किन्तु वोट के लिए साम्प्रदायिकता का इस्तेमाल करने में धुर-दक्षिणपन्थी भाजपा और शिवसेना और इन जैसों की बिरादरी का कोई सानी नहीं है।
लोकसभा चुनाव से पहले मुज्ज़फ्फ़रनगर के सुनियोजित दंगे इस बात का जीता-जागता उदाहरण हैं कि हमारे देश में ज्ञान-विज्ञान और इतिहास बोध से हीन लोगों को धर्म के आधार पर बाँटकर राजनीतिक रोटियाँ सेंकना कितना आसान काम है। ‘सबका साथ-सबका विकास’ के नारे को उछालने वालों के सरकार में आते ही लव-ज़िहाद, धर्मान्तरण, घर वापसी, हिन्दू राष्ट्र निर्माण, रामज़ादे-हरामज़ादे आदि के नाम पर लोगों को बाँटने की प्रक्रिया शुरू हो गयी थी और इन मुद्दों पर ऊल-जुलूल बयान आने शुरू हो गये थे। सत्ता में आने से पहले किये गये ‘अच्छे दिनों’ के वायदों को अब सोशल मीडिया की करामात (बकौल नरेन्द्र तोमर) बताया जाने लगा, काले धन को लाने और हर परिवार को पन्द्रह लाख देने वाली बात को अब चुनावी जुमला (बकौल अमित शाह) बताया जाने लगा है! देश में महँगाई, बेरोज़गारी, ग़रीबी की मार झेल रही जनता के जीवन में कोई भी गुणात्मक परिवर्तन नहीं आया। भाजपा सत्ता में आते ही कांग्रेस की ही पूँजीपरस्त नीतियों को और भी धड़ल्ले से आगे बढ़ाने में जुट गयी। हाल के दिनों में ही भाजपा के ही “दिग्गज” अरुण शौरी ने कहा कि भाजपा कुछ और नहीं बल्कि ‘कांग्रेस+गाय’ है!
पिछले दिनों हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिक तत्वों के द्वारा दिनदहाड़े गोली मारकर कन्नड़ विद्वान और हम्पी विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति 77 वर्षीय एम.एम. कलबुर्गी की हत्या कर दी गयी। इस फासिस्ट गिरोह की हिम्मत देखिये कि कलबुर्गी की हत्या पर इसका प्यादा, बजरंग दल के बंतवाल तालुक का सहसंयोजक भुविथ शेट्टी ट्वीट करता है कि ‘उस समय यू.आर. अनन्तमूर्ति था और अब कलबुर्गी। हिन्दू धर्म का मज़ाक उड़ाओ और कुत्ते की मौत मरो। और प्रिय के.एस. भगवान, अगला नम्बर तुम्हारा है।’ के.एस. भगवान मैसूर विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर रह चुके हैं तथा हिन्दुत्ववादियों के निशाने पर रहते हैं। इससे पहले नरेन्द्र दाभोलकर और गोविन्द पानसरे की हत्या भी इन्हीं साम्प्रदायिक तत्वों ने की थी। हत्यारों को अभी तक पकड़ा नहीं जा सका है। ज्ञात हो उक्त तीनों विद्वान अन्धविश्वास, रूढ़िवाद और धार्मिक कट्टरता के विरुद्ध लम्बे समय से अलख जगाते रहे थे। इन्हें लगातार धमकियाँ भी मिल रही थीं किन्तु शासन-प्रशासन ने कोई संज्ञान नहीं लिया। उक्त विद्वानों को ही निशाने पर लेने का एक कारण यह भी हो सकता है कि इनकी लेखकीय भाषा इनकी अपनी स्थानीय भाषाएँ थीं जिससे इनकी रचनाएँ कई मायनों में विशेष मारक क्षमता से लैस थीं क्योंकि स्थानीय आबादी तक इनके विचारों की पहुँच आसान थी। 28 सितम्बर की रात को अल्पसंख्यक समुदाय के अख़लाक नामक बुजुर्ग को गौहत्या की अफवाह फैलाकर भीड़ द्वारा पीट-पीट कर मौत के घाट उतार दिया गया। अफवाह फैलाने और उक्त हत्याकाण्ड की अगुवाई करने वालों में भाजपा के स्थानीय नेता संजय राणा का बेटा विशाल राणा शामिल था। सत्तापक्ष की तरफ से बार-बार यह बयान आया कि उक्त हत्याकाण्ड महज़ एक छोटी-सी घटना है जो ग़लतफ़हमी के कारण घट गयी। गाय के प्रति आस्था के नाम पर हत्यारों के बचाव के बेशर्मीपूर्ण प्रयास किये गये। और जब यह स्पष्ट ही हो गया कि उक्त हत्या के शिकार व्यक्ति के घर में गौमांस था ही नहीं तब भी महेश शर्मा, निरंजन ज्योति, साध्वी प्राची, संगीत सोम, मनोहरलाल खट्टर आदि आदि भाजपाई नेता