फ़ासीवाद, जर्मन सिनेमा और असल ज़िन्दगी के बारे में जर्मनी के प्रचार मंत्री, डॉक्टर गोएबल्स को खुला पत्र

सर्गेई आइज़ेन्सताइन

सम्पादकीय परिचय

पूँजीवाद अपनी स्वाभाविक गति से संकट की ओर बढ़ता है। और जब-जब पूँजीवाद संकटग्रस्त होता है तब-तब वह अपने सबसे वफ़ादार खादिम फ़ासीवाद को संकट-निवारण के लिए याद करता है। पूँजीवाद को संकट के मझधार से बाहर निकालने के लिए फ़ासीवाद डण्डे के ज़ोर पर आम मेहनतकश जनता पर कहर बरपाता है। मजदूरों और मेहनतकश जनता के खून की आखिरी बूँद को निचोड़ कर मुनाफ़े में तब्दील कर, पूँजी की धीमी होती गाड़ी की मोटर में ऊर्जा संचार करने का काम करता है। संकट के समय पूँजीवाद को एक ऐसे लठैत की ज़रूरत होती है जो तानाशाहाना तरीके से वह सब नीतियाँ बनाये और उन्हें लागू करे जिसके चलते पूँजीवाद की गाड़ी आगे बढ़े। फ़ासीवाद के सत्ता पर काबिज़ होने पर जिस गति से आम जनता का शोषण और दमन होता है उसके फलस्वरूप जनता में आक्रोश और असन्तोष पैदा होता है। फ़ासीवाद कभी राष्ट्रवाद, कभी धर्म, कभी रंग, जाति, नस्ल के नाम पर जनता को बाँटने का काम करता है। फ़ासीवाद ग़रीबी, भुखमरी, बेरोज़गारी, महँगाई से त्रस्त जनता को राष्ट्र, धर्म, जाति, रंग, नस्ल के नाम पर बलिदान देने का आह्वान करता है, वास्तव में यह बलिदान नहीं बल्कि पूँजी के गिलोटिन पर आम मेहनतकश जनता की बलि चढ़ाता है। फ़ासीवाद के उभार के साथ जनता के बीच जो गुस्सा और असन्तोष पैदा होता है उसे शान्त करने और जनता को भ्रमित करने के लिए फ़ासीवाद तमाम तरह के स्वाँग रचता है। ख़ास तौर पर कला, साहित्य, संस्कृति, इतिहास पर फ़ासीवादी अपने सबसे प्रचण्ड हमले करते हैं। आम मेहनतकश जनता के सर्जन और उनसे प्रेरित हो उपजी संस्कृति, कला और साहित्य को तबाह करने के लिए फ़ासीवाद जनता के सामने अपनी पीप-भरी और सड़ी हुई बदबूदार संस्कृति पेश करता है। अश्लील फिल्मों से लेकर गानों तक, घटिया साहित्य से लेकर उन्मादी संगीत तक, फ़ासीवादी कला को विरूपित करने का कोई प्रयास नहीं छोड़ते। चिन्हों की पूजा कर फ़ासीवादी अपनी पूरी राजनीति को केवल चिन्ह पूजन तक सीमित कर देते है। हम यहाँ जो चिट्ठी पेश कर रहे हैं वह चिट्ठी सोवियत संघ के महान फिल्मकार, मोन्ताज के सिद्धांत को विधिगत तरीके से विकसित करने वाले और सर्वहारा वर्ग के संघर्ष को अपनी फिल्मों के परदे पर सबसे बेहतरीन तरीके से प्रक्षेपित करने वाले आइजेंस्ताइन ने नात्सी पार्टी के प्रचार मंत्री डा. गोएबल्स द्वारा भाषण में जर्मन फिल्मकारों को आइजेन्सताइन की फिल्म ‘बैटलशिप ऑफ पोतमकिन’ से सीख लेने की नसीहत देने का मखौल उड़ाने के लिए लिखी थी। आइजेंस्ताइन का सिनेमा वर्ग संघर्ष का सिनेमा था। उनका मानना था कि जीवन और चिंतन के द्वन्द्वों को कलात्मक अभिव्यक्ति देने में सिनेमा सर्वाधिक सक्षम माध्यम है और उन्हें सचेतन तौर पर हल करने में, एक सांस्कृतिक उपकरण के तौर पर इसकी भूमिका सर्वाधिक प्रभावी होगी । ‘स्ट्राइक’, ‘बैटलशिप ऑफ पोतमकिन’, ‘अक्टूबर’, ‘ओल्ड एण्ड न्यू’ उनके द्वारा बनायीं गयी फिल्मों में से कुछ फिल्में है, जिनमें से ‘बैटलशिप ऑफ पोतमकिन’ को आज भी इतिहास में बनी सर्वश्रेष्ठ फिल्मों की श्रेणी में गिना जाता है। पोतमकिन एक ऐसी उद्वेलनात्मक फिल्म थी जिसमें क्रान्ति की कथा का विवरण किसी एक प्रतिनिधि नायक के चरित्र के ज़रिये नहीं बल्कि पूरी क्रान्ति काल की एक महत्वपूर्ण घटना को मोंताज शैली में प्रस्तुत किया गया था। पोतमकिन में कर्मचारियों को खिलाये जाने वाले खाने का दृश्य, उनके साथ होने वाला शोषण, ओडेसा के बन्दरगाह पर कज़्ज़ाकों द्वारा नागरिकों का क़त्लेआम जो नौसेना विद्रोहियों का स्वागत करने पहुँचे, बन्दरगाह की सीढ़ियों का दृश्य; क्रान्ति की इस एक घटना के ज़रिये पूरी क्रान्ति की स्पिरिट को आइजेंस्ताइन ने परदे पर उतार दिया और सिनेमा को वस्तुतः एक सर्वहारा कला के माध्यम के रूप में सार्थक साबित दिया। लेनिन ने कला के सभी माध्यमों में से फिल्मों को सर्वाधिक महत्वपूर्ण बताया था। उनके इस कथन की पुष्टि‍ इस बात से हो जाती है कि इण्डोनेशिया के डच युद्धपोत पर विद्रोह करने वाले नौसैनिकों ने अपने मुकदमे के दौरान यह स्वीकार किया था कि उन्हें विद्रोह करने की प्रेरणा आइजेंस्ताइन की फिल्म ‘बैटलशिप ऑफ पोतमकिन’ को देख कर मिली। चौथे दशक के दौरान उफान पर रहे यूरोप के मजदूर आन्दोलन में यह फिल्म बेहद लोकप्रिय बनी रही, दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जापान में इस फिल्म के कारण एक राजनीतिक संघर्ष उठ खड़ा हुआ, ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को यह फिल्म दिखाने के लिए नागरिक समितियों का गठन किया गया। 1933 और 1934 में नात्सी पार्टी के प्रचार मंत्री गोएबल्स ने जर्मन फिल्मकारों को दिए अपने भाषणों में आइजेंस्ताइन की फिल्म का ज़िक्र करते हुए जर्मन फिल्मकारों से नात्सी समाज के लिए भी ऐसी उत्कृष्ट फिल्में बनाने की गुहार लगाई जिनसे नात्सियों के ‘राष्ट्रीय समाजवाद’ (वास्तव में फासीवाद) को विश्व भर में ख्याति प्राप्त हो। गोएबल्स के इन्ही भाषणों की आलोचना करते हुए आइजेंस्ताइन ने उन्हें यह खुला पत्र लिखा जिसमें उन्होंने गोएबल्स को यह चेताया की जनसमुदाय की समष्टिगत शक्ति और अजेयता की स्पिरिट से उपजी जिस कला को विकृत कर वह अपने घटिया मंसूबों के लिए इस्तेमाल करना चाहता है उसमें वह कभी कामयाब नहीं होगा क्योंकि बिना सर्वहारा की सर्जनात्मकता के, उनकी ज़िन्दगी के हालातों को आत्मसात हुए बिना किसी भी कलाकार के लिए कला की कोई भी रचना गढ़ना असम्भव है। कला को पोषित करने वाला सारा खाद-पानी और कच्चा माल उन्ही बस्तियों, कारखानों से निकलता है जहाँ बर्बरता से नात्सी सत्ता कहर बरपा रही थी। अपने यातना शिविरों में जिस जीवनदायनी शक्ति का बेदर्दी से नात्सी गाला घोंट रहे थे। उसके बाद यह कल्पना करना कि जर्मन सिनेमाकार कलात्मक रूप से उन्नत फिल्मों को जन्म देंगे बहुत बड़ी बेवकूफी और कोरी लफ्फ़ाजी है।

