यमन पर हमला अरब के शेखों और शाहों की मानवद्रोही सत्ताओं की बौखलाहट की निशानी है
आनन्द
पिछले कुछ वर्षों से मध्य-पूर्व दुनिया का सबसे अस्थिर क्षेत्र रहा है। इस क्षेत्र में साम्राज्यवाद के अन्तरविरोध सबसे घनीभूत रूप में अभिव्यक्त हो रहे हैं। जहाँ एक ओर अलग-अलग इलाकों में छोटी-बड़ी जनबग़ावतें हो रही हैं वहीं दूसरी ओर शासक वर्ग द्वारा भीषण रक्तपात को अंजाम दिया जा रहा है। हाल के वर्षों में मिस्र, लीबिया, इराक़, सीरिया और गाज़ा में छोटे-बड़े तमाम नरसंहारों के बाद अब अरब प्रायद्वीप के सबसे ग़रीब देश यमन की आम आबादी को मार्च के अन्त से ही सऊदी अरब के नेतृत्व में खाड़ी के इस्लामिक राजतंत्रों के बर्बर हमलों का सामना करना पड़ रहा है। इन हमलों मे 200 बच्चों समेत 1000 से भी ज़्यादा मौतें हो चुकी हैं जिनमें अधिकांश यमन के आम नागरिक हैं। सऊदी अरब के नेतृत्व में किये गये इन बर्बर हमलों में 4000 से ज़्यादा लोग घायल हुये हैं और 3 लाख से भी ज़्यादा लोगों को विस्थापित होना पड़ा है। यही नहीं भोजन, पानी, दवा और बिजली की ज़बर्दस्त किल्लत की वजह से यमन आज एक भीषण मानवीय संकट से गुज़र रहा है। इन हमलों में खाड़ी के शेखों और शाहों की मानवद्रोही सत्ताओं को साम्राज्यवाद के चौधरी अमेरिका की सरपरस्ती हासिल होने की वजह से संयुक्त राष्ट्र संघ भी इस भयंकर क़त्ले-आम का मूकदर्शक बना रहा।
यमन पर सऊदी हमले की पृष्ठभूमि
ग़ौरतलब है कि 2011 में ट्यूनिशिया में शुरू हुई जनबग़ावत की आग मिस्र के अलावा जिन देशों में फैली थी उनमें यमन भी शामिल था। इसके नतीजे के रूप में यमन के तत्कालीन राष्ट्रपति अली अब्दुल्ला सालेह को 2012 में गद्दी छोड़ने पर मज़बूर होना पड़ा था और उसकी जगह अब्देल रैब्बो मंसूर हादी राष्ट्रपति बना था। सालेह के खि़लाफ़ जनबग़ावत में हूथी नामक ज़ायदी शिया विद्रोही भी शामिल थे जो उत्तरी यमन के पहाड़ी इलाकों में रहने वाले एक कबीलाई समुदाय से आते हैं और अपने लड़ाकूपन के लिए विख्यात है। परन्तु सालेह के खि़लापफ़ जनविद्रोह में शामिल होने के बावजूद हूथियों को सालेह के बाद अस्तित्व में आयी नयी सरकार में कोई जगह नहीं मिली। इस वजह से पिछले साल हूथी विद्रोहियों ने मंसूर हादी की सत्ता के खि़लापफ़ भी बग़ावत का बिगुल फूँक दिया। पिछले साल के अन्त से यमन के कई प्रमुख नगरों एवं बन्दरगाहों पर हूथियों ने कब्ज़ा करना शुरू किया। इस साल जनवरी में हूथी विद्रोही यमन की राजधानी साना पहुँच गये और वहाँ के राष्ट्रपति भवन पर कब्ज़ा कर लिया जिसके बाद राष्ट्रपति हादी को अपने प्रधानमंत्री सहित इस्तीफा देना पड़ा। 6 फरवरी को हूथी विद्रोहियों ने घोषणा कर दी कि उन्होंने संसद को भंग कर दिया है और शासन-प्रशासन का काम सँभालने के लिए अपनी एक राष्ट्रपति परिषद् को नियुक्त कर दिया है। राष्ट्रपति मंसूर हादी यमन छोड़कर भाग गया है और उसने सऊदी अरब में पनाह ली है।