बेतुकी, निर्लज्जतापूर्ण और अल्पसंख्यक विरोधी बयानबाजी करते नज़र आये। यही नहीं एक कश्मीरी नौजवान की भी गौमांस की अफवाह फैलाकर हत्या कर दी गयी और यह सिलसिला लगातार जारी है क्योंकि सत्ताधारियों द्वारा समर्थित गुण्डों के गिरोह लोगों का शिकार करने के लिए लगातार सक्रिय हैं और भी कई निर्दोष लोग इनका शिकार बने। आम जनता में गाय के प्रति अगर इतनी ही श्रद्धा-भक्ति होती तो आज गाय कूड़े के ढेरों पर गन्दगी में मुँह मारती हुई न मिलती मगर ढोंग और पाखण्ड की साकार मूर्तियाँ गाय के नाम पर नफ़रत फैलाने और अपनी वोट की गोट लाल करने में जुटी हैं। स्वच्छ प्रशासन देने के दमगजे भरने वालों व विकास के लम्बे चौड़े वायदे करने वालों के राज में अल्पसंख्यकों, दलितों, स्त्रियों पर अत्याचारों में कमी तो दूर बल्कि कई मायनों में तो इनसे जुड़े अपराधों में इज़ाफ़ा भी हुआ है। एफ.टी.आई.आई, भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद्, भारतीय विज्ञान कांग्रेस आदि के बाद तमाम संस्थानों या कहिये शैक्षिक-अकादमिक केन्द्रों का भगवाकरण भी जारी है।
यही वह पूरी पृष्ठभूमि है जिसके आधार पर बुद्धिजीवियों का उल्लेखनीय तबका अपना विरोध दर्ज़ करा रहा है तथा वक्त-ब-वक्त मिले पुरस्कारों को लौटा रहा है। साहित्यकार, रंगकर्मी, फ़िल्मकार, इतिहासकार और वैज्ञानिक बड़ी संख्या में साम्प्रदायिक कट्टरता के विरोध में तथा सरकार के असंवेदनशील रवैये के खि़लाफ़ अपनी असहमति दर्ज़ करा रहे हैं। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के उत्कृष्ट बुद्धिजीवी व अकादमीशियन भी भारतीय बौद्धिक जमात का समर्थन कर रहे हैं। और इतना ही नहीं ‘मूड़ीज़’ जैसी कई रेटिंग एजेंसियों ने भारत में बिगड़ते माहौल को निवेश के प्रतिकूल बताया जो पूँजीपतियों के एक हिस्से के कान खड़े करने के लिए पर्याप्त था। खुद देश के राष्ट्रपति और आर.बी.आई. के गवर्नर रघुराम राजन को भी ‘बढ़ती असहिष्णुता’ पर बोलना पड़ा लेकिन ‘भक्तजन’ कहाँ मानने वाले थे!
राष्ट्रीय और वैश्विक पैमाने पर हुई थुक्का-फ़जीहत के बावजूद भी कई मीडिया समूह, भाजपाई नेतृत्व और राग दरबारी गाने वाले कुछ बुद्धिजीवी विरोध को महज़ षड्यन्त्र बतला रहे हैं। इन महानुभावों का कहना है कि ये लुटियन जोन वाले बौद्धिकों का समूह है जिसे भाजपा व इसका विकास मॉडल रास नहीं आ रहा है जबकि इनमें बहुत सारे स्वतंत्र रचनाकार भी हैं जिनका किसी भी पार्टी व चुनावी समूह से कुछ भी लेना देना नहीं है। भाजपा जिसे विकास मॉडल के तौर पर प्रस्तुत कर रही है वह नंगे तौर पर देशी-विदेशी पूँजीपतियों की सेवा टहल का मॉडल है इस बात को कहने में गुरेज़ ही क्या किया जाये। जिस प्रकार वैदिक काल में ‘वैदिक हिंसा हिंसा न भवति’ का नियम काम करता था उसी प्रकार भाड़े के भोंपू और भगवा ‘साइबर सैल’ के दुष्प्रचारक आज भाजपा और मोदी को आलोचनाओं से परे सिद्ध करने में ऐड़ी-चोटी का ज़ोर लगाये हुए हैं। ‘असहिष्णुता’ शब्द तक का इस्तेमाल करने वालों को ही असहिष्णु करार दिया गया, विरोध करने वालों पर खूब कीचड़ उछाला गया उनके बारे में मनगढ़न्त किस्से फैलाये गये। और इसी क्रम में संघी गिरोह असहिष्णुता के मामले में नये से नये कीर्तिमान स्थापित करता चला गया। मूर्खता की इन्तेहाँ तो तब हो जाती है जब कहा जाता है कि इन साहित्यकारों ने आपातकाल के दौर में अपने पुरस्कार क्यों नहीं लौटाये जबकि कुछ रचनाकार तो पैदा ही आपातकाल के बाद हुए हैं। और बहुतों ने न केवल आपातकाल का मुखर विरोध किया था बल्कि सत्ता का कोपभाजन भी बनना पड़ा था। आपातकाल