Eisenstein1930 के दशक में लिखी गयी यह चिट्ठी भारत में आज कला पर हमला कर रहे फ़ासीवादियों पर भी सटीक तरह से लागू होती है। आज भारत में मोदी सरकार के रूप में फ़ासीवाद सत्ता में है। मोदी के चुनाव से पहले और सत्ता में आने के बाद से विज्ञान, कला, साहित्य और आम मेहनतकश जनता पर फ़ासीवादी हमले तेज़ हो गए हैं। घर वापसी, लव जिहाद के साथ  योगी आदित्यनाथ, साक्षी महाराज, निरंजन ज्योति जैसे भोगी साधुओं के साम्प्रदायिक बयान, महाराष्ट्र में गौमांस पर प्रतिबन्ध, मुजफ्फ़रनगर के दंगे, अटाली गाँव के दंगे, योग दिवस की नौटंकी, नारी के सम्मान को तार तार करने वाले बलात्कारी साधुओं और मंत्रियों की सरकार की ‘सेल्फी विद डॉटर’ की नौटंकी यह कुछ उदाहरण है उन हथकण्डो के जो भारत में बच गयी हिटलर और मुसोलिनी की नाजायज संतानें आम जनता को बांटने के लिए अपना रही है। वैदिक विज्ञान के नाम पर विज्ञान पर हमला हो, या इतिहास को फिर से लिखने के लिए एनसीईआरटी की समिति का गठन, सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष के तौर पर ऐसे व्यक्ति की नियुक्ति जिसकी कलात्मकता का एकमात्र प्रमाण हो मोदी के लिए बनायी गयी ‘हर घर मोदी’ फिल्म, चिल्ड्रन फिल्म सोसाइटी ऑफ इण्डिया के अध्यक्ष के रूप में मुकेश खन्ना (जिन्होंने भीष्म का किरदार निभाने, शक्तिमान बनने और भाजपा के सदस्य होने के अलावा कोई कलात्मक सृजन नहीं किया!) और हाल ही में सबसे चर्चित मामला है फिल्म एण्ड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इण्डिया के अध्यक्ष के रूप में गजेन्द्र चौहान की नियिुक्त। आइजेंस्ताइन ने अपनी फिल्मों के जरिये ये साबित कर दिया था की फिल्में एजिटेशन और प्रोपेगैंडा का बेहद शक्तिशाली माध्यम हैं और उससे भी महत्वपूर्ण वे स्वयं वर्ग संघर्ष की एक रणभूमि हैं। इस बात को भारत के फ़ासीवादी भी सही सिद्ध कर रहे हैं और इसीलिए भारत के सबसे प्रीमियर फिल्म संस्थान का भगवाकरण करने के लिए चौहान जैसे व्यक्ति को अध्यक्ष की कुर्सी दे दी गयी है। स्वतन्त्र सोच और अभिव्यक्ति को कुचलने की यह मुहिम लम्बे समय से चल रही है मगर सत्तासीन होने के बाद इस पूरी मु‍हिम ने एक विकराल रूप धारण कर लिया है। केवल अपने कैंपसों और कॉलेज की चारदीवारी के भीतर अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिए लड़ने और जीत जाने से कला पर हो रहे निर्मम हमले न रुकेंगे न ही खत्म होंगे। सही मायने में कलात्मक स्वतन्त्रता और अभिव्यक्ति की आज़ादी हासिल करने के लिए आज के कलाकारों को कला का सर्जन करने के लिए उन्ही