ग़ौरतलब है कि 1932 में इब्न सऊद द्वारा सऊदी राजतंत्र स्थापित करने और सऊदी अरब में तेल की खोज के बाद उसके अमेरिका से गँठजोड़ से पहले यमन अरब प्रायद्वीप का सबसे प्रभुत्वशाली देश था। सऊदी राजतंत्र के अस्तित्व में आने के दो वर्ष के भीतर ही सऊदी अरब व यमन में युद्ध छिड़ गया जिसके बाद 1934 में हुए ताईफ़ समझौते के तहत यमन को अपना कुछ हिस्सा सऊदी अरब को लीज़ पर देना पड़ा और यमन के मज़दूरों को सऊदी अरब में काम करने की मंजूरी मिल गई। नाज़रान, असीर, जिज़ान जैसे इलाकों की लीज़ ख़त्म होने के बावजूद सऊदी अरब ने वापस ही नहीं किया जिसको लेकर यमन में अभी तक असंतोष व्याप्त है। ग़ौरतलब है कि ये वही इलाके हैं जहाँ शेखों के निरंकुश शासन के खि़लाफ़ बग़ावत की चिंगारी भी समय-समय पर भड़कती रही हैं। यमन पर सऊदी हमले की वजह से जहाँ एक ओर यमन के भीतर राष्ट्रीय एकता की भावना पैदा हुई है वहीं सऊदी अरब के इलाकों में भी बग़ावत की चिंगारी एक बार फिर भड़कने की सम्भावना बढ़ गई है।
कौन हैं ये हूथी विद्रोही और वे इतने ताकतवर कैसे हुए?
जैसा कि ऊपर बताया गया है हूथी विद्रोही उत्तरी यमन के पहाड़ी इलाकों में रहने वाले एक कबीलाई समुदाय से आते हैं। यमन की आबादी का एक तिहाई हिस्सा ज़ायदी शिया फिरके से आता है। हूथी विद्रोही भी ज़ायदी शिया हैं। हूथी समुदाय अपने लड़ाकूपन के लिए विख्यात हैं। एक दशक से भी लम्बे समय से यमन की केन्द्रीय सत्ता से गुरिल्ला युद्ध लड़ने के अनुभव की वजह से उन्हें लड़ाकू संघर्ष में महारत हासिल है। हाल के महीनों में हूथियों की अभूतपूर्व सफलता का एक प्रमुख कारण पूर्व राष्ट्रपति अली अब्दुल्ला सालेह से उनका अवसरवादी गँठजोड़ भी है। यमन की फौज का बड़ा हिस्सा सालेह की सरपरस्ती में होने की वजह से ही इस गँठजोड़ ने राजधानी पर कब्ज़ा करके एक बड़ी क़ामयाबी हासिल की। लेकिन ग़ौर करने वाली बात यह है कि अभी कुछ ही वर्षों पहले जब सालेह यमन का राष्ट्रपति था तो उसने 2004 से 2010 के बीच कम से कम छह बार हूथियों पर फ़ौजी कार्रवाई की थी। हूथी समुदाय का संस्थापक हुसेन बद्रेदीन अल-हूथी स्वयं सालेह की सेना की कार्रवाई में ही मारा गया था। लेकिन सत्ता से बाहर होने के बाद सालेह ने अपने पूर्व विरोधियों से इसलिए हाथ मिलाया है क्योंकि वह भविष्य में अपने बेटे को यमन का राष्ट्रपति बनाना चाहता है।
हूथियों को कुछ हद तक ईरान का नैतिक और सम्भवतः सैन्य समर्थन भी प्राप्त है। इराक़, सीरिया और लेबनान में ईरान के प्रभुत्व को लेकर सऊदी अरब पहले ही चिन्तित था, हूथियों द्वारा राष्ट्रपति महल पर कब्जे़ के बाद सऊदी अरब के शेख यमन में ईरान का दबदबा बढ़ने की सम्भावना को लेकर सकते में आ गये। हाल ही में सऊदी राजा ने अपने बेटे युवराज सलमान को रक्षामन्त्री नियुक्त किया। युवराज सलमान ने रक्षामन्त्री बनते ही यमन समस्या का सैन्य समाधान करने के दुस्साहसवादी