को अब तक भुनाने वाली भाजपा के खुद के मन्त्रीमण्डल में जगमोहन और मेनका गाँधी जैसी शख़्सियतें हैं। अपने गिरेबान में झाँकने की बजाय चाँद पर थूकने की कवायद संघियों का पुराना शगल रहा है। मुख्यधारा के प्रिण्ट और इलैक्ट्रोनिक मीडिया का बहुत बड़ा हिस्सा साहित्यकारों-रचनाकारों व बुद्धिजीवियों के विरोध को फ़र्जी बताने, इसे राजनीति के द्वारा संचालित सिद्ध करने में जुटा है तथा इस बात से लोगों को आलोकित कर रहा है कि कुछ कट्टर आवाज़ों पर कान न देकर हमें अपना ध्यान “विकास” पर केन्द्रित करना चाहिए। पत्रकारिता के अपने पेशे को चकलाघर के धन्धे में तब्दील करने का उद्योग बहुत पुराने समय से चला आ रहा है और यह आज भी बखूबी जारी है। मीडिया के बड़े-बड़े अजगर – जो स्वयं सत्ता के सामने दण्डवत हैं ही और स्याह को सफेद और सफेद को स्याह करने के चक्कर में अहर्निश प्रयासरत रहते हैं वे ही यह हास्यास्पद आरोप लगा रहे हैं कि पुरस्कार लौटाने वाले साहित्यकारों-रचनाकारों को मीडिया ने बेवजह हवा दे रखी है जबकि असल में जनता के बीच बुद्धिजीवियों की बात सोशल मीडिया के सीमित हिस्से व मुख्यधारा के मीडिया के बहुत छोटे हिस्से के द्वारा ही पहुंच पा रही है।
ज़ाहिरा तौर पर ‘बढ़ती असहिष्णुता’ और साम्प्रदायिक फासीवाद के मसले पर हो रहा विरोध जायज़ है किन्तु हमें यहीं नहीं रुक जाना चाहिए बल्कि अपने विरोध की धारा को और भी व्यापक बनाने के लिए इसे जनता के महासमुद्र तक ले जाना चाहिए। क्योंकि असल सवाल सहिष्णुता-असहिष्णुता का नहीं बल्कि एक राजनीतिक और विचारधारात्मक वर्ग संघर्ष का है। आज जनवादी-नागरिक अधिकारों पर फासीवादी हमला जब लोगों के शयनकक्ष तक में प्रवेश कर गया है, तब तमाम उदारवादी बुद्धिजीवियों ने आजिज आकर आवाज़ उठायी है, और इसकी हिमायत की जानी चाहिए। लेकिन यह भी नहीं भूलना चाहिए कि फासीवादी उभार के इस कदर आक्रामक बन पाने में कुछ योगदान उदारवादी बुद्धिजीवी वर्ग का भी है, जो कि, जब फासीवादी नाग अपना फन उठाने की शक्ति संचित कर रहा था तो विचारधारात्मक-राजनीतिक निष्पक्षता के ‘हाई मॉरल ग्राउण्ड’ पर विराजमान थे! आज फासीवादी ताक़तों के ख़िलाफ़ लड़ाई को सड़कों तक ले जाने के लिए व्यापक मेहनतकश जनसमुदायों को इस पूँजीवादी व्यवस्था की सच्चाई से रूबरू कराना होगा और उसे क्रान्तिकारी विचारों व राजनीति पर जीतना होगा। यदि जनमत हमारे पक्ष में नहीं होगा तो वह किसी न किसी रूप में चाहे-अनचाहे फासीवाद के पक्ष में होगा क्योंकि यदि वह तटस्थ भी होगा तो भी वह साम्प्रदायिक शक्तियों का मददगार ही होगा। फासीवादी हमेशा ही जनता की निम्न चेतना का फायदा उठाकर उसका ध्यान असली समस्याओं से हटाकर नकली समस्याओं पर केन्द्रित करवाने में लगे रहते हैं। शिक्षा, चिकित्सा, रोजगार, महँगाई, गरीबी जैसे मुद्दे किनारे कर दिये जाते हैं और धर्म, रंग, नस्ल, राष्ट्रीयता के आधार पर लोगों को एक दूसरे के सामने दुश्मन के तौर पर खड़ा कर दिया जाता है। तमाम समस्याओं की जननी पूँजीवादी सत्ता साफ बचकर निकल जाती है। इतिहास गवाह है कि फासीवाद को जनता पराजित करती है जनता की लामबन्दी के बिना फासीवाद और सत्ता-व्यवस्था का कोई भी विरोध स्वागत योग्य होने के बावजूद भी आधा-अधूरा ही रहेगा। इसलिए हमें अलग-अलग कला माध्यमों के द्वारा जनता को सच्चाई से न केवल अवगत करवाना चाहिए अपितु उसे वर्ग चेतना से लैस भी करना चाहिए।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,नवम्बर 2015-फरवरी 2016
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