बस्तियों, झुग्गियों, फैक्टरियों, कारखानों में जाना पड़ेगा जहाँ से जीवन का सर्जन होता है। बाल्ज़ाक की तरह उन्हीं बस्तियों में जाकर आज के साहित्यकार ‘ह्यूमन कॉमेडी’ जैसी रचनाओं को गढ़ने के बारे में सोच सकते है, ब्रेष्ट की तरह नाटकों को मेहनतकश जनता के बीच ले जाकर ही आज एपिक थिएटर के नाटक लिखे जा सकते हैं और जनता की ज़िन्दगी के हालातों को प्रक्षेपित करने वाली फिल्में ही आइजेंस्ताइन की पोतमकिन जैसी उन्नत फिल्म बन सकती हैं। फ़ासीवादियों ने जनता के बीच साम्प्रदायिकता का ज़हर उगल कर उन्हें बाँटने और उनके असली दुश्मन यानी इस सत्ता को बचाने की अपनी कार्यवाही बेहद तेज़ कर दी है। संघी हाफपैन्टिये आम मेहनतकश जनता के बीच अपनी शाखाओं के ज़रिये साम्प्रदायिकता का ज़हर निरन्तर उगल रहे हैं। उन्होंने जनता के बीच अपनी खन्दकों को बेहद गहरा और बड़ा कर लिया है। उनका मुकाबला करने के लिए आज के क्रान्तिकारियों, इन्साफपसंद नागरिकों, छात्रों, युवाओं को भी मिल कर अपनी खन्दकों और बैरीकेड खड़े करने होंगे। कला पर फ़ासीवादियों के हमलों का जवाब हमें कला का राजनीतिकरण करके देना होगा। कला के राजनीतिकरण से आशय है ऐसी फिल्में, नाटक, गीत, साहित्य, कविताओं की रचना और उनका प्रचार जो व्यापक जनता को सच्चाई से एक आलोचनात्मक रिश्ता बनाने में मदद करे और उनके वर्ग के आधार पर एकजुट करने का काम करे और उनके सामने उनके असली दुश्मन यानी इस सत्तातंत्र को नंगा कर दे। ब्रेष्ट के एपिक थिएटर की शैली में नाटक तभी तैयार किये जा सकेंगे जो लोगों को यह बताएँ कि बर्बर शोषक व्यवस्था में वह वर्ग हमेशा गुलामों की ज़िन्दगी जीने ले लिए मज़बूर रहेगा जो सुई से लेकर जहाज़ तक का निर्माता है, जो उन्हें यह बताएगा की उनके खून और पसीने की मेहनत से ही अमीरों की एय्याशियों का सारा साज़ो-सामान तैयार किया जाता है और जिस नरक जैसी ज़िन्दगी को जीने के लिए  उन्हें मज़बूर किया जाता है उसके खिलाफ उन्हें एक वर्ग के रूप में एकजुट होकर संघर्ष करना होगा। आज हमारे समाज को ऐसे कलाकारों, साहित्यकारों, कवियों, लेखकों और फिल्मकारों की ज़रूरत है जो उस मेहनतकश जनता की आवाज़ बनेंगे जिनकी चीखें भी आज सत्ता में बैठे लोगों तक नहीं पहुँचती। उनकी उस खामोशी को आवाज़ देने की ज़रूरत है जो इस  व्यवस्था की असलियत को बेपर्दा कर दे। जिस तरह माओ ने लू शुन को कला के युद्ध के मोर्चे का सेनापति कहा था आज हमें भी ऐसे कलाकारों की ज़रूरत है जो वर्ग संघर्ष के इस मोर्चे पर आगे की कतारों में खड़े हों और दुश्मन के कला के विकृतिकरण के हमले का मुह तोड़ जवाब दें।