क़दम से यह संकेत दे दिया है कि सऊदी राजघराने की नयी पीढ़ी बर्बरता में अपनी पुरानी पीढ़ियों को भी मात दे रही है। परन्तु सऊदी अरब को इस सच्चाई का भी एहसास है कि केवल हवाई हमलों से वे हूथियों को नहीं परास्त कर सकते। चूँकि सऊदी अरब के पास आधुनिक थल सेना नहीं है इसलिए उसने पाकिस्तान और मिस्र जैसे देशों से सैन्य मदद की गुहार लगायी। मिस्र तो सैन्य मदद के लिए तैयार हो गया लेकिन पाकिस्तान की संसद ने सैन्य मदद से इन्कार कर दिया है। सऊदी अरब को पाकिस्तान के इस फैसले से एक बड़ा झटका लगा क्योंकि पाकिस्तान में अरबों डालर को निवेश करने एवं वहाँ प्रधानमंत्री नवाज़ शरीपफ़ को संकट की हालत में शह देने की वजह से उसे यह लगता था कि पाकिस्तान और नवाज़ शरीपफ़ सेना भेजकर अपना कर्ज़ उतारेंगे।
क्या यमन संकट के मूल में शिया-सुन्नी विवाद है?
आम तौर पर पश्चिमी मीडिया में सऊदी अरब के नेतृत्व में यमन पर हमले की जड़ इस्लाम के शिया और सुन्नी फिरकों के बीच 1300 सालों से चले आ रहे झगड़े में खोजने की क़वायदें की गयीं। यह बात सच है कि हूथी विद्रोही ज़ायदी शिया समुदाय से आते हैं और यह भी सच है कि उनको ईरान का नैतिक एवं सम्भवतः कुछ हद तक सैन्य समर्थन भी प्राप्त है, लेकिन यमन की केन्द्रीय सत्ता के खि़लापफ़ एक दशक से भी ज़्यादा समय से चले आ रहे उनके विद्रोह का शिया-सुन्नी विवाद से कुछ भी लेना-देना नहीं है। यमन में ज़ायदी शिया और सुन्नी दोनों ही समुदाय के लोग एक ही मस्जिद में नमाज़ पढ़ते हैं और उनके बीच वैवाहिक सम्बन्ध भी आम बात है। 1967 में यमन के गृहयुद्ध के बाद दक्षिण यमन में वामपंथी सरकार बनने की वजह से भी यमन में ऐतिहासिक रूप से फिरकापरस्ती का माहौल नहीं रहा है। यमन के मौजूदा संकट की जड़ में साम्राज्यवाद की सरपरस्ती में वहाँ के शासकों द्वारा लागू की गई नवउदारवादी नीतियाँ हैं। इन नीतियों की वजह से यमन की अर्थव्यवस्था तबाह हो गई, ग़रीबी, भुखमरी व बेरोज़गारी अपने चरम पर पहुँच गयी। पानी की ज़बर्दस्त किल्लत से पहले से ही जूझ रहे यमन में नवउदारवाद की नीतियों ने एक भयंकर कृषिसंकट पैदा किया है जिसकी वजह से बहुत बड़ी संख्या में किसान आबादी तबाह और बर्बाद हुई है। यही वे परिस्थितियाँ थीं जिनमें 2011 में अरब जगत के जनविद्रोह की आग ट्यूनिशिया और मिस्र से होते हुए यमन तक पहुँचीं। जहाँ एक ओर नवउदारवादी नीतियों ने यमन की अर्थव्यवस्था को तबाह किया वहीं दूसरी ओर वहाँ हथियारों के सौदागर साम्राज्यवादी लुटेरों ने बड़ी संख्या में एके-47, मिसाइल और टैंकों की सप्लाई कर यमन के बाज़ार को हथियारों से पाट दिया। हथियारों के काले बाज़ार के ज़रिये ये हथियार हूथी विद्रोहियों के पास पहुँच गये जिसकी वजह से उनकी मारक क्षमता बढ़ी।
यमन पर हमले के निहितार्थ