आइजेन्स्ताइन की चिट्ठी

डॉक्टर साहब!

यह जान कर आपको शायद ही दुःख्‍ या आश्चर्य हो कि मैं आपके द्वारा नियंत्रित जर्मन प्रेस का ग्राहक नहीं हूँ। मैं आम तौर पर उसे पढ़ता तक नहीं हूँ। शायद इसीलिए आपको यह जान कर थोड़ा आश्चर्य हो कि कुछ यूँ ही सही, मुझे आपके द्वारा हाल ही में बर्लिन के क्रोल ओपेरा हाउस में 10 फरवरी को फिल्म निर्माताओं को दिए भाषण के बारे में पता चला।

इस मौके पर आपने दूसरी बार मेरी फिल्म ‘द बैटलशिप ऑफ पोतेमकिन’ के सन्दर्भ में प्रशंसनीय उल्लेख किया।

और तो और आपने एक बार पुनः, जैसा कि एक साल पहले किया था, इसकी गुणवत्ता को आपने राष्ट्रीय समाजवादी फिल्मों के द्वारा मानक के रूप में अनुसरण करने की बात की थी।

आप बेहद समझदारी का प्रयोग करते हुए अपने फिल्म निर्माताओं को अपने दुश्मनों से सीखने के लिए भेज रहे हैं।

पर ऐसा करते हुए आप एक छोटी पद्धतिगत भूल कर रहे हैं।

मुझे उसकी ओर इंगित करने का अवसर दीजिये।

और अगर जो मैं कहूँ वह आपको पसन्द न आये तो मुझे दोष न दें।

हम आपको सिखाने के लिए व्याकुल नहीं हैं-यह तो आप हैं जो खुद को हम पर थोप रहे हैं।

ग़लती करना मानवोचित है।

और आपका यह सुझाव कि फासीवाद महान जर्मन सिनेमा को जन्म दे सकता है, एक प्रगाढ़ भूल है।

गोएबल्‍स

                गोएबल्‍स

यद्यपि पवित्र आर्यन प्रेत के सर्वाधिक दयापूर्ण सहायता के साथ होते हुए भी ऐसा सोचना आपकी भूल है। एंगेल्स ने कही एक अंग्रेजी की कहावत उद्धृत की थी कि ‘द प्रूफ ऑफ द पुडिंग इस इन द ईटिंग’ यानी किसी सेब खाकर ही सेब की सत्यता सिद्ध होती है। उदासी का एक लम्बा अरसा बीत जाने के बाद भी जिस राष्ट्रीय समाजवाद की आप डींगे हाँकते हैं उसने कला का एक भी ऐसा कृत्य नहीं रचा है जो ज़रा भी सराहनीय हो। इसीलिए जैसे दो भाषण आपने हाल में दिए है उसकी तर्ज़ पर आपको कई भाषण देने पड़ेंगे। जर्मन सिनेमा को प्रेरित करना जिसने अतीत में कई उपलब्धियाँ हासिल की थी मगर अब फासीवाद के चंगुल में फँस चुका है एक बहुत ही थकाऊ और सर्वाधिक निरर्थक काम है। मैं अच्छी तरह से आश्वस्त हूँ और दृढ़ता से कामना करता हूँ कि जर्मनी का सर्वहारा वर्ग आपको इस थकाने वाले काम से आज़ाद करने में ज़्यादा समय नहीं लगाएगा।

मगर फिर भी अगर आपको सिनेमा के बारे में फिर से भाषण देने की नौबत पड़े तो हमें आपके जैसे ऊँचे ओहदे पर बैठे आदमी को ऐसी पद्धतिगत भूल करने की इजाज़त नहीं देनी चाहिए।

  गड़गड़ाती तालियों के बीच आपने जर्मन सिनेमा के लिए शानदार सृजनात्मक प्रोग्राम की रूपरेखा पेश करते हुए कहा:

“असल ज़िन्दगी को एक बार फिर से फिल्मों की विषय वस्तु बनना होगा। हमें ज़िन्दगी को निडर और बहादुर हो कर जीना चाहिए बिना कठिनाइयों या असफलताओं से डरे हुए। जितनी बड़ी असफलता मिले उस समस्या पर हमारा अगला हमला और भी उग्र होना चाहिए। अगर हम हर असफलता पर अपना साहस खो बैठते तो आज हम कहाँ होते ?(तालियों की गर्जना) अब जबकि तुच्छ मनोरंजन हमारे सार्वजनिक जीवन से खत्म किया जा चुका है, आप सभी फिल्म निर्माताओं को अमर जर्मन लोगों के विषय को वापिस लाना होगा और उस पर फिल्में बनानी होंगी। उन लोगों के बारे में जिनको हम से बेहतर और कोई नहीं समझता। लोग वैसे ही बनते है जैसा उन्हें बनाया जाए (वाह-वाह की आवाज़) और हमने यह अच्छे से दिखा दिया है की जर्मन लोग क्या कर सकते हैं (गर्जनदार तालियाँ)। जनता कला से कटी हुई नहीं है। और मुझे अच्छी तरह से यकीन है कि अगर हम अपने सिनेमाघरों में एक ऐसी फिल्म दिखाएँ जो सही मायने में हमारे युग का प्रतिबिम्बन करे और वास्तव में एक राष्ट्रीय समाजवादी ‘बैटलशिप’ हो तो सिनेमाघरों की सीटें लम्बे समय तक भरी रहेंगी।”

जब आप बैटलशिप की बात करते हैं तो मुझे कोई सन्देह नहीं है कि आपके दिमाग में केवल पोटेमकिन ही नहीं बल्कि समकालीन सिनेमा की सारी सफल श्रृंख्‍ला है। कुल मिलाकर यह वाकई एक शानदार प्रोग्राम है।

हम सब जानते हैं कि केवल असल ज़िन्दगी, ज़िन्दगी की सच्चाई और ज़िन्दगी का सच्चा चित्रण ही सच्ची कला का आधार बन सकता है।

                आज जर्मनी की सच्चाई को ईमानदार तरीके से बयाँ करती फिल्म एक मास्टरपीस साबित हो सकती है!

बहरहाल आपको अपने इस शानदार प्रोग्राम को हक़ीकत में बदलने के लिए अच्छी सलाह की ज़रूरत है।

आपको निस्सन्देह ही सलाह की ज़रूरत है। और थोड़ी बहुत नहीं बल्कि ढेर सारी सलाह की ज़रूरत है।

सीधे साफ़ शब्दों में कहें तो आपको पूरी सोवियत व्यवस्था की ज़रूरत है।

क्योंकि हमारे समय में महान कला, जीवन का सच्चा चित्रण, जीवन की सच्चाई और जीवन खुद केवल सोवियतों की धरती पर सम्भव है, पहले उसका जो भी नाम रहा हो।

लेकिन सत्य और राष्ट्रीय समाजवाद दोनों परस्पर विरोधी हैं।

जो भी सच के साथ खड़ा होता है उसका राष्ट्रीय समाजवाद से कुछ लेना देना नहीं हो सकता। जो भी सत्य के पक्ष में खड़ा होता है वह तुम्हारे विरुद्ध खड़ा है।

आपकी हिम्मत कैसे हुई कहीं भी जीवन के बारे में बात करने की जबकि आप कुल्हाड़ी और मशीन गन से अपने देश में हर उम्दा और ज़िन्दा चीज़ पर मौत और निर्वासन का कहर बरपा रहे हैं?

आप जर्मन सर्वहारा के श्रेष्ठतम बेटे-बेटियों का क़त्लेआम कर, धरती की सतह पर जर्मनी के सच्चे विज्ञान के गर्भ और विश्व संस्कृति के चिथड़े बिखेर रहे हैं।

आपकी हिम्मत कैसे हुई अपने सिनेमा से जीवन के यथार्थ का सच्चा चित्रण करने का आह्वान करने की जबकि उसका पहला कर्तव्य होना चाहिए चीख-चीख कर पूरी दुनिया को उन हज़ारों-लाखों लोगों के बारे में बताना जो आपकी जेलों की काल-कोठरियों में सड़ रहे हैं जिनका उत्पीड़न कर आपके यातना शिविरों में मौत के घाट उतरा जा रहा है?

 लीप्जि़ग में बेबल की मीनार से ऊँची बेशर्म झूठों की मीनार खड़ी करने के बाद आपने किस मुँह से सच्चाई के बारे में बात करने की हिम्मत की? वह भी ऐसे वक्त पर जब आप थेलमान्न के खि़लाफ़ कार्यवाही करने के लिए कपट और झूठों का एक नया ढाँचा खड़ा कर रहे हो?

आप एक अच्छे गड़रिये की तरह अपने भाषण में आगे कहते हो मुझे बस इतना विश्वास दिलाने की ज़रूरत है कि एक फिल्म के पीछे ईमानदार कलात्मक नीयत हैं और मैं हर तरह से उसकी पैरवी करूँगा।”

महाशय गोएबल्स, आप झूठ बोल रहे हैं।

आप अच्छी तरह से जानते हैं कि एक ईमानदार और कलात्मक फिल्म केवल वही हो सकती है जो उस नरक का पर्दाफाश कर दे जिसमें जर्मनी को राष्ट्रीय समाजवाद ने धकेला है।

आप विरले ही ऐसी फिल्मों को प्रोत्साहित करेंगे।

सच्चा जर्मन सिनेमा केवल वही हो सकता है जो क्रान्तिकारी जनता का तुम्हारे खि़लाफ़ युद्ध करने का आह्वान करे।