कहते हैं कि जब गीदड़ की मौत आती है तो वह शहर की ओर भागता है। अरब के शेखों और शाहों के साथ भी ऐसा ही कुछ हो रहा है। इन शेखों और शाहों का अच्छी तरह पता है कि उनके निरंकुश शासन के दिन अब पूरे हो चले हैं और उनकी तानाशाहाना इस्लामी राजतन्त्र को इतिहास के कूड़ेदान में फेंका जायेगा। यह बस समय की बात है। यही वजह है कि वे अपने अस्तित्व के संकट से बौखलाये हुए हैं। यमन पर हमला उनकी बौखलाहट की ही निशानी है। लगभग एक महीने की हवाई बमबारी से यमन में मौत का ताण्डव रचने के बाद 21 अप्रैल को अरब के राजशाही गँठजोड़ ने अचानक ‘ऑपरेशन डिसाइसिव स्टॉर्म’ को वापस लेते हुए फर्ज़ी जीत की घोषणा की और सैन्य अभियान की बजाय एक नया राजनीतिक अभियान ‘ऑपरेशन रिस्टोरिंग होप’ शुरू करने का ऐलान किया। उनके जीत के दावे इसलिए फर्ज़ी हैं क्योंकि इन हमलों से न तो वे हूथियों को पीछे ढकेलने में और न ही मंसूर हादी को फिर से सत्ता में लाने में कामयाब हो सके। पाकिस्तान की संसद द्वारा सेना भेजने से मनाही करने के बाद अरब के शेखों की उम्मीद पर पानी फिर गया है और अब वे अपने ही बुने कुचक्र से निकलने के लिए राजनीतिक समाधान की बात कर रहे हैं।
हूथी विद्रोहियों के अलावा अल-कायदा की भी एक शाखा (अल-कायदा इन अरब पेनिनसुला) के लड़ाके भी यमन के कुछ हिस्सों पर अपना क़ब्ज़ा तेज़ी से बढ़ा रहे हैं। हालाँकि अल-कायदा अरब के इस्लामिक राजतंत्र और अमेरिकी साम्राज्यवाद के गँठजोड़ की ही पैदाइश है लेकिन अब जब वह भस्मासुर की तरह अपने आका पर ही हमले करने लगा है तो यह गठजोड़ उस पर नकेल कसना चाह रहा है। सऊदी अरब के नेतृत्व में यमन पर हमले के दौरान सऊदी अरब ने अपना ध्यान अल-कायदा से हटाकर हूथियों पर केन्द्रित किया जिसका लाभ उठाकर अल-कायदा के लड़ाकों ने दक्षिणी यमन के प्रमुख बन्दरगाह शहर मुकल्ला पर कब्ज़ा कर लिया है और कई अन्य इलाकों में भी अपनी पैठ मजबूत की है। इस प्रकार यमन पर हमले से सऊदी अरब हूथियों को कमज़ोर करने में विफल रहा, उल्टे अल-कायदा को भी अपनी ताक़त बढ़ाने का मौका मिल गया। उधर इराक़ और सीरिया में इस्लामिक स्टेट अपना कहर जारी रखे हुए है।
मध्य-पूर्व के क्षेत्र में हाल के घटनाक्रम इस ओर इशारा कर रहे हैं कि आने वाले दिनों में साम्राज्यवाद के अन्तरविरोध इस समूचे क्षेत्र में ज़बर्दस्त हिंसा का ताण्डव रचेंगे जिनमें बहुत बड़े पैमाने पर आम ज़िन्दगियाँ तबाह और बर्बाद होंगी। लेकिन यह अस्थिरता इस बात की ओर भी स्पष्ट संकेत दे रही है कि अरब के शेखों और शाहों की निरंकुश सत्ताओं की नींव उखड़ने लगी है और अपने अस्तित्व को बचाने के लिए वे बदहवासी में आकर समूचे अरब को हिंसा की आग में झोंक रहे हैं। लेकिन उनकी यह बौखलाहट उनकी सत्ता को और भी ज़्यादा कमज़ोर करके जनबग़ावत का आधार मज़बूत कर रही है और इन तानाशाही राजतंत्रों का ख़ात्मा अब बस समय की बात है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-अक्टूबर 2015
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