यह सच में साहस और हिम्मत की माँग करता है।

तुम्हारे भाषण की मधुर वाणी के बावजूद तुमने कला और संस्कृति को भी उन्हीं लोहे की ज़ंजीरों में जकड़ रखा है जिनमें बंध कर लाखों लोग तुम्हारे यातना शिविरों में कैद है।

कला की कृतियाँ ऐसे नहीं बनायीं जाती जैसे आप कल्पना करते हैं। मिसाल के तौर पर, हम जानते हैं और कुछ हद तक प्रदर्शित कर चुके हैं कि कला की कोई भी कृति तभी ख्याति और नाम की हक़दार होती है जब कोई कलाकार एक पूरे वर्ग के संघर्ष और उसके विद्रोह को अपनी कला के ज़रिये अभिव्यक्त करता है। कला की एक सच्ची कृति वास्तव में एक पूरे वर्ग की अपने संघर्ष को और मज़बूत करने की संगठित कोशिश होती है जो उसकी उपलब्धियों उसके सामाजिक आधार की कला के रूप में अमर तस्वीरें होती हैं। कला की कृति जितनी उम्दा होती है उतना ही ज़्यादा एक कलाकार जनता की सृजनात्मक ऊर्जा को समझने, महसूस करने और उसे अभिव्यक्त करने में सफल होता है।

यह विचार आपके वर्ग और जनता को देखने के नज़रिये से अलग है।

आपके अनुसार लोग वो होते है जो उन्हें बनाया जाता है” और ऐसे मूर्ख मौजूद हैं जो इन शब्दों पर वाह-वाह कह उठते हैं।

आप बस थोड़ा इन्तज़ार करिये। सर्वहारा वर्ग आपकी इस धारणा को अपने तरीके से दुरुस्त कर देगा, अगर हम उसे ऐसा कह सके ओ दिव्य शक्ति के रचयि‍ता!

तब तुम्हें पता चलेगा कि इतिहास का वास्तविक विषय कौन है। तब तुम्हें पता चलेगा की कौन किसे बनाता है और तुम्हारे साथ क्या होगा और तुम्हें क्या बनाया जाता है।

कहा जाता है कि युद्ध शूरवीरों को जन्म देते हैं और पहाड़ों को खोदने पर चूहे निकलते हैं।

मगर नहीं, गोएबल्स महाशय एथेना की तरह अपने खुद के मस्तिष्क से नए जर्मनी का निर्माण करने के दावे के साथ महान राष्ट्रीय समाजवादी सिनेमा को जन्म दे सकते हैं। तुम जितना मर्जी ज़ोर लगा लो मगर  ‘राष्ट्रीय समाजवादी यथार्थवाद’ का सृजन नहीं कर सकते। दोगले झूठों के इस पुलिन्दे में उतना ही वास्तिवक सत्य और यथार्थ है जितना समाजवाद राष्ट्रीय समाजवाद में है। कामरेड स्तालिन ने इसकी सही मात्रा का अनुमान लगा कर 17वीं पार्टी कांग्रेस को सौंपी अपनी रिपोर्ट में दर्ज़ किया है।

“एक कण भी नहीं!”

फ्मैं फासीवाद के बारे में बात सामान्य तौर पर नहीं बल्कि मुख्यतः जर्मन प्रकार के फासीवाद जिसे, ग़लत तरीके से राष्ट्रीय समाजवाद का नाम दिया गया है, की ओर इंगित कर रहा हूँ। बहुत खोज और छानबीन करने पर भी इसमें से समाजवाद का एक कण भी ढूँढ पाना असम्भव है।” (स्तालिन के शब्द)

केवल सोवियत यूनियन की समाजवादी व्यवस्था ही भविष्य और वर्तमान में भव्य यथार्थवादी कला को जन्म देने की क्षमता रखती है।

आप ऐसा करने के बारे में केवल सपने देख सकते हो।

आपके लिए यह अनुमान लगाना भी मुश्किल है। आप इसे ग़लत और उल्टे तरीके से कर रहे हैं। आप ग़लत पत्तों से खेल रहे हैं और कोई भी चाल आपकी मदद नहीं करेगी। आप अपनी लयबद्ध योजना में प्रशियाई नीला रंग भरते रहो। मगर सिर्फ समाजवाद और समाजवादी प्रोग्राम के तहत ही हर तरह की कला के लिए सृजनात्मक ज़मीन तैयार की जा सकती है।

चेल्युसकिन के वीरों के वायरलेस सन्देश से हम तक यह खबर पहुँचती है कि बर्फ में फँसे और कैद होने के बाद भी 17वीं  कांग्रेस की पार्टी की सेंट्रल कमेटी के काम के बारे में रिपोर्ट से उन्हें शक्ति के भण्डार मिलते हैं जिनसे उनमें सृजनात्मकता की नयी लहर दौड़ उठती है। महीनों तक आपकी बेड़ियों में कैद किये गए कैदी और हमारे प्यारे वीर दिमित्रेव, तानेव, पोपोव बाहर की दुनिया से बिलकुल कटे हुए थे। एक खुशी का लम्हा तब था जब यह पार्थक्य थोड़े दिन के लिए टूटा जब उन तक एक अख़बार पहुँचा। उसके पन्नों पर वही रिपोर्ट थी। उस क्षण, अख़बार के कुछ छपे हुए पन्नों से कैद के उन अनेक महीनों की यातनाओं के कष्ट की भरपाई हो गयी। तानेव की रिहाई और वापसी के अगले दिन मैंने खुद उनके मुँह से सुना की अख़बार के उस पन्ने की कैदियों के लिए क्या अहमियत थी। उस ख़बर ने उनमें नयी ऊर्जा का संचार किया और निर्मम संघर्ष के प्रति एक नए अहसास को जगाया।

उन पन्नों में वह सब था जो एक ‘क्रान्ति के सिपाही’ (सोवियत नागरिक दिमित्रेव के शब्द) को एक साल पहले पता होना चाहिए था और आने वाले कई सालों के लिए भी।

उन पन्नों में वह सब था जिसे आधार बना एक ‘कला के क्षेत्र में क्रान्ति के सिपाही’ को अपने सृजनात्मक प्रोग्राम को तैयार करना है। एक वर्गहीन समाज बनाने के आखि‍री फैसलाकुन संघर्षों में इस्तेमाल करने के लिए हर तरह के वैचारिक अस्त्र- साहित्य, कला, सिनेमा की सृजनात्मक रूपरेखा उन पन्नों में हैं।

यह समाजवादी यथार्थवाद का एक बेहतरीन उदाहरण है।

यह कलात्मक सर्जना के लिए समाजवादी यथार्थवाद का सर्वोच्च मॉडल है।

यह आपके भाषणों के खोखले शब्द नहीं है।

‘ईमानदार कलात्मक सृजनात्मकता’ को उच्च स्तर की सुरक्षा का वादा करने के बाद आप उदारतापूर्वक अपने वक्तव्य में कहते है कि लेकिन मुझे ऐसी फिल्में नहीं चाहिए जो राष्ट्रीय समाजवादी जुलूस के साथ शुरू और ख़त्म होती है। राष्ट्रीय समाजवादी जुलूस आप हम पर छोड़ दीजिये वह हम आपसे बेहतर तरीके से करना जानते हैं।”

बहुत खूब कहा ! बहुत खूब !

अपना ढोल पीटना शुरू करो! ओ मुख्य ढोल पीटने वाले!

अपनी जादुई बांसुरी पर सिनेमा में राष्ट्रीय समाजवादी यथार्थवाद की धुन मत बजाना।

अपने आदर्श महान फ्रेडरिक की नकल मत उतारो और बांसुरी पर भी नहीं।

उसी यंत्र का इस्तेमाल करो जिसका उपयोग तुम्हें आता है – कुल्हाड़ी का!

और समय बर्बाद मत करो।

जल्लाद की कुल्हाड़ी से तुम्हारा सामना होने में ज़्यादा वक्त नहीं है।

अपने समय का ठीक से इस्तेमाल करो।

जलाओ अपनी किताबें।

जलाओं अपने राइख़्स्टाग।

मगर यह कल्पना मत करो कि इस सब गलाज़त पर पली नौकरशाहाना कला लोगों के दिलों में अपनी आवाज़ से ज्वाला भड़का देगी!

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-अक्‍टूबर 2015

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